आत्मकथा नहीं चयनित छविनिर्माण कथा (!)

संजीव चंदन


रामशरण जोशी की आत्मकथा  ‘मैं बोनसाई अपने समय का’ में बहुत से प्रसंग छोड़े और एडिट किये गये हैं. स्त्रीकाल में हमने इस किताब की दो समीक्षायें प्रकाशित की हैं. अब कुछ प्रसंग मेरे द्वारा भी जिसका गवाह मैं भी रहा हूँ. ये प्रसंग स्पष्ट करते हैं संस्थानों में प्रवेश के इनके तिकडमों को, जो शायद हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों का अधिकांश सच हो. हालांकि इन प्रसंगों के बीच जोशी जी के दो ओरिजिनल लेख, जो हंस में 2004 में प्रकाशित हुए थे,  भी आप पढ़ सकेंगे, जो इस लेख के साथ प्रकाशित हैं, ताकि शोधार्थियों को सनद रहे. इस लेख के साथ मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हिन्दी साहित्यकारों, पत्रकारों को आत्मकथा नहीं लिखनी चाहिए.



‘ समझ नहीं पा रहा हूं कि हम हिंदी के लोग दोगले, पाखंडी क्यों होते हैं? हम पारदर्शी जीवन जीना क्यों नहीं जानते? हम लोग नैतिकता के मामले में “सलेक्टिव” क्यों हो जाते हैं? क्यों अपने स्खलनों की सड़ांध को प्रखुर वत्कृता और जादुई कथा शैली से ढांपे रखना चाहते हैं? कभी तो यह मैनहोल खुलेगा और दोगली जिदंगी का गटर खुद-ब-खुद बाहर बहेगा, तब क्या वे नंगे नहीं हो जाएंगे? ऐसी विकृत नैतिकता को ओढ़े रखने का क्या लाभ?

(पृष्ठ299),  ‘मैं बोनसाई अपने समय का’  रामशरण जोशी.


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इस आत्मकथा के लेखक के उनकी ही भाषा में ‘दोगले, पाखंडी’ होने का वह प्रसंग मैं लिखता हूँ, जो उन्होंने आत्मकथा में नहीं लिखा. उन्होंने केन्द्रीय माखनलाल चतुर्वेदी विशवविद्यालय, भोपाल, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा का विस्तार से प्रसंग लिखा लेकिन किस जुगाड़, धोखा और छल के साथ वे हिन्दी विश्वविद्यालय पहुंचे, उसकी कहानी नहीं लिखी, तो हो गये न ‘सेलेक्टिव’, ‘दोगला’ और ‘पाखंडी’. हालांकि उनके द्वारा इस्तेमाल किये गये इस ‘दोगला’ शब्द के खिलाफ हूँ. डा. बाबा साहेब अम्बेडकर बास्टर्ड/दोगला शब्द को महिलाओं का अपमान मानते थे, जो वास्तव में है भी. हिन्दी विश्वविद्यालय पहुँचने के उनके तिकडम, अर्जुन सिंह के यहाँ से आख़िरी तौर पर सम्बन्ध-विच्छेद को पाठक समझ जायेंगे तो आत्मकथा पढ़ते हुए उन सारे बिटवीन द लाइन्स को भी पढ़ सकेंगे, जिन्हें जोशी जी गोल कर गये हैं.

साहित्यकारों के साथ रामशरण जोशी तस्वीर में नंदकिशोर आचार्य, कमला प्रसाद, नन्द भारद्वाज भी दिख रहे हैं
जोशी जी से हमारी (राजीव सुमन और मेरी) मुलाक़ात 2007 के आखिर में हुई थी. हमलोग हिन्दी विश्वविद्यालय में तत्कालीन प्रशासन और कुलपति के खिलाफ सक्रिय थे. उधर विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद्, जिसके सदस्य कमला प्रसाद, विष्णु नागर, मधुकर उपाध्याय, असगर वजाहत, गगन गिल आदि थे, भी कुलपति के खिलाफ मोर्चाबंद थी. हमें शायद कमला जी ने ही सुझाव दिया था कि हम रामशरण जोशी से मिलें, वे तब केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे और मानव संसाधन विकास मंत्री, अर्जुन सिंह के बेहद करीबी भी (करीबी होने के कई सबूत वे इस आत्मकथा में देते हैं). इसके पहले हमलोग, (राजीव सुमन और मैं) प्रफुल्ल विदबई के साथ अर्जुन सिंह से मिल चुके थे. खैर, हम दिल्ली आये, जोशी जी को फोन किया. वे खुद ही हमसे मिलने श्रीराम सेंटर, मंडी हाउस के कैंटीन में पहुंचे. बात हुई और तय हुआ कि हमलोग न सिर्फ अर्जुन सिंह से मिलेंगे, बल्कि एक डेलिगेशन लेकर जायेंगे. हम सब एक मुहीम चालायेंगे हिन्दी साहित्य से बाहर के किसी कुलपति के लिए, खासकर सोशल सायंस से. हमने एक मीटिंग बुलाई इस मसले पर जेएनयू, जामिया के कुछ प्रोफेसर आये. फिर एक डेलिगेशन गया अर्जुन सिंह से मिलने- उसमें जोशी जी, प्रोफेसर प्रमोद यादव (जेएनयू), प्रोफेसर अरुण कुमार (जेएनयू) आदि थे. राजेन्द्र यादव जी को लेकर मैं आया था और पंकज बिष्ट भी वहां जोशी जी के आमन्त्रण पर शायद पहुंचे थे. अर्जुन सिंह से मिलने से एक बात जरूर हुई ‘गोपीनाथन जी को एक भी दिन का एक्स्टेंशन नहीं मिला.’ इतना वादा उन्होंने प्रफुल्ल जी के साथ हमारे जाने पर भी किया था. वहां, बाहर निकलने के बाद पंकज बिष्ट तो तुरत चले गये, अन्य लोग रुके, हंसी-मजाक करते रहे-जोशी ने रमणिका जी को लेकर कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में अनपेक्षित कहा, लोगों ने ठहाके लगाये.
आगे कुछ एक महीने में ही नये कुलपति के लिए चयन समिति के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई. इसमें एक सदस्य, जो समिति को चेयर करता है, राष्ट्रपति द्वारा नामित होता है. उन्होंने पहली कोशिश तो यही की कि यह नाम उनका हो. मंत्रालय के सेक्रेटरी रहे सुदीप बनर्जी के पास उठना-बैठना तेज कर दिया उन्होंने. हालांकि राष्ट्रपति के यहाँ से बिपिन चन्द्रा का नाम फायनल हुआ. अब जोशी जी लग गये कि उनका नाम विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद द्वारा नामित होने वाले सदस्यों में जाये. उन्होंने हमसे कहा कि हम कार्यपरिषद के सबसे सक्रिय सदस्य कमला प्रसाद जी को मनायें क्योंकि जोशी जी के अनुसार कमला जी कभी नहीं चाहेंगे कि वे चयन समिति के सदस्य बनें. हमारे लिए जोशी जी का आना इसलिए जरूरी था कि हिन्दी विश्वविद्यालय में सोशल सायंस के कुलपति को लाने की मुहीम में वे शामिल थे. हालांकि जोशी जी नहीं आये. कमला जी ने सुदीप बनर्जी का नाम दिया और एक और सदस्य का नाम भी.


कहानी उसके बाद विभूति नारायण राय के पक्ष में रही. बाद में उनसे नाराज हुए सीपीआई के अतुल अंजान से लेकर कई लोगों ने उनके लिए पैरवी की और वे हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए. इस बीच रामशरण जोशी का रिश्ता अर्जुन सिंह से खराब हुआ. खबर तो यह भी उड़ी कि जोशी जी किसी विश्वविद्यालय, शायद अमरकंटक, में कुलपति बनाने के लिए सक्रिय थे-धन-बन का भी मामला था (हालांकि हम नहीं मानते) इसलिए अर्जुन सिंह नाराज हुए. कारण जो भी हो अर्जुन सिंह ने उनसे मिलने तक से इनकार कर दिया था.

जोशी की आत्मकथा
उसके बाद बहुत कुछ हुआ. हिन्दी का छिनाल प्रकरण घटा. साहित्यकारों ने विभूति राय का बहिष्कार किया, उनमें से कुछ फिर उनसे संबंध बनाने लगे.
आगे 3.12.2011 की मेरी डायरी का एक अंश
रामशरण जोशी भी ‘राय साहब ‘ के खेमे में आ चुके थे. आलोक धन्वा पहले से ही ‘राय साहब ‘ की छवि निर्माण में व्यस्त थे. राजकिशोर पहले विरोध कर अब सरेंडर कर चुके थे- 50 हजार रुपये की नौकरी और सुविधाओं के आगे.
लेकिन राम शरण जोशी! हमारे लिए वह सब सदमा सा था: उन दिनों जब जोशी जी गोपीनाथन विरोधी हमारे मुहीम से जुड़े तो अर्जुन सिंह की निकटता की वजह से हमारे अगुआ भी हो गये थे, दिल्ली में हमारे साथ काफी सक्रिय थे. उन दिनों हमारे कई मित्र उन्हें अवसरवादी बताते थे , लेकिन जोश के साथ वे ‘ हिंदी विश्वविद्यालय ‘ बचाओ की मुहीम में शामिल थे, उससे हमें लगता था कि वे पूरे मन से निश्च्छलता के साथ हमारे साथ हैं .
जोशी जी जब ‘छिनाल प्रकरण’ के बाद विजिटिंग प्रोफ़ेसर होकर वर्धा नहीं आये थे तभी कुछ दिनों के लिए वे वर्धा प्रवास पर थे. मैंने उन्हें एस.एम.एस किया -उन दिनों मेरा विश्वविद्यालय कैम्पस में प्रवेश बैन था. एस.एम.एस में मैंने लिखा कि ‘निजाम बदल गया है , हालात ज्यों के त्यों हैं. जिन कारणों से हम गोपीनाथन जी के खिलाफ थे , वे कारण आज भी बने हुए हैं. मैंने उन्हें कैम्पस के बाहर ‘बिरयानी’ खाने के लिए आमंत्रित किया. उन्होंने मेरा एस.एम.एस न सिर्फ कुलपति विभूति राय को दिखाया बल्कि टिप्पणी भी की कि ‘ वे (मैं और राजीव पिछले कुलपति से लड़ता रहा , अभी लड़ रहा हूँ, आगे भी लड़ता रहूंगा.’
जोशी जी को इनाम मिल गया. वे ‘ अनिल चमडिया ‘द्वारा खाली की गई जगह पर नियुक्त किये गये, अनिल जी नियुक्ति पर स्टे लेकर आ गये तो जोशी जी टर्म बेस पर विजिटिंग प्रोफ़ेसर होकर आ गये.

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राय उन दिनों एसएमएस दिखा रहे थे, कि कैसे ‘छिनाल प्रकरण‘ में उनके खिलाफ खड़े लोग नए साल का मुबारकबाद देकर उनसे सम्बन्ध पुनर्जीवित कर रहे हैं.
इस चरित्र और प्रसंग को और समझने के लिए 14.12.2011 की मेरी डायरी
नामवर सिंह ! हिंदी विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष ! हिंदी के महान आलोचक-विद्वान् !!
क्या कुछ प्रतिमानों के व्यक्तित्व के आभामंडल को बने रहने देना चाहिए- आखिर हम अपने बाद की पीढी को क्या प्रतिमान देंगे , क्या ध्वस्त प्रतिमानों के साथ हमारी पीढी आदर्शविहीन नहीं हो जायेगी !!
सच तो सच होता है , आखिर हमें देखना होगा कि ऐसे प्रतिमानों को इतिहास में प्रस्तुत करते वक्त हम इनके विचलनों को कैसे प्रस्तुत करते हैं– विचलन इनके व्यक्तित्व नहीं हो सकते, लेकिन भावी पीढी को ऐसे विचलनों से भी सतर्क रहना होगा!!!
लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रम में नामवर जी ने दलितों के आरक्षण पर खासे जातिवादी ढंग से तंज कसा . ईश्वर सिंह दोस्त पिछले दिनों जब हमारे घर आये थे तो गोवा विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम का वाकया बता रहे थे कि कैसे नामवर जी आयोजक ब्राह्मणों के प्रकार (उप जाति) से ‘राजपूतों’ के रिश्ते पर ही कुछ मिनट बोलते रहे थे .
हिंदी का शिखर आलोचक जातिवादी है – हिंदी समाज का प्रतिरूप तो नहीं. दो लड़के नामवर सिंह से मिलने जाते हैं —रजनीश और आशीष , उन दिनों नामवर जी हिंदी विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में टिके थे- दोनों लड़कों ने एम.फिल परीक्षा में धांधली और आरक्षण नियमों के उल्लंघन की शिकायत नामवर जी से की. नामवर जी ने उन दोनों लड़कों से उनकी जाति पूछी – एक ब्राह्मण , एक कायस्थ —नामवर जी आश्वस्त हुए. फिर उन्होंने लड़कों से कहा कि विभूति जातिवादी है —भूमिहारवाद करता है. उसके कुछ ही दिनों बाद ‘सत्ताचक्र/ मोहल्ला पर उनकी एक चिट्ठी सामने आई , जिसमें वे विभूति को unscrupulous कह रहे हैं.

एक कार्यक्रम में रामशरण जोशी विभूतीनारायण राय (बोलते हुए)
सबलोग में विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में  मेरा लेख पढ़कर नामवर जी ने मुझे फोन किया था. वे मेरे लेख के हवाले से कह रहे थे कि विश्वविद्यालय के विषय में इतना कुछ वे उसी आलेख से जान पाये , उन्होंने संबंधित  कागजात मुझसे मांगे — उनके अनुसार मंत्री महोदय नाराज थे और वि.वि. से संबंधित कागजात चाहते थे , कारवाई करने के लिए.
मैं उन दिनों रामशरण जोशी के ‘यू-टर्न’ से झुंझलाया हुआ था. मैंने नामवर जी को याद दिलाया कि मैं  इसके पहले भी उनसे उनके घर मिल चुका था . मैं , राजीव और सत्यम श्रीवास्तव उनके घर गये थे . -गोपीनाथन जी का कार्यकाल था . हमने उनसे  कुलाध्यक्ष के नाते हमारे कागजातों की आधार पर राष्ट्रपति (विजिटर)  को लिखने का आग्रह किया था. उन्होंने मना कर दिया प्रोटोकाल बता कर .हमने फिर उन्हें रास्ता सुझाया कि क्यों न हम उन्हें एक आवेदन दें और वे उसे अपनी टिप्पणी के साथ राष्ट्रपति को अग्रसारित कर दें – उन्होंने ऐसा करने से भी मन कर दिया .
वे बड़े प्रेम से हमसे मिले थे -अच्छा नाश्ता… अच्छी चाय पिलाई थी- गोपीनाथन जी के खिलाफ भी खूब बोले. उनके अनुसार उन्होंने गोपीनाथन जी को नियुक्तियां न करने के लिए कहा था क्योंकि बकौल उनके  ‘ एक ख़राब नियुक्ति लगभग 30 सालों तक वि.वि.को नष्ट कर देती है .’
लेकिन किसी ठोस पहल से उन्होंने इनकार कर दिया था. उन्हीं दिनों एन.डी.टी.वी के रवीश से मिले थे . उन्होंने कहा कि अगर नामवर जी कैमरे पर गोपीनाथन के खिलाफ बोल दें तो वे एक लम्बी रिपोर्ट चलवा सकते हैं- रवीश को नामवर जी का अनुभव था शायद इसीलिए उन्होंने हमें यह प्रस्ताव दिया था.
नामवर जी राजकमल के किसी प्रकाशन के लोकार्पण के अवसर पर इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिले. नामवर जी और अशोक वाजपयी, दोनों थे वहां . नामवर जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए अशोक जी से कहा कि ‘ इनसे मिलिए आपके विश्वविद्यालय का हाल ख़राब है. अशोक जी ने हंसते हुए कहा  ‘ अब आपका विश्वविद्यालय ‘ . खैर, जब हमने नामवर जी को रवीश का प्रस्ताव सुनाया तो उन्होंने फिर से इनकार कर दिया .

यानी, नामवर जी से हम वाकीफ थे और रामशरण जोशी के ‘यू -टर्न’ से झुंझलाए. हमने नामवर जी को रामशरण जोशी वाला वाकया  सुना दिया और कागजात भेजने के वादे के साथ बात ख़त्म की.
हमें कागजात भेजना था नहीं , भेजा भी नहीं. लेकिन हमारे सामने यक्ष प्रश्न था कि नामवर जी ने यह अचानक से फोन क्यों किया! मामला इतना सीधा भी नहीं था कि सबलोग के आलेख ने उनकी आँखें खोल दी थी. किसी निष्कर्ष पर हम नहीं पहुँच पा रहे थे . वे दुबारा कुलाध्यक्ष बना दिये गये थे , फिर नाराजगी किस बात की थी उन्हें विभूति से. पता चला कि विभूति निर्मला जैन को कुलाध्यक्ष बनवाना चाह रहे थे, वे नामवर सिंह के दूसरे टर्म के पक्ष में नहीं थे – शायद नामवर जी को इसी बात का आक्रोश हो.
रामशरण जोशी की प्रतिक्रिया में , नामवर जी के पुराने व्यवहार के कारण हमने फोन वाला प्रसंग विभूति को बताया. उनसे ही जानना चाहा कि नामवर जी उनसे इतने खफा क्यों हैं- तब हम अपने माइग्रेशन के प्रसंग में विभूति से मिलने गये थे. सुनकर विभूति हँसे, उन्होंने कहा कि “पता नहीं क्यों चाह रहे होंगे वे ऐसा,  मेरे ऊपर उनका बड़ा उपकार है . ‘ नया ज्ञानोदय‘ विवाद (छिनाल प्रकरण) के दौरान उनके प्रिय कमला प्रसाद लगभग धरना देकर बैठ गये थे उनके घर के वे मेरे खिलाफ बयान दें. लेकिन नामवर जी ने उन दिनों मेरा साथ दिया.’’

मुझे लगता है कि ‘सत्ता चक्र ‘ के ऐसे प्रसंगों से रामशरण जोशी या नामवर सिंह का आकलन नहीं किया जाना चाहिए- विचलन कभी भी समग्रता को बोध नहीं देते.
मेरी डायरी के इन हिस्सों में जोशी जी दर्ज हैं वही उनका व्यक्तित्व रहा होगा, आजीवन. हाँ बस्तर के विश्वासघात के दौरान भी. वे अपनी आत्मकथा में हिन्दी विश्वविद्यालय के कई प्रसंग तो लेकर आते हैं लेकिन इन प्रसंगों को नहीं लिखते, कारण व्यक्तित्व का सही अंदाज जो लग जाता पाठकों को. वे आलोक धन्वा के प्रसंग में तो लिखते हैं कि कैसे एक घटना के बाद विभूति उन्हें रातोरात विदा कर देते हैं. लेकिन अपना प्रसंग नहीं लिखते,उनके बारे में भी कैम्पस में अनेक कथायें मौजूद थीं. वे अपने ही शब्दों में ‘दोगला’ पाखंडी हैं.

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