भारती वत्स

चार्ली चैपलिन ने कहा था कि कविता पूरी दुनिया के नाम लिखा प्रेम पत्र है, आज के कुछ कवियों की कविताएं पढ़ते हुए मुझे लगा कि ये नौजवान कवि  भी अपनी आत्मा के द्वार पूरी दुनिया के लिए खोले खड़े हैं। इनकी कविताओं में एक ताव है जो पढ़ने वाले को ऊर्जा  देता है एक ज़िद है जो बोलने की निर्भीकता पैदा करती है एक रागात्मकता है जो मनुष्य की तरफ खड़ा करती है।

 अपने समय की छल छद्म से भरी राजनीति,गंदी व्यवस्था के बीच हम बार बार कबीर,रैदास,रहीम,से लेकर प्रेमचंद,निराला,मुक्तिबोध और दोस्तोवस्की की तरफ अपने आप को खड़ा पाते है आज के ये कवि भी अपने पुरखों की उस सोच की तरफ खड़े दिखाई दे रहे हैं जो मनुष्य को न्याय की तरफ खड़ा होना सिखाती है।

आधुनिक दौर में उत्पीड़न ,दमन और शोषण के खिलाफ हमारी चेतना में संवेदनाओं को जाग्रत करने में कविता की अग्रणी भूमिका रही है जो अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के दायरे में ही रहकर  अंततः राजनीतिक सीमा मे बंद हो जाती थी परंतु बाद की कविता ने उस द्वंद्वात्मकता को नये प्रतिमानों से बहुत गहराई और संवेदनशीलता के साथ सिरजा, जो प्रकृति,स्त्री ,प्रेम से लेकर ब्रम्हांड तक के रूपक बहुत सहजता से तो रच ही रही है राजनीतिक काइयाँपन, धूर्तता, दोगलेपन,विस्थापन,विकास की त्रासदियों और पर्यावरण के प्रश्नों को भी आक्रामक तरीके से उकेर रही है। दुनिया के प्रति इन कवियों की समझ गहन अध्ययन से या किसी खास धारासे नहीं बल्कि जिंदगियों की जद्दोजद और इस समय के बेगानेपन के बीच ये तीव्र ,आक्रामक भावभूमियां निर्मित हो रही हैं।

आज की कविता का जो वितान है,वह आक्रामक तेवर,गहरे असंतोष की पथरीली जमीन पर निर्द्वंद्व फैला हुआ है खास तौर पर कुछ कवि तो, एक ताव के साथ कविता में प्रवेश करते हैं, यही ताव कविता का मर्म बन जाता है इसे गुस्सा या भड़ास कह कर टाला नहीं जा सकता है यह आक्रोश की रचनात्मक रिदम है जिसे युवा कवि अराजक दुनिया के बीच साधे हुए हैं।

       कुछ रचनाकारों का न तो छपना लक्ष्य होता है न पुरस्कार पाना, पर वे समाज से सीधे संवाद कर रहे होते हैं आज के दौर में कुछ कवि ऐसे ही खड़े होने की कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं अपने मजबूत पैरों पर बिना किसी वैसाखी के। उनकी चर्चा इसलिए इस आलेख में शामिल कर रही हूं क्योंकि उनकी लगभग हर कविता अपील करती है, बोलती है आपके अंदर जगह बनाती महसूस है।

       आज की कविता राजनीतिक विचार से आगे जीवन के गहनतम गलियारों में दखल दे रही है यह कविता राजनीतिक संघर्ष की द्वेत्ता से परे वैकल्पिक चेतना की ओर जीवन की कविता है इस धारा को बहुत गहरे और सार्थक तरीके से आगे ले जाने वाले कविता को संवेदना के इस धरातल पर खड़ा करने वाले कवियों में विहाग वैभव ,अदनान कफिल, सबिकाअब्बास, वीरू सोनकर ,जसिंता केरकेट्टा की कविता को शामिल किया जाना चाहिए। इन्हें मैंने आभासी दुनिया से ही जाना है इनकी कोई भी किताब मैंने नहीं पढ़ी।

    वीरू सोनकर की कविता पढ़ते हुए मुझे एक शब्द ध्यान में आया गुरिल्ला कवि….। जो  जिंदगी के उन हिंसक अनुभवों को पूरी सृजनात्मकता के साथ लिखते हैं जिनका जिंदगी में होना ही जिंदगीयों को उदासियों में डूबो देता है वीरू भी उस उदासी से गुजरे होंगे तभी उनकी उदासी के रंग इतने तीखे और चटक हैं —-_—

        मैं बहुत दिन अपनी जाति के अहंकार में

        बोराया रहा

    बहुत दिन किशोरावस्था मैं किये सूअ रवध की  

        अपनी वीरता पर

        बहुत दिन ढांकता रहा

        इन से अपनी कायरता के बीज को

        जो कायरों को देख पता नहीं कब पनप गए थे

        मेरे भीतर…।

ये अपने आप से लड़ने के बीच बनी कविता है जो समाज से मिले संतापों से उपजी है उन संतापों से उबरने की लगातार कोशिश के बीच की आत्म स्वीकृति है यह कविता। उस अनुभव की कविता है, जब हम जो है उसे स्वीकार पाने की हिम्मत अपने अंदर पैदा कर रहे होते हैं और स्वीकार कर लेने के बाद अपने अंदर पैदा हुई ताकत को महसूस करते हैं। वीरू जीवन के उस साक्षात से भी गुजरते हैं जब हम कहीं अपने होने और ना होने की दुविधा में होते हैं । उस वक्त जब लोग हमें सब के बीच खड़ा देख रहे होते हैं ठीक उसी समय हम जीवन के उन खामोश स्पंदित नाजुक से कोनों में अपने आप के पास खड़े होते हैं जहां होना सिर्फ हम समझ पाते हैं । इस तरह लगातार दो दुनियाओं में जीते हैं जो होने और दिखने के अंतर के बीच मौजूद होती है —

           मैं तुम्हारे संगीत में नहीं अपने रुदन में था

          रुदन की हिचकियों में

          और कहीं अबोली शिकायतों में था

          मैं वहां-वहां था

         जहां हो सकने की स्वीकार्यताएं थी

         पर मैं अस्वीकार्यता में था…

मन के वे एकांत कोने, जहां हम अपने खालिस भरेपन के साथ होते हैं, जहां से हम दुनिया को उसके नग्न रूप में समझ रहे होते हैं तब अस्वीकार्यतायें हमारी ताकत बन जाती हैं दुनियादारी से भरी स्वीकार्यताओं के खिलाफ।

         वीरू सोनकर की कविता किसी राजनीतिक वाद से नहीं जन्मी है बल्कि उनकी कविता वैसी है जैसे रास्ते में हम चल रहे होते हैं और साथ वह सब कुछ अपने आप जुड़ता चलता है जो हमारी संवेदनशील अवलोकन की खिड़की से हमारे अवचेतन में बीज की तरह पहुंचता है और फिर बेचैनी के साथ आकार लेता है।

ये कवि उन धरातलों को दरका रहे हैं जो ऊपर से हमें समतल दिखाई देने लगे थे पर नीचे गजबजाती धरती थी।भरोसा किया जा सकता है साहित्यिक गुटबंदी को ये कवि तोड़ेंगे और एक नई जमीन तैयार करेंगे।

हर कवि की अपनी संरचना होती है जो उसकी गहन आंतरिकता से निकलती है तब कवि कविता करता नहीं है कविता होती है जो उसकी सहज अनुभूति से गहरे आब्ध्ध होती है इस तरह कविता का संबंध हमारे गहन अंतस्थल से है जो गहरी मानवी आकांक्षाओं से जन्म लेती है और हमारा रूपांतरण करती है तब कहीं जाकर बाहरी सरोकारों तक पहुंचती है।

कविता करना और कविता होने का अंतर इन कवियों की कविताओं में मिट सा जाता है अतः प्रज्ञ, स्वतः स्फूर्त, सतत प्रवाह नदी सा…। वैयतिक्ता से उद्भूत परंतु  एक हद तक वेयतिक्ता से मुक्ति की संभावनाएं इनमें दिखाई दे रही हैं.. समय की लहर लहर को आत्मसात करती कविता। शास्त्रीय शब्दावली में कहा जाए तो भाव और विभाव का संवेदनात्मक चित्रण ।

यह जो सृजन प्रक्रिया है इसके क्षण निराले होते हैं गहरे भावबोध से भरे हुए आनंद के क्षण… जहां पीड़ा और अवसाद भी सृजनात्मकआनंद की अनुभूति कराते हैं यह एकात्म भाव कवि से बेहद ईमानदारी और आग्रह पूर्ण एकाग्रता की मांग करता है वरना एक बार यदि सांस उखड़ी तो कविता की सांस भी उखड़ जाती है।

   विहाग वैभव की कविताएं पढ़ने के बाद लगा यह युवा जो कह रहा है वह वैसा नहीं है जो अमूमन अभी तक हम सुनते पढ़ते आए हैं बल्कि कुछ अलग है कुछ जुदा सा है पर यह जुदा होना किसी अवतरण चिन्ह में लिखी विशिष्ट उक्ति के समान नहीं है बल्कि ये अलग होना जीवन को भिन्न नजरिए से देखना है और महसूस करने की तरह था। जो अपनी ओर आकर्षित भर नहीं करता बल्कि अपने आप में बांधे रखता है क्रम से इनकी कविताएं पढ़ते गये और ये धीरे-धीरे हमारे  अंदर जगह बनाते  गए। विहाग की कविता, मां का सिंगारदान, मैं पढ़ रही थी पर पाठक की तरह नहीं बल्कि उसे पढ़ते हुए अपने आप कभी मां की तरह हो गई तो कभी मां के साथ हो गई और पढ़ते हुए पता नहीं कब मेरी आंखें नम हो गई —

               हमने मां को थकते हुए देखा

               थक कर बीमार पड़ते हुए देखा है

               पर मां को हमने

               कभी रोते नहीं देखा

               हमने मां को कभी जवान नहीं देखा

               बूढ़ी तो बिल्कुल नहीं

               ……………..

               मेरी दवाइयों के डिब्बे में

               सिमट कर रह गया

              मां का सिंगारदान

कविता पराएपन को खत्म करती है जहां से परायापन खत्म होता है वहां से संवेदना के गहरे तार जुड़ जाते हैं पाठक और कवि के बीच। विहाग अपने में सिमटे हुए से कवि होने का आभास देते हैं पर उनकी कविता जीवन के बहुत बड़े हिस्से को समेटे हुए है । विहाग अपने शोक को भी, अपने गुस्से को भी ऐसा रचते हैं कि वह आपका अपना हो जाता है, फिर चाहे वह, आझोती जारी है, हो, तलवारों का शोक गीत हो या आखिर कुछ नहीं कविता हो।

तलवारों का शोक गीत कविता,युद्धों की छद्म बाध्यता को पीठ पर ढोते हुए राष्ट्रों की कविता है जहां युद्ध, मानवीय समाज का एक निर्मम विकल्प बना दिया जाता है, जब युद्ध को सुरक्षा के एकमात्र  हल की तरह सत्ताएं प्रस्तुत करती हैं–

       तलवारों ने याद किया

       कैसे उस वीर योद्धा के सीने से खून

       धुले हुए सिंदूर की तरह बह निकला था 

       छलक-छलक

       और योद्धा की आंखों में दौड़ गई थी

       कोई सात -आठ साल की खुश

       बाहें फैलाए,दौड़ती,

        पास आती हुई लड़की

       दोनों तलवारों ने

       विनाश की यंत्रणा लिए

       याद किया सिसकते हुए…।

यह युद्ध की यंत्रणा के बीच संभावना से भरी कविता है ये, हिंसक रक्त रंजित भूमि से जीवन की ओर लौटाने वाली कविता है एक अलग कलेवर की कविता, जो सीधे-सीधे बात करती है कहीं कोई अबूझता नहीं कि जिसे बार-बार कई बार पढ़ने की जरूरत पड़े, बल्कि एक बार पढ़ते ही कविता मनोजगत का हिस्सा बन जाती है। युद्ध किस कदर अमानवीय दुनिया को रचते हैं सत्ताओं की महत्वाकांक्षाओं को ढोते सैनिक…। परंतु खास बात ये है कि कविता मे सैनिक नहीं सैनिक की बात  हथियार कर रहे हैं आपात मृत्यु के क्षणों में जीवन के जरिए युद्धों की व्यर्थता को उनकी निर्ममता को कविता कहती है जो आज का सबसे प्रासंगिक सवाल है।

          औरतों के साथ बरती जा रही हिंसायें यह बताती हैं कि हम कितने अशिक्षित और पिछड़े समय में रह रहे हैं।स्त्री कैसी दुनिया चाहती है?  कैसा साथ चाहती है? यह अभी भी समाज के सामने अनुत्तरित  है। आजादी कैसी? कितनी और किस से? यह प्रश्न बहुत बड़े और संजीदा है जिसके इर्द-गिर्द स्त्रियां घूम रही हैं। स्त्रियों के हस्तक्षेप और उनकी मौजूदगी हर स्तर पर दर्ज हो रही है, यह अलग बात है कि हम अभी भी पुराने औजारों को रंग रोगन कर,धो-पोंछ कर  आजमा रहे हैं। भविष्य के टूल्स क्या होंगे? और क्या होना चाहिए? अभी भी धुंधलके में है। इन कवियों की कविताएं इन बेचैनियों को रेखांकित करती हैं ।यह कविताएं शोर नहीं मचाती परंतु मन के अंदर बेचैनी भर देती हैं विहाग की एक और कविता का कुछ अंश पढ़िए —

         लोना आवाब को था कहना कुसुमकुमार से  

         यह सब

         जैसे गौरैया फुदक -फुदक कहती है माटी से

         जैसे बादल टपक- टपक कहता है धरतीसे

         जैसे पराग निचुड़-निचुड़ कहता है तितली से

         हां ठीक मुझे भी प्रेम है तुमसे

         बिलकुल वैसा ही उतना ही

        अकूत ,अनंत ,अथाह, अपरिमित…।

यह स्त्री मन की कविता है जो प्यार और परवाह की एक छोटी स्नेह से भरी दुनिया को अपने अंदर बुनती है उतनी ही पवित्र दुनिया जितनी गौरैया और मिट्टी की, जितनी बादल और धरती की । मैं कविता पढ़ती गई.. अपने आप के और और निकट पहुंचती गई ।थोड़ा समय लगा उससे उबरने में…..। अकस्मात यह ख्याल आया की एक पुरुष मेरी बात इतनी साफ और गहराई से कैसे कह सकता है? मेरा राजनीतिक विमर्श जागा क्या कविता की संवेदनात्मकता में कवि की निजी प्रतिबद्धताये  शामिल होती हैं? मन ने कहीं चाहा कि काश ये द्वैतता इन कवियों में न हो, जैसी की तथाकथित प्रगतिशील कवियों में अक्सर दिखाई देती है कहिनी और करनी में ।

       अदनान कफील की कविता भी प्रेम के एकांत  में जीवन का विस्तार होते देखने वाली कविता है —

          जब मैंने तुमसे प्रेम किया

          तब मैंने जाना

         की मेरे आस – पास  की दुनिया

         कितनी विस्तृत है

         मैंने हवा को खिलखिलाते देखा

         मैंने फूलों को मुस्कुराते देखा

         मैंने पहाड़ों को बतियाते दिखा

         ……………

         मैंने जाना कि आस-पास कितना कुछ है..।

प्यार हमेशा से कविता की मूल अनुभूति रहा है परंतु आज के युवा कवि  प्यार को जिस  ज़िद के साथ व्यक्त करते हैं वह रूहानी प्यार नहीं है बल्कि साक्षात दुनिया की तमाम ऊंच-नीच, सीमाओं, आचार संहिता के बीच गसा हुआ प्यार है जहां समर्पण नहीं है मित्रता है, एक बराबरी का भाव है, दो समकक्षों के बीच स्नेह सूत्र हैं जो विरह की विरुदावली से नहीं एक साथ होने की गहरी आकांक्षा से भरा हुआ है वैसे ही जैसे धरती पानी को सोख लेती है एक लय में अपने अंदर …..

       एक दिन मैं उतर आऊंगा

       अपनी ऊंचाइयों से

       पानी की तरह

       तुम्हारे समतल में

       फैल जाऊंगा एकदिन….।

यह कविता एक आश्वस्ति है की धरती पर प्रेम है अभी.. इससे खूबसूरत बात क्या हो सकती है।

साझी विरासत को आगे बढ़ाने वाला युवा कवियों का ये हिरावल दस्ता तमाम धार्मिक जड़ताओं  के बीच सेतु की तरह उपस्थित है।

बच्चों पर मंगलेश डबराल,चंद्रकांत देवताले,इब्बार रब्बी ने भी मार्मिक कविताएं लिखीं जो दमित समाज के साथ चल रहे बच्चों,भूख के साथ जीते बच्चों की बात कहती हैं परंतु अदनान हिंसा के खिलाफ बचपन को खड़ा करते हैं अबोध मन की पवित्रताओ को क्रूरताओं के सामने खड़ा करते हैं, जो मुझे लगता है यथास्थिति से आगे की कविता है।मेरी दुनिया के तमाम बच्चे —

                देखना वो तुम्हारी टैंकों में बालू भर देंगे

                और तुम्हारी बंदूकों को

                मिट्टी में गहरा दबा देंगे

              वो सड़क पर गड्ढे खोदेंगे

              और पानी भर देंगे

              और पानियों में छपा छप लोटेंगे…

              वो प्यार करेंगे उन सब से

          जिससे तुमने उन्हें नफरत करना सिखाया..।

     ये लिखते हुए अदनान दुनिया की उस हिंसक सोच के सामने खड़े होते हैं जिसने मनुष्य -मनुष्य के बीच भेद खड़ा किया, उन जहरीले इरादों को प्रश्नकित करते हैं जिनके चलते खुबसूरत धरती का गीत नफरतों में बदल गया है। पूंजीवादी सोच की मौका परस्ती और नफे नुकसान की संकीर्ण दुनिया को भी ये अपनी कविता की विषयवस्तु बनाते हैं और भूमंडलीकरण से बनी साम्राज्यवादी फासीवादी सोच तक भी पहुंचते हैं।

इन नौजवानों की कविता मनुष्य की तरफ खड़ा होना सिखाती है। इनकी कविताएं उदासी की कविताएं हैं परंतु निराशा में नहीं डुबोती, यह घुटन और नाराजगी की कविताएं हैं परंतु संभावना को खत्म करने वाली नहीं है ।

     कविता  बाह्यजगत से तब जुड़ती है जब वह कवि के अंतरजगत से गहरे गुजरती है कविता का संबंध अंतःस्थल से है पर यह अंतःस्थल वह आध्यात्मिक अंतःस्थल नहीं है जो भौतिक जीवन के खिलाफ खड़ा हो जाता है बल्कि इसका संबंध हमारी गहनतम मानवीय आकांक्षाओं से है जिसमें  हमारा बाह्य जगत भी शामिल होता है इस तरह कविता मानवीय सरोकारों का विस्तार करती है जो अंतःजगत की यात्रा से गुजर कर ही संभव होता है आध्यात्मिकता और जगत का यह द्वंद कविता की संवेदनशीलता को और गहरा कर देता है कवि के अंदर आभ्यंतरीकरण के बाह्यकरण की प्रक्रिया सतत जारी रहती है जो कभी सामंजस्य के रूप में व्यक्त होता है तो कभी द्वंद में, आज का कवि इस द्वंद को  अनुभव कर रहा है। कभी तल्खी, कुछ शिकायत ,कुछ नाराजगी के साथ उन पारंपरिक मूल्यों पर चोट कर रहा है जिनके चलते आजादी कटघरे में खड़ी दिखाई देती है। अब जिस कवि की चर्चा हम करना चाहते हैं उसकी तल्खी और तेवर कविता को किताब से निकाल कर सड़क पर खड़ा कर रहे हैं एक संवाद की तरह, एक मुलाकात की तरह, सड़क पर चल रहे हर एक आदमी से..

      इनकी कविता पद्यभासी है जो गद्य में लिखी गई है जिसकी अपनी लयात्मकता होती है परंतु गणितीय छंद विधान से मुक्त;पितृसत्ता को, फासीवादी सोच को, बेखौफ चुनौती देती सबिका अब्बास नकवी की कविताएं है..। वह अपनी कविता को विशिष्ट वर्ग के बीच ना तो सीमित करना चाहती हैं और ना अपना एक विशिष्ट वर्ग बनाना चाहती हैं सबीका की कविता रोमांटिक कविता नहीं है परंतु उन कविताओं में जीवन के प्रति भरी रागात्मकता उन्हें नए संदर्भों में रोमांटिक बना देती है जिन्हें सुनते हुए हम अपने अंदर एक खिंचाव महसूस करते हैं कविता को पूरा सुनने का…।

     सबिका की ‘साड़ी’ कविता,उल्लेखनीय है; साड़ी जिसे औरत के सांस्कृतिक पहनावे की तरह सामंती समाज ने तय किया,नारीवाद साड़ी को असुविधाजनक ,असुरक्षित,देह आकर्षण के प्रतीक के रूप में देखता है जिसे पहन कर औरते नौ गज के गोल घेरे में बंध जाती हैं जो किसी भी मेहनत करने वाली ,काम करने वाली औरत के लिए किसी भी तरह सुरक्षित और सुविधाजनक नही कही जा सकती परंतु सबिका साड़ी के पल्लू को परचम की तरह लहराना चाहती हैं  उसे धरती का बिछावन और सिर पर साए की तरह ओढ़ना चाहती हैं —

     मेरी साड़ी वो आशियाना है जिसे

     तुम आसमान कहते हो

     मेरी साड़ी ही तो वो जमीन है

     जिस फर्श पर तुम रहते हो..

     ये साड़ी वो नदी है की लहर है

     जिस पर हम इश्क की नाव चलाते हैं

     इसी साड़ी से हम फासीवाद को फांसी लगाते हैं

     ….

     इस साड़ी पर तुमने बहुत छेद बनाए हैं

     …

     लेकिन हम भी बेहतरीन रफूगर है

     ….

     तुमने जहां से जातिवाद की कैंची लगाई थी

     उस पर मैंने सावित्री फुले की साड़ी का

     बेहतरीन टुकड़ा सिल दिया है…।

कविता मैं वास्तविक जीवन का जितना व्यापक फलक होगा जीवन अनुभव जितनी सघनता और तीव्रता से व्यक्त होंगे, उत्पीड़ित की तरफ खड़ा रचनाकार मनुष्यता से जितने गहराई से एकात्म होगा कविता या किसी भी कला की सृष्टि भी वैसी ही होगी। आज का कवि इस सेधान्तिकी को अपनी शर्तों पर,अपनी लय के साथ सिर्फ स्पर्श करके गुजर नहीं रहा बल्कि अनहद नाद की तरह कविता में उतार रहा है —

        हमारी हिम्मतें हमें विरासत में मिली हैं

        है जमाने ने देखो मोहब्बत हमी से की है

        हैं पलकों पर अपनी फलक को उठाए

        हथेली पर हम जहां को सजाएं

        कि सूरज को मिलती है शिद्दत हमीं से

        ………

        है चौड़ी छातियों को मुसीबत हमीं से

        पल्लू से मेरे यह परचम बने हैं

        बैनर लगे हैं यह झंडे गड़े हैं…..

खासबात ये है कि सबिका की कविता राजनीतिक कविता है पर वो नारा नहीं है उसमे गुस्सा है पर वो गुस्सा संवेदना के रास्ते पाठक या श्रोता के अंदर घर कर जाता है जो सवाल उठाता है जो उसकी आत्मा का सहचर बन जाता है। सबिका कविता सुनाते हुए इतनी ज्यादा सहज होती हैं की वो सहजता असहज लगने लगती है कभी कभी ओढ़ी हुई सी,पर ये उनका अपना कलेवर है इस से उनकी कविता के मर्म पर असर नहीं पड़ता उसकी आंतरिक बुनावट उतनी ही महीन बनी रहती है।

सबिका वास्तव में जनमंच पर ,सैकड़ों की भीड़ में हर एक से बात करने वाली कवि हैं उनकी कविताओं को एकांत कोने में बैठ कर पढ़ा नही जा सकता और अगर पढ़ा भी जाए तो एकांत कोने में ज्यादा देर ये कविताएं ठहरने नहीं देंगी।

क्योंकि ये हमारे अंदर सवाल उठाती हैं जो हमे बेचैन करते हैं जिन्हें व्यक्तिगत स्तर पर हल नहीं किया जा सकता जाहिर है ये आंदोलित करने वाली कविताएं हैं जो समय से मुखातिब होने का  ज़िद भरा आग्रह करती हैं।एक लड़की का ये , गुस्से से भरा रचनात्मक और निर्भीक संसार है।

          कविता संवेदना से बनती है, कविता मन को आघात देने वाले अनुभवों से बनती है आप कह सकते हैं कि राजनीतिक सोच की उथलाहट कविता के मर्म को खंडित करती है परंतु जब पूरा कालखंड, पूरा समय उस गलीज राजनीति के नाम ही लिख दिया गया हो तब कविता उससे अछूती कैसे रह सकती है? हम राजनीति से मुक्त अपने आप को यदि मानते हैं तो यह एक कोरा झूठ होगा। इस अर्थ में ये कविता राजनीतिक है कि हम राजनीति को बनाते हैं राजनीति हमे नही। ना तो कविता कोमलकांत पदावली है सिर्फ, ना ही तुकांत की गठजोड़ है। कविता मन के महीन तारों की गहरी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है। इस पृष्ठभूमि में जसिंता केरकेट्टा की कविता को पढ़ा जाना चाहिए,उनकी कविता पढ़ते हुए  मुझे लगा जैसे वह कह रही हो औरत हैं तो सिर्फ औरत की यंत्रणाओं को ही नहीं लिखेंगे बल्कि हर उस निष्ठुरता, हर उस बदमिजाजी पर लिखेंगे जिससे न सिर्फ औरत  बल्कि हाशिए का हर आदमी गुजरता है ।परिवारों बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि पूरी सामाजिक संरचना, वैधानिक संरचना और राजनीतिक संरचना पर जिस तरह पितृसत्ता पसरी पड़ी है उनसे जसिंता कभी सीधे तो कभी परोक्ष रूप से मोर्चा लेते दिखाई देती है ।इस विद्रूप समय में जब स्त्रियां आजादी के छद्म को बाजार में जी रही  हैं और ढूंढ रही हैं उस चमकीली दुनिया में अपने लिए एक आर्द्र कोना उस औरत के समानांतर एक घरेलू औरत है जो देहरी के अंदर है परंतु दोनों के सच थोड़े किंतु परंतु के साथ लगभग एक से हैं।  जसिंता केरकेट्टा इससे इतर स्त्री के माध्यम से पर्यावरण के सवाल उठाती हैं बाजारवाद के सवाल उठाती हैं सत्ताओं की कुरूपता के सवाल उठाती हैं और हमारे अवचेतन में जमे बैठे जाति और राष्ट्रवाद को प्रश्नांकित करती हैं —

          नन्ही दौड़ पड़ी हम आ गए बाजार!

          क्या-क्या लेना है ?पूछने लगा-दुकानदार

          भैया, थोड़ी बारिश, थोड़ी गीली मिट्टी

         एक बोतल नदी, वह डिब्बाबंद पहाड़

         उधर दीवार पर टंगी एक प्रकृति भी दे दो

         और यह बारिश इतनी महंगी क्यों

 दुकानदार बोला- यह नमी यहां कि नहीं!!

प्रकृति की तरफ पीठ किए पूंजीवादी समाज के सामने प्रश्न करती संवेदनात्मक कविता है ये, ये कविता तंज है विकसित दुनिया पर।

  सीधी सरलता से कही गई संजीदा बात कोई बिंब विधान नहीं, कोई छंद का गान नहीं परंतु कविता की ये तीक्ष्ण अंतर्वस्तु, आज के सबसे जीवंत प्रश्न उठा रही हैं, बाजार के चमकीलेपन में छुपी मानवीय संभावनाएं..।

 जसिंता जिन प्रश्नों को उठा रही हैं वह नए नहीं है न ही पहली बार उठे हैं उनकी खासियत उनकी साधारण अभिव्यक्ति है जो उनके गहन कथ्य को असाधारण बनाती है काव्य विषय जब कविता की अन्तरवस्तु बनते हैं तो वह रचनाकार के मनोंमय  अभ्यांतरीकरण को व्यक्त करते हैं।

        जब मेरा पड़ोसी

        मेरे खून का प्यासा हो गया

        मैं समझ गया

        राष्ट्रवाद आ गया..

  जसिंता की कविता कोमल कविता नहीं है उनकी कविता विकल करने वाली कविता है जो बिना किसी सजधज के हमारे अंतर्मन तक सीधे पहुंचती है उसका अपना कलेवर है जो पाठक को आसक्त करता और शर्मनाक हालातों के प्रति अंदर कुढ़न पैदा करती है और सीधे अपने आप के सम्मुख खड़ा कर देती है।

 कवि के समानांतर चलती दुनिया या दुनिया के समानांतर चलता कवि, जिससे उसका चेतन अचेतन लगातार टकराता है यह टकराना ही कवि का आत्म संघर्ष है जो उसका मीठा और कभी बेहद बेचैन करने वाला एकांत होता है। दुनियावी प्रपंच से दूर सृजन के क्षणों में जसिंता आज के सबसे निर्मम सत्यों से साक्षात करती है।

  कोई सैद्धांतिकी नहीं, विचारों का कोई घना संजाल नहीं जो किसी विशिष्ट विचारधारा से बना हो परंतु इन कविताओं में तनाव के बौखलाए हुए संवेदनात्मक स्फुरण दिखाई देते हैं विचारों का आरोपण कहीं नहीं। अनुभूति भरी ईमानदार कविता:-

            ओ शहर

छोड़ कर अपना घर,पुआल मिट्टी और खपरे

पूछते हैं  अक्सर

 ओ शहर!

 क्या तुम कभी उजड़ेते हो

 किसी विकास के नाम पर?

  इन कवियों की कविताओं के साथ कभी- कभी ऐसा अनुभव हुआ जैसे आप किसी यात्रा में हो और आपके साथ बैठा कोई मुसाफिर आप से लगातार बात कर रहा हो और आप अनसुनी करते-करते कब उसकी बातें सुनने लगे हैं और उसमें डूब जाए पता ही ना चले।

 मानवीय संभावनाओं के अंतःस्फोट आज की कविता में सुनाई दे रहे हैं तभी कविता इतिहास बनती है अन्यथा पानी के बुलबुले की तरह लुप्त हो जाती है। यह सब कवि साबिका की तर्ज पर सड़क तक पहुंच लोगों से सीधा संवाद करने खड़े हो जाएं तो इस से बड़ी क्रांति क्या होगी?

 लेखक का परिचय –   भारती वत्स                              
bhartivts@mail.com