प्रवासी मृत देहों के सम्मान के लिए लड़ने वाली फिल्म आर्टिस्ट चुनाव मैदान में

केरल के कालीकट (कोझिकोड) लोकसभा क्षेत्र से फिल्म आर्टिस्ट और सामाजिक कार्यकर्ता नुज़रथ जहाँ निर्दलीय चुनाव लड़ रही हैं. एयरलाइन्स से कैरियर की शुरुआत करने वाली नुज़रथ ने फिल्म और सामाजिक कार्यों में अपनी उपस्थिति दर्ज की और अब लोकसभा के लिए निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं. अपने बलात्कारी की ह्त्या करने के आरोप में रेहना जब्बारी को इरान में फांसी दे दी गयी थी. नुजरथ ने उस विषय पर बनी फिल्म में रेहाना की भूमिका की. प्रवासी भारतीयों की मृत देह को भारत वापस लाते हुए उन्हें तौलकर एयरलाइन्स पैसा लेते रहे हैं. लाशों को सामान की तरह समझे जाने के खिलाफ नुजरथ ने मुहीम छेडी और दिल्ली में 30 घंटे तक भूख हडताल की. स्त्रीकाल के लिए नुज़रथ से बात की है शहला के पी ने.

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मेरा जन्म अपनी माँ के घर ओमइझेरी में हुआ था लेकिन मैं अपने पिताजी के गाँव ‘एलमरम कटन’ में पली बढ़ी थी. चलियार नदी के किनारे ही हमारा घर स्थित था. पिताजी नावूर के ग्वालियर रयोन्स कंपनी में काम करते थे.फिर पिताजी उस कंपनी को छोड़कर ‘दोहा’ चले गए. तब मुझे भी उस स्कूल से जाना पडा. वह स्कूल बहुत अच्छा स्कूल था, लेकिन उस स्कूल के बारे में मुझे बुरी बात यह लगी की उस कंपनी से मज़बूरी वश नौकरी छोड़े तो उनके बच्चों को वहाँ पढ़ाई करने नहीं देते थे. यहाँ तक कि मर जाने के बाद भी उनके बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ता था. सिर्फ इस बात को छोड़ दें तो वह स्कूल बहुत अच्छा था. मैंने कई जगह पता किया पर उस स्कूल जैसा मैंने दूसरा स्कूल नहीं पाया.

इसके बाद मेरी पढ़ाई कालीकट के चेवायूर के प्रजेंटेशन स्कूल में हुई.पिताजी की जिद थी कि हमें अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाया जाए. हम तीन बहने और एक भाई थे. पापा बहुत यात्रा करते थे. जब मेरा जन्म हुआ तब पापा पकिस्तान में थे. मुझे लगता है उस समय वहां जाने में कोई प्रतिबन्ध नहीं था. जब मैं तीसरी कक्षा में पहुंची तब खान्नर के काफ्को कंपनी में काम कर रहे थे. उनके मृत शारीर को यहाँ लाने के लिए वहाँ हमारा कोई परिचित नहीं था. तो उनके शरीर को वहाँ ही दफन कर दिया गया. माँ उस समय छब्बीस की थीं. पिता की इच्छा पूरा करने के लिए मां ने हमें उसी स्कूल में पढ़ाया.

प्लस टू के बाद नौकरी करने के लिए मजबूर हुई. ईस्ट-वेस्ट एयरलाइन्स में वाक्-इन-इंटरव्यू में स्टाफ एंड टिकटिंग में नौकरी मिली. वहीँ से जीवन के दुसरे पक्षों से परिचय हुआ. मेरी क्षमता और मेरी भाषा चातुर्य से ही मुझे यह नौकरी मिली. उस समय साक्षात्कार के लिए बारह सौ लोग पहुंचे थे. चुने गए सात लोगों में मैं थी. मेरी जिंदगी का टर्निग प्वाइंट वह था. फिर शादी हो गई. पति एम. के. हमसा मुस्लिम स्टेट कमिटी ऑफिस के सचिव थे. बेटी भी हो गई, तब मैंने नौकरी छोड़ दी. जब बेटी डेढ़ साल की हुई तो नौकरी करने का फिर से मन हुआ. हमारे सपनो से मेल न खानेवाली चीजों को देखने पर ही हमें लगता है कि हमें अपने पैरों पर खड़े होकर जीना है. अपनी माँ को सहारा देना भी मेरा कर्तव्य था. मेरे लिए नौकरी करना अब जरुरी हो गया था. तब पति की अनुमति से ही कालीकट आई. एयर इंडिया में ट्रेनी के रूप में काम करना शुरू किया.

पिताजी की मृत्यु के बाद आपके परिवार की देखभाल किसने की थी?

. यह एह लम्बी कहानी है. धन के नाम पर कई समस्याएँ हुई थीं. पिताजी के बैंक अकाउंट में जितने पैसे थे उसे लेने में भी. फिर हमारे परिवार में भी ऐसे लोग थे जो हमें अच्छी तरह जीते हुए देखना नहीं चाहते थे. पिताजी के कंपनी के फोरमैन पापा के बहुत निकट रहे थे, पापा ने उनसे बहुत से अपने सपने साझा किये थे. पापा को तिन सालों से यहाँ आने की छुट्टी नहीं मिली थी. पापा के उस दोस्त ने उनकी कंपनी के लोगों की एक दिन की तनख्वाह, जो लगभग पचहत्तर हज़ार हुआ था, हमें भेज दिया. हमारे नाना जी उस पैसे से हमारी माँ को एक नारियल का बाग़ खरीद कर दे दिया. उस समय नारियल के बड़े दाम मिलते थे. एक नायर समुदाय के बूढ़े व्यक्ति ने बिना बारगेनिंग किये वह बाग़ हमें दे दिया. बात यह थी कि वे यतीम बच्चों को अपनी भूमि दे रहे थे. आज भी मेरी माँ को उस जमीन से जरुरत के पैसे मिलते हैं.

मेरी दो बहनें हैं जो शिक्षिका हैं. निकाह के बाद ही वे दोनों पढ़ीं. भाई व्यवसायी है. बचपन से ही पढ़ाई में उसकी रूचि नहीं थी. एयर इण्डिया में ट्रेनिंग पूरा होने पर क़तर ऐरवेज ऑफिस में काम मिला. कल यहाँ एयर इण्डिया की नौकरी पूरी हो रही है. आज मुझे फोन आया था कि कल त्रिवेंद्रम में इसका ऑफिस खुल रहा है. लेकिन मैंने ओमान एयरवेज में भी आवेदन किया हुआ था, मेरा वहाँ भी चयन हो गया. बाद में मैंने ओमान एयरवेज में ट्रैफिक असिस्टंट के रूप में नौकरी शुरू कर दी. बेटी को भी वहीँ ले गई. दो साल वहाँ काम किया. फिर मैंने सोचा कि बेटी बड़ी हो रही है. उसे पिता का प्यार भी चाहिए. मैंने वहाँ नौकरी छोड़ दी और यहाँ पहुँच गई. यहीं मुझे ओमान एयरवेज के ऑफलाइन ऑफिस में एअरपोर्ट सुपरवाइजर की नौकरी मिल गई. फिर जब अमिरात एयरलाइंस पहली बार कोच्चिन में आया तो मुझे वहाँ से फोन आया सुपरवाइजर के लिए. मैं इस अवसर को गंवाना नहीं चाहती थी. मैं कोच्चिन चली गई. बेटी को साथ नहीं लिया, उसकी पढ़ाई बाधित होती. बेटी के पास अपनी माँ को बुला लिया. सप्ताह में एक बार शुक्रवार को त्रिवेंद्रम आती और सोमवार को वापस कोच्चिं चली जाती. यह सिलसिला लगभग साधे चार साल चला.

फिर किंगफिशर में सेल्स मैनेजर के रूप में नियुक्त हुई. इस क्षेत्र में मैं एक सुपरिचित चेहरा हो चुकी थी. फिर किंगफिशर के मंगलोर स्टेशन में आई. बाद में वह कंपनी बंद हो गई. सब लोग चले गए. एक साल और चार महीने की तनख्वाह नहीं मिली थी. जिंदगी में दूसरी बार तंगी थी. मेरा दायित्व बड़ा हो चुका था. पूरा दक्षिण भर का भर मुझपर था. मेरा पद साउथ इंडिया मैनेजर था. पर तनख्वाह नहीं थी. वहाँ के ढाई हज़ार लोगों की नौकरी चली गई.

फिर आर.ए. के. एयरवेज में कंट्री मैनेजर के रूप में नौकरी मिली. सब लोगों ने कहा कि यह कंपनी कभी भी बंद होनेवाली है, मत ज्वाइन करो. मैंने सोचा था कि अगर बंद भी हो जाएगी तो भी दो महीने की तनख्वाह तो मिलेगी. जो भी हो, मैंने ज्वाइन कर लिया. दस महीने बाद यह कंपनी भी बंद हो गई. शाम को ईमेल आया कि रात से उड़ानें नहीं हैं. उमरा के लिए निकले कई यात्री जिद्दा में ही फंस गए हैं. वित्त विभाग बंद कर दिया गया था. सारे एजेंट्स मेरे पास आ गए. स्थिति नाजुक थी. वे रो रहे थे. परिस्थिति गंभीर थी, लोगों ने सुझाव दिया कि अपना मोबाईल फोन बंद कर दो. पर मैंने ऐसा नहीं किया.  मेरे ऊपर लोगों के साढ़े आठ करोड़ रूपए की जवाबदेही बनती. मैं एशिया नेट न्यूज चैनल पर लाइव आई. घंटों में कंपनी खुल गई. समस्या सुलझ गई पर मेरे हाथों में टर्मिनेशन पत्र था.  मुझे वही चाहिए था. कंपनी ने खुद सारे फाइनेंसियल मसले निबटाए. तभी से मैं प्रवासियों के मन में चढ़ी. उनके भीतर मेरे लिए सम्मान बना. क्योंकि कोई और इतना बड़ा जोखिम नहीं लेता. यहाँ के राजनेता, जन प्रतिनिधि और न ही सरकारी महकमे के किसी अधिकारी ने मेरा साथ दिया. उन्होंने कहा कि विदेशी कंपनियों पर  हमारी कोई बंदिश नहीं है. देखिये 165 लोग उमरा केलिए गए थे, वे जिद्दा में फंसे थे. मैं तो घर भी नहीं जा पा रही थी.  मैं बहुत दिनों तक बेरोजगार रही, फिर एयर इंडिया में छह महीने के कान्ट्रेक्ट पर ग्राउंड हैंडलिंग में नौकरी मिली.

कला के क्षेत्र में आपका प्रवेश किस तरह हुआ..?

उ. जब मैं स्कूल में थी, तब नृत्य और संगीत में भाग लेती थी. लेकिन नौकरी मिलने पर सबको छोड़ना पडा. फिर जब किंगफिशर में नाईट शिफ्ट की नौकरी की तब मैंने सोचा कि जीवन का समय क्या ऐसे ही चले जाने हैं. इसी समय मैंने एक कहानी पढ़ी थी, ईरानी लड़की की. कहानी नहीं, पत्र था. रेहाना जब्बारी नाम की एक ईरानियन लड़की द्वारा अपनी माँ को लिखा ख़त. उसके साथ बलात्कार करने वाले इंटेलिजेंस ऑफिसर को उसने मारा था. उस केस में उस लड़की को न्याय नहीं मिला. संयुक राष्ट्र, और अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक ने उस लड़की केलिए आवाज उठायी थी. लेकिन उस ऑफिसर के परिवारवाले उसकी माफ़ी के खिलाफ थे, जिसकी वजह से उसे फांसी हुई. जब वह जेल में थी तभी उसने यह ख़त अपनी माँ को लिखा था, जिसे मैंने पढ़ा. मुझे लगा कि इसपर एक फिल्म करना चाहिए. “कथ्युल्जोरू पेन्नू” इसी ईरानी लड़की की फिल्म है जिसमे मैंने उस ईरानियन लड़की की भूमिका निभाई है. फिर मैंने एक डाक्युमेंटरी फिल्म की. कोडुवल्ली नामक ईलाके में अपने हाथों से जंगल बनाने वाले एक व्यक्ति की कहानी है.

पढ़ें : रेहाना जब्बारी का पत्र

सामाजिक कार्यों की तरफ आपका रुझान कैसे हुआ?

वह कला क्षेत्र में प्रवेश के साथ ही हुआ. किंगफिशर के बंद होने के दौरान. पहले pain and palliative के लिए volunteer service शुरू किया. एह.आई.वी. से पीड़ित लगभग छः सौ लोगों की पैट्रन बन गई. मेरे २१ साल के एयर्लाइन्स जगत के मेरे संपर्क ने मेरी बहुत मदद की. फिर प्रवासी लोगों ने भी मदद दी. मेडिकल कॉलेज के pain and palliative CSR निधि को ही मैंने उपयोग किया था. वह मालाबार सीमेंट का फंड था. छः महीने के अन्दर ही मैंने वह फंड हासिल किया था. सिनेमा जगत में पहुँचने से पहले मैं एयरलाइन में पर्सनालिटी और मोटिवेशनल ट्रेनर बन चुकी थी. एयरलाइन में काम करते वक़्त इस प्रकार के कई विदेशी ट्रेनिग मिलती थी वर्ल्ड क्लास ट्रेनर द्वारा.

इस प्रकार के सोशल वर्क में विभिन्न राजनितिक पार्टियां का क्या रुख होता था?

मैं सबसे निकट संपर्क में हूँ. सबसे डिप्लोमैटिक व्यवहार रखती हूँ. मैं अपने एयर लाइन की नौकरी के दौरान ही उनसे परिचित हुई थी. भले ही इन कामों में उनका सपोर्ट नहीं होता था पर मना नहीं किया कभी और न ही कोई अड़चन खड़ी की. केरल में आई बाढ़ आपदा के समय मैंने अपनी संस्था हैप्पी व्वाईस के जरिये कई कार्य किये.  इसी तरह कालीकट इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर फिर से सेवा बहाल करने में हमने बहुत मेहनत की. इसके लिए कई बार राजनितिक पार्टियों और नेताओं को सामने लाना पड़ा और उनसे कार्य करवाने पड़े. हमने बहुत मेहनत की थी. मैं बहुत संतुष्ट थी.

लोगों की मदद करने केलिए किसी नियम को तोड़ने जरुरत नहीं. हमारी छोटी सी सोच ही जरुरी है बस. देखिये अगर कोई प्रवासी अपने सालों के मेहनत के बाद वापस आकर एक छोटा-सा उद्योग शुरू करना चाहता है तो कई प्रकार की कानूनी अड़चने आती हैं. जबकि बड़े उद्योगपतियों केलिए कुछ और ही व्यवस्था होती है. यह कैसी विडम्बना है.

जब आप सामाजिक कार्यों की तरफ उन्मुख हुईं तो धर्म और धार्मिक समूहों की तरफ से कोई मुश्किल आई?

कभी नहीं. धार्मिक नेताओं ने मेरा साथ दिया. मुझे उस तरह की कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. हाँ, जो धर्म की आड़ लेकर अपना काम करने वाले हैं उनसे कुछ सुनना पडा था. यहाँ के मुजाहिद, सुन्नी, जमाएत-ए-इस्लाम आदि के नेताओं से मैं बहुत निकट हूँ. मैंने फिल्मो में भी काम किया पर इधर से कोई समस्या नहीं हुई. मैंने अपनी फिल्म प्रीव्यू के लिए प्रख्यात लेखक एम्.टी. वासुदेवन नायर और ओ.अब्दुर्रहीम साहब को ही बुलाया था.  ओ.अब्दुर्रहीम साहब जमाएत-ए-इस्लाम के बड़े सम्मानित नेता हैं. इनके भाषण हमेशा मुझे आकर्षित करते हैं.

रेहाना जब्बारी

आपके सामाजिक संगठन के क्या-क्या कार्य रहे हैं?

एक मैंने पहले बताया ‘सान्त्वानम’ जो एच.आई.वी. से संक्रमित लोगों के लिए काम करती थी, उसकी पैट्रन बनी थी. फिर मालाबार विकास संस्था में काम किया. तभी कालीकट एयरपोर्ट के लिए आवाज उठाया. मेरा अपना एनजीओ है हैप्पी व्याइस. इसी समय प्रवासी मल्पाती फेडरेशन की स्थापना हुई थी. इसमे से मैंने न तो किसी पद पर थी और न ही कोई पैसा लिया. बल्कि इसके लिए आवश्यक कोष और वित्तीय चीजों की व्यवस्था में मेरी अहम भूमिका रही. शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, स्कूल आदि हमारा लक्ष्य था उसी वक़्त बाढ़ आयी थी. तब हमने डिजास्टर मैनेजमेंट के नाम पर काम किया.

राजनीति में आने और चुनाव लड़ने के निर्णय पर कैसे पहुंची?

प्रवासी मालाबार डेवलपमेंट फोरम के लिए काम करते वक़्त मैंने दिल्ली में भूख हड़ताल में भाग लिया था. मृत शरीर को तौलकर दाम लेनेवाले एयरलाइन के खिलाफ सात दिन तक भूख हड़ताल किया था. मैं तीस घंटे भूखी रही, मेरे साथ तीन और लोग भी थे. दिल्ली के दो डिग्री में हमारा हड़ताल सफल हुआ था. मुझे एहसास हुआ कि अगर इस प्रकार संघर्ष किया जाए तो हक जरुर मिलेगा. यहीं से मुझे संघर्ष की ताक़त का पता चला. मुझे लगा कि राजनीति चीजों को अच्छा करने का बेहतर माध्यम हो सकती है. एक स्त्री भी चुनाव लड़ सकती है. एक नागरिक का यह अधिकार है. केंद्र और राज्य सरकारों के पास बहुत से ऐसे फंड हैं जो लोगों के लिए हैं पर उन तक पहुँच नहीं पाटा. कौन सी पार्टी है, यह देखे बिना हमें यह मांगना है लोगों के लिए, हम पूछेंगे तो जरुर मिलेगा. इसका सबसे सशक्त उदाहरण था मेरे सामने प्रवासियों की लड़ाई और जीत. हमने पूछा, सवाल किये, आवाज उठाई और अधिकार मिले. इसलिए हमारे जन प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी है ऐसे फंड को जनता तक पहुंचाना.

आपके साथ कौन-कौन लोग हैं इस चुनाव में? आपने क्या वादा किया है लोगों से?

राजनीति में आने के बाद पहले जो लोग मेरे साथ थे उनमे से दस प्रतिशत लोग ही हैं मेरे साथ. “राजनीति नहीं, वह भी एक स्त्री को, नहीं, तुम्हे डरना चाहिए.” पुरुष सत्ता और उनकी धमकियां एक साथ आयीं. फिर मैंने सोचा कि इतने लोग मेरे साथ हैं और जिंदगी अब सुरक्षित जोन में है. पहले बहुत तंगी देख चुकी हूँ, दस साल की उम्र में थी जब पिता गुजर गए.  क्राइसिस आने पर डरना मत..यही सीखा है मैंने. हमारा आत्मविश्वास ही हमें आगे ले जाता है.

सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के मुद्दे पर आप क्या सोचती हैं?

सबररीमला मुद्दे पर टीवी में कोई समाचार आता है तो मैं तुरंत ही टीवी बंद कर देती हूँ. हमारे यहाँ वास्तविक समस्या वह नहीं है. सबरीमाला एक राजनितिक खेल है. उसे राजनीति से मत जोडीये. एक किलो चावल या एक किलो चीनी की कीमत कितनी बढ़ गई है. यहाँ कितने चीजों की कीमत बढ़ गई है. उसके लिए हम क्या कर सकते हैं?  बड़ी- बड़ी कम्पनियां आकर हमारे छोटे-छोटे उद्दमियों को उनके व्यापार को नष्ट कर रही हैं..उन लोगों की जिंदगी कैसे चलेगी? एक सौ छत्तीस करोड़ लोगों की समस्या मंदिर, मस्जिद या चर्च नहीं है. भूख है, गरीबी है, अशिक्षा है, स्वास्थय है, बेरोजगारी है. उन्हें ठीक ढर्रे पर लाने का मार्ग हमें ढूँढना होगा. उसके लिए बोलना चाहिए, आवाज उठानी चाहिए. इन विषयों पर राजनीति होनी चाहिए! पर हमारी आज की राजनीति बेरोजगारों से नारे लगवाने केलिए बुलाती है, मारपीट करवाती है अपने स्वार्थ केलिए. उन्हें क्या पुलिस स्टेशन में बंद करवाकर गुंडा बनवाना है? मुद्दा यह है कि स्त्रियों केलिए हम कितनी नौकरियों की व्यवस्था कर पाते हैं. मालाबार को देखिये, हमारा मालाबार मसालों केलिए कितना प्रतिष्ठित था. हमारा कोझिकोड व्यापार शहर के रूप में जाना जाता था न! कोझिकोड(कलिकट) के कल्लाई नदी के किनारे टिम्बर का व्यापार दुनिया के सबसे बड़े टिम्बर व्यवसाय में दुसरे नंबर पर था न! पर अब….? क्या हुआ जब यहाँ आपदा आई. हमारा डिजास्टर मैनेजमेंट फेल हो गया तो हमारे मछुआरों ने न जाने कितने लोगों की जान बचाई. पर हमने अपने मछुआरों के लिए क्या किया ? फंड की कमी नहीं है. कितने लोगों को पता है कि इस बार सोशल जस्टिस मंत्रालय में अठारह सौ करोड़ रुपया लैप्स हो गया. वह पैसा लोगों तक कौन लाएगा?

महिला आरक्षण के बारे में क्या कहना चाहेंगी?

तैंतीस प्रतिशत हो तो केरल की 20 में 6 सीट स्त्रियों को मिलना चाहिए था. लेकिन सबका मिलाकर भी 6 नहीं हो पा रहा. सब बोलते हैं उसके बारे में पर कोई कुछ नहीं करता. सबलोग कहते हैं बीजेपी को हटाना है, उसके लिए पुरुष ही आना चाहिए. मैं उन लोगों से पूछना चाहती हूँ कि दुनिया में कितनी स्त्रियाँ प्रशासक बन गई हैं. वहाँ सब अच्छी तरह से काम हो रहा है. वे अपने देश को संभाल रही हैं. वे बहुत मजबूत होकर पुरुष से भी ज्यादा काम कर रही हैं, कर चुकी हैं.

आपकी लड़ाई मजबूत एल.डी.एफ., यू.डी.एफ. के खिलाफ है. आप उनसे कैसे मुकाबला करेंगी?

देखिये ये पार्टियां ठीक हैं, लेकिन वे कुछ बोलते हैं, कुछ और ही करते हैं. धर्म और राजनीति को मिलाते हैं. धर्म अलग है, राजनीति अलग है.  इन्हें मतजोड़िये. कुछ लोग कहते हैं मुस्लिम लीग इस्लाम की पार्टी है. लेकिन मैं इसको एक राजनितिक पार्टी के रूप में देखती हूँ. दिन में ये पार्टियां दूरियाँ बरतती हैं और शाम होते ही सब एक हो जाती हैं. बड़े राजनीतिज्ञों के बच्चों को देखिये. कोई हड़ताल आदि में भाग लेता है क्या? वे सब विदेशों में पढ़ाई करते हैं और बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं और फिर राजननीतिक उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं. ये सब ठीक नहीं.

जीतकर क्या करेंगी

स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देंगे. कोशिश होगी कि रोजगार के लिए अपने क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनायें. लोग नाकौरियों के लिए इस इलाके से बाहर चले जाते हैं. प्रवासी भारतीयों को वोट का अधिकार दिलाने की मुहीम भी मेरा राजनीतिक एजेंडा है.

शहला केपी कालीकट विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाती हैं.

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