स्थितियां बनायी गयी थीं, लेकिन उसने ‘हाँ’ कहने से इनकार किया और…

पल्लवी 


जब पुरुष ने ऐसी स्थितियां उत्पन्न की, तब स्त्री का ‘हाँ’ या ‘न’ अर्थहीन हो गया-और उसी वक्त स्त्री ने ‘वस्तु’ होने से इनकार कर दिया और उसने बलात्कार की संस्कृति को मृत्यु के भयबोध से भर दिया.  शारॉन मार्कस के कथन का दृश्यविधान-पल्लवी की रचनात्मक प्रस्तुति- यथार्थ और स्त्रीवादी लक्ष्य की  लघुकथा 


‘Consent’

“The would be rapist creates a situation. The women in the situation can consent or not consent, which means she can either acquiesce to his demands or dissuade him from them, but she does not actively interrupt him to shift the terms of discussion.” – Sharon Marcus (1992)

 

अपने कमरे के हलके गुलाबी दीवार पर  चिपके अगिनत छोटे छोटे रंग बिरंगे कागज़ के टुकड़ों को देखते हुए आभा की नज़रें बार बार शारॉन मार्कस की इन पंक्तियों पर टिक रही थी. उसे लगा वह कुछ ज्यादा ही सोच रही है. उठकर कॉफ़ी बनायी और ऊन और सलाइयां ले कर बालकनी की गुनगुनी धूप में बैठ गयी. थोड़ी देर बाद जय को फ़ोन मिलाया और कहा “ओके, मैं आ रही हूँ. शाम को मिलते हैं.”

शांत स्वभाव की आभा को इस नए ऑफिस में आये एक महीने हो गए थे. ऑफिस के काफी लोगों से वह घुल मिल भी गयी थी. आभा और जय एक ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और अमूमन शाम की चाय-कॉफ़ी साथ ही लिया करते थे. एक दो बार दोनों प्रोजेक्ट पर बात करते करते देर शाम तक ऑफिस में रुके भी थे. किसी मुद्दे पर जब एक बार बहस छिड़ जाती तो दोनों तर्क, फैक्ट्स और दुनिया भर के बुद्धिजीवियों का हवाला देते हुए अपने मत रखते। प्रोजेक्ट अच्छा चल रहा था. आज ऑफिस में आते ही जय ने आभा से पूछा “कल छुट्टी है और अगर कल शाम तुम फ्री हो तो मेरे घर आ जाओ, डिनर साथ में करते हैं”. आभा ने लैपटॉप से नज़रें बिना उठाये बेफिक्री से कहा “थैंक्स, आई विल लेट यू नो”. शाम को घर आकर आभा सोचने लगी कि जाऊं की नहीं जाऊं। आभा को पता था कि जय अकेला रहता है, इसलिए उसे थोड़ी झिझक हो रही थी. उसने जय को इतने दिनों में कई मौकों पर ऑबजर्ब किया था. ऑफिस की मिसेस शर्मा को देख कर एक बार उसने कहा था “औरतें क्यों घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ नहीं उठती। इनके पति जैसे मर्दों को इस समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं है. इससे अधिक कायरता क्या होगी की एक पार्टनर अपने दूसरे पार्टनर पर हाथ उठाता है.” एक बार जय ने बॉस होने के नाते एक नयी इंटर्न से आभा के सामने पूछा था “तुम्हे क्या लगता है, शादी करने के बाद क्या तुम अपनी जॉब यहाँ जारी रख पाओगी ?” आभा ने जय को उसी वक़्त टोका था “क्या तुम ऐसे सवाल पुरुष सहकर्मी से भी पूछते हो? महिला एम्प्लॉय से ऐसे सवाल पूछना सेक्सिस्ट है.” जय सकपका कर चुप हो गया. बाद में आभा से कहा “सॉरी, मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है.” ऐसे ही कई वाकये आभा की नज़रों के सामने घूम गए. “उफ़्फ़ , मैं कितना सोच रही हूँ” – आभा ने मन ही मन सोचा। एक औरत होने के नाते जाने कितने अनुभवों से वंचित रह जाती हूँ. अगली सुबह उसने जय को फ़ोन मिलाया और कहा “ओके, मैं आ रही हूँ. शाम को मिलते हैं.”

जय का घर ज्यादा बड़ा तो नहीं, पर साफ़ सुथरा और अच्छा है. खाना अच्छा बना था. आभा को वहां आये दो घंटे हो गए चुके थे और वह वहां बैठे बैठे यह सोच रही थी कि आकर अच्छा ही किया। “उफ्फ, मैं क्या पूरी शाम यही सोचती रहूंगी कि क्या मैं सेफ हूँ ?” – आभा को थोड़ा गुस्सा आया “छी कैसी तो दुनिया बना दी गयी है”. “कॉफ़ी पियोगी ? ” – जय की आवाज़ से आभा अपने ख्यालों से बाहर आती है. “थैंक्स, लेकिन मुझे अब चलना चाहिए” – आभा ने अपनी मोबाइल की तरफ देखते हुए कहा. जय ने लगभर उसे अनसुना करते हुए कहा “बस दो मिनट दे दो और कॉफ़ी रेडी है”. कॉफ़ी का मग पकड़ाते हुए दोनों के हाथ टच हुए. आभा ने जल्दी से अपना हाथ खिंच लिया। अगले पल में जय ने आभा का बांयां हाथ लगभग पकड़ते हुआ कहा “आज यहीं रूक जाओ न”. आभा ने चेहरे पर सख्ती कायम रखते हुआ धीरे से उसका हाथ झटकते हुआ कहा ” नो, मुझे घर जाना है”.

सॉरी, अगर तुम्हे बुरा लगा हो तो.” – जय ने नजरें झुकाते हुए कहा.


आभा कॉफ़ी सिप करते हुए बोली


“कोई बात नहीं, तुमने शायद गलत समझ लिया हो”.


जय: “मुझे लगा कोई लड़की मेरे घर आने के लिए रेडी हो गयी है, वो भी रात के डिनर के लिए और ये


जानते हुए भी की मैं यहाँ अकेला रहता हूँ तो वो ‘ये’ भी चाहती ही होगी।”


आभा थोड़ा मुस्कुराते हुए: ‘ये’ भी का मतलब?


जय: मतलब one night stand.

आभा: चलो अच्छा है, आज तुमने ये सीखा कि अगर कोई लड़की इस तरह तुम्हारे घर आती है तो ये


जरुरी नहीं कि वह तुम्हारे ‘ये’ के लिए आयी है. लेकिन ये बताओ क्या तुमने ये सिचुएशन इसलिए


क्रिएट किया था ?


जय: हाँ, लेकिन चलो अच्छा है कि तुमने अपना कंसेंट दे दिया।


आभा: देखो जय, ये सिचुएशन तुम्हारे फेवर में ज्यादा है. मेरा मतलब है कि तुम इस सिचुएशन में


privileged हो. इसलिए कंसेंट ऐसी जगह होनी चाहिए जहाँ सिचुएशन दोनों के लिए बराबर है.


जय: लेकिन तुम तो अपनी मर्जी से आयी हो ?



आभा: हाँ, मैं अपनी मर्जी से आयी हूँ, क्यूंकि मैं बहादुर हूँ. दुनिया ख़राब है या औरतों के लिए सुरक्षित नहीं है, इस बात को जानकर मैं घर में कैद होकर रहने में विश्वासनहीं करती। लेकिन सच कहूं तो यहाँ आने से पहले और यहाँ आने के बाद मैं अपनी सेफ्टी के लिए सोच रही थी. तुम्हे नहीं लगता है कि दुनिया हम औरतों के लिए कुछ बेरहम और तुम मर्दों पर कुछ मेहरबान है.


जय: लेकिन हम दोनों तो समान हैं. जितना तुम कमाती हो उतना मैं भी कमाता हूँ.


आभा: लेकिन तुम्हारा पुरुष होना तुम्हे कई मामलों में बनाता privileged है. तुम privileged होने की अकड़ में आकर मुझे हाँ या ना के सवाल में उलझा नहीं सकते। यौन हिंसा करने वाले कई बार “हिंसा की स्थिति पैदा करते हैं” और उस स्थिति में कंसेंट का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है.


जय: अब तुम इल्जाम लगा रही तो. मैंने तुमसे पूछा और तुम हाँ या ना कह सकती हो.


आभा: मैं किसी ऐसे क्रिएटेड सिचुएशन में हाँ या ना कहने के लिए बाध्य नहीं हूँ, जहाँ दोनों बराबर नहीं


हों.


जय लगभग गुस्साते हुए: तुम चीजों को इतना उलझा क्यों रही हो ? ‘मैंने’ तुमसे पूछा और अगर मैं चाहूँ तो कुछ भी कर सकता हूँ.

आभा ने गौर से जय की आँखों में देखा। पुरुष होने का अहंकार उसकी आँखों से टपक रहा था. आभा को अब डर का लगने लगा. उसने लगभग उठते हुआ कहा: “Exactly, मैं यही कह रही थी. आ ही गए न अपनी औकात पर. रात के 10.30 बजे तुम्हारे घर में आयी कोई लड़की तुम्हारी दया की मोहताज हो जाती है. तुम जैसों को पता होता है कि समाज भी तुम्हारे साथ ही खड़ा होता है. ये सब फैक्ट्स तुम्हे पावर देते हैं. तुम्हे लग रहा है कि सब तुम्हारी मुट्ठी में है.” आभा तेज़ आवाज में कहती जा रही है: “एक फिल्मी डायलॉग याद आ रहा है – अपनी गली का कुत्ता भी शेर होता है.”

जय गुस्से से लगभग कांपते हुए: ” तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई… क्या कर लोगी तुम … अगर मैं तुम्हे …”. जय जितनी तेजी से आभा की तरफ झपटता है, आभा उतनी ही तेजी से पीछे की तरफ भागती है. उसका पैर टेबल से टकराता है और खाने की प्लेट्स छन्न से नीचे गिरती है. जय ने उसके एक हाथ को इतनी जोर से पकड़ रखा है कि आभा दर्द से कराह उठती है. आभा ने झट से अपने दूसरे हाथ से टेबल पर रखे कांच की गिलास को उठाया और जय के सर पर दे मारा, फिर उसके टांगों के बीच ताबड़ तोड़ मारना शुरू किया। जय अवाक् सा जमीं पर गिर पड़ा. उसे समझ में नहीं आया कि ये क्या हुआ. आभा ने अगले पल दोनों हाथों से टेबल की पूरी कांच को उठाया और जय के सर पर दे मारा। जय अब तक बेहोश हो चुका था.

फ्लैट से नीचे आकर उसने 100 नंबर डायल किया, उसके बाद अपनी एक जर्नलिस्ट दोस्त को कॉल किया। देर रात पुलिस स्टेशन से आने के बाद उसे बिलकुल नींद नहीं आयी. अगली सुबह तक ये खबर अखबार में आ चुकी थी – “बहादुर लड़की ने कैसे अपना बचाव किया”.

आभा उसी गुलाबी दीवार पर चिपके रंग- बिरंगे कागजों को गौर से देखे जा रही थी. अचानक से उसने एक कागज़ का टुकड़ा उठाया और फटाफट लिखना शुरू किया “This time she was not the object of violence. She frightened rape culture to death, and that too literally.” शारॉन मार्कस की पंक्तियों के नीचे कागज़ चिपका कर, उसके नीचे लिखा अपना नाम – “आभा”.


पल्लवी तेजपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं. 




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