आरती रानी प्रजापति की कवितायें

आरती रानी प्रजापति

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी. संपर्क : ई मेल-aar.prajapati@gmail.com

1

हाँ मैंने महसूस किया है
तुम्हारी देह को हर बार
तुम करना चाहते हो
अनाधिकार प्रवेश उसमें
कर देना चाहते हो
छलनी मेरे हर अरमान
छीन लेना चाहते हो
मेरे होंठों से मुस्कराहट
करना चाहते हो
घाव मेरे दिल-दिमाग शरीर पर
क्यों?
क्या तुम नहीं समझते मुझे एक इंसान
क्या ये सब नहीं हो सकता बिना हिंसा के?
क्या शरीर का मिलन तुम्हारे लिए मात्र क्रिया है?
जिसे पूरा करना चाहते हो तुम चाहे जब
जैसे भी….


2

राशन की दुकान में
लम्बी लाइन में खड़ी
तुम
सोचती हो कल रात की घटना
काँप जाती है तुम्हारी आत्मा
रोने को होता है
मन
कल तुमने अपनी आँखों से देखा
कालू की बेटी
भूख से मर गई
राशन की दुकान पर
तुम्हारी तरह खड़ी थी
उसकी भी माँ
कई दिन से
बंद कर दी गई दुकान
वक्त से पहले
एलान कर दिया गया
राशन के खत्म होने का
कई दिनों से खडे होने पर
कल पहुँच ही गई थी
दरवाजे तक

तभी राशनवाले ने
सुना दिया फरमान
कई दिनों से पानी पर
टिकी उस मासूम की आस
का बाँध टूट गया
हालांकि देश में
चल रहा था
विदेशी अर्थव्यवस्था को अपनाने का
ख्याल
फिर भी देश की इस व्यवस्था
की ओर
न था ध्यान किसी का
एक बार फिर
काँप जाती है तुम्हारी देह
सोच कर
मुन्ना भी कई दिनों से भूखा है….

3

दबा दो आवाज
तोड दो अंगुली
खत्म करो गुस्सा
बंद करो चीख
ये प्रजातंत्र है.

4

चादर के सभी कोने से
खुद को
सावधानी से ढक
फटे हिस्सों से बचती
मेट्रो की छत बनाने
गाँव से आई वह
युवती
छत के आभाव में
सड़क के डिवाडर
पर बैठ
जल्दी जल्दी
नहाने लगी


5

प्रेम के गंभीर
पलों में
उसने महसूस की
गंध
उसके जाति
अहम्
पुरुषत्व की
तुरंत
वह छोड़ भाग गई
प्रगतिशील विचारों की
उस फटी चादर को….

6

सिन्दूर
मंगलसूत्र
कंगन
बिछुआ
पायल
बिंदी
बोरला
न सही पर कुछ तो हो
जो तुम्हें मेरा घोषित करें…

7

हमारी ही तरह
तुम भी
बने हो
माहवारी से
खोली थी आंखें तुमने भी
योनि से
निकल कर,
जन्म देने वाली
स्त्री ही थी
जब स्त्री की कोई
जाति नहीं होती
फिर कैसे तुम
सवर्ण
हम
अवर्ण
घोषित हुए

8

गोरापन
कोमलता
अदा
नाज-नखरे
इठलाना
फैशन
भरी-देह
तुम्हारे पैमानों का
आदि-अंत
हो
किन्तु स्त्री इससे
इतर भी बहुत कुछ है…

9

मुझे नहीं पसंद
चूल्हे की रोटी
उसे बनाने से
न जाने कितनी माँ
खासती रहती हैं
सारा दिन
कितनी ही बहनें
होती हैं बलात्कृत
खोज में लकड़ियों के
सुनती हैं तानें
झगड़ती हैं
अपने ही लोगों से
ये बहने ढोती हैं
लकड़ियों का बोझ
किताबों की जगह
बच्चों की प्रतीक्षा
हो जाती है लम्बी
चूल्हा याद करते ही
मुझे याद  आने  लगते हैं
सिर्फ आंसू
माँ, बहन, बच्चों के…..

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ISSN 2394-093X
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