भगवान! ‘एक कटोरा भात खिला दो बस, भारत में भात नहीं मिला’

ज्योति प्रसाद

 शोधरत , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com

स्वर्ग और नरक के बीच भूखी बच्ची वहाँ भी फंस गयी, उम्र 11 साल. क्या पाप और क्या पुण्य उसी ने लिखा है आपके नाम एक खत. पुण्यआत्माओं, बहुत बोलने से थक गये हों तो पढ़ें इसे और हृदय हो तो रो लें.

मुझे नहीं पता कि मैं किस दरवाज़े पर खड़ी हूँ! धरती पर जब तक रही यही सुनने को मिला कि स्वर्ग और नरक दो जगहे हैं। मैं काफी थक गई हूँ। यहाँ दरवाज़े पर कोई नहीं है। मुझे यह भी नहीं मालूम कि जब यह दरवाजा खुलेगा तो नरक का होगा या स्वर्ग का। मेरी उम्र 11 बरस है। मेरा नाम संतोषी कुमारी है। पहले मैं धरती पर झारखंड में रहती थी। हाँ, वही जो भारतनाम के देश में है। वहाँ 100 स्मार्ट सिटी बनाने का काम ज़ोरों पर चल रहा है। लेकिन सच्ची बोलूँ, मुझे नहीं पता कि उस स्मार्ट सिटी में मेरी जगह थी भी या नहीं, यह मुझको नहीं मालूम। मुझे न बहुत सी बातें नहीं मालूम। लेकिन कुछ-कुछ मालूम है। अच्छा एक बात और बताऊँ, पिछले कुछ दिनों से माँ राशन लेने जब भी जाती थी खाली हाथ लौट आती थी। मुझे अच्छा नहीं लगता था। मुझे रोना आता था। मुझे बहुत भूख लगती थी। बहुत ज़्यादा। कोई कार्ड-वार्ड का चक्कर था। मुझे नहीं पता कि आधार क्या होता है। कुछ दिनों से स्कूल में भी दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ पड़ गई थीं। मुझे अच्छा नहीं लगा था। छुट्टी पड़ जाने से स्कूल में भी खाना मिलना बंद हो गया था। न जाने ये दुर्गा पूजा क्यों आई थी?


अच्छा, ये दरवाजा खुल नहीं रहा। ज़रा और देर बैठ जाऊँ।… आप लोगों को बताऊँ कि मैं मरना नहीं चाहती थी। बचपन में भला कौन मरना चाहता है। 11 बरस की उम्र को लोग कहते हैं कि बच्चों की उम्र है। मुझे नहीं मालूम कि क्या सच है और क्या झूठ है। लेकिन मैं तो स्कूल से लौटकर माई के संग काम करवाती थी। माई अकेले थक जाती है न। वो भी क्या करे। उसे भी तो भात खाने को नहीं मिलता। वो कमजोर है। मैं भी तो कमजोर ही हूँ। सुबह स्कूल में प्रार्थना के समय खड़े होने पर मेरा सिर चकरा जाता था। आँखें बंद करने पर काले काले धब्बे दिखते थे। एक दिन मैं बेहोश होकर गिर भी गई थी। लेकिन तब भी मैं मरी नहीं। स्कूल के खाने में स्वाद नहीं होता था तब भी अच्छा लगता था। मुझसे भूख बर्दाश्त नहीं होती थी।

भूख लगने पर मानो जैसे पेट में बड़ी तेज़ आग लग जाती थी। छूने पर पेट गरम सा लगता था। बार-बार पानी पीने पर भी नहीं जाती थी। सिर के एक हिस्से में दर्द होता था। आँखों से दिखता भी नहीं था। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था जब भूख लगती थी। हाथ पैर सुख रहे थे। और माई को यह चिंता होती थी कि मैं कमजोर हो रही थी। इसी बीच माई जब राशन लेने गई तब राशन वाले ने राशन देने से मना कर दिया। कहने लगा कि आधार कार्ड जुड़वा के लाओ। माई काम पर जाए या आधार कार्ड जुड़वाए। हमें तो पता भी नहीं था कि कैसे जुड़ेगा। पर राशन नहीं मिला।…ओह! भूख बहुत बुरी होती है। जब पेट में कुछ न हो तब कुछ अच्छा भी नहीं लगता। कुछ दिखता भी नहीं और सुनाई भी नहीं देता।



अच्छा मरने के बाद दिमाग बहुत बड़ा और किसी संत के दिमाग की तरह बन जाता है। देखो मैं बैठे बैठे क्या सोच रही हूँ। ऊपर होने पर सब कुछ दिखने लगता है। धरती की हर तरह की हलचल का पता चलता है। एक शांति सी है। फिलहल अभी भूख नहीं लग रही। पेट वाला हिस्सा गुब्बारे की तरह हल्का लग रहा है। हाँ, माई की याद आ रही है। लेकिन मैं तो अब मर गई हूँ, भूख से। एक रपट आई थी मेरे मरने के पहले। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (IFPRI) वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में भारत 100वें नंबर पर तरक्की कर गया है। पिछले साल यह 97वें था। कितनी गजब बात है कि नोट बंदी जैसे फैसले से आया हुआ काला धन होते हुए भी मैं मर गई। कहाँ गया वह अकूत पैसा? कितनी अजीब बात है कि 100 स्मार्ट सिटी बनाने वाले देश में भूख बच्चों की जान ले रही है। सबसे बड़ी विपदा खाना होते हुए भी खाना न मिलना है। दूध के तो मैंने कभी सपने भी नहीं देखे। मुझे तो भात के कटोरे से ही संतोष हो जाता था। शायद यही वजह होगी जो माई ने मेरा नाम ‘संतोषी कुमारी’ रखा होगा।


यह दरवाजा तो खुल ही नहीं रहा। न जाने कब खुलेगा? क्या भगवान भी भूख से मर गया है? या फिर कहीं वह भी आधार कार्ड बनवाने गया है। हो सकता है। वह भी दस्तावेज़ बनवाने गया हो। आज का समय बड़ा कठिन हो गया है। यहाँ पर कोई पक्की सड़क नहीं है। बिजली का बल्ब भी नहीं है। लगता है यहाँ का भी विकास नहीं हुआ है। …विकास…अरे विकास से याद आया कि यह लफ़्फ़ाज़ी बहुत ज़्यादा गली-गली और द्वारे-द्वारे घूम रही थी धरती पर। आते जाते हलवाई की दुकान पर सुना था कि अच्छे दिन आएंगे।…गाना कुछ ऐसा था …मोदी आया मोदी आया रे, झारखंड विकास करे मोदी आया रे…गाना तो अच्छा ही लगता था। मुझे लगा था कि अच्छे दिन आने पर हलुआ का एक कटोरा खाने को मिलेगा। मेरे लिए तो भरपेट खाना ही अच्छे दिन की तरह लगता है। लेकिन मेरा विकास नहीं हुआ। न मेरी माई का। न मेरे घर का। उल्टा मेरी तो भूख से जान चली गई। क्या फायदा ऐसे विकास का जो खाना भी न मिलने दे।

ऐसी प्रणाली का क्या फायदा जो डिजिटल बनने के बाद भी खाना खाने से रोक दे। मशीनों को कब भूख लगा करती है। हम क्या जाने डिजिटल और विजिटल क्या होता है? भारत को डिजिटल करने से पहले भूख और गरीबी को डिजिटल करने का सोचना चाहिए था। भूख तो भूख होती है। अमीर और गरीब दोनों को लगती है। आदमी और औरत को भी। नेता और आम जन को भी। पहले जो अभावग्रस्त हैं उनको डिजिटल कीजिये। जिनको इलाज़ नहीं मिल रहा उनको डिजिटल कीजिये। जो भीख मांग रहे हैं, उनको कैसे डिजिटल करेंगे? जो सिग्नल पर गुलाब के फूल बेचने की मशक्कत में लगे रहते हैं, उनको कैसे डिजिटल करेंगे? जो सड़कों पर सर्दियों और गर्मी की रात काट देते हैं, जिनके लिए बसेरे का मतलब कुछ भी नहीं होता उनको कैसे डिजिटल करेंगे? जो बच्चे भिखमंगे बना दिये जाते हैं, जो बलात्कार का शिकार हो जाते हैं, उनको कैसे डिजिटल करेंगे? जिनको बेच दिया जाता है, उनका कब डिजिटाइजेशन होगा?आखिर यह कौन सी बला है? अगर मेरी भूख तुम्हारे डिजिटाइजेशन के दायरे में नहीं आती तो रख लो इसे अपने पास। मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा डिजिटाइजेशन-विजिटाइजेशन। तुम्हारे विकास से बंद नालियों के सड़ते हुए पानी की बू आती है।

दरवाजा खुले तो मैं यहा के देवता से कुछ अर्ज़ कर लूँगी। यही कि कहीं और जन्म दे। यहाँ तो अगस्त में बच्चे मर जाते हैं। वही आठवाँ महीना जिसमें आज़ादी का जश्न मनाया जाता है। देवता से पूछ लूँगी कि अगस्त में ऑक्सीज़न कम छोड़ते हो क्या? ये कैसी जगह है कि जब देश के प्रधानमंत्री नोटबंदी का हिसाब किताब और फायदा लाल क़िले से बता रहे थे तब ठीक उसी समय चंडीगढ़ में एक 12 साल की बच्ची से रेप हो गया। …मुझे भूख नहीं लग रही। कमाल है। …शायद मरने के बाद भूख नहीं लगती।


जब 2006 में पहली बार वैश्विक भूख सूचकांक बनाया गया था तब भी 119 विकासशील देशों में भारत का स्थान 97वें नंबर पर था। आज भी वही स्थिति है। इस सूचकांक को बनाने में कुल चार घटकों को सूचित किया जाता है- आबादी में कुपोषित लोगों की संख्या, बाल मृत्युदर, अविकसित बच्चों की संख्या, अपनी उम्र की तुलना में कम वजन और कद वाले बच्चों की संख्या। जिस देश के बच्चे कुपोषित, अविकसित, बीमार, कम कद और वजन के हों वह देश ख्वाबी तरक्की के सपने कभी देख नहीं सकता। मैं शायद इन चारों संकेतकों में शामिल थी। हाँ, अगर मौत तरक्की है तो मेरा विकास हो गया।

वास्तव में मैं जिस समाज का हिस्सा थी वह भी कब ज़िंदा था! मुर्दा समाज था। कई तो वास्तव में गरीबी के कारण ज़िंदा वाले मुर्दे थे। कई अमीरी और सत्ता के कारण ज़िंदा वाले बदबूदार मुर्दे थे। जिनको वोट दिया और जो जीत गए, वे सबसे बड़े मुर्दा थे। इन्हें ये भी ठीक से नहीं मालूम कि ये मरे हुए हैं और इनमें से भयानक सड़ांध आती थी। इतनी कि उबकाई आ जाती थी। जिस भारत माता के नाम पर अपने सीने चौड़े करते हैं और जिसे कलेंडरों में देवी देवता के शक्ल में पूजते हैं और ज़मीन पर मार देते हैं,वास्तव में वे पतनशील दिमाग के मालिक हैं। समाज का पतन यह भी माना जाय कि वह अपने भावी भविष्य को भूख से मार देता है। धोखेबाज़ प्रणाली जो छिनने के लिए बनाई गई है, भी जिम्मेदार है। बेटी को मारो, बेटो को ऊपर पहुंचाओ वाला नारा परिणित किया जा रहा। कितना घिनौना है यह सब।

…शायद भगवान ने अपने चौकीदार को दरवाजा खोलने भेजा है। किसी के कदमों की आहट मिल रही है। मेरे पाप और पुण्य कुछ भी नहीं है। हाँ, इच्छा पूछेंगे तब कहूँगी कि एक कटोरा भात खिला दो बस। भारत में भात नहीं मिला।

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