लेखक संगठनों को समावेशी बनाने के सुझाव के साथ आगे आये लेखक: प्रलेस से की पहल की मांग

पिछले कुछ दिनों से लेखिकाएं और लेखक प्रगतिशील लेखक संगठन की कार्यप्रणाली और उसमें ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक वर्चस्व पर सवाल उठ रहे हैं. जब बहस चली है तो सारे जनवादी लेखक संगठनों पर भी उँगलियाँ उठ रही हैं. प्रलेस ने इन सवालों पर आक्रामक प्रतिक्रियात्मक रुख ले रखा है. शेष संगठन चुप हैं. इस बीच सवाल उठाने वाली वरिष्ठ लेखिका नूर ज़हीर ने लेखक संगठनों को, खासकर प्रलेस को समावेशी बनाने का प्रस्ताव किया जिसके समर्थन में लेखिकाएं, लेखक भी सोशल मीडिया में लिख रहे हैं: हालांकि पहले से ही न के बराबर प्रलेस की लेखिकाओं ने इस मसले पर चुप्पी बना राखी है. देखें किसने क्या कहा:

नूर ज़हीर

नूर ज़हीर के कुछ सुझाव 
ज्यादातर प्रलेस के सदस्य लेखक यह समझ रहें हैं कि मेरी नाराजगी संघठन से है। उन्हे बता दूँ कि यह मेरी प्रलेस से अपार प्रेम और अपनापन है जिसकी वजह से मैं इस कोशिश मे हूँ कि इस सबसे पुरानी लेखकों कि एकजुटता मे ऐसे बदलाव हों कि यह फिर से सबके लिए मिसाल बने। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं/ मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए!
संघठन के भीतर कई बार बात करने की कोशिश की है। जब उन मुद्दों पर चर्चा तक नहीं हुई तब सोशल मेडिया पर अपनी बात रखनी पड़ी । सोशल मेडिया भी बदलाव की ज़मीन नहीं तैयार कर सकता इसलिए कुछ लेखक साथियों से बातचीत करके कुछ ठोस प्रस्ताव सामने रख रही हूँ। प्रलेस के और दूसरे साथी पढ़ें और इसपर अपनी राय दे तो मेरे खयाल से संघठन के लिए अच्छा होगा :
1॰ संघठन की निर्णायक समितियों मे राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर लेखिकाओं को नेतृत्व दिया जाये, जिसकी शुरुआत फौरन हो 
2॰ संघठन की अध्यक्ष और सचिव अगले टर्म तक लेखिकाएँ हों 
3॰ कार्यकारिणी मे 50% लेखिकाएँ हों जिनमे कम से कम 20% दलित, पसमानदा, आदिवासी, ओबीसी हों। 50% पुरुष लेखकों मे भी ऐसा ही करने कि कोशिश हो । 
4 ॰ वर्तमान महिला सदस्यों को ज़िम्मेदारी दी जाये कि वे लेखिकाओं को जोड़े खासकरके दलित, पसमानदा, आदिवासी, ओबीसी लेखिकाओं को जुडने के लिए प्रोत्साहित करें ।
5 ॰ कोई भी पद अधिकारी दो टेर्म से अधिक पद पर न बना रहे, न ही उसकी फौरन पद वृदधि हो। दो बार पद संभालने के बाद तीन बार वह केवल साधारण सदस्य रहे 
6॰जयपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन मे इसकी पहल हो
इसके लिए ज़रूरी है कि पहले से कई कई बार पद अधिकारी रहे लेखक, थोड़ी उदारता दिखाएँ और अन्य लेखकों को आगे आने के अवसर दे। 
यह बदलाव करने से ही प्रलेस हमारे पुरखे प्रेमचंद जी के कहे को सच कर दिखाएगा और आज के दौर मे जब हर ओर आंदोलन कि सख्त ज़रूरत है, प्रलेस से जुड़े लेखक समाज के आगे चलने वाली मशाल बनेगे । 
यह भी सनद रहे कि मैं, नूर ज़हीर, जीवन भर प्रलेस का काम करूंगी, और जुड़ी रहूँगी और कभी कोई पद ग्रहण नहीं करूंगी । 
साथी, दोस्त, शुभचिंतक और दुश्मन ज़रूर अपनी राय दीजिये चाहे आप प्रलेस से जुड़े हों या न हों

प्रलेस के बिहार इकाई के राज्य सम्मलेन में मर्द ही वक्ता मर्द ही आयोजक

हेमलता माहिश्वर 
कोई भी लेखक संघ कोई गोपनीय सरकारी संस्थान तो है नहीं कि वहॉं हो रही आपत्तिजनक गतिविधि पर सार्वजनिक रूप से सोशल मीडिया में आवाज़ न उठाई जा सके। सर्वप्रथम सभी संगठन के भीतर आवाज़ उठाते हैं, जब सुनवाई नहीं होती तो संगठन से ठेस लेकर कोई बाहर से आवाज़ देता है। पर इस आवाज़ को सुननेवाला कोई कान तो हो। सब रुई डाले बैठ जाते हैं। 
प्रलेस से अपना असंतोष Noor Zaheer जी दर्ज कर चुकी हैं। यदि संघ संवेदनशील है तो इस आवाज़ को सुनता क्यों नहीं? क्यों माननीय सदस्य सामंतों की तरह कह रहे हैं कि असहमति की आवाज़ बाहर न जाए, असहमति बड़े घर की बेटी बहु की तरह भीतर ही सिसकती रहे, आबरु बनी रहेगी।
सोशल मीडिया वह जगह है जहॉं से आपकी आवाज़ सब तक पहुँचती है। यह काम पत्रिकाओं से भी संभव नहीं है। असहमति को धैर्यपूर्वक सुनने की आदत डालें। साक्षी मिश्रा का पिता न बनें और न ही साक्षी मिश्रा के पिता के प्रति सहानुभूति दर्ज करने वाला बनें। 
प्रगतिशील हैं तो गतिशील बनकर दायरे तोड़ने का जतन करें न कि सबको दायरे के भीतर क़ैद करें। पारम्परिकता के दायरे तोड़ना ही प्रगतिशीलता है।   }
मृदुला शुक्ला 
नूर जी की वाल पर पढा था सहमत हूँ ।हर बात से बस इतना ख्याल रखा जाए कि यह संगठन अवसरवादियों से बचा रहे जो थोड़े स्वार्थ (मंच पैसा प्रकाशन )के लिए किसी भी विचारधारा समूह मंच पर चले जाते हैं ।  
अनिल जनविजय 
एकदम उचित सुझाव। लेकिन प्रलेस के सवर्ण संघियों को पसन्द नहीं आएँगे। 
शम्भू गुप्त 
ऐसा हो जाए तो फिर कहना ही क्या! 
यह तो संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन कर देगा।
लेकिन ऐसा लोग होने नहीं देंगे! 
राजनीति की तरह यहाँ भी वर्चस्व का मामला है । 
मोहन श्रोत्रीय
वे अपने चुने हुए रास्ते पर, चुने हुए साथियों के साथ चलते रहेंगे! पूरी निर्लज्जता के साथ। अमृतलाल उके
परिवर्तन की चाह इटा-भट्टे का मजदूर करता है अथवा पार्टी का झंडा थामे कोई वोटर. वह क्यों करेगा जो ठेकेदार है, पार्टी का मुखिया है ? चाहे प्रगतिशील लेखक संगठन हो या मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी, नूर जहीर के सुझावों पर अमल करने उन्हें अभी कई जन्म लेने पड़ेंगे..  

प्रलेस का राष्ट्रीय अधिवेशन


सुशीला पुरी 
इस प्रस्ताव का हार्दिक स्वागत करती हूं और सभी लेखक संगठनों से यह अपील करती हूं कि उपरोक्त बातों पर अमल करें और सहभागी समाज के सपने को ज़मीन पर भी संभव होने में सहयोग करें। 
राजीव सुमन
 विडंबना यह है कि जो साहित्य के मठाधीश हैं, वे सामंती परंपरा के वाहक और वंशज भी हैं। ये ही पितृ सत्ता में “कर्ता” भी हैं। ये बिना दांत और आंत के हो सकते हैं पर गढ़ और मठ नहीं छोड़ सकते। इन्हें पदच्युत किया जा सकता है लेकिन पद छोड़ देने का विवेक नहीं पैदा किया जा सकता। ये ठूंठ हैं, आपके सार्थक सुझावों और बदलावों के कोंपल इनके भीतर से नहीं पनप सकते। यलगार खुद स्त्री लेखिकाओं आदि को ही करना होगा जो ऐसा बदलाव चाहती हैं। 
सत्य पटेल
ऐसा किया भी जा सकता है, लेकिन संभव है कि जैसे गांव में सरपंच पति, नगर पालिका में पार्षद पति, विधानसभा में विधायक पति उभरे और महिलाएं सिर्फ अंगूठा लगाने और हस्ताक्षर करने का काम करती रही। प्रलेस में ऐसे डमी उम्मीदवार इस्तेमाल हो सकते हैं ! क्योंकि अभी जिनका कब्ज़ा है, वे हर तरह की निकृष्ट चाल चलेंगे !
संगठन का वर्तमान ढांचा ही ठीक नहीं है, ज़रूरत है कि धैर्य से इस ढांचे को नष्ट कर नई व्यवस्था कायम की जाए, जिसमें चाहकर भी कोई अवसरवादी सेंध नहीं लगा पाए। इस ढांचे ने लेखकों का और ईमानदार कार्यकर्त्ताओं का बहुत नुक्सान किया है। 
अपर्णा  
सुझाव तो विचारणीय है लेकिन संगठन में इस सुझाव को लेकर कितना बदलाव होगा या बदलाव के लिए सोचा ही जायेगा ये देखा जाये.  
रश्मि भारद्वाज 
दुर्भाग्य है कि ज़्यादातर लेखक संगठनों का ढांचा और काम का तरीका स्त्री विरोधी है। काग़ज़ों पर चाहे जो हो जाये, स्त्री अस्मिता की लड़ाई लंबी है। नूर ज़हीर की बात का समर्थन  
मुलायम सिंह यादव 
प्रलेस में एक से बढ़ एक जातिवादी घाघ बैठे हैं कामरेड| सूरत इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई किसी की सूरत को देखना नहीं चाहता|  
नाइश हसन 
आप के सुझाव बहुत अच्छे पर सवाल 
पहल कौन करेगा , महिलाएं भी उसी मानसिकता की है , की में राहु और कोई नही । सीक्रेट सर्विस सेंटर से आम जन के लिए कब तैयार होगा।   
पुष्पा विवेक 
आपने बिल्कुल सही कहा। महिलाओं को केवल भीड़ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। सदियों से पीछे धकेली जाने वाली महिला अब इतनी योग्य और मजबूत हो गई है कि वह। अपने हक और अधिकार समझने लगी है और उन्हें पाने के लिए संघर्ष करना भी जानती है।वे समानता का अधिकार और सहभागिता उसे मिलनी भी चाहिए।
जय भीम ,नमो बुद्धाय।  
ज्योत्स्ना रघुवंशी बहुत जरूरी है, महिलाओं की नेतृत्व में सक्रिय भागीदारी से बदलाव सुनिश्चित होगा,भाषा प्रयोग के स्तर पर भी।  
संजीव चंदन
लेखक संगठनों में लोकतांत्रिक माहौल के लिए Noor Zaheer के इस सुझाव का हम समर्थन करते हैं। आप भी करें। यदि इससे सहमत हों। मैं सिर्फ इसमें यह जोड़ रहा कि 20% आरक्षण को महिला वर्ग और सामान्य में भी धीरे-धीरे 50% कर देना चाहिए।
नरेश सक्सेना
बहुत सुंदर और विचारणीय।
एक पूरा कार्यकाल क्या पूरी तरह महिलाओं को दिया जासकता है? पुरुष रहें उसी अनुपात में जिसमें अभी महिलाएं हैं।
असल समस्या यह है कि वर्तमान लेखन को प्रभावशाली
कैसे बनाया जा सकता है।
अपनी महान जनता की सांप्रदायिकता, मूढ़ता और ख़ुद अपनी जड़ता से कैसे पार पायें। उसके लिये क्या कोई योजना हो सकती है।
जितेन्द्र विसारिया
प्रगतिशील लेखकसंघ के फाउंडर मेम्बर आदरणीय सज़्ज़ाद ज़हीर की बेटी आपसे कुछ गुहार लगा रही हैं, है साहित्यकार कॉमरेड! कुछ उनकी भी सुन लीजिए!! या दिल्ली की तरह आप भी ऊँचा सुनने लगे हैं???

नीलिमा चौहान
संस्थाएं जाहिराना तौर पर जनपक्षधरता की समता की बात करती हैं उनके भीतर के इस तरह की विडम्बनाओं का सामने आना ज़रूरी है । प्रगतिशील लेखक संघ में स्त्रीद्वेषियों को मंचासीन करने की मजबूरियों पर बोलने के लिए डाला गया यह दबाव वक्त की मांग है । अपनी पॉलिटिक्स में स्त्रियों को निचले पायदान पर रखने के लिए चेताना ज़रूरी कदम था और किसी को तो इस आज़ाब में कदम रखना ही था । नूर जी को पूरा समर्थन

इन लेखकों के अतिरिक्त जिन लेखक-लेखिकाओं ने प्रस्ताव का समर्थन किया है उनमें हैं: अनिता भारती, बोधिसत्व, दया शंकर राय, रणधीर सिंह सुमन, विभा रानी, डा. पुष्पलता, श्रीधरम, सूर्यनारायण, किरण शाहीन, पद्मा सिंह, मनीमय मुखर्जी, फ़िरोज़ खान, संजय माथुर, मंजू शर्मा, अजीत सिंह, योगिता यादव, अनिता मिश्र, प्रेमचन्द गांधी, सुबोध लाल, बसंत जेटली, मनोज पाण्डेय, मसूद अख्तर, सिया सचदेव, सुधा उपाध्याय, शशिभूषण, ज्योत्सना रघुवंशी, अपर्णा आदि.

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