वायरल वीडियो और हिंसक-अश्लील ऐशट्रे के बहाने

पारुल अग्रवाल 

दो दिन के फेर में वायरल हुए दो पोस्ट अश्लीलता, भद्देपन और निजी-स्वतंत्रता के फर्क को इतनी बेहतरी से समझा पाएं, ये सोशल-मीडिया के बिना शायद संभव नहीं था.

कहानी बहुत छोटी सी है. बीते शुक्रवार की शाम मैं बंगलौर के पीवीआर सिनेमा हॉल में अपने कुछ मित्रों के साथ एक फिल्म देखने गई. इंतज़ार और बातचीत के दौरान हमारी नज़र दो लोगों के बीच हो रही कहासुनी पर पड़ती है. थियेटर के ठीक बाहर एक अधेड़ उम्र व्यक्ति एक नौजवान को फिल्म देखने से रोक देता है. फसाद का कारण है उसकी टी-शर्ट. ‘भारत के नागरिक’ के तौर पर इन अधेड़ उम्र सज्जन को नौजवान की टी-शर्ट पर लिखी पंक्तियां (स्टॉप जर्किंग, स्टार्ट फकिंग) अश्लील लगीं. उनके साथ एक पुलिसवाला भी मौजूद था, जिसके वहां खड़े होने के बावजूद ये सज्जन लगातार उस नौजवान पर चिल्लाते रहे, उसके कपड़े खींचे और उसे फौरन नई टी-शर्ट खरीद, कपड़े बदलने के लिए धमकाया. मॉरल पुलिसिंग के इस वाकये का मैंने एक वीडियो बनाया और उसके बाद मुझ समेत वहां मौजूद कई लोगों ने मिलकर उन सज्जन और पुलिसवाले से सवाल-जवाब किए. आखिरकार वह नौजवान सिनेमा-हॉल में दाखिल हुआ.

फेसबुक पर इस वीडियो को साझा करने के कुछ ही घंटो के भीतर ये वायरल हो गया. इसके साथ शुरु हुआ टिप्पणियों का सिलसिला, जिनमें लोगों ने एक टी-शर्ट को लेकर हुए बवाल पर हैरानी जताई, लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्हें इस टी-शर्ट पर आपत्ति  थी और उन्होंने मॉरल पुलिसिंग को जायज़ ठहराया. कुछ ने कहा कि टी-शर्ट पहने व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता की धारा- 292/293 के तहत फौरन गिरफ्तार किया जाना चाहिए.

अश्लीलता और फूहड़ता एक सामाजिक बहस है लेकिन ये भी सच है कि क्या अश्लील है और क्या फूहड़, ये एक व्यक्तिगत फैसला और निजी अनुभव भी है. कई लोग स्त्रियों के पहनावों को बलात्कार से जोड़ते हैं और लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एम-एफ़ हुसैन की चित्रकला अश्लील और भद्दी लगी, जिसके चलते उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आखिरी साल निर्वासन में बिताए.

अश्लीलता का विमर्श, समाज और स्त्री से जुड़ा है. इस पर बहस ज़रूरी है क्योंकि सेक्स और अश्लीलता के ज़रिए औरतों को उपभोग की वस्तु बनाए जाने का गवाह इतिहास है. लोकिन ये बहस कब, कहां और कैसे करनी है इसका फैसला भी भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

अब औरत के गुप्तांग में सिगरेट भी 

दो दिन पहले सोशल-मीडिया पर एक और पोस्ट वायरल हुई. मामला था अमेज़न  पर बिक रही एक ऐश-ट्रे का. क्रिएटिव प्रॉडक्ट्स की सूची में शामिल ये ऐश-ट्री एक नग्न महिला की योनि  में सिगरेट बुझाने का मौका देती है. औरतों के प्रति हिंसा और उनके शरीर को सेक्स का माध्यम-भर समझने के मामले आज भी हर दूसरे दिन सामने आते हैं. इस ऐश-ट्रे ने कुत्सित मानसिकता और यौन-हिंसा का एक नया आयाम गढ़ा. लोगों का गुस्सा और सोशल-मीडिया पर उठ रहे सवालों को देखते हुए, आखिरकार अमेज़न ने इस ऐश-ट्रे को वेबसाइट से हटा दिया.

अश्लीलता और बाज़ार एक दूसरे के पूरक रहे हैं और बाज़ार के आगे घुटने टेकने की प्रवृत्ति दुनियाभर की सरकारों में है. सरकार, कानून और खुद नागरिक समाज ने बाज़ार को लेकर दोहरी नीति अपनाई है. आंकड़े बताते हैं कि बाज़ार के बढ़ावे पर हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी में अश्लीलता का दख़ल दिन-रात बढ़ रहा है. टी-शर्ट और ऐश-ट्रे दोनों ही बाज़ार की उपज हैं.

वायरल हुआ वीडियो 

तो सवाल ये है कि अगर ऐश-ट्रे आपत्तिजनक है तो फिर टी-शर्ट कैसे जायज़ है. अगर ऐश-ट्रे भावनाओं को आहत करती है तो टी-शर्ट पर नाक-भौं सिकोड़ने वालों को किस आधार पर नकारा जा सकता है. मामला अगर अश्लीलता का है तो क्या अश्लील है और क्या पहनावे का अधिकार ये कौन तय करेगा?

इस सवाल का एक जवाब अग्रेंज़ी हुकूमत ने सन 1860 में दिया. अश्लीलता पर बने इस कानून के मुताबिक, अश्लीलता को प्रचारित करने के लिए 20 वर्ष या उससे कम आयु के व्यक्ति को अश्लील सामग्री, बेचना, किराए पर देना, वितरित करना या प्रदर्शित करना कानून जुर्म है, जिसके लिए जुर्माने से लेकर सज़ा तक का प्रावधान है. आज़ाद भारत ने इस कानून को ज़्यों का त्यों  अपनाया. अदालत तक पहुंचे अश्लीलता के सवालों को हम आज भी सौ साल पुराने इसी कानून के ज़रिए हल करते हैं. समय के साथ भारतीय कानून ने अश्लीलता और भद्दे के बीच फर्क करना सीखा है और अश्लीलता अगर ‘हिंसक-उत्तेजना’ पैदा करे तो वो दंडनीय है.

लेकिन अश्लीलता के सवाल का जवाब देना केवल अदालतों की ज़िम्मेदारी नहीं. हमारे और आपके ज़हन में उठा हर सवाल अगर अदालत जाकर हल हो, तो देश की चरमराई न्याय-व्यवस्था भरभराकर गिर पड़ेगी. ये उसी तरह है जैसे भारतीय कानून हमें जनहित याचिकाओं का हक़ देता है, लेकिन ये जनहित याचिकाएं जब सरदारों को लेकर सुनाए जाने वाले चुटकुलों और भारत को कोहिनूर हीरा लौटाए जाने का सवाल उठाती हैं तो सुप्रीम कोर्ट तिलमिला उठता है.

आंकड़े गवाह हैं कि अश्लीलता को लेकर आईपीसी– 292/293 के अंतर्गत दायर किए गए ज़्यादातर मामले अदालतों में खारिज हुए हैं. एम-एफ़ हुसैन सहित एआईबी रोस्ट जैसे विवादों में कोर्ट ने अभव्यक्ति की स्वतंत्रता का संज्ञान लिया है.

औरत के मुंह में पेशाब करने में क्या आनंद मिलता है 

यही वजह है कि अश्लीलता के सवाल का जवाब देने की ज़िम्मेदारी जितनी अदालतों की है उतनी ही बाज़ार और हमारी भी. टी-शर्ट पर लिखे- स्टार्ट फ़किंग और ऐश-ट्रे में मौजूद महिला की योनी में सिगरेट का फ़र्क अदालतों से ज़्यादा समाज को सीखना है.  एम-एफ़ हुसैन की चित्रकारी, न्यूड आर्ट की प्रदर्शनी, कंडोम के विज्ञापन और टी-शर्ट के स्लोगन, कला-सेक्स और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के ईर्द-गिर्द घूमते हैं. सेक्स अश्लील भी है और एक अभिव्यक्ति भी और इस अभिव्यक्ति के मायने और तरीके लगातार बदल रहे हैं.

टी-शर्ट पर लिखा हर ‘सेक्सी’ शब्द अश्लील नहीं और ज़रूरी नहीं कि हर बार सेक्स के निशाने पर स्त्री हो. आज के दौर में ‘फ़क’ शब्द  का इस्तेमाल, उसका मतलब, उसके परिप्रेक्ष्य बहुत बदल चुके हैं. ये उसी तरह है जैसे अंग्रेज़ी शब्द Shit का इस्तेमाल एक समय वर्जित था. S***t या S—t के साथ उसका प्रयोग किया जाता था. या फिर हम God Damn या it sucks नहीं कह सकते थे.

ये शब्द भद्दे हैं, फूहड़ हैं ये सच है लेकिन ये भी सच है कि शब्दों का अर्थ और उनकी ‘इमेजरी’ बहते पानी की तरह है. ये सच है कि यही वो शब्द हैं जिनका इस्तेमाल रेप-सॉंग्स और औरत को एक वस्तु की तरह गिनाने में किया जाता है, लेकिन ये भी सच है कि सेक्स का माध्यम अब केवल औरत नहीं है और सेक्स से जुड़ी हर चीज़ में वही निशाने पर हो, ये भी ज़रूरी नहीं है. सेक्स अब सेल्फ़ का लिबरेशन भी है. वो अब एक ऐटिट्यूड भी है, और विरोध का तरीका भी. वो अब केवल एक निजी यौन-क्रिया नहीं बल्कि एक बहस भी है. सेक्स से जुड़े शब्दों और इमेजरी का इस्तेमाल इस नए आयाम में भी हो रहा है.

ज्यादा अश्लील हैं मर्दों के पहनावे 

कुलमिलाकर अश्लीलता एक बहुत गंभीर मसला है लेकिन इन मसलों पर बहस समय और समाज से कटकर नहीं की जा सकती. ये मसले जटिल हैं और इनके हल उससे भी अधिक जटिल. ये लड़ाईयां समय लेती हैं और इन लड़ाईयों के निष्कर्ष   उससे भी अधिक देर से निकलते हैं. लेकिन ऐसे में ये और भी ज़रूरी है कि प्रक्रिया के दौरान हम भटकें नहीं. हमारी भावनाएं सही मुद्दों पर आहत हों और हमारा गुस्सा सही जगह चोट करे. अफ़सोस ये है कि इस सही-गलत की कोई आसान सूची उपलब्ध नहीं. ये सही और गलत अपने विवेक और अपनी समझ से हमें खुद तय करने हैं और वही बदलाव का पहला क़दम है.

(पारुल अग्रवाल पेशे से पत्रकार हैं और नागरिक समाज से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं)

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