जशोदाबेन की चिट्ठी

प्रातःस्मरणीय प्रभु जी ,

समझ नहीं पा रही , बात कहाँ से शुरू करूं और अपनी भावनाओं को किन शब्दों में उतारूं . तुम भारतवर्ष के प्रधानमंत्री हो -भारत भाग्य विधाता – और मैं अपने मायके में पड़ी वह भाग्यवती जशोदाबेन , जिसका नाम तुमने अपने चुनाव उद्घोषणा में जीवनसाथी वाले कॉलम में दर्ज कर दिया. तुम्हारी वाह-वाही हुई और मेरी चर्चा. मुझसे सवाल पूछे जाने लगे , तस्वीरें ली जाने लगीं . सिपाही –संतरी आगे –पीछे हो लिए .

मेरे प्रशांत जीवन में हलचल की लकीरें उठने लगी और फिर मिल –मिलाकर एक कोलाहल से मैं घिर गई. मेरी प्रशांतता, अकेलापन रौंद डाला गया; और सच कहूं , अब तो उसकी भी स्मृतियाँ ही शेष हैं. बहुत विवश होकर, गहरे अवसाद में , आज मैंने कलम उठाई है और जब लिख रही हूँ, तब यह संकोच भी है कि कहीं मेरा यह पत्र तुम्हारे महान दायित्वों में कुछ खलल तो नहीं डाल जायेगा, जो मैं बिलकुल नहीं चाहती.
लेकिन ऐसे ही मन में एक विचार उमड़ा….. कि मैं भारत की एक नागरिक भी तो हूँ . और न सही किसी विशिष्ट अधिकार से , अपनी साधारणता के अधिकार से भी मुल्क के आका को , एक पत्र तो लिख ही सकती हूँ . तुम चाहे जिस रूप में इसे स्वीकारो – न स्वीकारो , अब शायद लिखे बिना मैं नहीं रह सकती.
मेरे प्रभु , तुम शायद जानना चाहोगे कि मैं कैसी हूँ . मैं कैसे कहूं कि सुख से हूँ और फिर अपने को दुःखी भी कैसे कहूं . क्या मेरा दुःख सचमुच दुःख जैसा है ? और जो मैं जी रही हूँ उसे सुख कहा जाना चाहिए ? कहा न ! मन बहुत चंचल है और तय नहीं कर पा रही हूँ, सबकुछ किस अनुक्रम में रखूँ .

आज जब मॉनसून के बादलों ने दस्तक दी , तब मेरी बूढ़ी काया में किशोरवय की स्मृतियाँ कौंधीं. इन स्मृतियों के साथ तुम भी सकुचाये-से आये. कुछ क्षण के लिए मैं सचमुच दुल्हन बन गई. गड्ड-मड्ड स्मृतियों के बीच तुम एक अल्हड किशोर के रूप में अब भी बैठे हो –इन स्मृतियों को मैंने अपने  मन के खूंट में बाँध लिया है- कोई अपराध तो नहीं किया है न प्रभु ! चलो, यदि जो अपराध भी किया है , और करती हूँ तो इतने भर की इजाजत कृपा कर मुझे दे दो . देते हो न !

एक चीज पूछूं ? मैंने हजार बार इसपर सोचा है . हर सोच पर सिहर कर रह जाती रही हूँ. सच कहना, तुम जब चुनाव कागजातों में मेरा नाम दर्ज कर रहे थे , तब अक्षरों के साथ तेरे मन में मेरी कोई तस्वीर भी खिची थी ? मैंने पहले टी वी चैनलों, और फिर अखबारों में तुम्हारे हस्तलेख में अपना नाम देखा-जशोदाबेन . मैं फूट कर रोई . रुलाई की हिचकियाँ रुक ही नहीं रही थीं. वह शायद सुख की रुलाई थी , आंसू भी सुख के थे . समझते हो न, सुख के आंसुओं के अर्थ ! पास होते तो बतला सकती थी , इन सब का मर्म . लेकिन तुम तो दूर दिल्ली के ‘ राजमहल’ में पता नहीं किन –किन चीजों के संधान में जुटे हो और मैं यहाँ अकेली , केवल तेरी स्मृतियों में डूबी हूँ.

मुझे आज भी याद है, तुम्हारा संवाद , जिसे तुमने एक अल्हड दुल्हन को सुनाया था – ‘ मैं देश के लिए , समाज के लिए बना हूँ . और कि तुम पढ़ो.’ मैंने अपनी पढाई जारी राखी . मिहनत करके शिक्षिका बनी और अध्यापन को ही व्यसन बनाया. तुम देश गढ़ते रहे , मैं समाज . मुझे हमेशा प्रतीत हुआ तुम्हारे भीतर एक बुद्ध , एक गांधी बैठा है . तुम व्याकुल भारत हो . मैंने तुम पर गुमान किया . तुम्हारे राह का रोड़ा नहीं बनूँ, ऐसा तय किया. सोचती थी , एक दिन तुम सारे भारत पर छा जाओगे . मेरा सपना साकार हुआ. तुम सचमुच सारे भारत पर छा गये और छाने के साथ जब पहली दफा अपने कर कमलों से मेरा नाम लिख सके तो मुझे यकीन हो सका कि मेरी तपस्या व्यर्थ नहीं गई . तुम सचमुच बुद्ध बन गये, गांधी बन गये.

मैंने अंतरमन से तुम्हें आशीष दिया , तुम्हारी सफलता के लिए मनौतियाँ की. नंगे पाँव तीरथ-तप किये , जो भी मुझसे संभव हुआ , किया. और तभी मेरे मन में यशोधरा और कस्तूरबा का ध्यान आया. पढ़ा था कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बुद्ध कपिलवस्तु गये- यशोधरा से वहां जाकर मिले , जहां उसे छोड़ गये थे . मैं दिन गिनती रही कि तुम एक रोज मुझसे मिलने आओगे और शायद अब उस तरह रहने का प्रस्ताव दोगे, जैसे बापू के साथ बा रहती थीं… लेकिन तुम क्यों आने जाओ. न तुम से बुद्ध बनना संभव हुआ , न गांधी. तुम पता नहीं क्या के क्या बन गये. मैं हताश होकर रह गई. यही समझा कि तुम बोलते चाहे जो हो , हम स्त्रियों को नरक का खान के अलावे कुछ नहीं समझते. तुम्हारी शिक्षा और दीक्षा यही बताती रही है कि स्त्री का पवित्रतम रूप माँ का रूप है . अपनी माँ के प्रति तुम्हारे प्यार की मैं सराहना करती हूँ . लेकिन मेरे प्रभु तुम हम स्त्रियों को क्या सन्देश देना चाहते हो ? एक माँ, पहले पत्नी होती है और उसके भी पहले एक पुत्री . लेकिन तुमने मुझे अहल्या की तरह स्थिर कर दिया , पत्थर बना दिया. मैं जान ही न सकी कि मेरा अपराध क्या था .

प्रभु !  मैंने भी संस्कृति का थोड़ा अध्ययन किया है . हमारे यहाँ स्त्रियाँ उर्वरता और संपन्नता की प्रतीक मानी गई हैं . हमारे मनीषियों ने भारत वर्ष को जब भारत माता बनाया, जिसके जय करने में तुम्हारे दोनो हाथ बड़ी फूर्ती से उठते हैं और तुम भावनाओं से भर जाते हो , तब उस समय भारत माता को महाउर्वरा शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा –महाजननी  के रूप में देखा , लेकिन तुमने मुझे अवरोध के अलावे कभी कुछ नहीं समझा. अब भी यही समझते हो .

सुना था , या कहीं पढ़ा था, उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा संकुचित विचारों का उद्धारक होता है . लेकिन तुमने उतरदायित्व से कुछ नहीं सीखा. हठी बने रहे. सुना है ऐसे हठी लोगों को जनता पसंद करती है और तेरा वोट बढ़ता  है . यदि अपने वोट के लिए तूने मेरा इस्तेमाल किया है तो भी मैं , खुश होना चाहूंगी. तुम्हारे कुछ काम आ सकी , यह मेरे लिए गर्व की बात होगी. क्या सचमुच ऐसा है ? इस बात की तस्दीक कर सको , तो मुझे अच्छा लगेगा.

मेरे प्रभु, मेरा मन वाकई अभी बहुत व्याकुल है और जैसे केले के हर पात के पीछे एक पात होता है , वैसे ही मेरी हर बात के पीछे के एक बात है . कितनी चीजों को लिखूं . बातें उलझ –पुलझ जा रही हैं . तारतम्य में रखना संभव नहीं हो पा रहा है … अब जैसे तो – जब टी वी पर तुझे झाडू चलाते देखा तब सोचा काश , तुम्हारे साथ होती और राधा जैसे कान्हा के कान उमेठती थीं , तेरे कान उमेठ कर ठीक से झाडू पकड़ने का पाठ देती. लेकिन यह सब मेरा सपना है प्रभु ! तुम बुद्ध नहीं हो , तुम कृष्ण नहीं हो, गांधी नहीं हो , तुम केवल तुम हो और इससे  तुम तनिक सा भी इधर या उधर नहीं होना चाहते.

लेकिन यदि इसे ही स्थितप्रज्ञ होना समझते हो , तब जोड़ देकर कहना चाहूंगी, तुम गलती पर हो . स्थितप्रज्ञता जड़ता नहीं है प्रभु, वहां सातत्य है , नैरन्तर्य है , प्रवणता यानी नित –नवीनता है –जैसे नर्मदा के प्रवाह में गति है , वैसी गति है . स्थितप्रज्ञता हमें आगे ले जाती है , पीछे नहीं ले जाती. तुम तो स्वयं बड़े जानकार हो , तुम्हें क्या बतलाना. लेकिन तुम तो जानते हो , जिन्दगी भर अध्यापकी की है , तो नसीहत देने की एक आदत बन गई है . इसका बुरा नहीं मानना .

तुम्हारे भाषणों को टी वी पर ही सही , गौर से सुनाती हूँ . तो यही समझा है कि भारत को संपन्न बनाना चाहते हो. सोने का –स्वर्णिम भारत बनाना चाहते हो . लेकिन अपनी पौराणिकता से क्या कुछ भी नहीं समझना चाहोगे प्रभु ! पौराणिक लंका सोने की थी – स्वर्णिम लंका. और तुझे कैसे समझाऊं कि ऐसी लंकायें उत्कर्ष का नहीं , अपकर्ष का प्रतीक बनाती हैं . यह विकास का तुम्हारा अपना राग हो सकता है , तुम्हारी अपनी व्याख्या हो सकती है , लेकिन हमारी संस्कृति ने अनुमोदन नहीं किया है . पूरा पश्चिमी जगत, आज भौतिक उपलब्धियों से भरा है और  वास्तविक रूप में सबसे दुःखी हुई.  वर्चस्व और संपन्नता हमारे गर्व- गुमान और विलासिता तो बढ़ा सकता है , हमें सुखी नहीं रख सकता. सुख के कुछ मन्त्रों का सृजन मैंने भी किया है . प्रभु, कभी पूछा मुझसे, जो बताऊँ ? तुम तो कस्तूरी मृग की भांति वन –वन दौड़ रहे हो. कस्तूरी तो तुम्हारे पास है.
चलो सबकुछ एक ही पत्र में उड़ेल देना अच्छी बात नहीं . तुमने पत्र की पावती यदि भेजी तब फिर लिखूँगी. लेकिन चलते –चलते एक चीज पर और ध्यान दिलाना चाहूंगी. वह यह कि हो सके तो अपने धज पर थोड़ा ध्यान देना. तुम तो इतने सादगी पसंद थे . तुम्हारे उस अधकट्टे कुरते की क्या शान थी ! लेकिन इधर तो तुमने पता नहीं कहाँ –कहाँ का ड्रेस डिजाइन धारण कर लिया है . ऐसे डिजाइनदार पोशाकों में एक जादूगर की-सी शक्ल बनती है तुम्हारी. तनिक भी अच्छा नहीं लगता मुझे. टी वी वालों की वाह –वाही पर मत जाओ . वे सब मिल –मिलाकर तुम्हारा मजाक बना रहे हैं. खुद तय करो कि तुझे क्या करना है, क्या खाना है , क्या पहनना है.
तुम्हारे ख़त का इन्तजार करूंगी . ट्विटर मेसेज मत करना. मैं पुरानी दुनिया की प्राणी हूँ . तुम्हारी तरह हाई –टेक नहीं !
तुम्हारी
ज …..
नोट : यह एक काल्पनिक पत्र है .

(लेखक प्रेमकुमार मणि चर्चित साहित्यकार एवं राजनीतिक विचारक हैं. अपने स्पष्ट राजनीतिक स्टैंड के लिए जाने जाते हैं.)

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ISSN 2394-093X
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