{प्राइड मन्थ पर विशेष } “प्रेम रंग में डूबी दुखा:त्मक नीलिमा ”
2022 में प्रदर्शित फिल्म ‘कोबाल्ट ब्लू’, पितृसत्तात्मक ढाँचे के भीतर समलैंगिक संबंधों की त्रासदी को मार्मिकता से प्रस्तुत करती है । ‘लैंगिकता ‘आप क्या है! से कहीं अधिक आप क्या चाहतें है’ के सन्दर्भों से जुड़ी है। हमारे समाज में प्रेम और यौन संबंधों की स्वीकार्यता विवाह-संस्था और संतानोत्पत्ति के सन्दर्भ में ही मिलती है। समलैंगिक, द्विलैंगिक, ट्रांसजेंडर,या अलैंगिक (LGBTQ+) को घृणा व तिरस्कार से देखा जाता है वे क्रूर मज़ाक और यौन-शोषण का शिकार बनते है, हीनताबोध के कारण वे आत्महत्या तक करते हैं यही कारण है कि वे अपनी सेक्शुएलिटी यानी लैंगिकता को छिपा कर भी रखतें रहें हैं। ‘कोबाल्ट ब्लू’ (2022) समलैंगिक संबंधों में ‘प्रेम’ की तड़प को दर्शाती है, प्रेम जो स्वीकार्य नहीं प्रेम के विविध रंग-रूपों को बहुत ही सलीके से पर्दे पर बिखेरा गया है, नीले रंग की भव्यता के बावजूद यह ‘ब्लू फिल्म’/सेमी पोर्न जिसकी बहुत संभावना थी, नहीं हो पाई यही इसकी कलात्मक विशेषता भी है।
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‘लैंगिकता ‘आप क्या है! से कहीं अधिक आप क्या चाहतें है’ के सन्दर्भों से जुड़ी है। हमारे समाज में प्रेम और यौन संबंधों की स्वीकार्यता विवाह-संस्था और संतानोत्पत्ति के सन्दर्भ में ही मिलती है। समलैंगिक, द्विलैंगिक, ट्रांसजेंडर,या अलैंगिक (LGBTQ+) को घृणा व तिरस्कार से देखा जाता है वे क्रूर मज़ाक और यौन-शोषण का शिकार बनते है, हीनताबोध के कारण वे आत्महत्या तक करते हैं यही कारण है कि वे अपनी सेक्शुएलिटी यानी लैंगिकता को छिपा कर भी रखतें रहें हैं।‘कोबाल्ट ब्लू’ (2022) समलैंगिक संबंधों में ‘प्रेम’ की तड़प को दर्शाती है, प्रेम जो पितृसत्ता में स्वीकार्य ही नहीं। समलैंगिक रिश्तों के प्रति एक स्वस्थ समझ विकसित करने की ईमानदार कोशिश के कारण ‘कोबाल्ट ब्लू’ एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 2006 में फिल्म निर्देशक सचिन कुन्दलकर का मराठी उपन्यास आया जिसका अंग्रेजी संस्करण 2013 में आया इसी उपन्यास पर फिल्म आधारित है। कथानक केरल के नैसर्गिक सौन्दर्य की पृष्ठभूमि पर रचा गया है जो आपको अहसास करवाता है कि जितना यह नैसर्गिक सौन्दर्य निष्कलंक है, नायक तनय का प्रेम भी उतना की सुंदर, मासूम और प्राकृतिक है, किसी भी दैहिक माँग से उपजा-पनपा क्षणिक भावोच्छ्वास नहीं। तनय का प्यार इतना शुद्ध और समर्पित है कि प्रेम में होने भर से उसने कभी किसी चीज पर सवाल नहीं उठाया, कभी संदेह नहीं किया, वह हर बात पर विश्वास करता है। कहानी 1996 के समय की है लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में ‘प्रेम’ की स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। पितृसत्ता संचालित विवाह संस्था पवित्र बंधन है जिसके केंद्र में वंशवाद जातिवाद और संपत्ति काम करती है जबकि प्रेम की स्वच्छंदता व उच्छृंखलता उसे पाप की श्रेणी में खड़ा कर देता है इसलिए यहाँ अपने ही बच्चों की ‘ऑनर किलिंग’ हत्या नहीं मानी जाती।

नीला रंग सृष्टिकर्ता का प्रिय रंग रहा होगा, चुम्बकीय आकर्षण, रहस्य-रोमांच और सौन्दर्य के अथाह भण्डार से भरपूर अनंत आकाश और अथाह समुद्र इसके प्रमाण है। ये जानते हुए भी कि इन्हें सम्पूर्णता में पाना असंभव है, तमाम जोखिमों के बावजूद मनुष्य इन्हें पाना चाहता है। प्रेमपंथ भी तलवार की धार पर चलने सामान है। कोबाल्ट धातु भी इसी प्रकृति के भीतर नील वर्णक, तीव्र लौह चुंबकत्व का गुण लिए चमकीली सलेटी चाँदी रंग का होता है, जो बहुत सुंदर गहरा नीला रंग उत्पन्न करता है । ‘कोबाल्ट ब्लू’ फ़िल्म का कैनवास केरल के असीम प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच, प्रेम में भीगा, दुःख की नीलिमा में घुला लेकिन रचनात्मक ऊर्जा के साथ मानवीय प्रेम के अनोखे रंग बिखेरता है, जिनसे हम आज तक भी परहेज़ ही करतें हैं। 1730 में रसायन शास्त्री जॉर्ज ब्रांड्स ने ‘कोबाल्ट धातु’ के महत्व को प्रतिपादित कर, सम्मानित धातु के रूप में स्थापित किया जिसका वह अधिकारी था लेकिन समलैंगिक सम्बन्ध क़ानूनी मान्यता प्राप्त करने के बाद भी सामाजिक सम्मान और पहचान के लिए संघर्ष कर रहें हैं। कोबाल्ट धातु के प्राकृतिक चुंबकीय गुण की भाँति, समलैंगिकता का भाव भी सिर्फ दैहिक नहीं अपितु भीतरी गुण है जिसे बनाया या गढ़ा नहीं गया जैसे पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष और स्त्री गढ़े जाते हैं। प्रेम का स्वच्छंद और अनन्य भाव पितृसत्ता के खाँचो में वैसे भी फिट नहीं बैठता, उस पर पवित्रता के नाम पर विवाह में स्त्री पुरुषों का गठबंधन किया जाता है ऐसे में समलैगिक सम्बन्ध अभी भी इस दायरे से बाहर है ।
पितृसत्तात्मक विषमलिंगी वैवाहिक संस्था के बरक्स बात अगर समलैंगिक प्रेमियों की जाए तो यहाँ भावनाओं का दैहिक–मानसिक शोषण जारी है यहाँ समलैंगिक होने का अर्थ विकृति मन जाता है जो भी मात्र दैहिक जरूरतों से जुड़ा है । ‘कोबाल्ट ब्लू’ बहुत सहजता से समलैंगिकता से जुड़ी इसी रूढ़िवादी सोच को तोड़ती है। 2018 में धारा 377 के तहत अपराध मुक्त होने पर भी समलैंगिक संबंध तो पाप है ही एक मानसिक बीमारी मानी जाती है जिस कारण एलजीबीटी क्यू + समुदाय को अपने परिवार में ही सबसे पहले संघर्ष करना पड़ता है जहाँ उनके अपने ही उनका शोषण करते हैं। समलैंगिक अस्तित्वों की भावनाओं, उनकी पहचान के संकट को यह फिल्म विशेष ट्रीटमेंट देती है और बड़े ही सावधानी से बिना किसी विकृति के हमारे सामने समलैंगिक दैहिक संबंधों के दृश्यों को भी खूबसूरती से प्रस्तुत कर रही है। तब भारती की कविता याद आती है “अगर मैंने किसी के होंठ के पाटल कभी चूमे, अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे…महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो… न हो यह वासना तो जिन्दगी की माप कैसे हो। ” फ़िल्म बिना किसी पूर्वाग्रहों के भारतीय समाज की यथास्थिति सामने रखती है।
पुरुष का पुरुष से सम्बन्ध यानी ‘गे रिलेशनशिप’ पर एक अद्भुत व मार्मिक प्रेम कहानी ‘कोबाल्ट ब्लू’ आपको भीतर तक पिघला देगी। प्रेम के विविध रंग-रूपों को बहुत ही सलीके से पर्दे पर बिखेरा गया है, नीले रंग की भव्यता के बावजूद यह ‘ब्लू फिल्म’/सेमी पोर्न जिसकी बहुत संभावना थी, नहीं हो पाई यही इसकी कलात्मक विशेषता भी है। एक दृश्य में नायक अपने अनाम प्रेमी की शर्ट सूँघता है तो वहीँ अन्य दृश्य में माँ का आँचल पकड़कर सूँघता है दोनों ही दृश्य बताना चाहतें हैं कि तनय का प्रेम नैतिक-अनैतिकता से परे नि:स्वार्थ है। केरल की हरियाली और मसालों की सुगंध, पाब्लो नेरुदा की कविताओं, ‘फायर’ फ़िल्म के पोस्टर के बीच नायक की मासूमियत और उनके जैसे रचनात्मक व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान निर्मित करने की ललक विषय को विस्तार देती है। नायक तनय की आँखों में अनाम पेइंग गेस्ट लड़के के प्रति आकर्षण, रहस्य, रोमांच,प्रेम, समर्पण के साथ उसकी मासूम हँसी- रुदन उसका हावभाव को भी अनुभव करते हो । तरुण-सा तनय जो अभी पूरी तरह युवा भी नहीं हुआ समझ नहीं पाता कि उसका प्रेमी बिना बताये उसे छोड़कर क्यों गया उसका दुख और मायूसी आपको रुला देगी तो आपकी संवेदनीयता को सोचने समझने के नए आयाम भी देगी कि समलैंगिक प्रेम को अनैतिक, अपराध या पाप क्यों माना जाए, फ़िल्म इस विडंबना को अपने ढंग से समझाने का प्रयास है।

अनुजा पेइंगगेस्ट के साथ भाग जाती है क्योंकि वह शादी नहीं करना चाहती उसका कहना कि ‘उसने मुझे मेरे शरीर से परिचित कराया’ प्रतिध्वनित करता है कि उसकी देह पर उसका अधिकार है पिता का भी नहीं कि वे शादी के नाम पर किसी भी लड़के को उसे सौंप दे लेकिन यहाँ तनय के साथ विश्वासघात होता है यह वही लड़का है जिसे उसने समर्पित प्रेम किया तब उसका शिक्षक उसे समझाता है कि ‘हम अकेले हैं, हमें दोस्त की तलाश है लेकिन हमारे दोस्त हमसे दूर हो जाते हैं…और तनय आज तुम जिस स्थिति से गुजर रहे हो उस से मैं गुजर चुका हूं और गुजर रहा हूं है। जिन्हें हम प्यार करते हैं, महिलाओं ने उन पुरुषों को हमसे चुरा लिया” तनय का शिक्षक जो समलैंगिक है और अपने लिए सम्मान भरी जिंदगी खोज रहा है। एक दृश्य में तनय बिना कपड़ो में बैठे तनय की मुद्रा क़माल की कलाकृति की तरह आपको भिगो जाती है, आप भीतर तक से हिल जाते हैं। तब शिक्षक जब उससे कहता है कि ‘कपड़े पहन लो और घर जाओ’ उस समय उस शिक्षक का अभिनय जीवंत हो उठता है। पेइंगगेस्ट लड़का वास्तव में पितृसत्ता का प्रतीक है जो लड़की और समलैंगिक दोनों का शोषण करता है और खुद स्वछन्द घूमता है।
समलैंगिक प्रेम को ‘चॉकलेटी प्रेम’ कहकर बहुत छोटा बना दिया जाता है लेकिन ‘कोबाल्ट ब्लू’ फ़िल्म परंपरागत प्रेम के सभी दायरे तोड़ देती है । जिसे फ़िल्मों में हैप्पी एंडिंग कहा जाता है वास्तव में वह विवाह प्रेम का अंत है, वैवाहिक सम्बन्ध कितने प्रेम में पगे होतें है, इसका संकेत आरम्भ में ही मिल जाता है, जब तनय के पिता अपनी पत्नी से फ़ोन पर कहते हैं कि‘अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता…मैं अपनी भूख किसी और तरीके से मिटा सकता हूँ और सिर्फ मैं खाने की बात नहीं कर रहा हूँ’ यहाँ पितृसत्ता का वह पक्ष स्पष्ट दिखलाई पड़ता है जहाँ पत्नी पुरुष की ‘भूख मिटाने’ का जरिया मात्र है बाकि सभी संस्कार, रीति-रिवाज़ खोखले आवरण है, जिन्हें पितृसत्ता ने बहुत सोच समझ कर बुना है। एक ही दिन तनय के दादाजी और दादजी की मृत्यु पर तनय की बहन अनुजा पूछती है कि ‘दादी तो दादा को पसंद नहीं करती थी फिर दोनों एक ही दिन कैसे?’ क्योंकि दादाजी बहुत क्रूर थे दादी को पीटते भी थे, तनय कहता है “प्यार एक आदत है आदत खत्म तो आप भी खत्म” विवाह-संस्था में इस आदत को विकसित किया जाता है जो सहज प्रस्फुटित नहीं होती। विवाह संस्था में बंधकर जिसके साथ हम ताउम्र रह लेते हैं, वह प्रेम ही है या आदत …यह प्रश्न आपको भी बेचैन कर देगा । प्रेम वास्तव में कुछ खास क्षणों में महसूस किया जाता है और अलग होने पर भी शर्ट की सुगंध की तरह आपके भीतर बाहर आच्छादित रहता है, प्रेम आप को कमजोर नहीं मजबूत बनाता है जबकि वैवाहिक संबंध से यदि प्रेम नदारद है वह आपको हमेशा कमजोर ही बनाता है।

तनय की बहन अनुजा परंपरागत लड़कियों की तरह नहीं है उसके बाल कटे हुए हैं, हॉकी खेलती है, और शादी नहीं करना चाहती । उसका पिता उसको लालच देता है कि यदि यहाँ शादी करोगी तो सारी जिंदगी पूरी सुख सुविधा के साथ रहोगी पर हॉकी प्रेमी अनुजा अंत में वह इन सुख-सुविधाओं को छोड़कर अपने बूते पर कुछ आगे करने के लिए हॉकी टीम के कोच बनने के लिए तैयार हो जाती है । उसके लिए हॉकी मात्र खेल नहीं बल्कि उसकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा है जिससे वह अलग नहीं होना चाहती। तनय एक लेखक बनना चाहता है,धोखा खाने के बाद भी वह टूटता नहीं, उसकी जिजीविषा चीत्कार रही है कि समलैंगिकता उसकी एकमात्र पहचान नहीं, जैसे स्त्री या पुरुष होना भर किसी की पहचान नहीं उससे बढ़कर भी बहुत बड़ी दुनिया है। फ़िल्म यही बताना चाहती है कि व्यक्तित्व के और भी बहुत बेहतरीन हिस्से होते हैं जिन पर हमारा समाज नजर नहीं डालता, क्योंकि वह खूबियों पर नहीं खामियों पर दृष्टि गाढ़कर रखता है ।
मनोविज्ञान में जिस नील वर्ण को पौरुष और वीर भाव का भी प्रतीक मानतें हैं, उसके सन्दर्भ में एक फिल्म में एक बहुत आकर्षक पुरुष की पेंटिग दिखाई पड़ती है, आँखों से बहते आँसू भी पुरुष के व्यक्तित्व का खूबसूरत हिस्सा हो सकते हैं, यह पेंटिंग फिल्म के कथानक को स्पष्ट करती है। विजुअल सिनेमैटोग्राफी कमाल की है,तभी कोबाल्ट ब्लू एक क्लासिक कलाकृति बन पाई है जिसमें माँसलता होते हुए भी वह पॉर्नोग्राफी की ओर नहीं गई है जैसा कि समलैंगिक फिल्मों में मसाला छौंक दिया जाता है, अथवा हास्य के नाम पर फूहड़ता। इस फिल्म का यदि परम्परागत तरीके से प्रचार प्रसार नहीं हुआ तो उसका भी कारण यही है कि निर्देशक चाहता है कि समलैंगिक प्रेम के प्रति सीमित सोच को सहज ढंग से उदार बनाया जाए, किसी तरह का बनावटीपन न झलके । ‘गहराइयाँ’ फिल्म के ट्रेलर याद कीजिये जिसमें दैहिक आवरण के भीतर कितने ही महत्त्वपूर्ण मुद्दें हाशिये पर चले गए। निलय मेहंदले, अंजलि शिवरमन,प्रतीक बब्बर तीनों ने बेहतरीन अदाकारी दिखाई है । पृष्ठभूमि का संगीत बहुत अनूठा और अद्भुत है। अंत में जब तनय एक किसान का भोजन चुराकर खाता है और फिर लिखने बैठता तो समझ आता है, हर चीज का अपना महत्व है तन और मन दोनों की भूख का अपना महत्व है। कुछ कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाए तो यह एक अच्छी फिल्म है । संवेदनशील विषय पर बनी इस फिल्म को समझने के लिए जिस संवेदनशीलता की जरूरत है, हमारे समाज में वह कम ही नजर आती है। जिन प्रेम संबंधों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं और उसे वीभत्स मानते हैं उस यथार्थ को बहुत ही कलात्मक पेंटिग की तरह प्रस्तुत किया है । जितनी उदारता से समलैंगिकता के विषय को उभारा गया है, हमारा दर्शक शायद अभी उतना उदार नहीं है, उसका दृष्टिकोण सीमित है इसलिए यह उत्कृष्ट कृति किसी भी कलात्मक कृति की तरह शोकेस में सज कर रह जाए तो कोई आश्चर्य नहीं लेकिन आने वाले समय में यह एक क्लासिक फिल्म कहलाएगी ।