ग्रामीण महिलाओं के श्रम का राजनीतिक अर्थशास्त्र

आकांक्षा

 महात्मा  गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग में शोधरत।
संपर्क : ई मेल-akanksha3105@gmail.com

महिला श्रम की बात करते समय हमारे मस्तिष्क में जो विचार सबसे पहले आता है वह यह कि महिलाओं के द्वारा घर के भीतर किया जाने वाला काम यानी घरेलू श्रम. कोई भी शब्द अपने पीछे वे मूल्य और संस्कृतियां लिए हुए होता है जिनमें उसका निर्माण हुआ रहता है. यही कारण है कि ‘घरेलू’ शब्द अपने आप में हमेशा से यही अर्थ लिए हुए है कि इसका संबंध केवल और केवल महिलाओं से है और इससे जुड़े सारे कामों का जिम्मा महिलाओं पर है. आम तौर पर महिलाएं खुद को मां और गृहणी के रूप में देखती हैं न कि एक वेतनभोगी के रूप में. चूंकि, इस आलेख में राजनीतिक अर्थशास्त्र जैसे जटिल अवधारणाओं को ध्यान में रखते हुए महिला  श्रम की बात की गयी है इसलिए राजनीतिक अर्थशास्त्र के सैद्धांतिक पहलूओं पर भी संक्षिप्त रूप में चर्चा करना आवश्यक हो जाता है. ऐसे तो राजनीतिक अर्थशास्त्र जिसे कि १८ वीं शताब्दी में राज्य के अर्थतंत्र के अध्ययन के उद्देश्य शुरू किया गया था, एक बड़ी अवधारणा है पर संक्षेप में इस अवधारणा को इस रूप में समझा जा सकता है कि, ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ समाज में राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के बंटवारे की जानकारी देने के साथ-साथ यह भी बताता है कि इस तरह का वितरण, विकास एवं अन्य नीतियों पर किस तरह का प्रभाव डालता है.’ इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ मूलत: उत्पादन एवं व्यापार का विधि, प्रथा, सरकार आदि से संबद्ध और राष्ट्रीय आय एवं संपदा के वितरण का अध्ययन है.

 नैतिक दर्शन से इस आवधारणा की उत्पति  मानी जाती है. पहली बार एक फ्रांसीसी विद्वान मोंक्रेतीन द वातविते ने ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ नामक शब्दावली का प्रयोग किया. इस समय तक आमतौर पर प्राचीन यूनानियों के अनुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र सिर्फ घरेलू-खर्च तक ही सीमित होता था पर, मोंक्रेतीन ने इसे राजनीति से भी जोड़ा. एडम स्मिथ ने ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ का आशय यह बताया कि ‘जनता को जीवनयापन के लिए पर्याप्त आमदनी उपलब्ध कराने का प्रावधान करना एवं सरकार के लिए उतने राजस्व का इंतजाम करना जिससे सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके.’ कार्ल-मार्क्स और जे.एस. मिल. ने इसे और भी व्यापक अर्थ दिया और  मूल्य, व्यापार, धन, आबादी, आर्थिक प्रणाली इत्यादि को ध्यान में रखते हुए ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ की व्याख्या की. घरेलू श्रम महिलाओं और पुरुषों के बीच असमान शक्ति-संबंधों का भौतिक आधार है. किसी भी राज्य के राजनीतिक अर्थशास्त्र में महिलाओं की दोयम दर्जे  की स्थिति को समझने के क्रम में घरेलू श्रम एक बहुत ही जटिल और चुनौतीपूर्ण अवधारणा है.  भारतीय मध्यवर्ग में घरेलू महिला की अवधारणा का उदय एक ऐतिहासिक निर्मिति है जिसे ब्रिटिशकालीन विचारधारा की उपज के रूप में देखना चाहिए. आगे चलकर यह भारतीय सभ्यता को संरक्षित करने के क्रम में और मजबूती से उभरकर आया.

यह सर्वविदित है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. कृषि का संबंध सीधे तौर पर गांवों से और उसमें काम कर रहे लोगों से. लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रश्न यहां यह है कि यदि देश की अर्थव्यवस्था का संबंध गांव और उसमें रह रहे लोगों से है तो यहाँ काम करने वाले लोगों को (खासकर महिलाओं को) इस अर्थव्यवस्था के ‘अर्थ’ में कितना हिस्सा मिलता है और वे सीधे तौर पर इससे कितना जुड़े होते हैं ?
ग्रामीण इलाकों में मुख्य काम खेती को ही माना जाता है लेकिन इस खेती के काम के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं द्वारा किए जाने वाले घरेलू श्रम की भी खेती के कार्यों के लिए आवश्यकता होती है. इस आधार पर महिलाओं का घरेलू श्रम भी कहीं न कहीं ‘अर्थ’ को पैदा करने में भूमिका अदा कर रहा है. अब दूसरा सवाल यहां फिर आता है कि क्या इस घरेलू श्रम का महिलाओं को कोई अलग से मूल्य मिलता है ?  नहीं, दरअसल ग्रामीण महिलाओं के घरेलू श्रम को नजरअंदाज़ करते हुए ‘अर्थ’ पैदा करने वाले कामों की श्रेणी में नहीं रखा जाता, जबकि बिना इसके खेती करना असंभव सा है. इस आलेख में  उदाहरण के तौर पर पंजाब में निवास कर रही प्रवासी ग्रामीण कृषक महिला एवं उनके श्रम की बात की गई है.

पंजाब भारत का कृषि-प्रधान राज्य है और यहां आज भी बहुत सारे लोग कृषि कार्य में लगे हैं. यहां धान, गेहूं और मक्के की खेती बड़े पैमाने पर होती है. यह कहा जा सकता है कि पंजाब बहुत सारे लोगों के रोजगार का स्रोत भी है. बहुतायत संख्या में स्थानीय लोगों के पलायन कर जाने के बाबजूद भी पंजाब में बहुत सारे ऐसे परिवार हैं जो कि कृषि पर ही निर्भर हैं. भूमंडलीकरण एवं औद्योगीकीकरण की इस अंधे दौर में पंजाब के अधिकांश निवासी अन्य दूसरे-दूसरे कार्य में रुचि लेने लगे. पंजाब में कृषि-कार्य संभालने के लिए अतिरिक्त मजदूरों की आवश्यक्ता पड़ी. भूमंडलीकरण एवं औद्योगिकीकरण का प्रभाव अन्य राज्यों जैसे, बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश इत्यादि राज्यों पर भी पड़ा. बेरोजगारी इन राज्यों की बहुत ही गंभीर समस्याओं में से एक है. बढती बेरोजगारी की वजह से रोजगार की तलाश में लोग दूसरे स्थान पर पलायन करने लगे. फलत:, इन राज्यों से बड़े पैमाने पर लड़कियां और महिलाएं भी पंजाब और दिल्ली की तरफ भी रवाना हुईं और कृषि कार्य में लगी. स्थानीय निवासियों से बातचीत के दौरान यह तथ्य सामने आया कि अधिकांश महिलाएं कुछ समय बाद अपने गृह राज्य में वापस चली आती हैं, लेकिन हाल के वर्षों में एक नया परिवर्तन आया है.

अन्य राज्यों से रोजगार की तलाश में पंजाब में जाने वाली महिलाओं में से कुछ महिलाओं/लड़कियों के साथ वहां के किसान शादी कर लेते हैं. स्थानीय किसान शादी तो कर लेते हैं लेकिन, प्रवासी विवाहित महिला की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता. शादी के बाद पत्नी का दर्जा तो दूर उसकी स्थिति एक काम करनेवाली मशीन जैसी हो जाती है, साथ ही उसका नाम भी बदल दिया जाता है और उसके रहने के लिए घर के ही किसी कोने में जगह दे दी जाती है. वे महिलाएं जो सिर्फ खेती का काम करती हैं और कुछ समय बाद अपने घर वापस आ जाती हैं . उन्हें तो पर्याप्त मूल्य नहीं मिलने के बाबजूद अत्याधिक श्रम करना ही होता है. इन्हें कई घंटो तक लगातार खेतों में ही काम करना पड़ता है. जैसे, धान की रोपाई करने के लिए कई घंटों तक लगातार पानी में झुककर खड़ा रहना, फसल के बीच उगे खर-पतवार एवं गंदगी को साफ करना, कटाई, मंड़ाई इत्यादि. इसी प्रकार, मक्के, गेहूं तथा अन्य फसलों की खेती में भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. पर, ऐसी महिलाएं जिनसे पंजाब के किसान विवाह कर लेते हैं उनकी स्थिति और भी बदतर हो जाती है. नाम बदलने के बाद उसका अस्तित्व तो खत्म ही हो जाता है. उसे न तो पर्याप्त भोजन मिलता और न ही पीने योग्य साफ पानी. स्वास्थ्य और अन्य सुविधाएं तो बिल्कुल ही नहीं मिलती.

शादी के बाद खेती के कामों के अतिरिक्त घर के कामों का बोझ भी उसपर आ जाता है वह भी बिना किसी वेतन के. इन महिलाओं को सुबह से देर रात तक कड़ी मेहनत करनी होती है. जैसे, घर का खाना बनाना, जानवरों की देखभाल करना, चारा लाना, गोबर-पाथना, दूध-दूहना, खेतों पर जाकर काम करना, फसल की सफाई, धुलाई. इसके अलावा अन्य कार्य जो कि फसल के खेत से आने के बाद घर के अंदर करना होता है. जैसे, फसल को सुरक्षित स्थान पर रखना, किटाणु से बचाव एवं फसल के गुणवत्ता को बनाये रखने के लिए समय-समय पर उसमें धुप एवं हवा लगाना इत्यादि. काम की स्थितियों के बाद दूसरा मसला राजनीतिक अर्थशास्त्र का भी है. मजदूर महिलाओं पर ही अधिकांशत: परिवार का अर्थशास्त्र टिका होता है. एक महिला जब रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों मे प्रवास करती है तब वह अपने और अपने परिवार की आय आपूर्ति का एक साधन भी होती है. अविवाहित लड़कियों के साथ भी यही स्थिती है. उसके सारे आय पर उसके मायके वालों का अधिकार होता है पर, जैसे ही लड़की का विवाह हो जाता है उसके आय पर ससुराल वालों का अधिकार हो जाता है. हां, इतना जरुर है कि किसी लड़की की शादी के बाद उसका अपना परिवार या मायके वाले उसपर होने वाले खर्च से मुक्त हो जाते हैं.

ऐसी प्रवासी महिलाएं/लड़कियां जो कि पंजाब के किसान से विवाह करती हैं वे अत्याधिक गरीब परिवार की होती हैं. उसके परिवार के लिए दोनों समय खाना मिल पाना भी असंभव होता है. ऐसी स्थिती में लड़कियों के विवाह का खर्च उठा पाने में उसके परिवार वाले असमर्थ होते हैं. एक निश्चित उम्र के बाद भारतीय समाज में लड़की का अविवाहित रहना स्वीकार्य नहीं होता. ऐसे में लड़की के घरवालों को इस विवाह से कोई ऐतराज नहीं होता है. क्योंकि, इस तरह के विवाह से लड़की का परिवार उसके विवाह में होने वाले खर्च और लड़की के व्यक्तिगत खर्च दोनों से मुक्त हो जाता है. किसान के परिवार में ऐसी लड़की जाने से किसान को हर तरह से लाभ पहुंचता है.  पहला, उसे खेती के कामों के लिए बिना कोई मजदूरी भुगतान किए हर समय उपलब्ध एक मजदूर मिल जाता है.  दूसरा, पत्नी बनने के बाद घरेलू कार्यों को करना उस महिला की जिम्मेदारी और कर्तव्य बन जाता है. तीसरा, उस महिला की सेक्शुअलिटी पूरी तरह से उसके नियंत्रण में आ जाती है.

मार्क्सवादी नारीवादी व्याख्या के अनुसार यदि हम उक्त परिस्थितियों का आंकलन करें तो, महिला किसान के लिए सरप्लस वैल्यू उत्पन्न भी करती है. किसान को एक मजदूर के वेतन-भुगतान की बचत होती है. चूंकि इस महिला के लिए काम करने की कोई निश्चित समयावधि नहीं होती इसलिए उसे कभी भी काम पर जाना पड़ सकता है. अर्थात, वेतन भुगतान का प्रश्न तो आज भी विमर्श के दायरे में है जिसमें मार्क्ससवादी नारीवादियों द्वारा यह मुद्दा उठाया गया था कि महिलाओं को घरेलू कार्यों के लिए वेतन दिया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी उत्पादन प्रक्रिया में घरेलू कार्यों का भी योगदान होता है. इस प्रकार यहां भी किसान को फायदा पहुंचता है. किसान को इन महिला मजदूरों को न तो वेतन देना होता है, न बुनियादी-सुबिधा. यहां तक कि कमरतोड़ मेहनत की वजह से ये महिलाएं तरह-तरह की बीमारियों का शिकार भी होती हैं पर, किसान परिवार में महिला के स्वास्थ्य को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई जाती है या यह कहा जा सकता है कि उसकी बीमारी को नजर अंदाज कर दिया जाता है. अत:, यह कहा जा सकता है कि इस महिला का अपना अस्तित्व ही खत्म हो जाता है उसे न तो सही मायने में पत्नी का दर्जा मिल पाता है और न ही मजदूर का.

संपूर्णता में यदि बात करें तो ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले काम अन्य स्थानों के घरेलू श्रम से बिल्कुल अलग हैं. घरों में खाना बनाने, कपड़े-बर्तन धोने के अतिरिक्त उपले बनाना, अनाज रखने के लिए लिपाई करना, लकड़ी बीनना, पुआल के ढेर लगाना, जानवरों की देखभाल करना, उन्हें चराना, गोबर उठाना, अनाज को बेचने लायक तैयार करना, आदि ऐसे काम हैं जो एक कस्बाई या शहरी महिला के घरेलू कामों से बिल्कुल अलग और उनकी तुलना में ज्यादा भी हैं. विभिन्न फसल चक्रों में महिलाएं एक जरूरत सी बन जाती हैं. गांवों में यह देखा जा सकता है कि लड़कियां जब तक अविवाहित रहती हैं तब तक तो वे घरेलू और खेती के कार्यों को तो करती ही हैं, लेकिन उनके विवाह के बाद भी वे फसल तैयार होने के मौसम में अपने पिता के घर पर आ जाती हैं और फसल कटाई से लेकर सारा काम संभालती हैं. इस अर्थ उत्पादन में उनका कोई हिस्सा नहीं होता बजाए इतने के कि वे जब तक उस घर में हैं तब तक वे बिना कोई मूल्य चुकाए खाना खा सकती हैं. कई बार तो खाने के लिए रखे अनाज को भी बेच दिया जाता है जो कि महिलाओं की कमरतोड़ मेहनत का हिस्सा होता है. लेकिन यह हिस्सा बंटता नहीं बल्कि इस पर पुरुष मालिकाने का नियंत्रण होता है.महिलाओं को इस श्रम के बदले में खुद के स्वास्थ्य, शिक्षा सहित तमाम चीजों से वंचित भी रहना पड़ता है.



ग्रामीण इलाकों में यह अक्सर देखा जाता है कि महिलाओं को गर्भ धारण के बाद सीधे उनके पिता के घर पहुंचा दिया जाता है, जब तक बच्चा पैदा नहीं हो जाता. बच्चा के जन्म होने के बाद जब महिला स्वस्थ हो जाती है तब फ़िर ससुराल से बुलावा आ जाता है. फसलों की कटाई के समय ससुराल पक्ष उसे अपने पिता के घर भेजने पर इसलिए राजी हो जाता है कि जिससे उसके द्वारा किए गए श्रम से जो उत्पादन हो वह ससुराल में आए. होता भी ऐसा है कि अनाज घर में आने के बाद ससुराल पक्ष सीधा अपनी बहू को लेने उसके पिता के घर पहुंच जाता है. बहू के साथ ही वह अनाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा भी ले जाता है. इस प्रकार घरेलू श्रम के राजनीतिक अर्थशास्त्र को देखना और समझना जरूरी है. हमें पता चलेगा कि महिलाएं केवल और केवल धन उगाही के एक यंत्र के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं.

संदर्भ-
दिवाकर, वैशाली फेमिलियर एक्स्प्ल्वॉयटेशन: ऐन एनालिसिस ऑफ डोमेस्टिक लेबर,  वूमेन्स स्टडीज़ सेंटर, पुणे युनिवर्सिटी. १९९६
देसाई, नीरा एंड ऊषा ठक्कर वूमेन इन इंडियन सोसायटी, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली. २००१
 सरकार, सुमित ग्लोबलाइज़ेशन एंड वूमेन एट वर्क: ए फेमिनिस्ट डिसकोर्स
 त्रिपाठी, एस. एन. (संपा.) अन ऑर्गनाइज़्ड वूमेन लेबर इन इंडिया, डिस्कवरी पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, १९९६
 सिंह, डी.पी., वूमेन वर्कर इन अन ऑर्गनाइज़्ड सेक्टर, दीप एंड दीप पब्लिकेशन प्रा. लि. नई दिल्ली. २००५
 Manufacturing consent: The political economy of the mass media
            By- ES Herman, N Chomsky – 2010 – books.google.co
 The Political Economy Paradigm: Foundation for Theory Building in Marketing, by-Johan Arndt,  American Marketing Association, Vol. 47, No.
 Political Economy- A Textbook issued by the Institute of  Economics of the Academy of sciences of the USSR, Lawrence  & Wishart, London, 1957

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