ताकि बलात्कार पीड़िताओं को बार –बार बलात्कार से न गुजरना पड़े

संजीव चंदन

बलात्कार पीडिताओं को लेकर भारतीय समाज अजीब मर्दवादी मानसिकता में जीता है. अभी कल ही खबर आई कि बलात्कार पीडिता को उसके बलात्कारी के साथ शादी करवा दी गई और वह शादी के 7 महीने के भीतर आत्महत्या को विवश हो गई- मर गई. यह उसके खिलाफ यौन हिंसा को गैरजिम्मेवार तरीके से डील करने से हुआ- उसकी ह्त्या का दोषी समाज और उसकी मानसिकता है, वह शादी के बाद रोज -रोज बलात्कृत होती होगी. इस समाज कि यह कैजुअल सोच बलात्कार की घटनाओं के बाद पीडिता को न्याय दिलाने वाली एजेंसियों के रवैये में भी दिखता है . चिकित्सा, जांच और न्याय एजेंसी के  इस रवैये के खिलाफ महाराष्ट्र के एक डाक्टर ने मुहीम छेड़ रखी थी और इस पर उन्हें बहुत हद तक सफलता भी मिली है . 

 महिलाओं के प्रति असंवेदनशील व्यवस्था को बदलने की मुहीम में महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल सायन्सेज ( एम जी आई एम एस ) के फोरेंसिक विभाग में कार्यरत डाक्टर इन्द्रजीत खांडेकर  ने कई बड़े बदलावों को अंजाम दिये, उनमें बलात्कार पीडिताओं के फिंगर टेस्ट को बंद करवाने से लेकर गैरकानूनी सवालों के दायरे में उसकी जांच को बंद करवाने जैसे बदलाव शामिल हैं. जेंडर जस्ट न्याय और चिकित्सा के लिए संघर्षरत इस डाक्टर की पहलों से आये बदलाव पर एक विशेष रिपोर्ट . 


अमानवीय फिंगर टेस्ट का खात्मा 


डाक्टर खांडेकर ने कई पन्नों में फैले अपने अध्ययन के आधार पर यह स्थापित किया कि यौन हमलों की शिकार महिलाओं को जांच के नाम पर काफी अमानवीय प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है. बिना किसी फोरेंसिक फॉरमेट के उनकी जांच होती है . उन्होंने इसके लिए केंद्र और महाराष्ट्र सरकार से पत्राचार किये , जो शुरू में बिना जवाब के पड़े रहे . 2010  में डा. खांडेकर के अध्ययन के आधार पर फ़ॉर्मेट बनाने के लिए एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर खंडपीठ  में डा. रंजना पारधी और एडवोकेट विजय पटाइत ने किये .

(पढ़ें : बलात्कार बलात्कार में फर्क होता है साहेब )

डा खांडेकर  की सबसे बड़ी आपत्ति यौन हमलों की शिकार महिलाओं के फिंगर टेस्ट पर थी , जो उनके अनुसार दोहरी यातना से गुजरने जैसा था. फिंगर टेस्ट पीडिता की योनी में दो ऊँगल डालकर की जाती है. इस पी आई एल में केंद्र सरकार का रवैया काफी टाल-मटोल वाला रहा . उसने कोर्ट में अपने एफीडेविट में कहा कि महाराष्ट्र सरकार जो भी फॉरमेट बनायेगी, वह केंद्र सरकार मान लेगी. इस एफीडेविट के पूर्व राज्य और केंद्र सरकार जो फॉरमेट लेकर कोर्ट में आई उसमें ‘ फिंगर टेस्ट’ शामिल था. डा खांडेकर और याचिकाकर्ताओं की आपत्ति के बाद महाराष्ट्र सरकार मई , 2013 में डा खांडेकर की सहमति से जांच का फॉरमेट लेकर आई, जिसमें फिंगर टेस्ट न सिर्फ ख़त्म किया गया था बल्कि कई स्त्री के पक्ष में कालम बनाये गये थे  , जिससे पीडिता को न्याय मिले. केन्द्रीय स्तर पर डिपार्टमेंट ऑफ़ हेल्थ रीसर्च  (DHR) ,  इन्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रीसर्च ने एक समिति बनाई , जिसमे डाक्टर खांडेकर को भी शामिल किया गया . निर्भया काण्ड (दिल्ली गैंग रेप) की पहली बरसी (2013) पर इस समिति का फ़ॉरमेट लागू किया गया, लेकिन जल्द ही केंद्र सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय मार्च, 2014 में अपने फोर्मेट लेकर आई . डा खांडेकर कहते हैं कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस नये फॉरमेट में सैम्पलिंग की प्रक्रिया गायब है.’ दरअसल पीडिता के कपड़ों, खून आदि के साथ 15-20 चीजें सैम्पल के तौर पर ली जाती हैं , जिसकी अभियुक्तों को सजा दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है .

आज भी पूछे जाते हैं अपमानजनक सवाल 
बलात्कार के बाद सबसे कठिन लड़ाई होती है, दोषियों को सजा दिलवाने की . पुलिस डाक्टरों से पीडिता की जांच के लिए तीन अपमानजनक और स्त्रीविरोधी सवाल पूछती है. 1.. क्या पीडिता यौन सम्बन्ध की आदि है ? 2. बलात्कार हुआ या नहीं?  3. पीडिता यौन संबंध में सक्षम है या नहीं? डा खांडेकर ने 2011 में पुलिस की यह पद्धति हटाने के लिए महाराष्ट्र और केंद्र, दोनो सरकारों को लिखा. सितम्बर 2013 में महाराष्ट्र सरकार ने एक आदेश के माध्यम से जांच के लिए नये सवाल डा खांडेकर की  सलाह पर बनाये. नये नियम के अनुसार पुलिस अब चार सवाल सम्बंधित डाक्टर से पूछती है : 1. क्या पीडिता के साथ हाल में कोई  बलपूर्वक यौन संबंध बनाया गया है ? 2. पीडिता के ऊपर कितने , कैसे और कहाँ जख्म हुए हैं ? 3. क्या कोई बाहरी वस्तु, जैसे, बाल, खून या वीर्य पीडिता के शरीर पर पाये गये हैं ? 4 . पीडिता से जरूरी सैम्पल जैसे, कपडे, खून आदि .

( पढ़ें: यौन हिंसा और न्याय की मर्दवादी भाषा )

हालांकि केंद्र सरकार ने इसपर आज भी चुप्पी बनाये रखी है और देश के दूसरे राज्यों में तथा केन्द्रीय जांच एजेंसियों के बीच सवालों का पुराना पैटर्न बदस्तूर जारी है. सुप्रीम कोर्ट के वकील अरविंद जैन कहते हैं, ‘ यह रवैया न सिर्फ केंद्र सरकार की पुरुषवादी प्रवृत्ति के कारण उस तक ही सीमित है बल्कि उच्चतम न्यायालय में भी यह कई मामलों में सामने आता रहता है . एविडेंस एक्ट 1944 से पीडिता की  यौन संबंध की आदत  वाले सवाल 1994 में ही ख़त्म कर दिये गये थे , लेकिन आज भी कई निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय पीडिता के यौन संबंधों के इतिहास को प्राथमिकता देते हुए पाया जाता है.’ खांडेकर कहते हैं ‘ जरूरत है कानूनों को प्रैक्टिकल सिलेबस में शामिल करने की.

गैर जरूरी वीर्य सैम्पल की परंपरा
डा. खांडेकर की ही पहल पर यौन हिंसा के अभियुक्तों का वीर्य सैम्पल लिए जाने की परम्परा को महाराष्ट्र सरकार ने ख़त्म कर दिया. खांडेकर कहते हैं, ‘ यह न सिर्फ गैरजरूरी समय खाता है बल्कि दोहरा स्त्रीविरोधी माहौल भी बनाता है.’ राज्य और केंद्र सरकार को लिखे अपने पत्र में उन्होंने तफसील के साथ बताया है कि कैसे इस सैम्पल के लिए बलात्कार के अभियुक्तों को पोर्न दिखाया जाता ह. यह सैम्पल सिर्फ ब्लड ग्रूप जानने के लिए लिया जाता है, जिसे अभियुक्त के ब्लड और पीडिता के कपड़ों पर प्राप्त सीमेन के जरिये जाना जा सकता है .
आश्चर्यजनक तौर पर केंद्र सरकार ने इसपर चुप्पी बना रखी है .

देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट : 
डा खांडेकर ने 2011 में एक जनहित याचिका बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच में दायर की और मांग की कि देश भर में यौन हिंसा सहित दूसरी हिंसा की जांच के लिए एक क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन बनाया जाय और सिलेबस तथा करिकुलम में इसे शामिल किया जाय .  दरअसल अभी तक यौन हिंसा की पीड़िताओं की जांच स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल यौन हिंसा के पीड़ितों की जांच बाल रोग विशेषज्ञ आदि के द्वारा करवाने की परम्परा रही है , जिन्हें फोरेंसिक जानकारियाँ नहीं होती हैं. इस प्रकार उनकी रिपोर्ट न्यायिक प्रक्रिया में ज्यादा प्रभावी नहीं होती . खांडेकर कहते हैं , ‘ इसका मूल जड़ है मेडिकल का सिलेबस . जो पढाता है ( यानी फोरेंसिक शिक्षक ) वह प्रैक्टिकल नहीं करता और जो प्रैक्टिकल करता है वह पढाता नहीं. खांडेकर ने अपने मेडिकल कालेज ( एम जी आई एम एस ) में देश का पहला क्लिनिकल फोरेंसिक मेडिसिन यूनिट बनाया , जो अस्पताल के  आपात विभाग ( इमरजेंसी) का हिस्सा है. इस यूनिट में सर्जरी , ओर्थोपेडिक, स्त्रीरोग , बालरोग और फोरेंसिक के डाक्टरों की टीम २४ घंटे काम करती है . नागपुर हाईकोर्ट के आदेश पर मेडिकल कौंसिल ऑफ़ इण्डिया ने डा खांडेकर से ९ जून  २०१४ को बातचीत की ताकि इस मॉडल को पूरे देश में लागू किया जा सके .

अपराध की जांच की ट्रेनिंग देते डा. खांडेकर 

(पढ़ें : बलात्कार पर नजरिया और सलमान खान )

गैरजरूरी पोस्टमार्टम, अपठनीय हैण्डराइटिंग के खिलाफ मुहीम और अन्य बड़ी पहल 
डा . खांडेकर जेंडर जस्टिस आधारित  न्याय और चिकित्सा की अपनी पहलों के साथ लगातार सक्रिय हैं . उनकी पहल पर महाराष्ट्र सरकार गैरजरूरी पोस्टमार्टम ख़त्म करने पर विचार कर रही है. खांडेकर के अनुसार इससे ६०% पोस्टमार्टम कम हो जायेंगे और इनपर जाया होने वाले समय , ऊर्जा और धन की बचत होगी. एक जरूरी पहल के तौर पर डाक्टरों की हैण्डराइटिंग तथा हस्ताक्षर के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में होने वाली देरी को कम करने की मुहीम भी उल्लेखनीय है. अपने मेडिकल कालेज में इन्होने देश का पहला सॉफ्टवेयर विकसित करवाया है , जो मैन्युअल फोरेंसिक रिपोर्ट की प्रथा को ख़त्म करदेने वाला है . महाराष्ट्र सरकार इसे भी पूरे राज्य में लागू करने की तैयारी कर रही है.

(पढ़ें : दाम्पत्य में बलात्कार का लायसेंस)

डाक्टर की अगली मुहीम है देश के पाठ्य पुस्तकों में जरूरी जानकारियाँ शामिल करवाना , जिससे बच्चे यौन विचलन और हिंसा के शिकार न हों .

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ISSN 2394-093X
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