मूल रुप से असम की रहने वाली कल्पना पटोवारी, बिहार और उत्तरप्रदेश के लोगों के दिलों में वर्ष २००० में अपना जगह बना चुकी थीं। उन दिनों भोजपुरी फ़िल्म उद्योग जीर्णोद्धार के दौर से गुजर रहा था। नवउदारवादी नीतियों के कारण भोजपुरी फिल्म उद्योग के प्रति कारपोरेट कंपनियों का आकर्षण बढ़ रहा था। उन्हें इसमें अकूत धन कमाने की संभावनाएं नज़र आ रहीं थीं। लेकिन अनुकूल साहित्यिक हस्तक्षेप न होने के कारण, भोजपुरी फिल्मों का स्तर गिर रहा था और द्विअर्थी गीतों की भरमार थी लेकिन फिर भी भोजपुरी इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री नित नये रिकार्ड बना रही थी।
कल्पना ने उसी दौर में भोजपुरी फिल्म उद्योग में प्रवेश किया। कल्पना बताती हैं कि जब वे असम छोड़कर संगीत के क्षेत्र में करियर बनाने मुंबई आयीं, तब उनके पास सिवाय उनकी आवाज के कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उन्हें अंग्रेजी और असमिया के अलावा कोई और भाषा भी नहीं आती थी। अपने पहले भोजपुरी गीत का जिक्र करते हुए वे बताती हैं कि उस गीत के बोल थे – “डाल, डाल ए राजा…अपन पिचकारी से हमरा रंग डाल”। “यह पन्द्रह साल पहले की बात है। जब मैं इस गीत की रिकार्डिंग कर रही थी तब मुझे लगा कि पिचकारी, होली पर रंग खेलने के लिये इस्तेमाल की जाती है। लेकिन बाद में, जब भोजपुरी समझना शुरू किया तब पता चला कि इस गीत में पिचकारी का एक और (अश्लील) अर्थ है।
भूपेन हजारिका और भिखारी ठाकुर
कल्पना बताती हैं कि उन्होंने भूपेन हजारिका को सुनकर संगीत की शिक्षा ली। हजारिका एक विद्रोही कलाकार थे। उन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी कोई समझौता नहीं किया। सामाजिक बुराइयों को मिटने के लिये उन्होंने संगीत को माध्यम बनाया। भिखारी ठाकुर ने भी बिहार में अपनी लेखनी के जरिये यही किया था। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर कड़ा प्रहार किया। यह भूपेन हजारिका और भिखारी ठाकुर में सबसे बड़ी समानता थी। कल्पना कहती हैं कि कुछ साल पहले, जब उनके एलबम “लीगेसी ऑफ़ भिखारी ठाकुर” को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लांच किया किया गया था, उस समय गूगल के पास भिखारी ठाकुर के संबंध में बहुत सीमित जानकारियां थीं। लेकिन अब भिखारी ठाकुर गूगल करने पर, सर्च इंजन ढेर सारी लिंक बता देता है। कल्पना बताती हैं कि कैसे उन्होंने भिखारी ठाकुर और उनकी रचनाओं को बिहार के सामाजिक और जातिगत पूर्वाग्रहों से बाहर निकाला। उनके मुताबिक, जब वे भिखारी ठाकुर पर शोध कर रही थीं तब उनके पास कई लोग आये, जिनका कहना था कि भिखारी ठाकुर बहुत स्तरहीन लेखक थे। कईयों ने विद्यापति और महेंद्र मिश्र पर ध्यान केंद्रित करने की बात कही। लेकिन तब ‘’मैं बिहार के सामाजिक जीवन की सच्चाई समझ चुकी थी। मुझे यह समझ में आ गया था कि भिखारी ठाकुर की उपेक्षा किन वजहों से की गयी। मैंने अपना ध्यान भिखारी ठाकुर पर केंद्रित रखा। मेरे लिये उनका संघर्ष भूपेन हजारिका के संघर्ष जैसा था। मसलन, “गंगा तू बहती है क्यों…” गीत में भूपेन हजारिका गंगा के बहाने समाज से सवाल करते हैं। वे केवल गंगा के प्रदूषण की बात नहीं करते बल्कि नवउदारवादी पूंजीवाद के खतरों, सामाजिक तानेबाने और राजनीति पर भी सवाल उठाते हैं। यही प्रयोग भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक गंगा स्नान में किया था। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक बुराइयों पर निर्भयतापूर्वक करारा प्रहार किया था। भिखारी ठाकुर ने अपनी हर रचना में समाज को संदेश देने का प्रयास किया। मसलन, गबरघिचोर नाटक में उन्होंने स्त्री अस्मिता और उसके अधिकारों की बात कही – जो उस समय तो छोड़िये, आज भी महिलाओं को उपलब्ध नहीं हैं। वहीं विदेसिया में भिखारी ठाकुर ने पलायन के दर्द को उकेरा। यह उनकी रचनाओं का सिर्फ़ केवल पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि भिखारी टाकुर ने परंपरागत गीत-संगीत, जिस पर भद्रजनों का कब्जा था, को नकारते हुए अपनी शैली विकसित की। उनके इस प्रयास को तब के भद्रजनों ने “’लौंड़ा नाच’” कहा। इससे भी भिखारी ठाकुर के सामाजिक संघर्ष को समझा जा सकता है।‘’
ग्लोबल हुई परम्परा
कल्पना ने बताया कि उनका उद्देश्य भिखारी ठाकुर के उन ख्वाबों को पूरा करना है, जो उन्होंने भोजपुरी-भाषियों के समग्र कल्याण के वास्ते देखे थे। संगीत को उन्होंने अपना माध्यम बनाया था। वे कहती हैं कि, ‘भोजपुरी ने मुझे पहचान दी, इस कारण भी भोजपुरी को समृद्ध करना मेरी जिम्मेवारी है।’ । हाल में एमटीवी के एक कार्यक्रम में बिरहा को आधुनिक संगीत के साथ जोड़कर की गयी प्रस्तुति के बाद दक्षिण अफ़्रीका के एक म्यूजिकल ग्रुप ने उनसे संपर्क किया है। कल्पना ने बताया कि दक्षिण अफ़्रीका में गिरमिटिया मजदूर के रुप में गये भारतीय मूल के लोगों ने अपने जड़ों की पहचान के लिये बिरहा को अपनाया है। गुयाना में भी भिखारी ठाकुर की रचनायें अब किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। कल्पना ने बताया कि अभी हाल ही में उन्हें एस-एच 97 बकार्डी म्यूजिकल कार्यक्रम में शिरकत करने का आफ़र मिला है, जिसमें वे एआर रहमान और विश्वस्तरीय म्यूजिकल ग्रुप यामी के साथ मिलकर बिरहा और भिखारी ठाकुर के लौंडा नाच को पूरे देश में पेश करेंगी।
कल्पना का मानना है कि भिखारी ठाकुर को केवल हज्जाम (पिछड़ा वर्ग) होने का अभिशाप झेलना पड़ा। यह सोच का विषय है कि क्या किसी कलाकार की कला को उसकी जाति और धर्म आदि के तराजू पर तौलकर देखा जाना चाहिए। कल्पना कहती हैं कि भूपेन हजारिका और भिखारी ठाकुर जैसे कलाकार अपने वक्त से बहुत आगे थे। अपनी एक रचना में भिखारी ठाकुर स्वयं कहते हैं कि सौ साल बाद लोग फ़िर से उन्हें जानेंगे और मानेंगे। उनका कहा आज सच हो रहा है।
फॉरवर्ड प्रेस से साभार