सरोगेसी (विनियमन) विधेयक का बहिष्कारी चरित्र

– प्रमोद मीणा

फोटो: विकिपीडिया

मनुवादी पितृसत्‍ता स्‍त्री शोषण पर रोक लगाने के बहाने उल्‍टे पुंसवादी नैतिकता को ही जब तब स्‍त्री पर लादने की कोशिश करती देखी जाती है। एक ताजा मामले में किराये की कोख के चिकित्‍सकीय धंधे में दलालों के हाथों शोषित होने वाली सरोगेट माँ (अपनी गोद किराये पर देने वाली स्‍त्री) के उत्‍पीड़न पर लगाम लगाये जाने के नाम पर केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूर सरोगेसी (विनियमन) विधेयक 2019 को लोकसभा ने भी पारित कर दिया है। यह विधेयक कोख के व्‍यापार को भारतीय संस्‍कृति और परिवार नामक संस्‍था के लिए खतरा मानकर जरूरतमंद गरीब स्‍त्री से सरोगेट माँ बनने का विकल्‍प छीन लेता है क्‍योंकि यह विधेयक वाणिज्यिक सरोगेसी से जुड़ी आपराधिक गतिविधियों पर रोक लगाने की जगह वाणिज्यिक सरोगेसी को ही प्रतिबंधित करने वाला है। यह विधेयक निकट कीस्‍त्री रिश्‍तेदार को ही नि:स्‍वार्थ सरोगेसी की अनुमति देता है।

           पुरुष केंद्रित परंपरागत द्विलिंगी परिवार संस्‍था से इतर संबंधों को अनैतिक मानने वाली कथित ‘भारतीय’ सरकार इस विधेयक के द्वारा समलैंगिक स्‍त्री-पुरुषों, अविवाहित एकल स्‍त्री-पुरुषों और विधवा या परित्‍यक्‍त स्त्रियों से बच्‍चे को जन्‍म देने का अधिकार छीन लेना चाहती है। यह विधेयक सहजीवी जीवन जी रहे स्‍त्री-पुरुषों को भी चिकित्‍सा विज्ञान की इस देन का इस्‍तेमाल बच्‍चे की प्राप्ति के लिए करने से वंचित करता है। स्‍पष्‍ट है कि केंद्र सरकार का सरोगेसी (विनियमन) विधेयक जहाँ परंपरागत द्विलिंगी अस्मिताओं से इतर लैंगिक अस्मिता रखने वाले लोगों को पुनरुत्‍पादन के प्राकृतिक अधिकार से महरूम करता है, वहीं स्‍त्री के गर्भ धारण करने के अधिकार पर भी परिवार संस्‍था की पहरेदारी बैठाता है।

            सरोगेसी जैसे महत्‍वपूर्ण विधेयक को बिना किसी व्‍यापक और गंभीर परिचर्चा के लोकसभा से पारित करवाया गया है। पहले भी दिसंबर, 2018 में जब इसे लोकसभा से पारित करवाया गया था, तो मात्र 9 सांसदों ने इस पर बहस की थी और वह भी मात्र दो घंटों की रस्‍मी चर्चा-परिचर्चा के बाद इसे पारित करवा दिया गया था। किंतु उस समय इसे राज्‍यसभा में प्रस्‍तुत नहीं किया जा सका था। सरकार की तरफ से तत्‍कालीन स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री ने वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने के पीछे भारतीय परिवार नामक संस्‍था को बचाने का उद्देश्‍य रेखांकित किया था और कहा था कि अगर परिवार चिकित्‍सकीय कारणों से शिशु को जन्‍म देने में अक्षम हो तो आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान द्वारा प्रदत्‍त सरोगेसी की तकनीक से बच्‍चे को जन्‍म देने का अवसर उस परिवार को दिया जाना चाहिए। स्‍पष्‍टत: आजीविका के लिए अपनी कोख किराये पर देने वाली गरीब स्‍त्री के हितों का संरक्षण करना इस विधेयक का उद्देश्‍य कभी रहा ही नहीं था। यह विधेयक तो भारतीय परिवार व्‍यवस्‍था किवां हिंदू परिवार व्‍यवस्‍था पर होने वाले वैकल्पिक लैंगिकताओं के हमलों का जबाव देने के लिए लाया गया था। इसके माध्‍यम से सरोगेसी के इस्‍तेमाल को वैवाहिक युग्‍मों तक सीमित करके विवाह संस्‍था से बाहर के संबंधों की वैधता को नकारा गया है। परित्‍यक्‍त और विधवा या अविवाहित स्‍त्री से सरोगेसी के माध्‍यम से बच्‍चे को जन्‍म देने का विकल्‍प छीनना नारीवादी आंदोलन के गाल पर भी तमाचा है।

            यद्यपि अपनी 228 वीं रपट में विधि आयोग ने वाणिज्यिक सरोगेसी में निहित आपराधिक लूट-खसोट और सरोगेट माँओं के साथ होने वाले अन्‍यायों का जिक्र किया था और उस रपट में वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध की भी मांग की गई थी किंतु सरोगेसी के सामाजिक आयामों और लक्ष्‍यों पर बिना किसी अध्‍ययन के मात्र पुंसवादी नैतिकता के चश्‍मे से सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में भारतीय विधि आयोग भी नहीं रहा है।

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            वास्‍तविकता तो यह है कि हमारी सरकारों के पास वाणिज्यिक सरोगेसी पर निगरानी रखने वाला कोई तंत्र ही नहीं रहा है। न कभी वाणिज्यिक सरोगेसी को मूर्त रूप देने वाले चिकित्‍सालयों को सूचिबद्ध किया गया और न कभी वाणिज्यिक सरोगेसी के लिए कोई आचार संहिता बनाई गई। जब वाणिज्यिक सरोगेसी के सकारात्‍मक-नकारात्‍मक पक्षों को लेकर केंद्र सरकार के पास कोई विश्‍वसनीय सर्वेक्षण और अध्‍ययन रिपोर्ट है ही नहीं, तो एक सिरे से वाणिज्यिक सरोगेसी को खारिज़ करने का कोई तुक नहीं बैठता। वैश्‍वीकरण के जिस दौर में भारत स्‍वास्‍थ्‍य पर्यटन के क्षेत्र में अपनी अपेक्षाकृत सस्‍ती और गुणवत्‍तापूर्ण स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के कारण जिस तेजी से उभर रहा है, उस दौर में सरोगेसी के वाणिज्यिक रूप पर पूरी तरह से रोक लगाने से बेहतर है – निर्धन जरूरतमंद सरोगेट माँओं के पक्ष में वाणिज्यिक सरोगसी से पैदा अवसरों को कानून के दायरे में भुनाना।

            सरोगेसी के क्षेत्र में जारी आपराधिक लूट-खसोट और सरोगेट माँ बनने वाली स्त्रियों के शोषण पर रोक लगाने के लिए सरोगेसी की प्रक्रिया पर सख्‍़त निरीक्षण रखना और उसको विनियमित करने का ढांचा खड़ा करने की जो कोशिश यह विधेयक करता है, उसकी आवश्‍यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता। इस विधेयक में सरोगेट माँ के उत्‍पीड़न का हेतु बनने वाले लोगों के लिए सज़ा के तौर पर 10 साल तक के कारावास और 10 लाख तक के आर्थिक जुर्माने का प्रावधान है। मानव भ्रूण आदि की खरीद-फरोख्‍़त और सरोगेसी के विज्ञापनों के लिए भी यही सज़ा मुकर्रर की गई है। सरोगेसी से जुड़े क्लिनिकों का पंजीयन भी अनिवार्य कर दिया गया है।

           किंतु इस विधेयक में निहित इन तमाम कठोर प्रावधानों के बावजूद भी शायद यह विधेयक वाणिज्यिक सरोगेसी पर व्‍यवहार में रोक नहीं लगा पाएगा क्‍योंकि चिकित्‍सा बाज़ार में वाणिज्यिक सरोगेसी के खरीददार ग्राहकों की मांग चोर रास्‍तों का बढ़ावा देगी। इस विधेयक में वैसे भी इस चोर रास्‍तों के लिए संभावनाएँ संकेतित कर दी गई हैं। उदाहरण हेतु सरोगेसी (विनियमन) विधेयक में परिवार के अंतर्गत पंजीकृत पति-पत्‍नी ही शामिल हैं किंतु जिस निकट संबंध अंतर्गत सरोगेसी को स्‍वीकृति दी गई है, उस निकट संबंध को अपरिभाषित ही छोड़ दिया गया है। हाँ, सरोगेट माँ बनने के लिए स्‍वयं को प्रस्‍तुत करने वाली इस निकट संबंधिनी पर युवा विवाहिता होने और पहले से ही एक बच्‍चे की माँ होने की शर्तें और लाद दी गई हैं। सरोगेट माँ बनने की इन अनिवार्य अर्हताओं के कारण सरोगेसी के माध्‍यम से शिशु की आस लगाये बैठे ‘वैध’ विवाहित युग्‍मों के लिए बच्‍चे को जन्‍म देने के अवसर कहीं ज्‍यादा कम हो जाने वाले हैं। वास्‍तव में जिस भारतीय (हिंदू) परिवार को बचाने के लिए सरकार वाणिज्यिक सरोगेसी पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की कवायद कर रही है, उसी परिवार में निहित पुंसवादी नैतिकता के चलते निकट संबंध में सरोगेसी के लिए अपनी कोख नि:स्‍वार्थ भाव से प्रस्‍तुत करने वाली युवा विवाहिता माँ मिलना लगभग असंभवप्राय: होता है।

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            इस विधेयक के अनुसार सिर्फ विवाहित भारतीय युग्‍म ही सरोगेसी तकनीक से बच्‍चे को जन्‍म देने के अधिकारी होंगे। इसका मतलब हुआ कि अनिवासी भारतीय भी अगर भारत आकर अपने निकट पारिवारि‍क संबंध में आने वाली किसी युवा विवाहिता और एक बच्‍चे की माँ की कोख का इस्‍तेमाल करके सरोगेट शिशु को जन्‍म देना चाहें, तो उन्‍हें इसकी अनुमति नहीं होगी।

            यहाँ यह भी ध्‍यातव्‍य है कि सरोगेसी की प्रक्रिया का सबसे अहम् चरण होता है – भ्रूण को आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) प्रयोगशाला में संवर्धित करना। सरोगेट स्‍त्री के गर्भ में इस संवर्धित भ्रूण को स्‍थापित करना तो इस पूरी प्रक्रिया का सबसे अंतिम चरण होता है। अत: सरोगेसी के विनियमन से पहले तो सरकार को प्रजनन सहायक प्रौद्योगिकी विधेयक (असिस्‍टेड रिप्रोडक्टिव टेक्‍नोलॉजी विधेयक) को पारित करवाना चाहिए था जो लंबे समय से ठंडे बस्‍ते में पड़ा हुआ है। इस विधेयक को कानून का रूप देना बहुत जरूरी है ताकि प्रजनन सहायक प्रौद्योगिकी से जुड़े अपराधों पर रोक लग सके। आज हालात ये हैं कि सौ फीसदी सफलता का दावा करने वाले आईवीएफ क्लिनिक कुकुरमुत्‍तों की तरह जहाँ-तहाँ देखे जा सकते हैं। ये क्लिनिक शिशु के इच्‍छुक बांझ दम्‍पतियों को लूटने में लगे हैं। किसी भी प्रकार की चिकित्‍सकीय नैतिकता का ये पालन नहीं करते हैं। स्थिति की गंभीरता का आलम यह है कि किसी और के भ्रूण को भी ये आपका बताकर गर्भाशय में स्‍थापित कर देते हैं। 

            जो विदेशी पहले ही भारत की किसी आईवीएफ प्रयोगशाला में अपना भ्रूण सुरक्षित करवा चुके हैं, उनको भी यह सरोगेसी (विनियमन) विधेयक सरोगेसी की अनुमति नहीं देता है। लेकिन उनके ऐसे भ्रूणों की स्थिति पर विधेयक में विचार तक नहीं किया गया है। विधेयक सरलीकृत ढंग से विदेशी लोगों के भ्रूणों के भारत में आयात-निर्यात पर रोक लगाता है। इस विधेयक को कानून का दर्ज़ा देने से पहले उससे जुड़ी जटिलताओं पर अगर व्‍यापक राय-मशविरा किया जाता, तो इस तरह के महत्‍वपूर्ण मुद्दे नहीं छूटते।  

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           किसी भी तकनीक के अच्‍छे-बुरे, दोनों पहलू होते हैं। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सरोगेसी की प्रक्रिया से जन्‍मे बच्‍चों को विकलांगता आदि की स्थिति में उनके वास्‍तविक जैविक माँ-बाप द्वारा छोड़ने के मामले भी सामने आये हैं। वाणिज्यिक सरोगेसी के विरोधी तो यहाँ तक आरोप लगाते हैं कि मानव देह व्‍यापार के लिए भी सरोगेसी की तकनीक का दुरुपयोग किया जा रहा है। लेकिन दूसरी तरफ जैविक और चिकित्‍सकीय कारणों से बच्‍चे को जन्‍म देने में अक्षम लोगों के लिए सरोगेसी चिकित्‍सा विज्ञान के वरदान से कम नहीं है। सरोगेसी ने निर्धन स्त्रियों के लिए अपनी कोख किराये पर देकर आजीविका अर्जन का रास्‍ता भी वाणिज्यिक स्‍तर पर खोला है। दूसरे के बच्‍चे के लिए अपनी कोख उपलब्‍ध करवाना एक बहुत ही मानवीय और प्रशंसनीय कार्य है। और इसकी एवज़ में अगर कोई गरीब स्‍त्री अपनी आर्थिक बदहाली से उबरने के लिए अपेक्षित पारिश्रमिक की माँग करती है, तो इसमें गलत क्‍या हैॽ अस्‍तु, वाणिज्यिक सरोगेसी के कुछ नकारात्‍मक पक्षों के कारण उस पर पूर्ण रोक लगाना न्‍यायोचित नहीं कहा जा सकता। जरूरत थी वाणिज्यिक सरोगेसी के समुचित नियमन की ताकि बीच के लुटेरा दलालों पर अंकुश लगाया जा सकता, किंतु उल्‍टा वाणिज्यिक सरोगेसी पर ही पूर्णत: रोक लगा देने की कवायद की गई है। यह कवायद सीधे-सीधे स्‍त्री के गर्भाशय को नियंत्रित करने की पुंसवादी चाल है क्‍योंकि एक स्‍त्री को अपनी इच्‍छानुसार गर्भवती होने और दूसरे के गर्भ के लिए अपनी कोख का इस्‍तेमाल करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए। अस्‍तु, वाणिज्यिक सरोगेसी को सुपरिभाषित आर्थिक अनुबंध की सीमा में लाया जाना चाहिए। सरोगेट माँ के स्‍वास्‍थ्‍य और खान-पान का समुचित प्रबंध और बीमा सुरक्षा की व्‍यापक व्‍यवस्‍था जरूरी है। वाणिज्यिक सरोगेसी को कानूनी अनुबंध के दायरे में लाकर ही सरोगेट माँ और सरोगेट शिशु को जन्‍म देने के इच्‍छुक माँ-बाप का एक-दूसरे के प्रति दायित्‍व सुनिश्चित किया जा सकता है। कानून बनाकर वाणिज्यिक सरोगेसी पर एकमुश्‍त रोक लगा देने से यह प्रक्रिया रुकेगी नहीं अपितु चोरी-छिपे ढंग से बदस्‍तूर जारी रहेगी, बल्कि इससे जुड़ा भ्रष्‍टाचार तथा शोषण और भी ज्‍यादा जोर पकड़ेगा। बाँझ स्‍त्री-पुरुष और अपनी कोख किराये पर उपलब्‍ध कराने वाली गरीब स्‍त्री, दोनों के हितों की रक्षा इसी में है कि वाणिज्यिक सरोगेसी का नियमन किया जाए, न कि उस पर प्रतिबंध लगाया जाए। इसे एक पेशे के रूप में कानूनी मान्‍यता दी जानी चाहिए। अपनी कोख किराये पर देने का महान मानवीय कार्य करने वाली स्‍त्री के लिए इसकी एवज में समुचित भुगतान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। गर्भावस्‍था के दौरान और प्रसूति उपरांत भी सरोगेट माँ की नियमित चिकित्‍सकीय देखरेख का प्रावधान होना चाहिए। इसी के साथ-साथ परंपरागत परिवार के दायरे से बाहर भी लोगों को इसके इस्‍तेमाल की छूट मिलनी चाहिए क्‍योंकि अपने वर्तमान प्रारूप में सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2019 बहुत ही ज्‍यादा बहिष्‍कारी प्रकृति का है। अत: इसे समावेशी बनाना जरूरी है। इसके साथ-साथ वाणिज्यिक सरोगेसी से जन्‍म लेने वाले शिशु के प्रति उसके जैविक माँ-बाप की जिम्‍मेदारी सुनिश्चित करने के लिए कानूनी बाध्‍यता भी जरूरी है। इसी प्रकार अपनी देह विकृत होने के डर से वाणिज्यिक सरोगेसी को शौक की तरह अपनाने की प्रवृत्ति पर पूर्ण विराम भी जरूरी है। स्‍पष्‍ट है कि सरोगेसी की पूरी प्रक्रिया के कानूनी ढंग से क्रियान्‍वयन को सुनिश्चित कर देने पर सरकार के लिए ऐसे किसी भी विधेयक की जरूरत ही नहीं रह जाएगी।

(संपर्क :– डॉ. प्रमोद मीणा, सहआचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्‍मा गाँधी केंद्रीय विश्‍वविद्यालय, जिला स्‍कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार–845401, ईमेल – pramod.pu.raj@gmail.com, pramodmeena@mgcub.ac.in; दूरभाष – 7320920958 )

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