रजनी अनुरागी की कवितायें

रजनी अनुरागी


रजनी अनुरागी कविता में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति हैं . रजनी कविताओं के लिए शीला सिद्धान्तकर सम्मान से भी सम्मानित हैं . संपर्क:rajanianuragi@gmail.com



1.मां का बक्सा

बहुत दिनों से मां कलेजे से लगाए हुए थी बक्सा
उसे अपनी टूटी खाट के नीचे रखती थी
बड़ा-सा ताला लगा था
जब भी मौका मिलता वह उसे खोलती
जी भर देखती और किसी की आहट पाकर उसे बंद कर देती
कई बार बेटों को शक हुआ
अम्मा ने जरूर इसके अंदर छिपा रखा है माल
कई बार चोरी-छिपे चाभी ढूंढ़ने के असफल हुए प्रयास
बेटे कितनी बार मां से लड़ चुके –
‘अपनी बेटी को ही देगी सारा माल’
कह चुके थे सगे भाई-
‘अब बुढ़िया मरे तो माल मिले’

काल के चक्र से एक दिन मर गयी बुढ़िया
बेटों ने मरने की खबर पहुंचने से पहले चाबी ढुंढ़वायी
बड़े उत्साह से बक्सा खोला और देखकर रह गए दंग

उसमें थी
बेटों को बालपन में पहनायी काले धागे की तगड़ी
रंग-बिरंगे झुनझुने,  लोहे की तार पर कूदता-फिसलता बंदर
छोटी-छोटी कुछ चूं-चूं चप्पलें, कुछ छोटे छोटे स्वेटर
मोजे, दस्ताने,छठी के कपड़े,काजल की सूखी डिब्बी
कुछ पीतल के घुंघरू, पुराने काले-सफेद फोटो
कुछ फटी पीली जर्जर किताबें, लकड़ी के टूटे खिलौने
बेसब्र भाई एक-एक कर जल्दी-जल्दी
कूड़ा निकालकर फेंकने लगे
और फिर उन्होंने पलट दिया बक्सा

छोटे बच्चे उन्हें उठा-उठाकर चहकने लगे
बेटे गुस्से से हाथ-पांव फटकते हुए छीनने लगे
बच्चों के हाथों से तार पर झूलता मुंह चिढ़ाता बंदर
रख देना इसे भी बुढ़िया के साथ
रोते हुए बोले
हाय ! हाय ! यही कबाड़ ताले के अंदर

2. मां
मां सब कुछ सहेजकर रखती है
हमेशा संभालती है उन चीजों को जो हैं बेकार
खाली डिब्बे, रैपर ,पॉलिथीन,फटे-पुराने कपड़े , ब्रश
उसने आज तक नहीं फेंके पुराने टूटे बर्तन
चाय की पत्ती को भी वह बना देती है खाद
आज तक नहीं फेंकी मेरी छोटी फ्रॉक
मेरा लिखा पहला अक्षर उसके संग्रहालय में
आज भी सुरक्षित है

अब वह मुझे ठीक से नहीं देख पाती
हाथों  से देखती है मेरा चेहरा चेहरा
महसूस करती है मेरा दर्द   पोंछती है अपने आंसू
अब वह ऊंचा सुनती है   लेकिन मेरे बोलने से पहले ही
न जाने कहां से उस तक पहुंच जाती है मेरी आवाज
मेरे लिए बनाती है आलू की सब्जी
पूरी अचार और घीए का रायता
वह निकालती है मलाई से घी और वर्ष भर जोड़ती है
फिर बांट देती है
असली घी देकर होती है खुश

मैं बरस दर बरस फैलती जा रही हूं
वह कहती है तू कितनी बोदी हो चली है
सिर पर हाथ फैरते हुए बना देती है अब भी मेरी चोटी
बटा हुआ चुटिला और उसमें लटकते फुंदने
मेरी कमर पर थिरकने लगते हैं

उसके दिल की गठरी में नजरबंद हैं कई पुराने दर्द
कभी कभी वह उन्हें धूप दिखाती है
वरना बक्से में बंद ही रखती है
कुशल हाथों से तहाये हुए जीवन के सत्तर साल
वहां करीने से रखे हुए हैं
उनकी तहों में जब कहीं से पुरानी टीस निकल आती है
तो झटके से दबा देती है
वह किसी को बक्से से हाथ नहीं लगाने  देती
वह संपत्ति है  उसकी

सोचती हूं   क्या मैं भी एक दिन मां जैसी हो जाऊंगी
लेकिन मुझमें इतना सब्र कहां
कि चीजों को संभाल कर रख पाऊं
मैं अभी से चीजों को भूलने लगी हूं
दिखता है कम   हड्डियां हैं बेदम
और दर्द
दर्द तो अब होता नहीं शायद

3.मां के विदा होते ही

मां के विदा होते ही
बेटों ने संभाले ज़मीन जायदाद के कागज़ात
बहुओं ने सभाले ऐंटिक जेवरात
बेटियों को मिली पुरानी साड़ियों की सौगात
पर उनकी छोड़ी किताबों का न रहा कोई नाम लेवा

अब उन्हें कौन सम्भाले…??
मां के साथ ही क्रिया कर्म कर देते तो अच्छा था
कितना मना करते थे पर मां मानती ही कहां थीं
मरते दम तक किताबों में जाने क्या ढूंढ़ती रहती थीं
(वैसे भी मां की सुध किसे थी)
घर भर घेर रक्खा है इन रद्दी किताबों ने
अब किताबों  की अंतिम यात्रा शुरु होनी तय थी
किताबें पहुंचा दी गईं किसी सिरफिरे के पास
उसने ज़रुरत भर की किताबें छाटीं
बाकी कर दीं आगे पास
अगले ने उड़ती नज़र से बांचा
एक आध का हो गया उद्धार

किताबें बाट जोहती रहीं
बहुत सी किताबों को नहीं मिला कद्रदान
किस रास्ते जाएंगी किताबें
कहा भटकेंगी कोई नहीं जानता
किताबों की आंखें हैं नम
वे पहुंचा दी गईण कबाड़ी के द्वार
किताबों मे जगी नई आस
रिसाइकिल होकर फिर बन जाएंगी
किसी किताब का आधार

4.


किताबें और बेटियां
किताबें और बेटियां एक सी होती हैं
कभी भी उठकर पुकारा जा सकता है
कभी वर्षों तक बेखबर भी रहा जा सकता है
मगर जब भी पुकारो दौड़ी चली आती हैं
पुरानी मधुर स्मृतियों सी सुख दुख सांझा करतीं

५. प्रेम कविता

जब भी पुरुष पढ़तें हैं प्रेम कविता
चारों ओर वसंत सा छा जाता है
आंखों के लश्कारे तरल हो जाते हैं
स्मित मुस्कान के दिए जल जातें हैं सभागार में

और स्त्री की प्रेम कविता पर
प्रश्न आंखों की पुतलियों में अड़ जाते
दृष्टि राडार सी घूमने लगती
करने लगती है सवाल
( जैसे अनाधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर लिया हो
या अवांछित सा कुछ कह दिया हो )
ढूंढ़ते लगते हैं किसी बेनाम को
देने लगते हैं उसके प्रेम को नाम

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ISSN 2394-093X
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