महिलाओं , महान बनने के सपने देखो: डा.आंबेडकर

प्रो.परिमळा अंबेकर

विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं.  हिन्दी में कहानियाँ  अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677

मैं किसी भी समाज की उन्नति को उस समाज में रह रहे महिलाओं की प्रगति के   मापदंड के आधार पर मापता हूं ।                     – डा. बी आर आंबेडकर

बायोपिक में प्रयोग होने वाली फ्लैशबैक शैली एक अजीब और बहुत ही कारगर टेकनीक है,जहां बडी सहजता से फिल्मकार, उस चरित्र से जुडे वर्तमान को उसके भूतकाल की घटनाओं से जोडते जाता है , बहुत ही कलात्मक तरीके से सन्दर्भित व्यक्तित्व के समकालीन वाकयात और स्थितियों को उसके मूल समय के बुनियादी जडों से मिलाते जाता है । बायोपिक के कैरेक्टर द्वारा संभवित समकालीन समाज की प्रगति या विकास के कारणीभूत तत्वों को खोजते खोजते, फिल्मकार इतिहास के अंधकार के परतों में छिपे मूल बीजों के उन जीवन तत्वों को ढूंढ निकालता है, जिन बीजों को बोने की सारी मेहनत सारी जिम्मेदारी उस कैरक्टर की होती है, जिसपर सिनेमा बनी हुई है या बनने जा रही है। इसीलिए बायोपिक् में प्रयोग में लाये जाने वाली फ्लैशबैक की शैली किसी प्रासंगिक जीवनी के चहुं ओर बुने कथानक के तानेबाने के प्रस्तुतीकरण का टेकनिक ही नहीं अपितु वह वर्तमान जीवन की परिघटनाओं के लिये , समकालीन समाज और संस्कृति के वास्तविक स्वरूप के लिए कारणीभूत इतिहास के गर्त में छिपे उस जीवनी के संघर्षों को, उन घटनाओं को खोज निकालने की अभूतपूर्व कथा प्रक्रिया भी है ।

सोचे कि अगर डा. बाबा साहेब अंबेडकर की जीवनी पर नये सिरे से गर बायोपिक हमें बनानी है, तो,आज के भारतीय समाज में ,समाजिक स्तर से दलित  और आर्थिक रूप से निचले पायदान के वर्ग समुदाय में मानी जानेवाली महिलाओं की, उनकी आज की वास्तविक विकासमान और उन्नतिउन्मुख स्थिति के कारणों की खोज में इतिहास की उन घटनाओं के फ्लैशबैक में जाना पडता है, जिसका सीधा संबंध आंबेबेडकर की जीवनी से है। या उनकी जीवनी के इतिहास के उन घटनाओं से है ,जो सीधे हमें 75 वर्ष पूर्व के पराधीन, वर्ण और वर्गाधारित भारतीय समाज से जोडती है। आज की भारतीय समाज की महिलाओं की प्रगति और उन्नति के अभ्यास के लिये हमें भूत की उन तमाम स्थितियों को ढूंढ निकालना पडता है या नये सिरे से उनपर चर्चा करनी पडती है, जो केवल और केवल बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा लिये गये कानूनी और संवैधानिक निर्णयों पर निर्भर है, उनके द्वारा सभा सम्मेलनों में दिये गये उद्बोधनपूर्ण वक्तव्यों से है, संघटन-संघर्ष-सम्मान के  उनके  कारगर त्रिमंत्र से है, जिसे उन्होंने भारतीय दलित  निर्धन महिलाओं के लिये दिया था। इसीलिए महिलाओं के संबंध में , अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत मान्यताएं , विचार, उनके द्वारा लिखे गये संविधानीय अधिनियम, पुरूष के समकक्ष महिला के लिये उनके द्वारा प्रदत्त समान समाजिक स्तर और मान रूपी  पर्यायों को जानने के लिए हमें 75 वर्ष पूर्व के इतिहास को देखना जरूरी है । 18- 19 जुलाई 1942 के रोज नागपूर में , ‘‘डिप्रेस्ड क्लास महिला सम्मेलन‘‘ का समावेश हुआ। इस प्रथम महिला सम्मेलन को संबोधित करके अंबेडकर द्वारा दिये गया भाषण अपने आप में मील का वह पत्थर है, या कहें कि भारतीय दलित  महिला की प्रगति और समानता के दौड का वह पहला पडाव है जो आज की खुशहाली के अंतिम लक्ष्य की ओर जाने के लिए हाथ उठाकर, उस मार्ग को सूचित करता है ।

वह ऐतिहासिक घटना, जिस बडे से विस्तृत पंडाल में ‘‘आल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास कान्फरन्स‘‘ का दिनांक 19-20 जुलाई 1942 के रोज नागपूर में आयोजन हुआ था । लगभग सत्तर हजार से भी अधिक लोगों के उस जमावडे को अंबेडकर ने संबोधित किया। एन्.शिवराज उस समावेश के अध्यक्ष रहे थे। उसी पंडाल में अंबेडकर को और दो समावेशों को संबोधित करके बोलना था, उसमें एक रहा था ‘‘डिप्रेस्डक्लास महिला सम्मेलन‘‘ और दूसरा ‘‘समता सैनिक दल‘‘ का। इस महिला समावेश की अध्यक्षता ‘सुलोचनाबाई डोंगरे‘ ने किया जो अमरावती की थी। यह महिला समावेश और उसमें डा. बाबा साहेब द्वारा दिया गया वक्तव्य दलित महिलाओं में एक नई चेतना जगाने का काम किया। इस अधिवेशन में अनेक निर्णय पारित किये गये और महिलाओं के पक्ष में मांगें भी प्रस्तुत की गईं। बाबा साहेब का महिलाओं को लेकर संबोधित बातों में उनकी सहानुभूति और चिंता दोनों जाहिर है। महिला संरक्षण और सामजिक समानता और आर्थिक प्रगति संबंधी उनके विचार जो इस सभा में कहे गये, वे ही आगे उनके द्वारा गढे गये महिला संबंधी अनेक संवैधानिक नियमों के रूप लेते गये। हिन्दू कोड बिल, 1948 भले ही संसदीय सभा में घोर विरोध के कारण पारित न हुआ हो लेकिन भारतीय समाज की परंपरागत महिला संबंधी सनातनी विचार वातावरण और व्यवस्था में उन्हें समाज के दूसरे हिस्से के पुरूष के समान अधिकार दिलाने के सपने एवं लिंगीय समानता के तमाम कानूनी प्रवधानों को भारतीय महिला को दिलाने का उनका दृढ निर्णय तत्पश्चात में , संवैधानिक अधिनियमों के रूप लेते गये, जो महिलाओं के संबंधी उनकी संवेदना और चिंता दोनों को जाहिर करती हैं ।

75 वर्ष पूर्व के उस दलित  महिला अधिवेशन में आंबेडकर ने महिलाओं को संबोधित कर जिन विचारों सामने रक्खा, वे एक तरह से भारतीय दलित  जाति समुदाय की महिला को, नये सिरे से अपने स्वतंत्र अस्तित्व और चरित्र बनाने की ओर इंगित कर रहे थे। साथ ही भावी भारत के निर्माण में समतामूलक समाज की संरचना के लिए महिला अस्मिता को केन्द्र में रखकर सोचने वाली बातों की ओर भी इशारा कर रहे थे। ‘कीर्तिबाई पाटील‘ , ‘इंदिराबाई पाटील‘, ‘जाईबाई चैधरी‘, ‘विरेंद्रा बाई तीर्थंकर‘ , ‘कुमारी गजभिये, ‘मंजुला कानफाडे‘, ‘कौशल्या बैसंत्री‘ आदि महिलाओं की संलग्नता और परिश्रम से यह पहला महिला अधिवेशन उस रोज संपन्न हुआ। ये सारी महिलाएं प्रतिबद्धता और प्रामाणिकता से अंबेडकर द्वारा दिये गये ऐलान और उपदेश को कारगर करने के लिए परिश्रम कर रही थीं। ‘‘अखिलभारतीय दलित  अधिवेशन‘‘ के उस साठ सत्तर हजार लोगों के जमावडे के बृहत्त समावेश में लगभग पच्चीस हजार से भी अधिक महिलाओं का होना अपने में एक इतिहास ही रच डालता है । ‘‘अखिल भारतीय डिप्रेस्ड  फेडरेशन‘‘ के उस महासभा के एक और पंडाल में ‘‘दलित महिलाओं  का अधिवेशन‘‘ के कार्यक्रम का आयोजन अंबेडकर द्वारा उठाये गये उन कदमों को दर्शाता है, जो भारतीय महिला को उनका अधिकार और हक् दिलाने के पक्ष में उठाये गये थे। उस रोज नागपूर में,  सामान्य महासभा को संबोधित  करके बोलने के बाद उसी पंडाल में एक और समावेश में पच्चीस हजार से भी अधिक महिलाओं को अंबेडकर द्वारा दिया गया भाषण , उस भाषण के अंश, बडी सूक्षमता से महिलाओ के प्रति के इस संविधानी शिल्पी के चिंतन मनन और विज़न को दर्शाते हंै । उस भाषण के प्रमुख मुद्धे कुछ इस प्रकार हैं ।

1 हीनता की ग्रंथी से बाहर आयें ।
2 सारे दुर्गुणों से दूर रहें ।
3 बेटियों को अधिक से अधिक शिक्षा दें ।
4 बेटियो की ब्याह के लिये जल्दी ना करें ।
5 साफ सुथरा और शिष्ट रहन-सहन अपनायें ।
6 महान बनने के सपने देखें ।
7 बेटियों को पढायें उन्हें शिक्षित करें ।
8 महिलाएं शिक्षत होकर अपने परिवार के विकास और प्रगति के लिए
कटिबद्ध रहें ।

जुलाई 1942 के नागपूर के ‘दलित  महिला सम्मेलन‘ में कार्यकारिणी महिला सदस्यों द्वारा प्रस्तुत की गयी मांगों को, आगे महिलाओं के अधिकार और हकों के प्रति अंबेडकर द्वारा लिये गये निर्णयों का बीजवपन का काल माना जा सकता है। उस सभा में महिलाओं के पक्ष में प्रस्तुत मांग कुछ इस प्राकर के रहे ।

1 बहुपत्नीत्व पद्धति को रद्ध किया जाय, उसे कानूनी तौर पर जुर्म माना जाय
2 महिलाओं के लिये वेतनसहित छुट्टियों को उनके कामकाजी व्यवस्था में लागू किया जाय
3 महिलाओं के लिए पेन्शन यानी वृद्धा वेतन पारित किया जाय ।

सन् 1942 में उठायी गयी ये मांगे , कुछ हद तक, आगे अंबेडकर द्वारा खींची गयी महिला अधिकारों की संवैधानिक प्रवधानताओं का नीलनक्ष साबित हुये। या हम इन ऐतिहासिक घटनाओं के फ्लैशबैक में, आगे चलकर बाबासाहेब द्वारा सोचे गये ‘समान आचार संहिता‘ और ‘हिन्दू कोड बिल‘ की रूपरेखा को बनते रचते देख सकते हैं, जिसके लिए लगभग सत्तर हजार लोगों का वह सन् 42 का जमावडा साक्षी रहा। आज की भारतीय महिला के स्वतंत्र एवं समान अधिकार और संभावनाओं से लैस व्यक्तित्व के ताने -बाने की बुनने की प्रक्रिया, इसी पंडाल के नीचे आरंभ हुआ, जिसके लिए प्रगतिपर सोच के सारे भारतीय पुरूष एवं महिलाएं , चाहे सवर्ण हो या अवर्ण अपने हिस्से का सूत कातने के श्रम में लग गये। जिसके बुनियाद में कहीं दूर , गांधीजी के सामाजिक एवं राजनयिक स्वतंत्रता के मिशन् के तत्व कार्य करते नजर आते जरूर हैं ।

आंबेडकर चाहते थे कि दलित   महिलाएं अपने पहने-ओढने के सलीके में बदलाव लाए। चांदी के मोटे -मोटे आभूषणों के स्थान पर बारीक सलीकेदार आभूषण पहने। उनका यह सोचना रहा था कि, दलित महिलाओं  द्वारा अपनाये गये परंपरागत पहनावे और आभूषण गुलामी और हीनता भावना के प्रतीक  हैं। उस समय तक गठित दलित महिलाओं  के संगठन के सक्रिय कार्यक्रमों में अंबेडकर ने इन निचले जाति के महिलाओं में पहनने-ओढने की सलीका बरतने के लिए आग्रह किया। महाड सत्याग्रह और सन् 1927 के मंदिर प्रवेश के आंदोलनों से ही आंबेडकर ने दलित महिलाओं  के सामाजिक स्थान मान में बदलाव लाने की सोच को रखते आ रहे थे। और संगठन के सक्रिय महिला कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर उन्हें इस संबंध में सीख देने का उपदेश भी देते रहे । हीनता की ग्रंथी से बाहर आने के लिये आंबेडकर ने महिलाओं के मानसिक सोच के साथ साथ उनके ड्रेस कोड पर भी ज्यादा ध्यान दिया था।  वे चाहते थे , निचले स्तर की मजदूर महिलाएं भी शिक्षित हों और अपने परिवार को भी ऊंचा उठायें। जल्द शादी करने का विरोध कर वे बेटियों को पढाने पर जोर दें। शिक्षा के मंत्र को अपनाकर आंबेडकर जाति आधारित सामाजिक असमानता की अव्यवस्था को मिटाना के पक्ष में सोचा था ।

कानूनी चौखट में महिलाओं को समान अधिकार का प्रावधान 1948 में हिन्दूकोड बिल का संसद में मंडन और विरोधी चर्चाओं के पश्चात् 27 सितंबर 1951 में आंबेडकर का कानूनी मंत्रीपद से इस्तीफा देना, आदि अंबेडकर के जीवन की इतिहास की घटनाएं आगे चलकर महिला संरक्षण और सामाजिक लोकतंत्र के बहाल के लिये पुरूष के समक्ष महिला के समान अधिकार की मांग इत्यादि के न्यायिक अधिकार के नियमों का रूप लेते गये । आंबेडकर चाहते थे कि दलित और दलित  महिलाएं , शिष्ट और पढी लिखी महिलाओं की तरह खान-पान में भी सलीका अपनाए। मांस का सेवन छोडे, सडा गला मांस या मरे प्राणियों का मांस न खाये। अपने खुद के परिवार में, पास-पडोस में बचपन से ही महिलाओं की दुस्थिति को देखकर व्यथित आंबेडकर के सम्मुख विकसित ऊंची जाति की महिलाओं के सुखभोग और साथ ही पाश्चात् देशों की महिलाओं के स्वछंद और स्वतंत्र जीवन शैली पर्याय के रूप में रहे थे। उन्होंने अपने देश दलित महिलाओं को सामाजिक स्थान मान दिलाने हेतु , लोकतांत्रिक समाज की  बहाली के लिए, न्यायिक अधिकारों को जितना जरूरी मानते थे, उतनी ही आवश्यकता वे उनके सजने- संवरने रहन सहन भोजन प्रकार आदि को नये सिरे से अपनाने को भी मानते रहे थे।

इस, नागपूर दलित महिला अधिवेशन के 75 वर्ष में, पिछले सालों के महिला अधिकार और विकास के कदमों को हम लगभग गिना सकते हैं, जिसके पीछे बाबा साहेब अंबेडकर द्वार प्रदत्त संवैधानिक अधिकार और उनकी महिला विकास और महिला समानता संबंधी विचारों के बीजों को भी देख सकते हैं। स्वतंत्र भारत में विज्ञान,शिक्षा और समाज की प्रगति के साथ साथ महिलाओं के स्थानमान और विकास की परियोजना बनती गयीं, और उसकी एक अलग और स्वतंत्र छवि उभरकर सामने आयी। उन अंशों का लगभग आकलन हम यूंकर सकते हैं ।
1 महिलावादी संगठन और आंदोलनों का सूत्रपात
2 महिलावादी संवेदना और महिला विमर्श का विकास
3 महिला शिक्षण की चेतना का प्रचार प्रसार
4 हाशियाकृत समाज का हिस्सा, महिला वर्ग को मुख्यधारा में लाना
5 महिलाओं के लिये रोजगार और कामकाजी डोमेन में समान अवकाश
6 भारतीय समाज में हर क्षेत्र मे महिला को समान अवसर और समान स्पेस का प्रदान करना । आदि
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि उस बृहत्त पंडाल में दलित महिलाओं  के संगठन को अलग से संबोधित कर महिला सामाजिक और राजकीय समानता और स्वतंत्रता के आंबेडकर द्वारा अभिव्यक्त विचार , क्या आज भी पूर्णरूप से हाशिये से बाहर आकर मुख्यधारा में अपना वजूद पहचान पाये हैं ? महिला का हाशिया से मुख्यधारा में आने के पीछे सामाजिक और समुदायी मानसिकता मे परिवर्तन की आवश्यकता है, क्या उसे इन 75 वर्षों में स्वतंत्र भारतीय समाज साध पाया है ? आंबेडकर ने कहा था ‘‘ कच की तरह विद्यार्थिनियों को भी प्रयत्नशील होना चाहिए। जिस प्रयत्न और परिश्रम से कच ने शुकाचार्य से विद्या हासिल की थी, उसी संघर्ष और लगाव से महिलाओं को भी शिक्षित होना है, ज्ञान हासिल करना है और मुख्यधारा में आना है । ‘‘

अगर हम महिलाएं हाशिये से हटकर मुख्यधारा आंदोलन में आ जायेंगी तभी आंबेडकर की समतामूलक भारत की संकल्पना साकार हो सकती है अन्यथा नहीं। यह तभी संभव हो सकेगा जब राजनयिक व्यवस्था सामाजिक मुद्धों को भुनाना छोड देगी। और हर महिला असमानता या उनके लिए विशेष प्रावधान का मुद्धा ,बडी सहजता से राजनयिक हलकों में उठाया जाय और उन्हें कानूनी अंजाम दिया जाय। 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का बिल भी अपने अवरोधों से से बाहर आ सकेगा। समान धरातल पर , देश के हर हलकों में, महिलाएं अपने हिस्से का अधिकार और जगह, कानूनी तौर पर लागू होता देख सकेगी।
संदर्भ:
1 www.streekaal.com : Report of Savitribai Phule Award.
2 Dr.B.R.Ambedkar Role In Women Empowerment:Kavitakait
3 Dohara Abhishap:Kaoushalya Baisayantri.
4 Vasant Moon: Dr Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles