प्रेम कथा में हाड़ा रानी की पुनर्वापसी बनाम बैताल का अनुत्तरित प्रश्न



संजीव चंदन
इस कहानी का बीज उस दिन ही अंकुरित हो गया था, जिस दिन पिछली कहानी यानी रूमी की कहानी का यथार्थतः अंत हुआ था, जुहू बीच पर, जब कथावाचक, श्रोता, नायिका इकट्ठे हुए थे. तब श्रोता यानी नानू ने वहाँ से लौटते –लौटते कथावाचक की ओर एक मौन प्रश्न उछाल दिया था ‘कही मोहित तुम ही तो न थे?’ सवाल और भी थे मौन आँखों में …. मोहित और फर्नांडीज की पत्नी की पीड़ा के सवाल ….

घबड़ाइये नहीं, मैं पिछली कहानी को दुहरा कर आपको दुहराव की बोरियत से भरने नहीं जा रहा हूँ. हो सकता है कि इस कहानी के तार पिछली कहानी से जुड़ें, लेकिन यह कहानी होगी एकदम अलग –एकदम अलहदा. ऐसा नहीं है कि आपने मेरी ऐसी दो कहानियां पहले नहीं सुनी हैं, जिनके तार एक –दूसरे से जुड़े थे, पहले भी सुनी हैं, पढी हैं , आपने- तार जुड़े हुए, लेकिन दोनो स्वतंत्र कहानियां- दोनो के अलग आस्वाद. कहानियां सिक्वल हैं, सिक्वल नहीं भी. कहानी ही क्यों आप तो फ़िल्में भी सिक्वल में देखते रहे, आज भी गूँज रहा है सवाल ‘ कटप्पा को क्यों मारा?’ जवाब के लिए देखें बाहूबली पार्ट टू. मेरी यह कहानी जवाब नहीं है, किसी प्रश्न का, न नानू के प्रश्न का और न उन अन्य श्रोताओं या पाठकों के सवालों का, जिन्होंने कहानी सुनकर और हंस कथामासिक में पढ़कर पूछा था, ‘‘कही मोहित तुम ही तो न थे?’ और वैसे ही कई कई सवाल, जो नानू के भीतर अनुत्तरित उमड़ने –घुमड़ने लगे थे.

रंगमहल में प्रेम : पग घूँघरू बाँध मीरा नाची थी

सच इस कहानी का बीज उसी दिन जुहू
बीच पर अंकुरित हो गया था, जब नानू ने सवाल किया. लेकिन कहानी तब नहीं कही गई थी, जब हम ट्रेन में लौट रहे थे, मुम्बई से अपने घर वापस. आप सोच सकते हैं कि वह कहानी पिछली बार मुम्बई जाते हुए कही गई थी तो तभी अंकुरित हुई कहानी वापस लौटते हुए नानू को सुना दी गई होगी. लेकिन तबतक मुझे पता कहाँ था कि कहानी का बीज अंकुरित हो गया है. तब तक पता नहीं चला, जबतक इस नई कहानी की नायिका से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई. इस बीच कितना कुछ घटित होता गया था. दक्षिण के एक विश्वविद्यालय में एक दलित छात्र को इसलिए आत्महत्या करनी पडी कि वह मेधावी था, वह प्रश्नाकुल था, वह सत्ता के तर्क और सत्ता द्वारा आरोपित विमर्शों को खारिज करता था, कि वह खान –पान की आजादी का पक्षधर था, कि वह राज्य प्रायोजित हत्याओं के खिलाफ था, कि वह मनुष्य की गरिमा को सर्वोपरि मानता था, कि वह समता, बंधुता और स्वतंत्रता में यकीन करता था, कि वह ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो’ की प्रेरणा में यकीन करता था- उसने आत्महत्या की, लेकिन सच ही इस पर लोगों को यकीन नहीं हुआ – उसे सांस्थानिक ह्त्या माना गया.


इसी बीच देश की राजधानी में स्थित एक बड़े विश्वविद्यालय में खपत होने वाले कंडोमों, हड्डियों और शराब की बोतलों की गणना में देश के शीर्ष नेतृत्व की रुचि बन गई. हम सबको इसके आंकड़े बताये जाने लगे. उसी विश्वविद्यालय के कुछ ‘राष्ट्रभक्त- चरित्रवान’ शिक्षकों ने एक विस्तृत रपट जारी कर विश्वविद्यालय को सेक्स वर्क का अड्डा घोषित कर दिया. इस बीच और भी बहुत कुछ घटा, देश की संसद में शिक्षा मंत्री, जो कभी किसी सोप ओपेरा में बहू भी थीं और सास भी थीं, ने प्रभाशाली नाटकीयता से भरा भाषण दिया, भाषण देते –देते वे हुंकार – फटकार के आरोह –अवरोह से गुजरते हुए हांफने लगीं. वे आवेग में थीं, इतना कि एक बड़े राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री के चरणों में अपने शीश अर्पित करने की इच्छा जाहिर करने लगीं- बलि और बलिदान का नाटकीय मंच बन गयी थी संसद. इस बीच कोलकाता की गलियों से दुर्गा की मूर्तियाँ संसद के गलियारों में स्थापित हो गईं और संसद के कंगूरे से ‘या देवी सर्वभूतेषु’ की गूँज होने लगी. देश दुर्गा भक्तों और महिषासुर के अनुयायियों में विभाजित हो गया. देश का एक बड़ा उद्योगपति बैंको को करोडो का चपत लगाकर विदेश में जा बसा और उधर अपने ही देश का एक राज्य केरल अफ्रीका का सोमालिया बन गया– ऐसा मैं नहीं कह रहा देश के प्रधानमंत्री ने घोषित किया. कितना कुछ घटित हुआ, दिल्ली के बाद बिहार ‘वाटरलू’  हो गया.
इतना कुछ घटित होने के साथ-साथ एक घटना और घटी, कहानी की नायिका से मेरी मुलाक़ात. इसके साथ ही यह कहानी, जो मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ और नानू को हाल ही में नियमित कहानी सुनाने के प्रसंग में सुना चुका हूँ, मुझे उसी नायिका ने सुनाई थी.


यह कहानी भी प्रेम कहानी है. कहानी तब आधी से अधिक घटित हो गई थी, जब नायक यानी प्रतीप ने मंच से घोषणा की कि मैं पिछले छह महीने से प्रेम में हूँ. प्रतीप नाटककार था, युवा नाटयनिदेशकों में एक नाम था उसका. उस दिन वह एक अजनबी शहर में था, पह्ली बार आया था वहां, जब मंच से उसने घोषणा की. इस घोषणा का अर्थ वहां उपस्थित श्रोताओं में सबसे अधिक जिसने ग्रहण किया था, वह थी उससे 10 साल उम्र में बड़ी नीलिमा नीलकेशी. नीलिमा तब पुलकित थी, उसके साहस पर कि वह मंच से घोषणा कर रहा है, और डर रही थी कि कहीं वह नाम भी न ले ले- उसने बगल में बैठे अपने पति को देखा, कहीं वह मेरी ओर तो नहीं देख रहा है, उसके चेहरे का भाव न पढ़ ले. उधर प्रतीप ने ऐसा कहते हुए अपनी निगाहें नीलिमा पर टिका दी थी. सच में पिछले 6 महीने में ही तो पनपा था उनका प्यार – एक नाट्यनिदेशक और एक लेखिका का प्यार – पहली बार मिले थे वे दिल्ली में श्रीराम सेंटर के बाहर कुछ कॉमन मित्रों के साथ- सब एक दूसरे से परिचित हुए और नंबरों का आदान –प्रदान हुआ. जल्द ही प्रतीप और नीलिमा एक दूसरे से व्हाट्स ऐप पर मुखातिब हुए, एक दूसरे से खुले और अन्तरंग होते गये- नीलिमा ने प्रतीप को हमराज बना लिया और प्रतीप? प्रतीप ने भी बहुत कुछ जाहिर कर दिया उसपर अपना भूत –वर्तमान? वे व्हाट्स ऐप चैट से जल्द ही देर रात के फोन संवाद तक बढ़ते गए-जब अपने–अपने घरों में दोनो अकले होते – तब तक संवाद करते, जबतक सो न जाएँ, यह साथ-साथ होने का अहसास था.


यहाँ, दिल्ली से दूर एक छोटे शहर में, एक नाट्यमहोत्सव और नाटक पर परिचर्चा के सिलसिले में दूसरी बार मिले वे – नीलिमा का शहर था यह. यहाँ प्रतीप मंच से घोषणा कर रहा था कि उसे छः महीने से मुहब्बत है. उसकी घोषणा जितना वहाँ उपस्थित लोगों को संबोधित थी, उससे ज्यादा नीलिमा से एक सीधा और बोल्ड संवाद थी. नीलिमा रोमांचित थी, नीलिमा संशकित थी कि कहीं……. !  वह उसके बिंदासपन और बातों को रहस्य न रहने देने के अंदाज पर ही तो मुग्ध हुई थी. कितने तफसील से उसने बताया था उसे सबकुछ कि वह शादी –शुदा है, दो बच्चे हैं उसके. शादी कम उम्र में हुई थी, इसलिए बच्चे भी अब कॉलेज जाने लगे हैं. कि उसके ही शहर में उसे दिलोजान से चाहने वाली एक लडकी भी है, जो उसके प्रेम में अविवाहित है. वह दोनो जिंदगियां – पति और प्रेमी का एक साथ सफलता से जी रहा है- सफल प्रेमी, सफल पति और सफल पिता – जीवन के रंगमंच की सारी भूमिकाएं वह एक साथ सफलता से निभा रहा था. यह सब सच सुनते हुए कोई रसायन बना नीलिमा के भीतर- वह इस व्यक्तिव के प्रति मुग्ध होती गई- एक व्यक्तित्व, जिसे बिना विवाद के दो स्त्रियाँ प्यार कर रही थीं – कुछ –कुछ नीलिमा के भीतर भी उससे बात करते हुए आकार लेने लगा- जिसे आज मंच से प्रतीप एक नाम दे रहा था –मुहब्बत! हाँ, सच में पिछले छह महीने से उनकी बातचीत का अंतराल कम हुआ था, जिस दिन वे बात न करें उस दिन नीलिमा अपने भीतर कुछ खाली सा, कुछ बेचैन महसूस करती- व्हाट्स ऐप पर कई मेसेज छोड़ जाती- ‘साथी कहाँ हैं ? कुछ ख़ास तो नहीं, आज आप कहीं ज्यादा ही मशगूल हैं शायद?.’ नीलिमा जानती थी कि वह पिता, पति और प्रेमी की रूटीन भूमिकाओं को जीता हुआ एक सफल निदेशक है – नाटक मंडली की भी जिम्मेवारियां हैं. फिर भी उसका दिल नहीं मानता और व्हाट्स ऐप के लिए मोबाइल पर उंगलियाँ रेंग जातीं …… मतलब प्रतीप इन छः महीनों में ख़ास हो गया था और आज वह एक सीधा संवाद दे रहा है, सार्जनिक कि वह छः महीने से प्यार में है.



प्रतीप आश्वस्त था कि उसकी कहीं बातों के श्रोता सभा मंडप में ही बैठे हैं, या उसकी कही बातें एक सीधा संवाद है उसकी अपनी नई प्रेयसी से. लेकिन बातें हैं, बातों के अपने पंख  होते हैं – वे सभा मंडप तक ही कहाँ रुकने वाली थीं – वे उडीं और पहुँच गई उसके अपने शहर तक, जहां वह, जिम्मेदार पति –पिता और प्रेमी था. मंच से इस नये इजहार- ए मुहब्बत को उसकी प्रेमिका तबस्सुम ने सुना. तबस्सुम, यानी इस कथा की नायिका या नायिकाओं में से एक. प्रतीप और उसकी दोस्ती जनवादी नाट्य मंडली की दोस्ती थी.

तबस्सुम, प्रतीप के ही शहर में एक कॉलेज में पढ़ाती थी, नाटकों में रुचि थी, अभिनय करती थी. अत्यंत साधारण परिवार से आने वाली तबस्सुम ने अपने मुकाम खुद ही तय किये थे- सेल्फ मेड गर्ल ! परिवार राजस्थान  का एक पारम्परिक मुस्लिम परिवार था, इसलिए घर से, बुर्के से उसकी आजादी के पक्ष में नहीं था. अम्मी का समर्थन उसे हासिल हुआ, लेकिन एक शर्त पर कि वह पढाई से लेकर नौकरी तक बाहर करे- अपने शहर से बाहर. नाटकों में मर्दों के साथ काम – वह तो उसके अपने शहर में किसी सूरत में भी किसी को भी गंवारा न था. लेकिन तबस्सुम अपनी जिद्द पर अड़ी रही. उसे पता था कि घर की माली हालत कुछ ऐसी नहीं है कि वह शहर से बाहर जाकर पढ़ सके. इसलिए पढाई से नौकरी तक उसने शहर में ही की- उसे नौकरी उसके शहर के ही एक कॉलेज में मिल भी गई. कॉलेज के दिनों से ही वह नाटकों में काम करने लगी थी.

प्रतीप से दोस्ती इन्हीं दिनों हुई. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली से निदेशन में डिग्री लेकर वह अपने शहर में ही एक ग्रूप बनाकार एक कामयाब निदेशक के रूप में दर्ज हो गया. वह देश के विभिन्न नाट्य महोत्सवों में अपने नाटक लेकर जाता था. प्रतीप वाचाल था, हमेशा मजाहिया अंदाज में बात करने वाला. तबस्सुम खुद भी नहीं समझ पाती कि क्यों उसकी जैसी खुदमुख्तार लड़की प्रतीप के आगे बेवश होती गई थी. पहले नाटक के रिहर्सल से ही प्रतीप ने उसे कुछ ख़ास तबज्जो देनी शुरू की थी, लडकियां कई और थीं नाट्य मंडली में, लेकिन तबस्सुम के प्रति उसका अंदाज कुछ अलग था. एक दिन वह देर से आई रिहर्सल में. प्रतीप रिहर्सल वाले कमरे के बाहर सिगरेट फूंकता दिखा था उसे-उसने पूछा, ‘देर हो गई मोहतरमा!’ उसने कहा, ‘ दोपहर में थोड़ी आँख लग गई थी.’ प्रतीप ने छूटते ही चुटकी ली,’ और सपने में मुझे तो नहीं देख रही थीं न साथी !’

उस दिन तबस्सुम को रिहर्सल में मन नहीं लगा. उसे बार –बार यह वाक्य घेर रहा था, ‘और सपने में मुझे तो नहीं देख रही थीं न साथी!’ कहने का अंदाज, कहते हुए देखने का अंदाज और बाहर सिगरेट पीते हुए इन्तजार की मुद्रा. यह सब इस सवाल को सामान्य नहीं रहने दे रहा था. रिहर्सल से लौटते वक्त भी वह इस वाक्य के गिरफ्त में ही रही- इन दिनों उसे प्रतीप से मिलने वाले ख़ास तबज्जो का एक अर्थ बन गया था इस वाक्य के साथ. घर पहुँचकर एकांत मिलने पर उसने आइने में देखा खुद को. इसके पहले खुद को देखने, खुद पर विचार करने का समय ही कहाँ मिला था उसे- घर की माली हालत के बीच अपने परिवार के लिए कुछ करते हुए खुद का करियर बनाते वक्त !  परिवार के लिए वह ट्यूशन लेती थी, बच्चों का.  कुछ बेरुखापन भी उसके व्यक्तित्व में शामिल हो गया था.

आईने में उसका सांवला रंग उतर आया, इस ख़ास रंगत के साथ जो उसकी शख्सियत थी, वह सात तहखाने से बाहर आती दिखी. बेरुखापन का आवरण उतरने लगा धीरे –धीरे. उसने खुद को देखा, खुद पर गौर किया और कुछ क्षण के लिए पीछा कर रहे वाक्य से मुक्त हुई कि अगले ही क्षण एक सवाल ने घेर लिया उसे उस वाक्य के प्रभाव की पुनर्वापसी के साथ कि ‘क्या प्रतीप ने सिर्फ मजाक भर किया था उससे या….. !’ दूसरे दिन तबस्सुम कुछ अलग ही निखार के साथ रिहर्सल में पहुँची-प्रतीप ने गौर किया. प्रतीप का व्यक्तित्व कितना आकर्षक है- हमेशा खुशमिजाज और साथी कलाकारों के लिए मददगार- तबस्सुम ने मह्सूस  किया. इस तरह वे एक दूसरे के लिए ख़ास हो गये.

नाट्यमहोत्सव के लिए दूसरे शहर में पूरी नाटक मंडली पहुँची. वहां तबस्सुम और प्रतीप को और वक्त मिला एक –दूसरे से बात करने का. तबस्सुम ने पाया कि प्रतीप जितना हंसमुख और मजाहिया अंदाज में जीने वाला शख्स है, उतना ही संजीदा भी. वह शादीशुदा है, थोड़ी कम उम्र में शादी के कारण दो बड़े बच्चों का पिता भी है. बेटी अभी –अभी कॉलेज में पहुँची है और बेटा स्कूल के अंतिम दिनों में है- पत्नी घरेलू जिम्मेवारियां संभालती है. प्रतीप एक जिम्मेदार पिता है और जिम्मेदार पति. परिवार में उसके दादा के समय में जमींदारी थी, आज भी अच्छी –खासी जमीन है गाँव में – शहर से लगकर. प्रतीप इस खानदान का इकलौता लड़का है, जमीन –जायदाद की जिम्मेदारी, पत्नी और बच्चों का ख्याल और सांस्कृतिक सक्रियता – हर भूमिका के प्रति वह ईमानदार है. इन दिनों वह तबस्सुम के प्रति जितना बेतकल्लुफ होता गया था, उतनी ही संजीदगी से अपनी पत्नी कुसुम की चर्चा भी उससे करता. यह साफगोई तबस्सुम को और भी आकर्षित कर रही थी उसके प्रति.
महोत्सव में अपने नाटक के प्रदर्शन के बाद उनकी मंडली तो वापस लौट गई, लेकिन वे वहीं रुके रहे और नाटकों को देखने –समझने के लिए. एक शाम नाटक के बाद प्रतीप और वे काफी देर तक शहर में टहलते रहे. टहलते हुए प्रतीप ने उसके हाथ को अपने हाथ में ले लिया. पहले तो तबस्सुम थोड़ी असहज हुई, अपने हाथ को खींचना चाहा, लेकिन फिर उसने यूं ही ढीला छोड़ दिया. वे देर तक घूमकर, बाहर ही खाना खाकर वापस अपने होटल में आये. प्रतीप उसके साथ तबस्सुम के कमरे की ओर बढ़ने लगा तो वह शरारत के साथ मुसकुराई, ‘इधर नहीं जनाब, आपका कमरा उधर है.’ प्रतीप झेंप गया. फिर संभला, और अपने अंदाज में वापस आया. आंखों में शरारत भरकर उसने कहा, ‘एक टॉप सीक्रेट बताऊँ? ‘ तबस्सुम चुप रही. वह थोड़े और पास आकर बोला, ‘ मझे प्यार हो गया है, पिछले दो महीने से.’ ऐसा कहकर उसने ठहाका लगाया और अपने कमरे की ओर बढ़ गया.
तबस्सुम ने जल्दी से अपना कमरा खोला और बिस्तर पर बिछ गई. ‘यह दूसरा वाक्य था, जिसने उसे घेर लिया.’ पिछले एक महीने में यह दूसरा वाक्य, यह दूसरा बाण, जिससे वह बिंध गई – हाँ, दो ही तो महीने हुए थे उनकी मुलाक़ात के.’ उसने सोचा क्या वह फ्लर्ट कर रहा है ? एक शादीशुदा मर्द उसपर डोरे डाल रहा है ? दूसरे ही पल उसे ये सवाल निरर्थक लगे. प्रतीप एक अच्छा इंसान है, संजीदा- कोई भी उससे मुहब्बत करना चाहेगा. उसने खुद से सवाल किया ‘क्या इन दो महीनों में उसे भी इस इंसान से मुहब्बत हो गई है, एक शादीशुदा इंसान से मुहब्बत ?’ इस सवाल से वह डर गई. ख्यालों से निकलने के लिए टीवी ऑन किया. जो चैनल खुला,  उसपर फरीदा खानम का गीत आ रहा था  –आज जाने की जिद न करो, यूं ही पहलू में बैठे रहो.
गीत वह पूरा सुन नहीं सकी. थककर आई थी, नहाने चली गई.

थोड़ी देर बार दरवाजे पर दस्तक हुई. दरवाजा खोला तो प्रतीप सामने खड़ा था. उसने पूछा अन्दर आ जाऊं, और जवाब की प्रतीक्षा किये बिना अन्दर दाखिल हो गया, ‘ दिल नहीं लग रहा था, सोचा और गुफ्तगू हो जाये.’ तबस्सुम उसके इस तरह अचानक आ जाने से असहज हो गई. असहजता को छिपाते हुए उसने उसका स्वागत किया, ‘जरूर –जरूर.’ वे दोनो काफी देर तक बातें करते रहे. बातों का सिलसिला कब उनकी रूहानी –जिस्मानी नजदीकियों पर ख़त्म हुआ, तबस्सुम समझ नहीं पाई. वह आज भी सोचती है क्या, इसके लिए वह तैयार थी, वह यह भी सोचती है क्या इसके लिए वह तैयार नहीं थी? वह आज भी यह नहीं सोचना चाहती है कि पहल किसकी थी, पहल किसने ली.


वाइफ स्वैपिंग के जमाने में हाडा रानी का अमरत्व

जब तबस्सुम मुझसे यानी कथावाचक से
मिली उस समय तक केन्द्रीय सत्ता की दृश्य और अदृश्य शक्तियां भारतीय परम्परा की पुनर्वापसी के लिए हर संभव प्रयास कर रही थी. हालांकि चुनौतियां भी कम न थी. एक ऐसे समय में जब पत्नियों की अदला –बदली करने वाले लोग समाज के कुलीन वर्ग में शुमार थे, जब देश की अदालतों ने  सेना के व्हाईट कॉलर जॉब वाले लोगों के खिलाफ इस पत्नी-प्रयोग (पत्नियों की अदला- बदली, जिसे भद्र रूप देने के लिए वाइफ स्वैपिंग शब्दावली का आवरण दिया गया था) के लिए जांच के आदेश दे दिये थे, देश की राष्ट्रभक्त सरकारें बच्चों को हाड़ा रानी की कहानी सुना रही थीं. हाड़ा रानी, यानी राजपूताने की शान. रानी, जिसने युद्ध के लिए जाते अपने पति चुडावत को अपना सिर इसलिए काट कर स्मरण –चिह्न के रूप में दे दिया था कि वह राष्ट्र के प्रति काम करते वक्त पत्नी की याद –आसक्ति में कर्तव्यच्यूत न हो जाये. ऐसी सती रानियों की कई कहानियां राजस्थान के रेगिस्तान में दर्ज हैं. पत्नियों का अनुकूलन तब से अब तक यथावत है, राष्ट्र के लिए काम करते चुडावत से लेकर राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा में लगे आधुनिक सैनिकों तक. फर्क हुआ है तब वे सिर देती थीं अब देह. सत्ता की दृश्य -अदृश्य शक्तियां पत्नियों के बलिदान को बस अपने पुराने स्वरुप में वापस लाना चाहती थीं – इसलिए बच्चों को हाडा रानी पढ़ाया जा रहा था. राजस्थान की सरकार हाडा रानी को राजस्थान की अक्षुण्ण सांस्कृतिक चेतना बनाना चाह रही थी, राजस्थान पर से मीरा का ‘बदनुमा दाग’ मिटा देना चाहती थी. हाड़ा रानी मतलब सती स्त्री – विवाह ही बेदी पर होम होने वाली, मीरा मतलब विवाह को चुनौती देने वाली आवारा स्त्री! तबस्सुम आई थी कथा मासिक हंस में मेरी कहानी ‘इनबॉक्स में रानी सारंगा’ पढ़कर, मुझसे लड़ने, मुझसे सवाल करने. उसे लगता था कि यह क्या किया मैंने उस कहानी में, रूमी को एक के बाद एक प्रेम करते हुए दिखाया, धोखा –फरेब करते हुए दिखाया फिर भी न कोई ग्लानि और न अंतर्द्वंद्व. और तो और आख़िरी तौर पर उसे सारे पिछले प्रेम से मुक्त निर्द्वंद्व नये प्रेम के लिए आजाद कर दिया. बेटी को भी उसके साथ खडा कर दिया. आखिर क्यों नहीं, क्यों नहीं दिखा मुझे मोहित की पत्नी का दर्द या, फर्नांडिस की पत्नी का दुःख. नहीं दिखी नानू के मौन प्रश्न के भीतर की विह्वल तड़प . वह सवाल करती है कि और तो और रूमी के पति शीतांशु से ख़ास सहानुभूति भी नहीं है लेखक की, न प्रेमी मोहित से ही. ये सारे सवाल उसने आक्रोश में पूछे और गहरी पीड़ा में भी.



हुआ यूं था कि जिन दिनों उसे प्रतीप की नई घोषणा की खबर मिली थी कि वह छः महीने से प्रेम में है, और उसकी घोषणा के साथ नीलिमा नीलकेशी के चेहरे के मिश्रित भाव का बिम्ब खीचा था किसी ने, और उसे बताया था कि प्रतीप ने कब –कब और कैसे एकांत तलाशा उस शहर में नीलिमा के साथ, यह भी कि कि विदा होते वक्त प्रतीप और नीलिमा के गले लगने के अंदाज पर उपस्थित कई लोगों की निगाह गई थी, सिर्फ नीलिमा के उद्योगपति पति को छोड़कर, उन्हीं दिनों उसने ‘इनबॉक्स में रानी सारंगा’ भी पढ़ा था. इस खबर और कहानी के मिश्रित प्रभाव के पूर्व तक तबस्सुम प्रतीप के प्रति खुद को समर्पित कर चुकी थी. राजस्थान के उस छोटे शहर में आधुनिक मीरा बनना आसान नहीं था, वह भी किसी जीवित कृष्ण के प्रेम में- लेकिन तबस्सुम तो बनी ही किसी और मिट्टी की थी.

 नाट्य महोत्सव के बाद जब वे शहर लौटे थे तब  तबस्सुम को लगा कि वह नाट्यमहोत्सव की एक रात की सारी जिम्मेवारी प्रतीप पर डाल दे. लेकिन यह विचार ज्यादा देर तक नहीं टिक सका. तबस्सुम ने खुद क्या प्रतीप के प्रति अपना लगाव महसूस नहीं किया था? क्या उसके पहले अप्रत्याशित सवाल ने कि ‘कहीं सपने में..’ ने उसके भीतर से एक नए तबस्सुम को ही बाहर लाकर नहीं खडा किया था, जो इस शख्स की संजीदगी, खुशमिजाजी और मददगार व्यक्तित्व के प्रति सहज स्नेह से बिंध गई थी? आखिर क्यों नहीं लौटी वह नाट्य मंडली के अन्य सदस्यों के साथ नाटक के बाद. क्या वह खुद भी नहीं चाह रही थी प्रतीप के साथ होना –जीना !
इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छिपते. शहर छोटा था, प्रतीप के प्रेम की खबर रिहर्सल के छोटे से कमरे से बाहर तक फ़ैली और जल्द ही उसकी पत्नी कुसुम को दस्तक दे बैठी. खबर पर यकीन होना उसके लिए नामुमकिन था. प्रतीप ने कभी उसे अहसास होने ही नहीं दिया था कि वह उससे बाहर भी …. ! कुसुम को वह खूब समय देता था, भरपूर प्यार – वह एक जिम्मेदार पति था, जिम्मेदार पिता. वह कभी –कभी सोचती कि कितना फर्क है प्रतीप और उसके पिता और दादा में- कुनबे में ही सामंती ठस्स था, राजपूताने का आन –बान –शान. यह सब प्रतीप को छू तक नहीं गया था. उसकी दो –दो सास थी – प्रतीप दो माओं का एक लाडला बेटा. उसकी सास उससे कहती, ‘ प्रतीप के सात पुश्तों से चला आ रहा है दो –दो विवाह. इस घर में सौतनें बड़े प्रेम से रहती रही हैं. वे दो होने पर खुद को खुशनसीब मानती थीं, अन्यथा इसी राजपूताने में एक जमींदार की कई –कई पत्नियों की कहानियां भी हैं.’ सास कहती, ‘ लेकिन तू तो हमसे भी ज्यादा खुशनसीब है, मेरा प्रतीप तुम्हारे सिवा किसी और की ओर देखता तक नहीं है. अब तक नहीं लाया किसी को व्याह कर तो अब क्या ?’ दूसरी सास जवाब में कहती, ‘ क्योंकर लायेगा वो किसी और को, इतनी खूबसूरत बहू है, दो –दो बच्चे जाने हैं इसने,  लेकिन देख देखो तो एकदम कंचन सी काया- सांचे में कसी देह. मैं तो बिना बच्चा पैदा किये ही ढलक गई थी जगह –जगह से. ढीली पड़ गई थी,’ ऐसा कहते हुए वे खिलखिला उठतीं.

‘ लेकिन खबर सच निकली तो…! क्या मुंह दिखायेगी अपनी सास को… ! कैसे समझाएगी खुद को,’ खबर का सच होना उसके अभिमानी मन के टुकड़े कर देने वाला था. उसने खुद को समझाया, ‘ नहीं मेरा प्रतीप, ऐसा नहीं है..’ लेकिन सच तो सच था, छोटे शहर का सच. ऐसा भी नहीं था कि तबस्सुम के आ जाने से प्रतीप के उसके प्रति व्यवहार में कोई फर्क पडा था, किसी दूसरे की उपस्थिति छू तक नहीं रही थी उसे. संयुक्त परिवार में रहते हुए वे अलग –अलग कमरों में होते थे रात को, खासकर तबसे जबसे बच्चे बड़े हो गये थे. प्रतीप का शयनकक्ष ही उसकी स्टडी भी था, जहां उसके कंप्यूटर से लेकर किताबें तक थीं. उनके अपने जिस्मानी रिश्ते अब उस बारंबारता में नहीं थे, जो शादी के शुरुआती दिनों में हुआ करते थे- और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा. जीवन में कोई बदलाव लेकर नहीं आई थी तबस्सुम, फिर भी सच किसी न किसी रूप में उसे डंके के चोट पर अहसास दे रहा था कि सच है, जिसका सच होना कुसुम के विश्वास का टूटना था.


एक दिन उसने पूछ ही लिया उससे, ‘ क्या आपको मुहब्बत है किसी से ?’
प्रतीप चौका, ‘ नहीं तो.’
‘ सच बताइये, मुझे अच्छा ही लगेगा सच सुनकर. आपके खानदान में कोई अकेली बीबी होने का सुख हासिल नहीं कर सकी है. मैं भी तैयार हूँ किसी सौतन के लिए.’
‘ जो बात मुझे भी नहीं पता है, उसे सच या झूठ मैं क्या कहूं!’
‘ पूरे शहर के दरो –दिवार तक इस मुहब्बत के दास्तान बता रहे हैं और आप कहते हैं, आपको ही नहीं पता.’
प्रतीप बिफर गया, ‘ तुम्हें ऐसा क्यों लगता है, क्या मेरा किसी के साथ उठना –बैठना भी अब तुम्हें गवारा नहीं. सार्जनिक जीवन में हूँ लडकियां ..’
‘ लडकियां नहीं तबस्सुम कहिये…’
प्रतीप का चेहरा लाल हो गया, वह बिना बोले झटके से उठा और बाहर निकल गया. कुसुम उसके ही कमरे में बेड पर निढाल गिर गई. फूट –फूट कर रोने लगी. वहाँ कोई नहीं था, जो उसके आंसुओं को पोछ सके. उसे खुद ही चुप होना था, आंसू पोछने थे. सासों के सामने ‘अकेली बीबी’ का मान था उसे- वे जान गइं तो जाता रहेगा. बच्चों पर भी जाहिर नहीं होने देना था सबकुछ – बेटी कॉलेज जाने लगी थी, क्या सोचेगी !

वह खुद ही गई तबस्सुम से मिलने उसके कॉलेज. औपचारिक बातचीत के बाद कॉलेज की कैंटिन में कुसुम ने बात शुरू की, ‘ चाहती तो मैं फोन कर, समय लेकर आ सकती थी. लेकिन सोचा चलूँ सीधे ही चलकर मिलते हैं, बड़े चर्चे हैं आपके शहर में’
तबस्सुम चुप रही, वह इशारा समझ रही थी.
‘अच्छा अभिनय करती हैं आप…’
‘ क्या हम और कहीं चलें बात करने, यहाँ कॉलेज कैंटीन में..’
कुसुम को ध्यान आया कि वह सब्र खो रही है, पत्नी का दर्प भी. उसने सोचा,  ‘एक वाहियात लडकी के लिए, जो किसी शादीशुदा मर्द से इश्क कर रही है.’ प्रत्यक्षतः उसने कहा, ‘हां, हाँ कहीं और चलते हैं.
कॉलेज में ही एक कमरे के एकांत में उन दोनो के बीच जो संवाद हुआ, उसका मूल भाव और स्वरुप यह रहा कि तबस्सुम ज्यादातर चुप रही और कुसुम ने अंततः एक निष्कर्ष दिया कि ‘ जमींदार परिवार की बहु के रूप में वह तबस्सुम का स्वागत करने के लिए तैयार है. आखिर खानदान का चलन है तो फिर प्रतीप ही क्यों पीछे रहे.’ और  यह भी कि उस खानदान में सौतनें, ‘ एक –दूसरे से मिलकर रहती हैं, तो वह भी वही चलन निभायेगी,’ ऐसा कहते हुए उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं, लेकिन होठों से मुसकान जाने नहीं दिया था उसने.



उसके सामने तबस्सुम इस असह्य मंजर को झेल गई और जाते ही उसी कमरे में घुटनों पर सर टिकाकर सुबकती रही. उसने प्रतीप से न मिलने का निर्णय लिया. कई संवाद भिजवाये प्रतीप ने, वह नहीं गई. यह जरूर था कि वह खुद को समझा नहीं पा रही थी कि प्रतीप से पूरी तरह अलग भी हो सकती है. मां ने इन्हीं दिनों समझाया कि उम्र निकल रही है, शादी कर ले. वह सोचती, ‘ किससे !’ ‘ प्रतीप की तरह या प्रतीप से बेहतर नहीं मिला तो …!’

एक दिन खुद प्रतीप उसके कॉलेज आ धमका, ‘ साथी हम एक जरूरी नाटक कर रहे हैं. आपके बिना पूरा नहीं हो सकता. आखिर हो क्या गया है आपको.’ उसका मन हुआ वह कह दे कि अब उसे नाटक नहीं करना है. लेकिन चुप ही रही.
‘ क्या किसी ने कुछ कहा… क्या नाटक छोड़ रही हैं आप साथी.’
वह भर्रा उठी, ‘ क्या आपको कुछ भी नहीं पता ?’
प्रतीप ने बड़े इत्मीनान से कहा, ‘ मुझे सिर्फ इतना पता है कि आपका कोई भी निर्णय ज्यादा दिन नहीं टिकने वाला. आप मेरे बिना नहीं रह सकती हैं.’
‘ सच कहते हैं आप, एकदम सच,’ तबस्सुम उसके सीने से लगकर रोने लगी. प्रतीप ने उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा, ‘ साथी मैं जानता हूँ कि आपका अपराधी हूँ मैं, लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि आपसे बेपनाह मुहब्बत है मुझे. लेकिन …’
‘ लेकिन क्या ..’ तबस्सुम बिफर पड़ी
‘ लेकिन छोडिये, आप आज शाम के रिहर्सल में मिल रही हैं.’

और हुआ भी यही तबस्सुम शाम को रिहर्सल के लिए पहुँच ही गई. उसने निर्णय ले लिया था, प्रतीप के बिना वह रह नहीं सकती और वह एक मानिनी पत्नी का मान रखते हुए, अपना भी मान रखते हुए एक निर्णय पर पहुँची कि आजीवन क्वांरी रहेगी. कई बार प्रतीप ने भी समझया की शादी कर लो, फिर भी हम मिलते रहेंगे. तबस्सुम ने तय किया जीवन में और भी उलझाव नहीं- वह अकेली रहेगी, प्रतीप के लिए अकेली – जीवित कृष्ण की मीरा.
इस तरह राजस्थान के उस छोटे से शहर में एक कृष्ण – एक रुक्मिणी और एक मीरा का जीवन एक सरल रेखा पर चलने लगा, जबतक प्रतीप के नये प्रेम – छः महीने वाले प्रेम की खबर वहाँ नहीं पहुँची. खबर के साथ ही एक बड़ा बदलाव हुआ, तबस्सुम ने खुद के भीतर की प्रेमिका को पत्नी में बदलते पाया. उसके भीतर रासायनिक प्रतिक्रया तीव्र हुई, शायद वैसी ही जैसी कुछ दिनों ही पहले कुसुम के भीतर हुई थी. इसके पहले तक वह अपनी ‘ मीरा वाली स्थिति के प्रति आश्वस्त थी. शायद वह नहीं समझ पाई होगी कि विवाह न करने, प्रतीप के घर दूसरी बीबी के रूप में न जाने के बावजूद प्रतीप की अपने प्रति निष्ठा के प्रति वह वैसे ही आश्वस्त होती गई थी, जैसी इसके पहले कुसुम थी. लेकिन इस खबर ने तो ….

उसके सामने एक और धमाका हुआ. एक दिन बाजार में कुसुम मिल गई. तबस्सुम उससे बच कर निकलना चाहती थी, लेकिन आगे बढ़ कर कुसुम ने ही उसे रुका. अरे, तबस्सुम कहाँ भाग रही हैं मुझसे. चलिए कोल्ड कॉफ़ी पीते हैं. तबस्सुम आवाक उसे देखती रही. कॉफ़ी पीते हुए कुसुम ने उसे बड़े इत्मीनान से बताया,
‘ तबस्सुम तुम्हें, बुरा लगेगा. लेकिन सच्चाइयां होती हैं, जैसे देखो न मेरी ही जिन्दगी में. मैं अपनी उम्र के ४०वे साल तक सोचती थी कि प्रतीप अपने खानदान के पूर्वजों की तरह नहीं है, घर में सौतन नहीं लाएगा. हालांकि उसने मेरा इतना मान तो रखा कि सौतन घर में नहीं लाया, लेकिन मैं इस हकीकत के प्रति अभ्यस्त हो गई कि इसी शहर में मेरी एक सौतन रहती है.’
‘……’
‘ मेरी ही तरह भोली और मासूम ! वैसे भी हमारे ही खानदान में एक और चलन है – दो मासूम सौतनें आपस में बिगाड़ नहीं रखतीं’ वह खिलखिला उठी.
‘…..’
‘ तुम्हें लग रहा होगा कि मैं तुम्हें चिढाने आई हूँ. लेकिन नहीं मेरी सखि, तुम तो अचानक से मिल गई. मैं तुम्हारे पास एक दिन आना चाहती थी.’
तबस्सुम को लगा कि वह फट पड़ेगी .
‘ नहीं बहन तुम्हें दुखी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है. लेकिन सच तुम्हें जानना चाहिए. जीवन भर कई मासूम भ्रम में रहते हैं. मुझे उस दिन ही लग गया था कि मर्द ने एक बार घर से खूंटा तुड़वाया है तो वह रुकेगा नहीं. मैंने उसके व्हाट्स अप और फेसबुक मेसेज देखे हैं. वह कई नायिकाओं की तलाश में है – कई –कई नाटकों  में भूमिका के लिए. और तो और वह किसी से भी मेरे होने या तुम्हारे होने को छुपाता नहीं है. बड़े इत्मीनान से बताता है कि हम दोनों ही एक ही शहर में रहती हैं – और उससे बहुत मुहब्बत करती हैं.’

तबस्सुम को काटो तो खून नहीं. उसे याद आया कि नीलिमा नीलकेशी ने इन्हीं दिनों उससे बातचीत शुरू कर दी थी. बड़ी बहन की तरह व्यवहार करतीं. उसे समझ में आया प्रतीप का पैटर्न. तो वह सहज बनाता है अपनी नई प्रेमिकाओं को अपनी पत्नी और प्रेमिका के प्रति .. ! ‘ या हो सकता है वह हम दोनो का एक उद्दीपक की तरह इस्तेमाल करता हो, एक ही शहर में दो महिलायें किसी पुरुष पर जान दें तो वह पुरुष कुछ ख़ास होने की छवि तो ले ही लेता है . तबस्सुम को लगा कि उसे चक्कर आयेगा.

‘ बहन, मैं तो अभयस्त हो गई हूँ , समझौता कर लिया है, सिर्फ इसलिए कि मेरे अलावा किसी को व्याह कर तो नहीं ला रहा है न. हम कम-पढी लिखी स्त्रियों के लिए इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है. इन दिनों नीलिमा नाम की कोई मेरी बड़ी बहन फोन करती हैं,’ उसकी आंखें डबडबा गयीं.
और भी बहुत कुछ कहा कुसुम ने जाने के पहले तक. जाते- जाते उसने कहा था कि ‘ हम इतिहास की हाडा रानियाँ हैं सखि, पति के लिए समर्पित !  लेकिन हमें क्या पता कि मीराओं की भी कोई विवशता होती है?’
उसके जाते ही तबस्सुम ने सोचा क्या यह मुझे चिढ़ाने आई थी … क्या यह मुझे सचेत करने आई थी ..


लोग कहे मीरा भई बावरी…. मीरा का राधा और फिर रुक्मिणी हो जाना


जिस समय ये दोनो स्त्रियाँ राजस्थान के एक शहर में मिलीं, उस समय एक बड़े राजवंश की स्त्री राजस्थान पर शासन कर रही थी. वह न मीरा थी और न हाड़ा. विवाह के साल भर के भीतर अपने पति से अलग होने का साहस रखने वाली उस स्त्री ने राजस्थान की नई पीढी को ‘हाड़ा रानी का बलिदान’ पढ़ाने में रुचि जरूर ली थी. हालांकि हाड़ा रानी पढाये जाने के इस दौर में केन्द्रीय सत्ता के द्वारा उच्च स्तर की सुरक्षा से घेर दी गई एक पत्नी जानना चाह रही थी कि उसे उसे सुरक्षा क्यों और यह भी समझना चाह रही थी कि यदि सुरक्षा किसी शीर्ष सत्ताधीश की पत्नी होने के नाते है, तो उसके हक़ –अधिकार क्यों नहीं मिलते उसे – रायसीना उससे इतनी दूर क्यों है – उसे इस सवाल का जवाब न मिलना था, न मिला – क्योंकि जवाब देने वाली एजेंसियों पर अघोषित पहरा था. उसके पड़ोसी राज्य की सीमाओं में भटकने वाली हाड़ा रानी की रूह उसे समझाना चाह रही थी कि ‘ अरी पगली तुम्हारा पति जब निकल रहा था अध्यात्म, धर्म और राज्य की सत्ता के संधान में तुम्हें छोड़कर, तो तुमने अपना सर क्यों नहीं दिया- मुझसे सीख इसके दो फायदे होते तुम्हें एक तो तुम्हें भ्रम बना रहता कि तुम्हारा पति तुम्हें याद रखता होगा और दूसरा कि तुम अमर हो गई होती, मेरी तरह. सत्ता की शीर्ष पर बैठा तुम्हारा पति सार्वजनिक स्थलों पर रोता तुम्हारे लिए, करवा चौथ के दिन रखता उपवास तुम्हारे लिए.’ उन्हीं दिनों बॉलीवुड का एक चर्चित जोड़ा- पिछले कई वर्षों से आदर्श पति –पत्नी के रूम में ख्याति में बंधा जोड़ा,  अलग हो गया- पत्नी को प्यार हुआ एक सह अभिनेता से और बाद में पति को भी. यानी यह वह दौर था, जब विवाह टूटने और विवाह को किसी तरह बनाये रखने की जद्दोजहद समाज के सहजबोध में शामिल था.
इसी समय के टुकड़े पर इस कहानी की नायिका, या नायिकाओं में से तबस्सुम मुझसे मिलने आई थी- मेरी कहानी ‘इनबॉक्स में रानी सारंगा’ पढ़कर. मुझसे मिलने के कुछ दिन पहले ही बाजार में मिली थी कुसुम उससे.
वह मुझ पर बिफरी, ‘ क्यों ऐसी महिलाओं का कोई लगाम नहीं होता, क्यों रूमी को निर्द्वन्द्व बहने दिया आपने.. !

मैंने उसे सहज करते हुए कहा, ‘ रूमी प्यार करने के लिए ही बनी थी, उसने प्रेम विवाह किया था, सफल प्रेम जीवन जिया, लेकिन प्रेम तटबंधों को तोड़ता है, एक समय आकर वह टूटा और वह नदी की तरह बही –क्योंकि प्रेम करने में उसे कोई कुंठा महसूस नहीं होती थी.’
‘ यह ख्याली इमेज है उसका आपके मन में, कई बार मुझे भी लगा कि कहीं मोहित कथाकार ही तो नहीं है, जिसने एक इमेज बना रखा है रूमी का, अपनी इमेज में कैद रूमी का मनचाहा व्यक्तित्व गढ़ रहा है. अन्यथा यह बाताइये कि क्या प्रेम एक वक्त में ईमानदारी नहीं मांगता..’
‘ लेकिन ..’
‘आप बिलकुल न समझें कि मैं किसी एक प्रेम में बंधने की हिमायत लेकर आपसे मिलने आई हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि कम से कम आप जिस वक्त जिस प्रेम में हैं उस वक्त उस प्रेम के प्रति ईमानदार हों.’
‘ क्या प्रेम शर्तों पर निर्धारित होता है…. हर प्रेम के अपने किस्से हैं, हर प्रेम की अपनी तासीर….’
‘ प्रेम की एक कहानी मेरे पास भी है,’ वह बेचैनी से टहलने लगी.
मैंने निरपेक्ष भाव में कहा, ‘ सुना डालिये… देखूं इस प्रेम की तासीर क्या है ?’
तबस्सुम की पूरी कहानी सुनकर मैंने सोचा कि इस मीरा के भीतर रुक्मिणी ने सिर उठाया है. वह इस कथा –प्रसंग के साथ कई बार भावुक हुई, कई बार आक्रोश में आई. मैंने उसे उसकी कहानी के प्रभाव से निकालना चाहा.

मैंने उसे फिर से अपनी कहानी की बहसों में लाना चाहा, ‘ अच्छा यह बताइये आप क्या चाहती थीं आप , मैं अपनी कहानी की नायिका रूमी को किसी ग्लानी से भर देता या सन्यास के लिए प्रेरित करता.’
‘ फर्नांडिस या मोहित तक तो ठहर सकती थी वह !’
‘ क्या प्रतीप ठहर जायेगा !.. यदि नहीं तो रूमी ही क्यों ठहरे भला.’
‘ लेकिन ..’
‘ कहीं नीलिमा में रूमी तो नहीं देख रही हैं आप,’ मैंने सवाल किया. फिर कहा, ‘ तबस्सुम आप अपने ही सवालों से घिर रही हैं, वही परेशान कर रहा है आपको … ! आप अनिर्णय की स्थिति में हैं.’
‘ कैसा अनिर्णय ? ‘
‘ आपकी कहानी की तबस्सुम क्या करने वाली हैं, सच जानकार.’
वह चुप रही
‘क्या आपकी तबस्सुम सती होगी अपने प्रिय के इमेज के साथ, जो उसने बनाई थी. या वह मुकदमा करेगी अपने यौन उत्पीडन का.’
‘…..’
‘ प्रतीप गतिमान है, तबस्सुम का क्या होगा, क्या चिर क्वांरी तबस्सुम …..’
‘ वह जाएगा कहाँ, लौटकर अपने ही शहर आयेगा, उसका आख़िरी ठौर अपना शहर, अपना घर और अपनी नाटक मंडली है’ वह बिदक गई थी.
‘ आप कोई आदर्श और आधुनिक बोध का बखान नहीं कर रही हैं. हमारी परम्परा राधाओं का है, 18 हजार पटरानियों वाले कृष्ण के लिए समर्पित राधा.’
‘ मैंने उसे समग्रता में प्यार किया है, उसकी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ,’ जाने के लिए उठी वह.
‘ मैं अगली बार आपके शहर आ रहा हूँ, एक कथा गोष्ठी में.’ मैंने विदा दिया और सोचा मैं तबस्सुम को नहीं कुसुम को विदा कर रहा हूँ – मीरा को नहीं राधा को विदा कर रहा हूँ.
नानू ने आखिर में मुझसे पूछा, ‘ इतना निरीह क्यों है आपकी कुसुम और तबस्सुम. क्या कुसुम और तबस्सुम के लिए प्यार के और मौके और पात्र नहीं हैं..’
मैंने कहा, ‘ नानू, मैं यथार्थ की कहानी कह रहा हूँ, कोई कल्पना नहीं.’

इस बार कथा पूरी होने के बाद कथावाचक ने बैताल की तरह प्रश्न किया, ‘ तो हे मेरी मीठी नानू, इस कहानी में कौन किससे धोखा कर रहा है, प्रतीप कुसुम और तबस्सुम से, नीलिमा अपने पति, कुसुम और तबस्सुम से , तबस्सुम कुसुम से या कुसुम खुद से और तबस्सुम भी खुद से ! विक्रम की तरह नानू आदतन मजबूर नहीं थी मुंह खोलने को इसलिए उसने कुछ नहीं कहा. मैं जानता हूँ कि वह क्या सोच रही थी उस वक्त …. !

उस वक्त वह श्रोता नहीं कथावाचक होना चाह रही थी, वह चाह रही थी परकाया प्रवेश. वह चाह रही थी कि कथावाचक के पास से लौटकर तबस्सुम फूट –फूट कर रोये नहीं. वह चाह रही थी कि तबस्सुम उसी शहर में ऐसी स्थितियां पैदा करे कि कोई ‘ प्रतीप’ किसी ‘तब्बसुम’ को तब्बसुम न बना पाये अगली बार और यह भी कि वह ‘ कुसुम को खींच लाये अपनी सासों की परम्परा से. वह नहीं जानती नीलिमा का निर्णय, लेकिन वह चाहती है उसकी कहानी की नीलिमा को वह ग्लानि, क्षोभ और संताप से भर दे – दिल बहलाने को ‘ग़ालिब’ ख्याल ये अच्छा है. यथार्थ ऐसा था नहीं और नानू इस वक्त श्रोता थी, कथावाचक नहीं…! शायद फिर कभी, फिर कभी ऐसा हो कि नानू बैताल की तरह विक्रम के कंधे पर हो और सुना रही हो कथा, ‘वाल्मीकि’ , ‘वेदव्यास’ से लेकर लल्लू लाल मिश्र तक को और हाँ इस कथावाचक को भी.

संवेद के अंक 106 (भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी कहानी) में प्रकाशित 

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। 


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