सपना स्कूल की 7,8,9th क्लास की ग्रामीण लड़कियों को जर्मन सिखाते हुए जर्मन पत्रकार Alice Schwarzer की एक किताब “Gotte skrieger und die falsche Toleranz” (भगवान के लड़ाकू और गलत सहनशीलता) मेरे हाथ लगी , जो मैंने क़रीब पचास साल पहले भी पढ़ी थी। Alice Schwarzer ने 1969 में ईरान के तख़्ता पलट होने पर कहा था कि इस्लाम जर्मनी के लिए एक बड़ा खतरा है। किसी ने उसकी बातों को सीरियस नहीं लिया, न तो जर्मन सरकार ने न जर्मन मीडिया ने।
मुझे आज भी एलिस की बातों में इतनी सच्चाई दिखती है कि मैं उसे इग्नोर ही नहीं कर सकती। आश्चर्य होता है कि जर्मन लोग एक सीनियर फेमिनिस्ट पत्रकार की बात को सीरियस नहीं ले रहे थे? 1969 में ईरान के शाह को हटा दिया गया था। मुल्लाओं ने उसके बाद औरतों के लिए बुर्क़ा, हिजाब आदि जरुरी कर दिया था। तेहरान की लड़कियों ने अपील भेजी दुनिया में कि ‘हमें बचाओ। ‘ Alice ने जर्मनी के लोगों को अपनी महिलाओं को ध्यान में रहते हुए भी वॉर्न किया। ये सब क्यों नहीं सुना गया?
जर्मन राजाओं के साथ ईरान के अच्छे संबंध हुआ करते थे, और वे हमेशा से चाहते थे ये बात सब को बता दें कि वे एक साथ हैं। हिटलर की अमानवीयता सबने देखी थी। जर्मनी की सरकार को एलिस ने वॉर्न भी किया था, तो भी उन्होंने मुल्लाओं से संबंध बनाये रखा।
Alice ने बहुत सी दूसरी फेमिनिस्ट पत्रकारों के साथ मिलकर ईरान की उन लड़कियों को मदद की थी। इस काम में उन्हें अल्जेरिया से, फ्रांस से, ईस्ट यूरोप से पत्रकार साथियों की मदद मिली। मदद करने वाली पत्रकार भी इस किताब में यही बता रही हैं कि उनके देशों ने भी उन्हें सीरियस नहीं लिया था-सरकार ने भी नहीं और अन्य मीडिया ने भी नहीं। उनकी हालत, जो इस्लमिक देशों से थीं, खराब होती जा रही थी। इस किताब में एलिस ने उनके विवरण को विस्तार से शामिल किया है।
ईरान में औरतों का जीवन कष्टदायी हो चुका था और उनकी हालत आज भी वैसी ही है, जिस तरह आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, फ्रांस आदि में इस्लामिक विचार के प्रवासियों की आम जनता की हालात अमानवीय बना रखी है। ऐसा Alice और कई फेमिनिस्ट पत्रकारों की बातों को सीरियस नहीं लिए जाने के कारण भी हुआ है।
2008 में मुझे वेस्ट अफ्रीका के लाइबेरिया में महिला दिवस पर एक कांफ्रेंस में आमंत्रित किया गया था। उनका मुद्दा था महिला दिवस और यूनाइटेड नेशन सिक्योरिटी काउंसिल रेगुलेशन नम्बर UNSCR 1325 । यह कानून युद्ध वार्तालापों में महिलाओं को शामिल करने और उन्हें जिम्मेदारियां दिए जाने को लेकर था।
2008 का महिला दिवस दो देश मिलकर मना रहे थे – लाइबेरिया और डेनमार्क । दोनों की प्रेजिडेंट महिलाऐं थीं। डेनमार्क की प्रेजिडेंट एक ट्रेड यूनियनिस्ट हुआ करती थीं। लाइबेरियन प्रसिडेंट ने अपने देश मे इस कानून को अच्छी तरह लागू किया था, इसके कारण लाइबेरिया के आंतरिक झगड़ों को, जो वहां के एथनिक ट्राइबल ग्रुप्स में काफी समय से रहे थे, और बहुत से लोग मारे गए थे , महिलाओं का रेप होता था, इसको सुधारा। इसी उपलक्ष्य में ये कांफ्रेंस हो रहा था जिसका हिस्सा मैं भी बनी थी। इस कांफ्रेंस में कई देशों की जानी-मानी महिलाएं और पुरुष शामिल हुए थे। इसमें अहम ये था कि किसी भी युद्ध वार्तालाप में महिलाओं की आवाज़ को सुनना बहुत ज़रूरी है।
मैं कश्मीरी हूँ जब मैं भारत लौटी तो ख़ास कर कश्मीर के संदर्भ में मैंने कई सेमिनारों में लोगों को इस कानून के बारे में बताया। कश्मीर में अभी तक न मुस्लिम, न हिन्दू और न किसी और महिला को आतंकवाद से निपटने किए लिए लगाया गया , किसी ने नहीं लगाया, सरकार, आर्मी या पॉलिसी मेकिंग ग्रुप्स में नहीं लगाया गया।
भारत ने अभी तक इस कानूनन को बनाने की कोशिश भी नहीं की है। इन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी, जबकि लाइबेरिया, फ्रांस और कई देशों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, और बहुत सारी महिलाएं इन देशों से अब जरूरी वार्तालापों में भेजी जा रही हैं। युद्ध तो समाप्त नहीं हुए परंतु चेतना बढ़ी है।
मैंने कश्मीर के संदर्भ में कोशिश की कि दोनों समुदाय हिन्दू-मुसलमान की महिलाओं को इन्वॉल्व किया जाए, लेकिन अभी तक सक्सेसफूल नहीं रही हूँ।
मेरा ये मानना है कि ये जो सोच समाज में फैली हुई है कि महिलाएं क्या कर सकती है , वे तो अबला हैं, उन्हें बहुत कुछ मालूम ही नहीं है, उन्हें बस अपने परिवार बाल-बच्चे और बुजुर्गों के बारे में ही चिंता रहती है, समाज के बारे में उनकी कोई सोच-समझ नहीं, वह गलत है और गलत सिद्ध हो रही है।
ज्यादातर पुरूष घर की समस्याओं में भाग नहीं लेना चाहते इसके कारण घर का सारा बोझ एक तरह से महिलाओं पर आ जाता है, इसके कारण ही वे कई मीटिंग्स में हिस्सा नहीं ले पाती हैं। राजनीति में जितना महिलाओं का योगदान होना चाहिए अभी उतना नहीं है।
हम फेमिनिस्ट महिलाओं ने इसे यह कुछ हद तक बदल दिया है कि हमनें महिलाओं के मुद्दों को केंद्र में ला दिया है। पुरुष राजनेताओं के पितृसत्ताक विचारों के कारण भारत मे 33 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी का क़ानून ही बना है, फिर उसे लागू होने में सामजिक और कानूनी रूप से समस्याएं हैं, उसमें समय लगेगा। मेरा तो मानना है कि उसमें 33 प्रतिशत ही क्यों, 50 प्रतिशत की भागीदारी होनी चाहिए। ऐसा महिलाओं को खुद समझना होगा।
आज कई महिलाएं राजनीति में आ भी रही हैं और ठीक ढंग से राजनीति कर भी रही हैं। महिलाओं को अपने ऊपर विश्वास बनाए रखने के लिए समाज का, खासकर पुरूषों का साथ चाहिए, जो अभी नहीं मिल रहा है।
अफगानिस्तान में पुरुषों को लगता है कि महिलाओं को पढ़ाई से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उन्हें लगता है महिलाएं सिर्फ बच्चे पैदा कर सकती हैं और कुछ नहीं। मैं सोचती हूँ कि वहां के जो युवा लड़के हैं वे अपनी माँ-बहन के लिए क्यों नहीं आगे आते हैं, क्यों उन्हें सिर्फ बंदूक चलाना ही आकर्षित करता है। अफसोस की बात यह है कि अब मुस्लिम महिलाएं भी ऐसा सोचती हैं। जैसा ये मुल्ला लोग कर रहे हैं वैसा अब मुस्लिम महिलाएं भी मांनने लगी हैं-बुर्का, और हिजाब को ठीक मानती हैं।
Fereshta ludin जर्मनी में एक मुस्लिम स्कूल टीचर है जो हिजाब पहन कर स्कूल में पढ़ाने के ज़िद पर अड़ी है। उसका कहना है कि मुस्लिम महिलाएं ही पवित्र होती हैं, यूरोप की गोरी महिलाएं नहीं, हिजाब और बुर्क़ा औरत की इज्ज़त होती है और औरतों को पश्चिमी डेकेडेन्स से बचाती है।
अफसोस कि बात तो ये है कि कई पुरूष संगठन उनकी इस सोच में मदद करते हैं और कहते है कि जैसे अबॉर्शन का अधिकार, एफ.जी.एम ( Female Genital Mutiliation ) का विरोध ये सब नाज़ायज़ है, नहीं होना चाहिए। इस बात पर गोरे पुरूष भी उनका साथ देते हैं, यह कह कर कि ये उनका दक्षिण की औरतों का अपना कल्चर है, हम कैसे उसमें अड़चन डाल सकते हैं। वे अपनी गोरी औरतों को भी बिगड़ी हुई मानते हैं और दक्षिण की औरतों को पवित्र मानते हैं। Fereshta का पति एक कन्वर्ट जर्मन गोरा है।
मुझे एक बार एक गोरे ने कनाडा के विक्टोरिया में , जहाँ मैं एक जैविक खेती के संदर्भ में मीटिंग के लिए और वहां की मंडी देखने गई थी, सड़क पर चलते-चलते बड़े प्रशंसा भरे शब्द कहे थे, क्योंकि मैंने कमीज़-सलवार पहनी थी और उनकी औरतें छोटी-छोटी टॉप-स्कर्ट पहनती हैं, जिससे कुछ पुरुषों और महिलाओं को एक नंगापन प्रतीत होता है, मैं तो हैरान हो गयी थी।
ये जो कुछ पुरुषों की एक सोच है कि महिलाओं को अपना शरीर ढक कर रखना चाहिए, क्या ये उनकी सोच महिलाओं के शरीर के प्रति एक तरह की नफरत का प्रतीक नहीं है? ऐसे पुरूष एक महिला को रेप करने में सबसे आगे होते हैं। क्योंकि उन्हें एक महिला से प्यार करना ही गलत लगता है।
हमारे यहां तो बहुत धार्मिक पुरुष इसको बढ़ावा देते हैं और महिलाएं इसको फॉलो भी करती हैं। उनके पादरी और मुल्ला तो खुले आम ऐसा कहते हैं, हमारे यहाँ साधु संत भी शरीर को ही अपवित्र मानते हैं और हम महिलाएं उन पुरुषों का आदर करने में माहिर हैं। हम वैसे भी अपनी सोच को हमेशा उनसे नीचा ही समझते हैं ।
मैंने जर्मन ग्रीन के साथ काम किया है, मैं सिटी कौंसलर रह चुकी हूँ जर्मन में तो वहां लोगो के साथ काम किया और पाया कि वे लोग भी स्त्री पुरुष को बराबर नहीं समझते। इसके बावजूद कि वहां की महिलाओं को काफी अधिकार प्राप्त हैं परन्तु यौनिकता के मामले में वे एक वस्तु ही मानी जाती हैं। हमारे यहाँ तो महिलाऐं देवी भी मानी जाती हैं और शोषण का शिकार भी होती हैं -बलात्कार और यौन शोषण का। कुल मिलाकर अभी महिलाओं को बाहर काम करना है, मैंने उचित समझा कि अपने ही देश में काम करूं। मैं 1987 में भारत वापस आ गई थी। उन्हीं दिनों पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी की दीवाल टूट गयी थी और अखंड जर्मनी बना।
पूर्वी जर्मनी की महिलाओं के लिए कुछ अधिकार पश्चिमी जर्मनी की महिलाओं से अच्छे थे, जैसे गर्भपात क़ानून, लेकिन वे भी कुल मिलाकर पितृसत्ता की गुलाम थीं।
वहां मैंने देखा कि सेकेंड वर्ल्ड वार के बाद जर्मनी को फिर से बनाने के लिए जो लेबर चाहिए था, उन्हें साउथ यूरोप, टर्की आदि से प्लेन से भर-भर के लाया जाता था, जिससे वहां नयी समस्या खड़ी हुईं। हाँ, कुछ ऐसी टेंडेंसी बन रही थी कि उनके नवजवान नाजी टाइप के बन रहे थे और न्यू नाजी ग्रुप्स वहां बढ़ रहे थे।
हम ग्रीन लिस्ट के लोगों ने कोशिश की थी इसके खिलाफ आवाज़ उठाने की, हमें लगा कि ये तो गलत हो रहा है, यद्यपि ये गरीब घर के बच्चे हैं, उनके मां-बाप के साथ हिटलर ने बहुत गलत किया था। परन्तु, हमारी इस सोच के साथ हम ग्रीन्स ने उनके साथ गलत सहनशीलता दिखानी शुरू कर दी थी।
साउथ यूरोपीय लोगों के साथ में, वहां से आये इमिग्रेंट्स के खिलाफ तो अब न्यू नाजी प्रवृत्ति के कारण भी खुलकर कहना मुश्किल हो रहा था-एक तरह का गिल्ट कॉन्शसनेस जर्मन्स को, ख़ास कर के ग्रीन्स को गलत दिशा में ले जा रहा है।। यह एक प्रकार की गलत सहनशीलता थी।
जर्मन लोग अब अपने लोगों को अच्छे रूप में दिखना चाहते हैं । वे किसी भी गैर जर्मन को ये मौक़ा दुबारा नहीं देना चाहते, जिससे जर्मन लोगों की फिर से बेज्जती हो, जो हिटलर के वजह से हुई। लेकिन मेरा मानना है कि जब हम गलत सहनशीलता दिखाते हैं और गलत बातों के प्रति झूठ बोल कर, तो यह खतरनाक होता है। अब जर्मनी में प्रवासी और इस्लामिक लोगों का रैडिकलिज्म फैला है, और अब नई समस्याएं पैदा हो रही हैं।
जैसा कि मैं भारत का उदाहरण देती हूं। परिवारों में सास-बहु के रिश्ते कई बार खराब होते हैं, पीढ़ी गैप का मामला होता है लेकिन सास के प्रति अच्छा व्यवहार दिखा कर हम सबको ये संदेश भेजना चाहते हैं कि हमारे यहां तो समाज बहुत अच्छा है ,जॉइंट फेमिली अच्छी है,सास- बहू एक साथ अच्छे से रहते हैं, पश्चिम देशों की तरह नहीं ।ऐसा व्यवहार हमें ज़्यादा समय तक खुशी और शांति नहीं देगा, न हमें, न उन्हें। उससे ऐसी विपत्तियां आएगी जो आत्महत्या और रेप को बढ़ावा देंगी।
राजस्थान की गांवों से मैं रोज ख़बरें पढ़ती हूँ कि कई परिवारों में किस तरह जवान बहुएं आत्महत्या करने को मजबूर की जाती हैं और छोटी-छोटी बच्चियों का रेप होता है, मगर ऐसा करने वालों पर बहुत कम कार्रवाई होती है,न ही पर्याप्त सजा मिलती है, बल्कि आरोपी पुरुषों को तो कई बार कुछ बोला ही नहीं जाता है। और वे फ्री घूमते हैं।
थोड़े दिन पहले एक अखबार में खबर थी कि एक स्टडी के अनुसार महिलाओं के तो FIR तक दर्ज नहीं करती पुलिस, और मैंने खुद देखा है कई मामलों में मैं महिलाओं को थाने लेकर जाती थी तो वे हमें ही मामला सुलझाने को कहते थे FIR लिखते ही नहीं थे। बस एक ही बात रटते थे कि किसी तरह से समझौता कर लो परिवार की बात मान लो।
जर्मन लोगों का झूठा प्रेम प्रवासियों के प्रति और भारत में परिवारों का झूठा प्यार, ये सब हम जैसे फेमनिस्टों के लिए अत्यंत कठिनाईयां पैदा करते हैं। इससे कट्टर पुरुषों की सोच को प्रोत्साहन मिलता है। कट्टर धर्मिक लोगों को, जैसे कुछ क्रिस्चियन पास्टर्स, मुस्लिम मुल्लाह, यहूदी पादरी, कट्टर धार्मिक, साधु संत, अमानवीय पुरूष, ये सब औरतों का जीना दुश्वार कर देते हैं। इसी कारण रेप, सेक्सुअल वायलेंस वग़ैरह पनपते हैं।
कुल मिलाकर मैं ये कहना चाहती हूं कि इस स्थिति में, जो अभी पूरी दुनिया में है, जहां पितृसत्ता और महिलाओं का शोषण करने और उनको नजरंदाज करने के तरीके अभी भी चल रहे हैं, हमें यूएनएससीआर 1325 और इस जैसे कानून को गंभीरता से लेना होगा , महिलाओं का योगदान बढ़ाना होगा और महिलाओं को भी अपनी अति धार्मिक और अंधविश्वास की सोच बदलनी होगी जिस से हम मानवता की ओर बढ़ें सकेंगे।।
वैसे भी धार्मिक कट्टरता न कोई संस्कृति है और न ही कोई समाधान है।