पेशेवर महिलाएं : बदलती पीढ़ी की अभिव्यक्ति

 शरद जयसवाल


असिस्टेंट प्रोफेसर, स्त्री अध्ययन विभाग,महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय. सम्पर्क:  .sharadjaiswal2008@gmail.com

 भारतीय समाज में पिछले सत्तर सालों में स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों में काफी बदलाव आये हैं. इसे किसी न किसी अर्थ में भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों में शुमार किया जा सकता है. लोकतांत्रिक मूल्य  अब सिर्फ सार्वजनिक विमर्श हिस्सा नहीं हैं, इसकी अनुगूँज को निजी यानी परिवार के दायरे में भी सुना जा सकता है. इन सत्तर सालों में बहुत कुछ बदला है. देश, समाज, शहर, ग्रामीण भारत, परिवार, विवाह, धर्म, लोकतांत्रिक संस्थाएं, राजनीति और पितृसत्तात्मक ढाँचे में इस बदलाव को आसानी से तलाशा जा सकता है. बेशक इस बदलाव ने महिलाओं के एक बड़े हिस्से को सजग किया है.


आज़ादी के बाद सार्वभौमिक मताधिकार, हिन्दू कोड बिल आदि के माध्यम से भारतीय राज्य के द्वारा महिलाओं को बराबरी का एहसास कराया गया. इसके साथ ही साथ समाज के एक हिस्से में बेटियों को लेकर परम्परागत धारणा में बदलाव आना शुरू हो गया था. आज़ादी के बाद चली औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया ने एक नए मध्यम वर्ग के लिए मार्ग प्रशस्त किया. 1980 के बाद शुरू हुई वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने बहुलतावादी भारतीय समाज के अलग-अलग तबकों को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया है. जहां एक तरफ तो वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया ने समाज में वंचित तबकों के हाशियाकरण की प्रक्रिया को और मजबूत किया तो वहीँ दूसरी तरफ महिलाओं के एक तबके की श्रमशक्ति के लिए बाज़ार ने अपने रास्ते खोले हैं.


पिछले तीन-चार दशकों में महिलाओं की एक नई पीढ़ी आत्मनिर्भर हुई है. यह नई पीढ़ी समाज में अपनी पेशेवर भूमिका के लिए सजग है. शिक्षा के अवसरों ने इस नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को बदलने की दिशा में बड़ी भूमिका अदा की है. 2016 में एलिस डब्लू क्लार्क की पुस्तक ‘वैल्यूड डाटर्स: फर्स्ट जेनरेशन कैरियर वीमेन’ प्रकाशित हुई. किताब का हिंदी तर्जुमा 2017 में ‘अनमोल बेटियां: पहली पीढ़ी की पेशेवर महिलाएं’ के नाम से प्रकाशित हुआ. इस किताब के शीर्षक से ही लेखिका किताब की अंतर्वस्तु के बारे में स्पष्ट कर देना चाहती है कि बेटियों को लेकर भारतीय समाज में जो परम्परागत सोच थी, उसमें बदलाव आ रहा है. समाज के एक तबके के लिए वे सिर्फ बेटियां नहीं हैं बल्कि वे भी एक लड़के की ही तरह अनमोल हैं. इस किताब में लेखिका ने महिलाओं की अलग-अलग पीढ़ियों की सोच व आकांक्षाओं में आ रहे बदलावों को समझने की ईमानदाराना कोशिश की है. इस किताब में महिलाओं की आकांक्षाओं में आ रहे बदलावों को समझने के लिए पुरानी पीढ़ी की महिलाओं के साथ-साथ महिलाओं की समकालीन पीढ़ी से भी बात-चीत की गई है. किताब का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसमें देश के अलग-अलग महानगरों में पेशेवर भूमिका में आ चुकी महिलाओं से साक्षात्कार लिए गए हैं. यह साक्षात्कार महिलाओं की चेतना में आ रहे बदलावों को परिलक्षित करते हैं.

उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू हुए समाज सुधार आन्दोलन ने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को उठाने का काम किया था. सती प्रथा का विरोध, विधवा पुनर्विवाह के साथ महिलाओं की शिक्षा इस आन्दोलन के केंद्र में थी. बीसवीं शताब्दी में गाँधी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रभाव में बड़े पैमाने पर पहली बार महिलाओं ने घर की दहलीज़ को पार किया था. आन्दोलन में कई सारी महिलाओं का घर से बाहर निकलना और उनकी नेतृत्वकारी भूमिका ने महिलाओं की अगली पीढ़ियों को काफी प्रभावित किया था. लेखिका लिखती हैं कि महिलाओं ने राष्ट्रीय आन्दोलन में अपने परिवार की रजामंदी से भाग लिया था. न कि पुरुष प्रधान समाज में व्याप्त पुरुष वर्चस्व के खिलाफ… स्वतंत्रता संघर्ष की प्रतिध्वनि उन महिलाओं के बीच भी पहुंची जो राजनीतिक आन्दोलन का भाग बनने के लिए बहुत ‘छोटी’ थीं. इस गूँज ने कुलीन परिवारों की कुछ युवा महिलाओं के मन में शिक्षित होने की इच्छा का रूप लिया. ताकि सार्वजनिक क्षेत्र में उपयोगी कार्य करने के लिए सुसज्ज हो सकें… वे केवल राजनैतिक या सामाजिक सक्रियता में लिप्त होने के लिए नहीं, न ही निजी बनाम सार्वजनिक रोजगार तलाशने के लिए, बल्कि व्यापक रूप से कई क्षेत्रों में अपनी आदर्शवादी पेशेवर उम्मीदें पूरी करना चाहती थीं. उनकी यह इच्छाएं केवल नौकरी या आजीविका के लिए नहीं थीं. बल्कि सेवा, कार्य और आत्म अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए थीं. जो केवल घर बैठकर नहीं मिल सकती. ऐसी पूर्णता जिसके लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उस शिक्षा को घर के दायरे से बाहर निकालकर अच्छे उपयोग में भी लाना था.



आज़ादी के बाद महिलाओं की एक नई पीढ़ी जब खुद माँ बनी तो उन्हें यह लगा कि उनकी खुद की बेटियों के लिए महाविद्यालय की डिग्री प्राप्त करना विवाह के लिए एक बीमा पालिसी की तरह है. पुरुषों की शिक्षा में बढ़ोतरी का भी प्रभाव पड़ा क्योंकि शिक्षित पुरुष शिक्षित महिलाओं से ही विवाह करने की उम्मीद रखते थे. आज़ादी के बाद महिला आन्दोलन की सक्रियता ने भी महिला शिक्षा और महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. महिला आन्दोलन की गति को तेज़ करने में 1974 में प्रकाशित ‘टूवर्ड्स इक्व्यल्टी’ नामक रिपोर्ट ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. आज के समय में महिलाओं के बीच शिक्षा के प्रचार, प्रसार और कैरियर को लेकर आकांक्षाओं में आ रहे बदलावों के पीछे जनसांख्यिकी संक्रमण की बड़ी भूमिका रही है.
महिलाओं के द्वारा कम बच्चों को जन्म देना, उनकी सेहत के लिए बेहतर है तथा इसके साथ बच रहे समय ने उनके द्वारा काम करने की संभावनाओं को भी बढ़ा दिया. लेखिका ने कहा है कि अतीत में महिलाओं के जीवन में जो बात स्पष्ट थी, वह यह कि वे अपने स्वास्थ्य पर बहुत बोझ डालती थीं और बहुत ही डरावने ढंग से खुद को वक़्त से पहले ही मृत्यु के अधीन कर देती थीं. वे अपने जीवन के शिखर वर्षों के दौरान वांछित, अवांछित, जीवित, मृत बच्चों को जन्म देती थीं और दुर्भाग्यवश इस बोझ को खुद ही उठाती थीं.


धीरे-धीरे मेडिकल साइंस के विकास की वजह से बाल मृत्युदर में कमी आनी शुरू हुई. 1981 की जनगणना ने सबसे पहले प्रजनन क्षमता में गिरावट का संकेत दिया था. मृत्युदर में गिरावट का मुख्य श्रेय उन सभी आविष्कारों को जाता है जिनकी वजह से मलेरिया, तपेदिक, चेचक और हैजा जैसी बीमारियों पर नियंत्रण पा लिया गया था. इसके साथ-साथ महिला मृत्यु दर पर नियंत्रण ने भी महिलाओं की उम्र लम्बी करने में मदद की. महिला शिक्षा में बढ़ोत्तरी के कारण विवाह योग्य आयु व लम्बे समय तक अकेले रहने के अनुपात में बढ़ोत्तरी होती है. लेकिन लेखिका का यह मानना है कि भारत में प्रजनन क्षमता में संक्रमण मुख्य रूप से गर्भनिरोधकों के कारण और विशेष रूप से महिला नसबंदी के कारण हुआ है. इसके साथ-साथ यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि 1981 से 1991 के बीच प्रजनन क्षमता में हुई गिरावट का 65 फीसदी हिस्सा उन महिलाओं का है जिन्होंने कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की है. इसके साथ-साथ परिवार में सिर्फ बेटों की चाहत से भी प्रजनन क्षमता में गिरावट आ सकती है. आज के समय में लिंग चयनात्मक गर्भपात को संभव बनाने वाली प्रौद्योगिकी व्यापक रूप से उपलब्द्ध होने लग गई है और अवांछित बेटियों से छुटकारा पाने के लिए लिंग चयनात्मक गर्भपात ने कन्या भ्रूण हत्या की पुरानी प्रथा को प्रतिस्थापित कर दिया है. इसके साथ ही कल्याणकारी राज्य के अभाव ने भी बुढ़ापे के समय लड़कों की जरूरत को और ज्यादा बढ़ा दिया है.


इस किताब में लेखिका ने कई सारी पेशेवर लड़कियों के साक्षात्कार लिए हैं. इन साक्षात्कारों के माध्यम से उनकी आकांक्षाओं को समझा जा सकता है. जैसे इलाहाबाद की तनिका कहती हैं कि ‘विवाह के लिए मैं किसी से मिलने के लिए बहुत लालायित नहीं हूँ. मेरे माता-पिता एक अच्छे परिवार का, समान जाति-धर्म का अच्छा कमाने वाला लड़का चाहते हैं. मेरे विचार से वह स्वतंत्र और अच्छा व्यक्ति होना चाहिए और उसे मेरी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए…. महिलाओं को महसूस होता है कि उन्हें आर्थिक तौर पर भाग लेना चाहिए, हम निर्माण के लिए बने हैं न कि केवल प्रजनन के लिए. सतत विकास केवल पुरुषों के साथ नहीं हो सकता. देश तभी विकसित होगा जब महिलाऐं भी श्रम शक्ति में भागीदारी करेंगी. विचारधारा और क्रांतिकारी आदर्शों में एक बदलाव आया है. हमें केवल उनके हाथ की कठपुतली नहीं होना है. बात केवल पैसे की नहीं है बल्कि व्यक्तिगत दृश्यता की भी है. हम अभी अदृश्य हैं. पुरुष और महिला को समान होना चाहिए. सारा जोर शिक्षा पर होना चाहिए.’ इसी के साथ-साथ कई और युवा पेशवर महिलाओं के साक्षात्कार में भी इसी तरह की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है. लेखिका का मानना है कि यह बदलाव सिर्फ युवा महिलाओं में ही नहीं आये हैं बल्कि उनके माता पिता की सोच में भी इस तरह के बदलाव परिलक्षित होते हैं. तनिका के पिता कहते हैं कि ‘हम चाहते हैं कि वह अपनी आजीविका खुद कमाए. पहले परिवार में एक कमाने वाला सदस्य होता था, लेकिन अब दोनों को कमाना जरुरी है…पहले उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करने दीजिये और फिर हम उससे विवाह के बारे में बात करेंगे.

समान जाति हमारी पहली प्राथमिकता होगी.’ इन साक्षात्कारों के माध्यम से लेखिका कहती हैं कि बेटियों की आजीविका की महत्वाकांक्षा की स्वीकृति छोटे शहरों में भी बढ़ रही है और उन परिवारों में भी जो पहले इन योजनाओं की स्वीकृति नहीं देते थे. इस किताब में जितनी पेशेवर महिलाओं के साक्षात्कार लिए गए हैं उन सभी ने जाति के अन्दर माता-पिता के द्वारा तय किया हुआ विवाह करने से इनकार नहीं किया है. ये सभी महिलाऐं सामाजिक रूप से प्रगतिशील न होते हुए भी एक प्रकार से ‘नारीवादी’ हैं.


लेखिका लिखती हैं कि जो साक्षात्कार मैंने लिए हैं उसमें कुछ महिलायें खुद को मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अन्तर्गत आने वाले सभी अधिकारों पर दावा करते हुए देखी जा सकती हैं. उदहारण के लिए अनुछेद 17 अपनी स्वयं की संपत्ति पर अधिकार सुनिश्चित करता है और उससे किसी को मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जा सकता है. इस किताब के अनुवाद ने इसकी अंतर्वस्तु को काफी जटिल बना दिया है इसके साथ-साथ भाषा की त्रुटियाँ भी शोध की गंभीरता को कम कर रही हैं. फिर भी इस किताब में स्थापित तथ्यों के आधार पर यह तो कहा जा सकता है कि आज के समय में महिलाओं का एक पेशेवर तबका अपनी आकांक्षाओं को खुलकर समाज के सामने अभिव्यक्त कर रहा है और अपेक्षा कर रहा है कि समाज भी उन सपनों को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े.

पुस्तक- अनमोल बेटियां : पहली पीढ़ी की पेशेवर महिलाएं- एलिस डब्लू क्लार्क 
पृष्ठ संख्या: 183, मूल्य: 250, सेज पब्लिकेशन, ISBN 978-93-864-4664-0 

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