हमारे समय के अंधेरे में



स्त्रीकाल डेस्क


 जनवादी लेखक संघ और राजेंद्र प्रसाद अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में शनिवार दिनांक 29 अप्रैल, 2017 को आइटीओ के निकट राजेंद्र प्रसाद भवन, नई दिल्ली में मुक्तिबोध के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर एक परिसंवाद का आयोजन किया गया. परिसंवाद की अध्यक्षता वरिष्ठ लेखक दूधनाथ सिंह ने की. स्वागत वक्तव्य राजेंद्र प्रसाद अकादमी के निदेशक अनिल मिश्र ने दिया. कार्यक्रम का संचालन आलोचक-कथाकार संजीव कुमार ने किया. स्वागत वक्तव्य में अनिल मिश्र ने कहा कि यह बड़ा संकटपूर्ण समय है. ऐसे कठिन दौर में समाजवादी और साम्यवादी धाराओं में एकता होनी चाहिए. अगर यह एकता संभव नहीं तो उनमें आपस में संवाद तो होना ही चाहिए. 1973 में स्थापित राजेंद्र प्रसाद अकादमी के बारे में उन्होंने कहा कि राजेंद्र भवन में अकादमिक गतिविधियों को फिर से तेज किया जा रहा है. संचालक संजीव कुमार का कहना था कि परिसंवाद का शीर्षक बांधता नहीं बल्कि यह खुलकर बातचीत करने का अवसर देता है. उन्होंने बताया कि मुक्तिबोध पर दो दिनों का एक उत्सवधर्मी कार्यक्रम इस वर्ष नवंबर महीने में किया जाएगा जिसमें मंचन, रचनापाठ और परिचर्चा आदि का समावेश रहेगा. आलोचक आशुतोष के एक लेख के हवाले से उन्होंने कहा कि ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है त्यों-त्यों मुक्तिबोध समकालीन होते जा रहे हैं. बिना ग्राम्शी को पढ़े मुक्तिबोध आर्गेनिक बुद्धिजीवी की बात कर रहे थे. क्या हमारा बुद्धिजीवी समाज से कटा हुआ ‘ब्रह्मराक्षस’ होगा? आज फासीवाद हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित कर रहा है. संविधानेतर शक्तियों को सरकार प्रश्रय दे रही है. पुलिस गुंडों की हिफाजत कर रही है. रामजस प्रकरण इसका ताजातरीन उदाहरण है. उत्तर प्रदेश की पुलिस किस दायित्व के निर्वहन में लगा दी गई है?

 परिसंवाद का आरंभ करते हुए कवि-चिंतक मनमोहन ने कहा कि बिना क्रांतिकारी चुनौती के प्रतिक्रांति का बड़ा अभियान चला हुआ है. मुक्तिबोध का जन्म शताब्दी वर्ष इस तरह का होगा, सोचने की बात है यह. मुक्तिबोध के समय में जनवादी संस्थाएं बन रहीं थीं. नई कविता के दौर में उन्हें पहचान मिली. ’70 के दशक की अकविता के ‘निह्लिज्म’ (सर्व नकार) के लिए मुक्तिबोध जरूरी थे. रचनात्मक अंतर्दृष्टि देने वाले रचनाकार के रूप में मुक्तिबोध हमारे साथ रहे हैं. वे प्रगतिवाद की मुख्यधारा में नहीं रहे. उन्होंने अपनी अलग राह बनाई. मुक्तिबोध से जैसा रिश्ता बनना चाहिए था, नहीं बना. उनकी आइकॉनिक छवि उनसे संवाद करने में बाधा रही है. उनकी छवि से तरह-तरह के काम लिए गए. कला की रहस्यात्मकता उनके साथ जुड़ी रही है. आजादी के बाद जो जनतांत्रिक खाका बना उसकी कृत्रिमता को, उसके सतहीपन को उन्होंने समझ लिया था. उन्होंने आजादी के बाद की परिस्थिति को तस्लीम किया. शीतयुद्ध के सवालों को, परिमल के प्रश्नों को मुक्तिबोध ने झूठा नहीं कहा. बदले परिवेश में प्रगतिशील आंदोलन को अभिव्यक्ति के प्रश्न की गहराई से जोड़ा. सामाजिक जनतंत्र के बगैर राजनीतिक जनतंत्र नहीं चल सकता- आंबेडकर के इस निष्कर्ष की ताईद मुक्तिबोध के यहाँ है. जो जनवाद की जगह है वही फासीवाद का कार्यस्थल भी है. ‘कामायनी’ के मनु का उनका विश्लेषण देखिए. वैयक्तिकता का उभार का कारण स्पष्ट होगा. राजनीति ने समाज सुधार का काम छोड़ दिया. इस किनाराकशी से विच्छिन्न ‘व्यक्ति’ का जन्म हुआ. ऊपर जो फासीज्म दिख रहा है वह नीचे से ताकत ले रहा है. इसने राज्य पर कब्ज़ा कर लिया है. राजनीतिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की तैयारी की जा रही है. कांग्रेसमुक्त भारत के नारे को मुक्तिबोध के लंबे दु:स्वप्न के संदर्भ में पढ़िए. मुक्तिबोध की कैनोनिकल उपस्थिति सदा-सर्वदा के लिए नहीं है. उन्हें निशाने पर लेना बहुत आसान है. कल कहा जा सकता है कि वे बेकार हैं, कठिन हैं, टी.एस. इलियट की नक़ल हैं. हिंदी पाठ्यक्रमों का मुक्तिबोध से नफरत का रिश्ता है. मुक्तिबोध आज के और आगे के कवि हैं. जो साहित्य में, विचार-जगत में नए-नए आ रहे हैं, उन तक मुक्तिबोध को पहुँचाना पड़ेगा. मुक्तिबोध का ‘सेलिब्रेशन’ भी खतरा है.

अधिग्रहण और कुपाठ से मुक्तिबोध को बचाए जाने की जरूरत रेखांकित करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि जिस आसन्न फासीवाद से मुक्तिबोध रूबरू थे वह आज हमारे सामने है. रूलिंग विचारधारा के रूप में. इतिहास पर मुक्तिबोध की पुस्तक प्रतिबंधित की गई थी. चीन के हमले ने बहुसंख्यकवाद की विचारधारा को साम्यवाद पर हमले का अवसर दिया था. तभी से कम्युनिस्टों को देशद्रोही कहे जाने की शुरुआत हुई थी. नेहरू और नेहरूवियन मॉडल की कई चीजों की आलोचना करने वाले मुक्तिबोध ने नेहरू की मृत्यु पर कहा था कि अब फासीवाद का खतरा बढ़ गया है. मुक्तिबोध ने वर्ग की बात करते-करते जाति-वर्ण के प्रश्नों को पीछे कर देने की वामपंथी पद्धति की आलोचना की थी. उनके भक्तिकाल पर लिखे निबंध को याद किया जा सकता है जहाँ कबीर और तुलसी आमने-सामने हैं. मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन पर उनकी टिप्पणी को याद कीजिए और आज स्वच्छता, पर्यावरण आदि पर कार्यक्रम कराने वाली साहित्य अकादमी से उसकी तुलना कीजिए, मुक्तिबोध की दूरदर्शिता स्पष्ट हो जाएगी. वीरेन्द्र यादव ने कहा कि मुक्तिबोध के वैचारिक पक्ष को नज़रअंदाज़ करके हम उनके साथ अन्याय करेंगे.

 यह हो सकता है कि हमें यूपी पुलिस को बचाने की आवाज उठानी पड़े- इस बिडंबना की ओर इशारा करते हुए आलोचक गोपालजी प्रधान ने कहा कि मुक्तिबोध ऐसे मुद्दों को छूते हैं जिसे पढ़ते हुए हम शर्मिंदा होते हैं. हममें आत्मालोचन के साहस की कमी आई है. मुक्तिबोध अपने वर्ग के प्रति निर्मम थे. वे आत्मालोचन को कसौटी की तरह इस्तेमाल करते थे. गोपालजी ने कहा कि मार्क्सवादी वैचारिकी में सामाजिक और राजनीतिक श्रेणियों के मध्य दरार नहीं थी. यह दरार बाद में आई है. इसे पाटने की जरूरत है. मुक्तिबोध ने अपने समय से जूझते हुए अपने लिए सम्पूर्ण वैचारिकी बनाई थी. अपने लिए विचार आयत्त किया था. भक्त कवियों के बारे में जैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि उनकी कविता उनके दार्शनिक चिंतन का सह-उत्पाद है उसी तरह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध का रचनाकर्म उनकी वैचारिकी का हिस्सा है, सह-उत्पाद है. गोपालजी ने जोर देकर कहा कि भारतीय मार्क्सवादियों ने सोवियत रूस के समक्ष कभी आत्मसमर्पण नहीं किया. वे हंगरी, चेकोस्लोवाकिया आदि के संबंध में भी संवेदनशील, खुले हुए रहे हैं.

हिंदी कविता की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर शुभा ने मुक्तिबोध की रचना ‘नए की जन्मकुंडली’ के संदर्भ में कहा कि मुक्तिबोध इसकी तरफ ध्यान दिलाते हैं कि स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी परिघटना संयुक्त परिवार का टूटना और एकल परिवार का बनना है. पतिव्रता धर्म, वर्णव्यवस्था ये सब समाज की स्वचालित मशीनें हैं. जब धर्म का अनुशासन टूट रहा था तब हमने उसका विश्लेषण नहीं किया. अब जैसे पूरा समाज और परिवार अंतःप्रवृत्तियों को सौंप दिया गया है. यह आत्मग्रस्तता कन्जूमरिज्म के आगे की चीज है. मुक्तिबोध के संदर्भ से शुभा ने कहा कि बाहर परिवर्तन की बात करना और घर के अंदर उसे बनाए रखना सबसे बड़ा पाखण्ड है. परिवार में फासिज्म की मौजूदगी को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि जेंडर, दलित और परिवार पर चुप्पी ने वर्ग संघर्ष की संकीर्ण अवधारणा को जन्म दिया. डेमोक्रेसी एक सुविधा बन गई. सामाजिक रूपांतरण का मुद्दा स्थगित हो गया. रूपांतरण का बीज शब्द आत्मसंघर्ष है. गाँव किले की तरह अभेद्य रहे. दुलीना में पाँच दलितों को गाय के नाम पर मार दिया गया. गाँव का रूपांतरण हमारे अजेंडे में कभी न आया. रिस्क न लेकर, परिवर्तन को जगह न देकर भी साहित्यकार बने रहना पाखंडी होना है. आज दलित और स्त्री विमर्श में भी दक्षिणपंथ आ बैठा है. मध्यवर्ग का बनना कभी रुका नहीं. अभी नया मध्यवर्ग सामने आ रहा है. साहित्यकार प्रतिपक्ष बन सकते हैं, वे प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने को तैयार रहें. वे न अपने को विशिष्ट मानें और न विशिष्ट बनें.



 वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि वे मुक्तिबोध से तब मिले जब 17 वर्ष के रहे. जब वे 24 वर्ष के हुए तब मुक्तिबोध की मृत्यु हो गई. परिचय के ये सात साल न पर्याप्त हैं और न उल्लेखनीय. मुक्तिबोध ने गढ़े गए लालित्य के स्थापत्य को ध्वस्त किया. जब साम्यवादी व्यवस्थाएं नृशंसता पर उतर आई थीं तब उन्होंने अंतःकरण का प्रश्न उठाया. पिछले 50 वर्ष की कविता ने मुक्तिबोध से बहुत कम सीखा है. कवि लालित्य में ही उलझे रहे हैं. मुक्तिबोध के बीज शब्द हैं- आत्मसंघर्ष, अंतःकरण और आत्माभियोग. मुक्तिबोध अपनी जिम्मेदारी को केंद्रीय मानते हैं. वे सबसे बड़े आत्माभियोगी कवि हैं. उन्होंने 1964 में जिस फैंटेसी को प्रस्तुत किया था वह 2014-15 में साकार हो गई. ऐसा दुनिया के साहित्य में बहुत कम हुआ है कि फैंटेसी साकार हो जाए. ‘अंधेरे में’ कुल चार चरित्र हैं- टालस्टाय, तिलक, गाँधी और अनाम पागल. इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण गाँधी का चरित्र है. मुक्तिबोध गाँधीवादी से मार्क्सवादी बने थे. उनमें गाँधी वाला तत्व कभी समाप्त न हुआ. अभी हमने युवाओं का एक सम्मेलन किया था. 56 युवा आए थे. किसी ने न मुक्तिबोध का जिक्र किया और न राजनीतिक परिस्थिति का. अशोक जी ने कहा कि मुक्तिबोध की इतिहास वाली किताब के विरोध में जो मार्च निकला था उसमें वामपंथी भी शामिल थे. इसने मुक्तिबोध को तोड़ दिया. वे कभी इस आघात से उबर न सके.


 लेखक-विचारक चंचल चौहान ने कहा कि उन्होंने एम.ए. का लघु शोधप्रबंध मुक्तिबोध पर लिखा था. मार्क्सवाद को समझे बगैर मुक्तिबोध की कविताएं दुरूह लगेंगी. उनकी कविताओं की बड़ी ख़राब व्याख्या राम विलास शर्मा ने की थी. नामवर सिंह की आलोचना ने भी न्याय नहीं किया. मुक्तिबोध ने जोर देकर कहा था कि मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते. परिवर्तन सर्वहारा ही करेगा. चिंतकों, साहित्यकारों को सर्वहारा से जुड़ना होगा. चंचल चौहान ने कहा कि मध्यवर्ग के प्रति प्रगतिशीलों का रवैया ठीक नहीं है. मुक्तिबोध इसे ठीक करना चाहते थे. फासीवाद के दौर में आप एक बड़े वर्ग को छोड़कर मुकाबला नहीं कर सकते.


 कवि-विचारक अच्युतानंद मिश्र ने कहा कि लेखकों की जन्मशताब्दी मनाने के कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए. पिछली शताब्दी के छठे-सातवें दशक में मुक्तिबोध को लेकर जो बहसें हुई हैं वे दिक्कततलब हैं. हमें कविताओं को स्थिर कर देने से बचना चाहिए. मुक्तिबोध द्वंद्व से आगे बढ़कर त्रिकोण बनाते हैं. इस त्रिकोण की पहचान करनी होगी. अच्युतानंद ने प्रश्न किया कि मुक्तिबोध के यहाँ प्रकृति इतनी भीषण रूप में क्यों आती है? सूखी बावड़ी, घुग्घू उनकी कविताओं में बार-बार आए हैं. असल में, मुक्तिबोध औद्योगिक क्रांति के कारण मनुष्य और प्रकृति के बीच बिगड़े संतुलन को देख रहे थे. ये खतरे बाद के दिनों में बढ़े हैं. अभी कॉल सेंटरों में, एप्प-जगत में कैसी सामाजिकता विकसित हो रही है? आज के टकरावों को समझने के लिए ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान मुख्य टूल हो सकते हैं. टकराव से बने अंतरालों को बचाने की बात मुक्तिबोध के यहाँ है. हम जिस कौम की चर्चा करते थे उसमें बदलाव आ चुका है. अब यह कहना कि जिंदा कौमें 5 वर्ष तक इंतजार नहीं करतीं, कोई अर्थ नहीं देता. अब तो कौमें 10 वर्षों तक इंतजार करने को तैयार दिखती हैं. कौमों के चरित्र में आए बदलाव को समझना होगा.

 वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी ने कहा कि नई पीढ़ी ने मुक्तिबोध को समझे बिना ही उनका स्वागत किया. गाँधी की हत्या समाज में फासिज्म की मौजूदगी का उद्घोष था. मुक्तिबोध आगे की इत्तिला देते हैं. उन्होंने इस हत्या को, पंजाब और बंगाल परिघटनाओं को देखा था. मुक्तिबोध की शैली पुराणकारों की शैली लगती है- भविष्य की सूचना देने वाली. कबीर और मुक्तिबोध ऐसे रचनाकार हैं जो हमेशा प्रासंगिक रहेंगे.

आलोचक वैभव सिंह ने कहा कि ‘अंधेरे में’ चेतावनी देने वाली रचना है. वह ‘डिस्टोपिया पोएट्री’ है. अमेरिका में इस समय डिस्टोपिया उपन्यास खूब पढ़े जा रहे हैं. प्रेमचंद ने साहित्यकार को स्वभावतः प्रगतिशील बताया था. मुक्तिबोध ने इस अवधारणा को तोड़ा. प्रेमचंद कवच की तरह इस्तेमाल किए जा रहे थे. वैभव सिंह ने कहा कि बहुत से लेखक इस समय चुप्पी के मोड में चले गए हैं. चुप हो जाना कई बार तंत्र की मदद करना होता है. तीसरी दुनिया के देशों की वैचारिक हलचलों के स्रोत के रूप में मार्क्सवाद रहा है. मुक्तिबोध की समझ के निर्माण में मार्क्सवाद की मुख्य भूमिका रही है लेकिन रेणु के साथ मुक्तिबोध ऐसे लेखक हैं जिन्होंने खुद मूल्यों को अन्वेषित किया था. मुक्तिबोध कंटेंट की कमी की बात नहीं करते, वे शिल्प की कमी की बात करते हैं. ‘अंधेरे में’ कविता में सबसे ज्यादा प्रकाश के बिंब हैं. ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’ मध्यवर्ग की बनावट के भीतर है. यह मध्यवर्ग किसी लाभ के लिए कैसा भी समझौता करने को तैयार है. मुक्तिबोध देख रहे थे कि लोकतंत्र के अंदर फासीवाद की प्रवृत्तियाँ मौजूद रहती हैं. खतरा हमेशा बना रहता है. वैभव सिंह ने कहा कि मुक्तिबोध के यहाँ विचारधारा और निजी बौद्धिक ईमानदारी का सुमेल है.


 संपादक-कवि मदन कश्यप ने इस जिज्ञासा से अपनी बात शुरू की कि ‘अंधेरे में’ कविता में आखिर वह कौन-सी बात है कि यह सारे आंदोलनों से जुड़ जाती है! सभी आंदोलनों ने अपने को इस कविता से जोड़ा, नक्सलवाड़ी ने भी. यह वर्ष अक्टूबर क्रांति का वर्ष भी है. महिमामंडन के दौर में हम क्रांति की विफलताओं पर भी बात करें. साहित्यकार समय की जटिलता के हिसाब से विचारधारा का विस्तार करते हैं. राजनेता उसका सरलीकरण करते हैं. मदन जी ने अति लोकप्रियता को लोकतांत्रिक नहीं माना. अति लोकप्रियता डर से पैदा होती है. आज के शासक की लोकप्रियता नेहरू वाली लोकप्रियता नहीं है. इसकी व्याख्या की जानी चाहिए; विरोध करने से काम नहीं चलेगा. आज की क्रूरताओं के विकास में हमारी क्या भूमिका है- मुक्तिबोध और नागार्जुन से हम इसकी पहचान करना सीख सकते हैं. हम धर्म को, नैतिकता को उनके खाते में डाल आए; उन्होंने जो चाहा, किया. मुक्तिबोध ने इन प्रश्नों को छोड़ा नही था. हम अपनी अक्षमता को स्वीकार करते हुए संघर्ष की तरफ जाएं.

कथाकार रजनी दिसोदिया ने कबीर की साखियों के हवाले से मुक्तिबोध को समझने का उद्यम किया. उन्होंने कहा कि ‘अंधेरे में’ कविता आपको अंदर तक देख लेती है. आज का मध्यवर्ग जगा हुआ है मगर वह रिस्क नहीं ले सकता. हमारी भूल गलती आज जिरहबख्तर पहन कर बैठी हुई है. हमने पूरे संवैधानिक तरीके से उसे चुना है. जो पोस्ट-ट्रुथ है उससे कैसे लड़ें? यह जटिल स्थिति है. भारत बहु सत्यों वाला देश है. हम थोड़ा-थोड़ा सबसे उलझ सकते हैं मगर किसी को बर्खास्त नहीं कर सकते. अभी जो भी मारे जा रहे हैं, सामान्य लोग हैं. चाहे वे सेना के सिपाही हों, आदिवासी हों या किसान. रजनी दिसोदिया ने मिथकों से टकराने का भी सुझाव दिया.


 कवि-अनुवादक संजीव कौशल ने कविता के लिए ज्ञान और संवेदना दोनों को अनिवार्य माना. उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध इस संबंध में कवि से प्रतिबद्धता की मांग करते हैं. वे कवि को एक्टिविस्ट के रूप में भी देखना चाहते हैं. आज तक कविता की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकी है. यह विधा निरंतर वर्धनशील है, किसी खांचे में बंधने से इनकार करती हुई. संजीव कौशल ने कहा कि जब बहुत आवश्यक है तब लेखकों के बीच संवाद ठप पड़ा है. आज हम जो देख रहे हैं वह अभी पाँच-सात साल और चलेगा. इसके बाद अपने-आप ढह जाएगा. जनता खुद ढहा देगी.


 कवि-कार्यकर्ता-आलोचक बली सिंह ने मुक्तिबोध को आधुनिकता का बहुत बड़ा क्रिटीक माना. मनुष्य-केंद्रित आधुनिकता को भयंकर समस्याग्रस्त बताते हुए बली सिंह ने मनुष्येतर जगत के प्रति संवेदना पैदा करने की जरूरत बताई. मुक्तिबोध को उन्होंने दबी-कुचली अस्मिताओं से तादात्म्य स्थापित करने वाला कवि बताया. जिस ‘श्यामल समूह’ का जिक्र मुक्तिबोध की कविता में आता है वह यही अस्मिता है. मुक्तिबोध ने अपने को क्रांतियुग का कवि माना था, उत्पीड़ित समुदायों के उभार वाले युग का कवि. सत्-चित्-आनंद की त्रयी को सत्-चित्-वेदना में बदलने वाले मुक्तिबोध ने पूँजीवाद को जिन्न कहा था. सुनहरी दुनिया बसा देने वाला जिन्न आज मध्यवर्ग को सम्मोहित किए हुए है.

आलोचक कवितेन्द्र इंदु ने कहा कि जैसे हिंदू जनता पर्व-त्यौहार के अनुसार देवताओं को याद करती है वैसे ही हम लोग भी जन्म शताब्दियों के अवसर पर लेखकों को याद करते हैं. जिस भाव से कुछ वर्ष पहले राम विलास शर्मा को याद किया था गया था वैसे आज मुक्तिबोध को याद किया जा रहा है. हमने मुक्तिबोध को मौलिक आलोचक की तरह देखने की कोशिश नहीं की है. मुक्तिबोध ने आलोचना की शब्दावली विकसित की. उनकी प्रासंगिकता इससे जांची जाए कि उनका लिखा हुआ आज घटित हो रहा है. वामपंथी समीक्षकों ने जाति और जेंडर पर मुक्तिबोध के विचारों की समीक्षा नहीं की. ऐसा लगता है कि इसे उन्होंने किसी ‘दलित’ या ‘स्त्री’ विमर्शकार के लिए छोड़ रखा है. भक्ति आंदोलन पर मुक्तिबोध का निबंध ऐतिहासिक महत्व का है. जब इतिहास के पुनर्लेखन का काम होना चाहिए था, संक्षिप्त इतिहास लिखने का चलन है. जिस अकादमिया पर वामपंथियों का वर्चस्व रहा है उसका उन्होंने क्या किया है… हमने कैसी यूनिवर्सिटी बनाई है? लेखक संगठनों में व्यापक एकता की जरूरत बताते हुए कवितेन्द्र ने पूछा कि कई संगठन मिलकर काम क्यों नहीं कर सकते?

 वरिष्ठ लेखिका रेखा अवस्थी ने कहा कि मुक्तिबोध संस्कृति और आत्मा के संकट की पहचान करने वाले रचनाकार हैं. आजादी के बाद जो विचलन आया उसे संभालने में हम विफल रहे. हमने आत्मसंघर्ष की कसौटी भुला दी. मुक्तिबोध का संगठन पर विश्वास था तभी उन्होंने ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ जैसी कहानी लिखी. लेखक-प्राध्यापक रोहिताश्व ने अन्य भाषाओँ के समानधर्मा लेखकों से जुड़ने की बात की. सचेत हुए बिना किसी दूसरे कलबुर्गी की हत्या रोकी नहीं जा सकेगी. जलेस के महासचिव मुरलीबाबू ने कहा कि मुक्तिबोध का साहित्य फासीवादी निरंकुशता के दौर को परिभाषित करता है. उन्होंने कहा कि संगठनों का मजाक उड़ाने वाले व्यक्तिवादी हैं.


परिसंवाद की अध्यक्षता कर रहे दूधनाथ सिंह ने कहा कि मुक्तिबोध की सबसे अच्छी कविता ‘चंबल की घाटियाँ’ है. डकैत चंबल की घाटियों में ही नहीं रहते, अन्यत्र भी होते हैं. चर्चित कविता ‘भूल-गलती’ का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि अगर इस कविता में ‘आलमगीर’ शब्द न आया होता तो हम शिवाजी-औरंगजेब के संदर्भ को पकड़ न पाते और मुक्तिबोध की मराठा पक्षधरता को देखने में चूकते जाते. हमें मुक्तिबोध की सीमाओं पर भी बात करनी चाहिए. सिर्फ वाह-वाह करके हम किसी का भला नहीं करेंगे. मुक्तिबोध की भाषा में जो तात्समिकता है वह उनके मराठीभाषी होने के कारण है. वे उस तात्समिकता से बड़ा काम निकालते हैं मगर वही उनकी सीमा भी है. वे कभी उससे मुक्त नहीं हो पाए. साहित्यिक संगठन को जरूरी बताते हुए उन्होंने कहा कि जनता की चेतना का स्तर उठाने का काम जारी रहना चाहिए. इससे सत्ता परेशान होती है और ध्यान देती है. बड़े कवि की पहचान कराते हुए उन्होंने कहा कि कविता में संस्कृतियों का सम्मिश्रण काम्य स्थिति है. जायसी को उद्धृत करके हुए सत्राध्यक्ष ने परिसंवाद का समापन किया-  ‘केहि न जगत जस बेचा, केहि न लीन्ह जस मोल. जो यह पढ़ै कहानी, हम संवरै दुइ बोल ..’

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