भीड़ का वहशीपन : धर्मोन्माद या इंसानी बर्बरता ?

नूर ज़हीर 


डायन के नाम पर, विच हंटिंग के नाम पर, सती के नाम पर, सम्मान के नाम पर महिलाएं पूरे ग्लोब पर मॉब लिंचिंग की शिकार होती रही हैं. कहीं कबीलाई कानूनों का संरक्षण है, तो कहीं धार्मिक उन्माद का या कथित सामाजिक नैतिकता का. महिलायें मॉब लिंचिंग की आदि शिकार हैं और शिकार में शामिल भी रही हैं अपने डोमेन में.  बता रही हैं नूर ज़हीर.

बात सन 1980 की है जब यह फिल्म भारत में दिखाई गई। फिल्म पर बैन था और चोरी छुपे देखी थी। “डेथ ऑफ़ अ प्रिंसेस” का दिमाग़ पर इतना असर हुआ था कि हफ़्तों ख्वाब में वही मंज़र दिखा था : एक नकाब पोश लड़की, भीड़ के गोलधारे में, इधर उधर भागने, बचने की कोशिश कर रही है और नंगी तलवार लिए एक आदमी उसपर वार पर वार कर रहा है।  लड़की एक अरब शहज़ादी, जिसने बाप के तये किये हुए रिश्ते को ठुकराकर अपने प्रेमी के साथ सऊदी अरेबिया से भागने की कोशिश की थी।दोनों एअरपोर्ट पर पकडे गए और दोनों को सजा-ए-मौत सुनाई गई। पुरुष को तो एक अकेली जगह लेजाकर गोली मार दी गई लेकिन महिला को तो मिसाल बनाना था।  उसे भीड़ से घेर कर, धकिया धकिया कर, दौड़ा-दौड़ा कर तलवार से लहू लुहान करके मारा गया।  लेकिन जिसने सबसे ज्यादा असर किया वह थी वह बर्बर भीड़, चंडाल/बधिक को उकसाती, वार सही पड़ने पर उधम मचाती, आँखों में मौत देखने की लालसा, होठोंपर उत्साह की ख़ुशी। .

इस बंगाली महिला को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला



अगर हम ज़रा रुक कर सोचे तो ‘मॉब लिंचिंग’ ऐसी कोई अनहोनी, अचंभित करने वाला या समझ में न आने वाला कार्य नहीं है।  इस देश में जो दो बड़े धार्मिक समुदाय रहते हैं, यानि हिन्दू और मुसलमान उनमे मॉब लिंचिंग को धार्मिक अनुमति है। अगर नहीं होती तो न यहाँ कभी ‘सती प्रथा’ का न चलन होता और न ही पत्थर ‘संगसार’ की मिसाले मिलती।

मॉबलिंचिंग में एक सुरक्षा है, न पहचाने जाने की।  पुलिस भी अक्सर इस मामले में हाथ झाड कर अलग हो जाती है कि जब भीड़ ने मारा तो भला हम कैसे एक किसी को मुजरिम करार दे सकते हैं। चाहे चश्मदीद गवाह मौजूद हों इसके कि  किसने उकसाया, किसने खदेड़ा, किसने बर्बरता की राह दिखाई, किसने मर्दपन याद दिलाया, किसने अपने भाषण में ऐसे शब्द कहे जिससे छुपी हुई बर्बरता जागे और खुद को बेहतर हिन्दू या सबसे अच्छा मुसलमान साबित करने की इच्छा उग्र रूप लेकर हत्या करने पर आमादा हो गई।  इसलिए समूह में मारना एक सुरक्षा कवच है।  “जो सब कर रहे हैं, वो ठीक ही होगा’ या ‘सब कर रहे हैं तो हम क्यों अलग थलग रहे?’ ये अपने आप को चिन्हित करने का शौक़ है; अपने गुट, गिरोह या अपने समाज में।  जब पहचान अपनी न बन सके तो फिर भीड़ की पहचान को ओढने में क्या बुराई है?


इसके साथ साथ यह बात भी है की मॉब लिंचिंग के लिए शिकार का असहाय होना ज़रूरी है।  वो अल्प संख्यक हो, अकेला हो, मारने वालों का समूह बड़ा हो और सबसे बढ़ कर यह बात तय हो कि कामयाबी का उसे पूरा भरोसा है ।  इस उम्मीद से ही भीड़ का उन्माद बढ़ता है. भारतीय प्रायद्वीप में इस तरह की हत्या को धार्मिक रूप देकर स्वीकृति दे दी गई है। कुरान अपने आप में पथराव  और संगसारी से हत्या के खिलाफ है। लेकिन ज़्यादातर आलिम यह मानते हैं कि हदीस में इसके काफी उदहारण मिलते हैं और इसलिए इसे सजा का एक तरीका मानना ग़लत नहीं है।  इन्ही उदाहरणों के चलते अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी दौर में इस तरीके की सजा-ए-मौत अपने चरम पे थी।  इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि ऐसी सजा-ए-मौत सबसे निरीह और सबसे असहाय को सबसे आसानी से दी जाती है।  महिलाए सबसे ज्यादा इसकी शिकार होती हैं।  अक्सर कोई बचाने के लिए दो कारणों से आगे नहीं आता, ‘महिलायें ‘फ़ालतू हैं’ और ‘महिलाए जुर्म की जड़ हैं इसलिए जन्मजात मुजरिम हैं. यानी महिलाएं आजतक ‘हव्वा’ का किया जिसके सर पर इलज़ाम है कि उसने आदम को शैतान का दिया हुआ फल खाने के लिए उकसाया था और उसे अपने जुर्म में भागीदार बनाकर, अल्लाह के गुस्से और सजा का हक़दार बनाया था।  अगर हव्वा न होती तो आजतक आदम और उनके बच्चे जन्नत में मज़े से रह रहे होते। यह पहला जुर्म आजतक महिलाओं से चिपका हुआ है, और ज़रा से शक को सुबूत की ज़रूरत नहीं होती; जो जन्मजात गुनाहगार हो उसने तो गुनाह किया ही होगा, लिहाज़ा ऐसे इंसान को पत्थर तो पड़ने ही चाहिए।

बात सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान की नहीं है; पाकिस्तान के भी कबायली इलाकों में पत्थर मार कर हत्या काफी सुनने में आती है, खासकर के बलोचिस्तान और ख्वार पखुतुन्ख्वः  से। ये ज़्यादातर हत्याएं महिलाओं की हैं, उनपर हमेशा ही व्यभिचार के आरोप होते हैं।  इनमें पथराव  के साथ जिंदा दफ़न कर देने की इजाज़त भी है।  जनरल ज़िया के दौर में कोड़े लगाना भी आम बात हो गई थी।  यह कुरान में सजा के तौर पर दर्ज भी है, यानी इसको धार्मिक अनुमति भी है. संगसारी अकेले एक आदमी द्वारा संभव नहीं है; इसके लिए गड्ढा खोदना होता है, मुजरिम को आधा उसमे दफ़न करना होता है और फिर पत्थराव होता है जो अक्सर तीन दिन तक चलता है।  ज़ाहिर है की इतना कुछ एक भीड़ को जमा किये बिना कर पाना असंभव है।  और भीड़ वो होती है जो मानती है की मुजरिम गुनाहगार है और उसके लिए ये सजा उपयुक्त भी है और उसमे हाथ बटाने में उन्हें सवाब या पुण्य मिलेगा। इस तरह के किसी भी घटना के चित्र देखिये और दो बातों पर गौर कीजिये।  संगसारी करती हुई भीड़ में या तो औरतें होंगी ही नहीं या न के बराबर होंगी।  दुसरे इस भीड़ के हर फर्द के चेहरे पर उत्साह और ख़ुशी के भाव पर ध्यान दीजिये। देखिये कितना मज़ा आ रहा है एक ऐसे असहाय,  निरिही को मारकर, हर पत्थर पर उसकी चीखे सुनने में इन्हें कितना आनंद आ रहा है।

महिलाओं के प्रति बर्बरता का प्रतीक एक पेंटिंग

जिंदा दफ़न करना भी कोई अकेले के बस की बात नहीं।  ज़ाहिर है कि कोई भी जीता जागता इंसान आसानी से खुद को मृत्यु के हवाले नहीं करेगा।  उसे ज़बरदस्ती, हाथ पैर बाँध कर, किसी जगह बड़ा सा गड्ढा खोदकर दफनाना होगा और ऐसा करने में मोहल्ले वालों, गाँव वालों की मदद भी चाहिए होगी।

इसी तरह से सती पर ज़रा ध्यान दीजिये. एक अकेली औरत, जिसका ससुराल में अकेला रक्षक कुछ देर पहले ही मृत्यु को प्राप्त हुआ है, जो इतने दुःख में डूबी है की उसके समझ में भी नहीं आ रहा कि करे क्या? उसे घेर घार कर, चिता पर ज़बरदस्ती बिठा दिया जाता है; चीखती चिल्लाती है तो ढोल ताशे बजने लगते हैं, भागने का अवसर नहीं! बहुत बड़ी भीड़ के बिना क्या यह सब संभव है? ऊपर से इस हत्या को महाबलिदान का नाम दिया जाता है और मरने वाली को देवी मान लिया जाता है।  औरत को मारना समाज को इतनी ख़ुशी देता है कि राजस्थान के क्षत्रियों में होने वाली प्रथा जब बंगाल पहुंची तो इसे ब्राह्मणों ने गले लगा लिया।

सती पर कानूनी रोक है।  महिलाओं पर यह उपकार हमारी अपनी सरकार ने नहीं, रजवाड़ों नवाबों ने नहीं अंग्रेजों ने किया है। फिर भी 4 सितम्बर 1987 को रूप कुंवर की हत्या की गई और इसे सती का नाम देने की कोशिश हुई ।  रूप कुंवर की मौत को हत्या स्वीकारने के बावजूद न तो किसी को सजा हुई और न ही वहां बड़ा सा मंदिर बनने से कोई रोक पाया।लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है जैसे मौजूदा समाज इस कानून से विचलित है।  इसीलिए एक  दिन पहले आरा, बिहार में एक महिला को नंगा करके दौड़ा दौड़ा कर मारा गया।  भीड़ पीछा कर रही थी और पत्थराव करने वाले, मारने वालों में एक भी महिला नहीं थी.

दरिंदगी का यह भयावह नृत्य अरब राजकुमारी से होता हुआ, रूप कुंवर से गुज़रता आज एक महिला को जिंदा जलाने पर आ पहुंचा है। जितनी भी मॉबलिंचिंग पर नज़र डालिए तो उनमे महिलाओं की भूमिका नदारद मिलती है।  तो क्या महिलाए इस तरह की भीड़ द्वारा की गई हत्या से दूर होती हैं? क्या वे ज्यादा दयालु या भावुक होती हैं? शायद नहीं! क्योंकि घर में होने वाले अत्याचार या जोर ओ जबर में औरतें बराबर की शरीक होती हैं।  महिलाओं ने भी जब पितृसत्ता  का लबादा ओढ़ लिया है तो उसके हर अत्याचार को वे धर्म, समाज और परंपरा के ही नज़रिए से देखती हैं।  इसीलिए बलात्कार में वे भी महिला/लड़की को दोषी मानती हैं। रविवार को जिस महिला को भीड़ ने नंगा घुमाकर शर्मसार किया,  उसके बारे में बताते हैं वह वेश्या थी।  क्या इसीलिए महिलाए नहीं आई उसको बचाने? क्योंकि उनके घरों के मर्द उसके पास जाते थे? उन मर्दों को तो कुछ कहने की अनुमति इन महिलाओं को पितृसत्ता नहीं देती, एक असहाय महिला की ऐसी दुर्गति में क्या वे अपना सतीत्व, अपने घर का कुशल मंगल तलाश लेती हैं.

विच हंट की एक पेंटिंग

आज रुक कर कुछ सवाल अपने आप से पूछने की ज़रूरत है। क्या असहाय, कमज़ोर की इस तरह घेरकर भीड़ द्वारा हत्या हमारे शिकारी जानवर की कुछ बची रह गई प्रवृत्तियां है जिन्हें हम संतुष्ट किये बिना रह नहीं पा रहे या हम फिर पीछे लौट रहे हैं जहाँ ‘सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट’ की थ्योरी के तहत अब वही बचेगा जो बलशाली होगा? जिसकी गिनती ज्यादा होगी? जो भीड़ जुटा सकेगा? अगर ऐसा है तो फिर काहे का जनतंत्र और काहे की डेमोक्रेसी? हमसे तो वो जानवर भले जो कम से कम अगर हत्या करते भी हैं तो अपनी पेट की भूख मिटाने के लिए, किसी धर्मोन्माद का नंगा नाच करने के लिए या पितृसत्ता के खिलाफ खड़े होने वाली किसी स्त्रीस्वर को दबा देने के लिए नहीं .

वरिष्ठ लेखिका नूर ज़हीर कथासाहित्य का चर्चित नाम है. परिवार की परम्परा से ही प्रगतिशील आन्दोलन से जुडी हुई हैं. 

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