सुनंदा का दरवाजा

प्रो.परिमळा अंबेकर

हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और विभागाध्यक्ष . आलोचना और कहानी लेखन  संपर्क:09480226677

आशी….. आशी…. । अश्विनी के कमरे का अधभिडा दरवाजा खोलकर सुनंदा हडबडा कर भीतर गयी। उसकी पुकार कमरे की चाहरदीवारी से टकराकर लौट आयी। कमरे के कोने में पडा खाली सुनसान बिस्तर जैसे उसेे चिढा रहा था। सुनंदा पैर से सर तक सुन्न !! खाली बिस्तर…. खाली कमरा… !! उसके  दिल की धड..धड धडक…..खाली कमरे को भरने लगा। अंतडियों को मरोडकर निकली चीख उसके गले में आकर अटक गयी।  आगे बढकर बिस्तर का हत्था पकडे-पकडे सुनंदा बैठ गयी! आशी… आशी…. शब्द उसके सूखे जर्द होंटों पर बुदबदाने लगे। कल शाम से ही एक अजीब सा डर, जो काला चद्दर बनकर उसके मन और बुद्धी को ढापे ढापे चल रहा था , आज दिन के उजाले में वही डर सुनंदा के सामने नंगा होकर नाच रहा था। आज उसकी आशी…. उसके दरवाजे को लांघकर चली गयी थी .. !!

आये हर रिश्ते को नकारती बेटी अश्विनी सुनंदा के सामने पहाड बनकर खडी थी।  जो न चढते बनता… न उतरते बनता। आये दिन एक अजीब किरचन उसके मन में वक्त बेवक्त किरकते जाती… जैसे गहरे पानी के नीचे कोई  खंजर हिल रहा हो ..!! सुनंदा नहीं चाहती थी कि कोई ऐसा दरवाजा वह खोले जिसके बाहर के सच को देखने के लिए , मजबूर न हो जाय , वह विवश न हो जाय !! लेकिन कल पिंकी से खुली बात ने  जैसे सुनंदा के पैर की जमीन ही हिला डाली। शाम से पिंकी की आवाज तलवार बनकर लटक रही थी उसके सर पर । ‘‘ अव्वा…आशक्का… शादी नहीं करती, बोलती है।‘‘ सुनंदा को लगा जैसे सांस लेना मुश्किल हो रहा हो। सांस जैसे फेफडे में ही घुमडने लगा है। पिंकी फिर बोल पडी थी। ‘‘ अव्वा…. अक्का… आॅफिस के अपन बाॅस के साथ …. ‘‘  पिंकी रूक रूककर बोलते जा रही थी, लेकिन सुनंदा के कान बजने  लगे। ‘‘ आशक्का का वह बाॅस… अव्वा जात से  …. !!  पिंकी की धुनीधुनी आवाज उसके कान के परदे पर फडफडाने लगी… कटे परों की गौरया की तर।  पिंकी के चेहरे को टकटकी बांधे देखती खडी रह गयी सुनंदा।
 
सुनंदा की शादी हुये आज को बीस-बाइस बरस हो गये। एक दो साल के अंतराल में सुनंदा तीन बच्चों की माॅं बन गयी। पहली दो बेटियाॅं पीठ पर पीठ आ गयी थीं। हर बुरा होने और गलत घटने के पीछे बहू का दोष दिखानेवाली उसकी सांस जैसे सुनंदा के गले पर सवार हो गयी।  न कोई मंदिर रहा होगा, न कोई टेकडी बची होगी, जहाॅं सुनंदा  ने अपनी  मिन्नत का आॅंचल न पसारा हो। तीसरी बार जब उसकी गोदभरी तो बेटा नसीब हआ उसे। उसे लगा अब सारी मुश्किलें दूर हो गयीं। लेकिन उसकी  नसीब में मुश्किलें तो घर के मकडी के जालें थीं, जितना साफ करे उतना फैलें। सुनंदा अपढ ,अपने बच्चों के भविष्य की चिंता में सूखी जा रही थी। अवराद से शहर कलबुर्गि का फासला बस आधे घंटे का था। वह चाहती कलबुर्गि में घर बसाये । लेकिन, खेतीबाडी का घर, घर  पर बीमार ससूर, केवल पीता.. बतियाता.. रहता पति… , घर के सदस्यों की किटपिट !! विवश थी सुनंदा। मन को मनवाने के लिये उसे एक बहाना मिलगया जो काफी था … उस छोटे से गाॅंव में सरकारी हाईस्कूल जो बसा हुआ था.

उसकी शादी अजीब सी शादी थी। तब वह रही होगी उन्नीस बीस बरस की। शांत, स्वभाव से मर्जीखोर। सबकी  मर्जी रखती। यहाॅं तक कि उसकी शादी भी उसके इस मर्जीखोर स्वभाव का बस एक नमूना रहा था। बडी दीदी मंगला की शादी हुई । अपनी हैसियत से भी बढकर शादी बनायी थी माॅं और बाबूजी ने। लडका गाॅंव का, खानदान देखी पहेचानी….सबकुछ ठीक- ठाक रहा।  लेकिन, कौन जाने, कहर इस कदर टूटेगा। आठ महीने का बच्चा पेट में और इधर मंगला ने आॅंखे मूॅंद ली !! गाॅंव वाले पीठ पीछे बात भी बनाने लगे । मंगला के पति और ससुराल का दोष गिनाया जाने लगा। लेकिन गाॅंव की यादाश्त की आयु भला होती कितनी है ? मौत के मातम पर शहनायी के सुर चढने में देर नही लगी ….!! अपने विधुर बेटे के लिये बहू का हाथ मांगने फिर से आ धमके ससुराल वाले। मंगला न रही तो क्या छोटी सुनंदा ही सही। दहेज का जोर नहीं… शादी का खर्चा नहीं… फिर से कर्जे का टंटा नहीं ..!! घर आया रिश्ता ठुकराया  कैसे जाय …? और सुनंदा के लिये … ? आखिर माॅं और बाबूजी की मान मर्जी ठहरी … !! कभी कभी सुनंदा को लगता, कितनी सरल और सहजता से पूछ लिया था माॅं ने उससे या उससे पूछने का केवल रस्म अदायगी हुई थी ?  न कोई अचकचाहट , न दुविधा !! ना कैसे कर सकती थी  सुनंदा। मर्जीखोर सुनंदा … !! लेकिन … उसकी मर्जी का क्या … ? किसी ने नहीं पूछा… किसी ने नहीं जाना। जरूरी भी नहीं समझा…. !! लेकिन….. ? लेकिन क्या ? कुछ लेकिन उत्तर के मोहताज नहीं होते है… बस नहीं होते !



लेकिन… फिर वही,  लेकिन उसके सामने आज फिर अलग रूपोंअंदाज में उठ  खडा हुआ था। जिसका उत्तर अब खुद सुनंदा को देना था. पिंकी की बातें उसको भीतर तक हिलाकर रख दिये थे । शाम से वह जड खोदे पौधे की तरह मुरझा गयी थी । एक ही आवाज उसके सामने गूॅंजे जा रहा था। आखिर वह शहर आयी क्यूॅं ..? सुनंदा को लगा जैसे जीवन भर घिसा उसका चंदन मोरी में बहे जा रहा है। सास -ससूर के न रहने पर सुनंदा ने पति को बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर कलबुर्गि ले आयी थी। सबकुछ पटरी पर बैठ ही रहा  था. लेकिन… पति के व्यसनों भरा बेतरतीब जिंदगी के चलते वह बच्चों का ब्याह तक नहीं कर सका। विधवा सुनंदा, एक साल तक घर से बाहर निकलने से कतराती रही। झूठे पति का सच्चा शोक मनाती रही। यह सब कबतक चलता ? आशी के लिये लडका ढूॅंढना  है , पिंकी की पढायी,  अमित की इंजिनियरिंग सीठ की चिंता।

रात घिरने लगा था। आशी के कमरे की ओर जाते सुनंदा के कदम में कील गडे जा रहे थे। दूसरों की मर्जी जीती आयी सुनंदा, अपनी मर्जी को माॅंगने के लिए अपने आप से लड रही थी !! अपनी शादी के लिये तो उसने ऐसे सर हिला दिया था जैसे मदारी का बंदर !! भीतर से किवाड को बंद कर लिया। धीरे से सरकते हुए उसके पैरों के पास जाकर बैठ गयी। झट उसके पैरों को अपने हाथों में ले लिया। अनायास उसके होंठ हिलने लगे , वह बडबडाने लगी  – ‘‘आशी मै तमाम जिंदगी  दूसरों के पैर पडते ही आयी हूॅं, आज तेरा ही सही … कल सुबह दस बजे लडकेवाले आ रहे हैं, अमित उन्हे लेने जा रहा है। जरा सोच ले बेटा… ‘‘  बेटी के उत्तर को सुनने का धैर्य उस समय उसमें नहीं  था। झट कमरे से बाहर निकल आ गयी थी सुनंदा !!
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उस दिन सुबह सुबह …..झुककर रंगोली की लकीरें खीचती सुनंदा ने आहट पाकर सर उठाकर देखा, सामने आशी खडी थी !! बगल में बच्ची भी … । झुकी कमर को हाथ का सहारा दिया, और सीधे खडी हो गयी वह। एक पल बस देखती ही रही। पीछे किसी और के आने की आहट की कल्पना से झांककर देखा। पर वहाॅं कोई नहीं था। एक लंबे निश्वास की गर्मी एक अजीब हॅंसी बनकर उसके होटों पर तैर गयी। आशी के आॅंखों का रूखापन उससे बहुत कुछ कह रहा था। लेकिन बदले में सुनने का धैर्य आज भी सुनंदा में नहीं रहा था। उसेे लगा …. बीस साल पहले उससे बिछुडी दीदी मंगला और उसका बच्चा आज फिर उसके सामने आकर खडे हैं। अंतराल की आग से सूखीं उसकी आॅंखें फिर से नम हो गयीं। रंगोली की लकीरों के इसपार खडी सुनंदा की दोनों बाहें धीरे -धीरे उपर उठकर सामने की ओर पसर  गये  !!
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साहबान…. कदरदान…. देखा आपने… नहीं नहीं सुना आपने… यह है कहानी दरवाजे  की… सुनंदा के घर के दरवाजे की…. जो कभी बंद नहीं हुई … पराये बने अपनों के लिये भी नहीं !! उस्ताद हाॅं में हामी भरते ही, फिर से मदारी जोर- जोर से ऐलान करने लगा !! सायबान यह दरवाज्जा काठ के पटों के जोडन से या.. लोहे के पतरों के ठोकन से नहीं बना है….. । उस्ताद प्रश्न किया … बोल मदारी, तो यह दरवाजा  बना कैसे ..? अपने उस्ताद के प्रश्न से और उत्साहित हुआ मदारी , गले का बलगम साफकर , हाथ की लकडी को नचाते हुवे कहने लगा ‘‘ सुनिये उस्ताद … और सुनिये सब सायबानों … अपने जिगर के पट्टों को चीरकर … कीले से ठोंककर बनाया है सुनंदा ने …इस दरवाजे को !! कोठरी  की अंधियारे को गलाकर, उजाले की रंगत चढाया है इसपर … और … उस्ताद… इसपर जडी है कुंडी…. कुंडी पर ताला… लेकिन यह ताला तो ऐसा ताला है कदरदान … जो हर किसी की चाबी से खुले … !!



बंबई पवई के हीरानंदानी गार्डेन्स के सामने मदारी का खेल पूरे रंगत को चढा था। उस्ताद ने फिर सवाल किया  ‘‘… बोल मदारी ऐसे दरवाजे कहाॅं मिलेंगे … क्या सुनंदा जैसे लोग बनाते है इन्हें या सरकार की कोरट कचहरी में बनते हैं ऐसे दरवाजे.. मदारी.. ऐसे दरवाजे बनाने के लिये कहता कौन है ? उस्ताद के तरकश से सीधे आते सवालों को देख मदारी सर खुजाने लगा ‘‘ अरे.. यह क्या …? उस्ताद का यह सवाल तो खेल के पिलान में नहीं  था ? उस्ताद मुझे फसाना चाहता है .. ?  बना बनाया खेल बिगडता देखकर मदारी चट् गडे बंबू उखाडने लगा … और उस्ताद की ओर घूरते हुए चलता बना।

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ISSN 2394-093X
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