हाशिये का समाज एवं रमणिका गुप्ता का संघर्ष

रमणिका गुप्ता ने आदिवासी, दलित, पिछड़ी महिलाओं के उत्थान के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम शुरू किया। इनका जन्म पंजाब में 22 अप्रैल1930 में हुआ। इनका कर्मक्षेत्र झारखंड और बिहार रहा। विधान परिषद की सदस्यता या विधानसभा के लिए चुनावी यात्राएं, केदला-झारखंड की कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के लिए लम्बी हड़तालें, आदिवासियों, दलितों और किसानों के विस्थापन और पलायन के विरुद्ध मुहिम,महिलाओं को डायन कहकर मारने वालों का विरोध, प्रेम-विवाह का विरोध करने वालों के खिलाफ जिहाद, आदिवासियों के लिए जल-जंगल-जमीन की संघर्ष यात्राओं को आखिरी समय तक जारी रखा। इन्होंने भारत- यायावर और रामविलास शर्मा की प्रेरणा से लेखन के माध्यम से भी अपनी लड़ाई जारी रखीं जिनमें प्रमुख रचना उनकी आत्मकथा “हादसे”और “आपहुदरी” में उनकी संपूर्ण जीवन संघर्ष की प्रस्तुति है।’हादसे’ में हजारीबाग के संघर्षों को दर्ज किया है तो वहीं स्त्री दृष्टि से ‘आपहुदरी’में अपने निजी जीवन और संघर्ष को आज के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

एक कहानी संग्रह-“बहु जुठाई”जिसमें स्त्री के अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किए गए संघर्षों को कहानी के माध्यम से दिखाया गया है। इनकी दो उपन्यास “सीता”और “मौसी”जिसमें स्त्री के दोहरे शोषण के साथ-साथ उसके प्रतिकार स्वरूप को दिखाया गया है। “सीता” उपन्यास में सीता को~”त्याग और तपस्या की प्रतीक,सीता जब रामायण के युग से निकलकर आज के संघर्षों में भूख से जूझती हुई जवान होती है तो वह सर्वहारा वर्ग के लिए आधुनिक रावणों से लड़ती है।आज की सीता जूझी है हर रिश्ते से, उम्र के हर मोड़ पर। उसने मौत से छीना है जिंदगी को। सीता अब अपने से बाहर खड़ी सीताओं के लिए लड़ने लगी है। सीता अब एक कतार है, एक श्रृंखला है, एक पात है। पात-जो चुप थी आज तक अब बोलने लगी है। पांत-जो जड़ थी सदियों से अब फुंकारने लगी है। आज की सीता अपने बदलाव की बाढ़ में गली-सड़ी मानसिकता  को बहाए ले जा रही है समुद्र के गर्त में दफनाने के लिए।”

इस उपन्यास के माध्यम से लेखिका प्राचीन भारत की स्त्रियों की स्थिति को दिखाते हुए वर्तमान में कहां तक पहुंची है और किस तरह अपने अस्तित्व के लिए लड़ना जारी रखती हैं और आगे भी हार नहीं मानने वाली है। सीता के बदलते स्वरूप को दिखाया है लेखिका ने। रमणिका गुप्ता के शब्दों में कहें तो-“सही मायने में दरअसल स्त्री- मुक्ति का अर्थ है पुरानी परंपरा, प्रतिबन्ध या प्रथाएं जो समाज,पुरुष सत्ता या धर्म ने उस पर थोप रखी हैं,उनसे मुक्त होकर एक मनुष्य की तरह आचरण करने का निर्णय लेने की स्वतंत्रता। “रमणिका गुप्ता ने अपनी कविता संग्रह के माध्यम से मानवीय संवेदना को गति प्रदान की । “गीत-अगीत” इनका पहला कविता संग्रह है जिसके माध्यम से वह काव्य जगत में आईं। उनकी कविताओं में राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता, मजदूर यूनियन की नेता और बिहार विधान सभा/विधान परिषद की सदस्यता के खट्टे -मीठे अनुभव, त्रासदी, संघर्ष,उपलब्धि, सबकी झलक मिलती है। लेकिन अपने अनुभव को काव्य की सुंदरता के साथ गढ़ने की पूरी कोशिश रमणिका जी ने की है।

रमणिका जी अपने निजी जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए संपूर्ण मनुष्य जाति के लिए लड़ती हैं  जो समाज में दोयम दर्जे के दंश को झेल रहे हैं। जिसमें समस्त स्त्री -जाति की पीड़ा और मजदूरों -किसानों के दुःख -दर्द से रूबरू होकर कविता में भी गूंज उठी -“कहते हैं लोग मेरे पास गवांने को कुछ नहीं,सिवा अपनी- बेड़ियां-गुलामी की-भूख की-लाचारी की।”
रमणिका गुप्ता ने लगभग 19 देशों की यात्रा की जिसका विवरण उन्होंने “लहरों की लय”नामक यात्रा संस्मरण लिखा। “आदिवासी अस्मिता का संकट”नामक अपनी पुस्तक में रमणिका जी ने आदिवासियों की क्या स्थिति है उसे दिखाने की पूरी कोशिश करती हैं और कहती हैं भारत में आदिवासियों के शोषण के लिए विदेशी उपनिवेशवाद से ज्यादा आंतरिक उपनिवेशवाद दोषी है। आदिवासियों के बसने में भारतीय प्रशासकों द्वारा दमन और शोषण तो होता ही रहा है।

रमणिका जी ने अपने साक्षात्कार में बहुत स्पष्ट व सहज रूप में सवालों के जवाब देती हैं और कहती कैसे शिक्षा दलित, पिछड़ों के लिए समाज में उनकी गैर बराबरी को खत्म कर सकता है। श्यौराज सिंह बेचैन जी ने भी इन दलित मुद्दों पर रमणिका जी से बहुत ही प्रासंगिक सवाल जवाब किए।


रमणिका जी ने अपने संघर्ष के एक बड़े हिस्से में उन सभी के लिए लड़ती है  जो हाशिए के समाज हैं। आदिवासियों एवं दलितों की स्थिति में एक बड़ा अंतर लेखिका यह दिखाती है कि-“दलितों को गांव के बाहर भारतीय संस्कृति से बहिष्कृत करने के बाद भी, उसी के अधीन रहकर उसे मानने पर मजबूर किया गया उसे जीने की मानवीय शर्तों से वंचित रखा गया।उसका आत्मसम्मान ध्वस्त कर दिया गया। इसके विपरीत आदिवासियों को सभ्यता से बहिष्कृत कर जंगलों में ठेल दिया गया। उनके पास जंगल और जमीन दोनों थे। आदिवासी ने अपनी संस्कृति की विरासत हमेशा कायम रखी और वह आत्मसम्मान के साथ जीता रहा, लेकिन अब उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना, स्वायत्तता और अस्तित्व पर ही खतरा पैदा हो गया है। उसका स्वावलंबी स्वभाव और आत्मसम्मान डगमगाने लगा है और वह भी हीनता -बोध का शिकार हो गया है। “रमणिका गुप्ता ने समस्त ज्वलंत प्रश्नों पर एवं समस्याओं पर ध्यान देकर उसका हल ढूंढने का प्रयास किया है।जो अन्याय उन पर हो रहे हैं उनका डटकर मुकाबला भी किया है। रमणिका गुप्ता एक सशक्त स्त्री के रूप में देखी जाती हैं। उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, दृढनिश्चय के बलबूते पर जो भी कार्य हाथ में लिया उसे पूर्ण करके ही छोड़ा। अपनी सक्रिय राजनीति द्वारा दलितों की समस्याओं का निराकरण किया। विशेषत: कोयला खदानों का सरकारीकरण करके शोषण करने वालों के चंगुल से मजदूरों को आजाद कराकर उनके जीवन में खुशहाली भर दी। इस दृष्टि से उनका योगदान महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी मर्जी से पूरी श्रद्धा, लगन, श्रम और दुर्दम्य इच्छाशक्ति से महिलाओं, मजदूरों, भूमिहीनों की समस्याएं , खदानों के प्रश्नों के लिए वह संघर्ष करती रही हैं। इनकी मृत्यु 89 वर्ष की अवस्था में 26 मार्च 2019 को नई दिल्ली में हुई। रमणिका जी एक गैर दलित लेखिका होने के बावजूद पिछड़े,दलितों, मजदूरों के बीच रहकर उनकी  संघर्ष भरी जिंदगी को जिया है और न केवल जिया है बल्कि पूरे दम – खम के साथ लड़ी भी हैं। इसके लिए यहां तक कि उनकी हत्या की भी पूरी कोशिश की गई फिर भी इन्होंने हार नहीं मानी। इनके अपने घर में ही इनको “आपहुदरी”कहा जाने  लगा , जो की एक पंजाबी शब्द है जिसका हिंदी अर्थ जिद्दी लड़की है।

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ISSN 2394-093X
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