आमतौर पर महिलाएं अपने जीवन में परिवार, समाज, रिश्तों और करियर के कई मोर्चों पर संघर्ष करती हैं। लेकिन इस संघर्ष में वे अक्सर खुद के प्रति करुणा रखना भूल जाती हैं। Self-Compassion, यानी “आत्म-दया”, एक ऐसा मनोवैज्ञानिक गुण है जो व्यक्ति को कठिन परिस्थितियों में खुद के प्रति सहानुभूति और समझ बनाए रखने में मदद करता है।
Self-Compassion या आत्म-दया, एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है जिसका अर्थ है – जब हम असफल हों, दुखी हों या दोष करें, तो खुद के प्रति वही सहानुभूति और समझ रखें जो हम अपने किसी प्रियजन के लिए रखते हैं। लेकिन शोध बताते हैं कि महिलाओं में यह गुण अपेक्षाकृत कम पाया जाता है – और इसका एक गहरा संबंध पितृसत्तात्मक सोच से है।
पितृसत्ता (Patriarchy) एक ऐसा सामाजिक ढाँचा है जिसमें पुरुषों को प्राथमिक सत्ता और अधिकार प्राप्त होते हैं। इस व्यवस्था में निर्णय लेने, संपत्ति पर अधिकार, सामाजिक प्रतिष्ठा, धार्मिक नेतृत्व और परिवार की मुखिया भूमिका अधिकतर पुरुषों के पास होती है। यह व्यवस्था स्त्री और अन्य लिंगों की तुलना में पुरुषों को श्रेष्ठ मानती है।
भारतीय समाज में एक स्त्री से बचपन से ही यह अपेक्षा की जाती है कि वह “अच्छी बेटी”, “अच्छी बहू”, “अच्छी पत्नी” और “संस्कारी माँ” बने। इन भूमिकाओं की परिभाषा पहले से ही तय होती है— जहां त्याग, सहनशीलता और दूसरों की खुशी को प्राथमिकता देना सबसे बड़ा गुण माना जाता है। लेकिन जब कोई स्त्री अपने दर्द को व्यक्त करती है, शिकायत करती है, या अपने अधिकारों के लिए खड़ी होती है, तो वह समाज की नज़र में “अच्छी स्त्री” नहीं रह जाती। यह दबाव उसे भीतर से तोड़ने लगता है और वह धीरे-धीरे खुद से ही कटने लगती है। अपने संघर्षों, भावनाओं और ज़रूरतों को अनदेखा करना उसकी आदत बन जाता है। पितृसत्ता के इस ढांचे ने स्त्रियों को सीमित कर दिया है—उन्हें घरेलू भूमिकाओं तक सिमटा दिया गया, उनकी भावनात्मक ज़रूरतों और आत्मबल को अनदेखा किया गया, और उन्हें यह यकीन दिलाया गया कि उन्हें बस सहना है, चुप रहना है और अच्छा बनने की कोशिश करनी है।
यही कारण है कि कई मनोवैज्ञानिक शोधों में यह सामने आया है कि महिलाओं में आत्म-दया (self-compassion) की कमी अधिक पाई जाती है। उदाहरण के तौर पर, Yarnell et al. (2015) के शोध में यह स्पष्ट हुआ कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक आत्म-आलोचना (self-judgment), अलगाव की भावना (isolation), और भावनाओं में डूब जाने (over-identification) की प्रवृत्ति रखती हैं—जो आत्म-दया के विपरीत कारक हैं। जब कोई स्त्री अपने दुःख को साझा नहीं कर पाती, और उसे यह विश्वास नहीं होता कि कोई उसकी बात समझेगा, तो वह खुद को अकेला महसूस करने लगती है। इसी के साथ शुरू होता है repression—एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, जिसमें व्यक्ति अपने दुखों को दबाने लगता है ताकि समाज में स्वीकार्य बना रहे। स्त्रियों में यह repression और भी गहराई से काम करता है। वे न तो अपने आँसुओं को खुलकर बहा पाती हैं, न ही अपने डर और क्रोध को व्यक्त कर पाती हैं। धीरे-धीरे यह दबाव उन्हें मानसिक रूप से कमजोर और भावनात्मक रूप से सूखा बना देता है। ऐसे में आत्म-दया की जगह खुद से नफरत, गिल्टऔर अकेलापन जन्म लेता है।
इस प्रकार, पितृसत्ता केवल एक सामाजिक ढांचा नहीं, बल्कि एक मानसिक बोझ बन जाती है जो स्त्री को अपने प्रति दयालु होने से रोकती है। ऐसे में जब कोई स्त्री यह कहती है कि “मुझे भी थकने, दुखी होने और समझे जाने का हक़ है,” तो वह केवल खुद की रक्षा नहीं कर रही होती, बल्कि वह पितृसत्ता की जड़ों को चुनौती दे रही होती है। आत्म-दया, स्त्री के लिए मानसिक स्वास्थ्य का साधन होने के साथ-साथ एक मौन विद्रोह भी है।
सीता और पितृसत्ता: आदर्श स्त्री
भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं में सीता को एक आदर्श स्त्री के रूप में स्थापित किया गया है — जो पति के प्रति पूर्णतः समर्पित, कर्तव्यनिष्ठ, सहनशील और मौन में गरिमा खोजने वाली महिला है। लेकिन यही आदर्श स्त्री की छवि सदियों से पितृसत्ता की सबसे मजबूत नींव भी रही है। सीता की सहनशीलता, उसका मौन, और उसका “शिकायत न करना” — इन गुणों को स्त्रीत्व की पहचान बना दिया गया, जिससे समाज ने यह संदेश दिया कि एक “अच्छी स्त्री” वही होती है जो दर्द में भी मुस्कुराए और अन्याय को भी तपस्या माने।पितृसत्ता ने सीता की इस छवि को सामाजिक संरचना का हिस्सा बना दिया — ताकि हर स्त्री को यह सिखाया जा सके कि उसे भी अपनी आवाज़ नहीं, त्याग को चुनना है। इस तरह की सोच ने महिलाओं के भीतर आत्म-दया की भावना को कुचल दिया, क्योंकि उन्हें अपने दर्द को महसूस करने, उसे स्वीकार करने और उसके लिए करुणा रखने का अवसर हीनहीं दिया गया। दर्द को दबाना, भावनाओं को छिपाना, और कभी अपने लिए न लड़ना — यही आदर्श बन गया।
हालाँकि, इस एकतरफा दृष्टिकोण के समानांतर कुछ साहित्यिक रचनाएं सीता को एक सजीव, अनुभवशील और प्रतिरोधी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करती हैं। जैसे कि चंद्रावती की रामायण — जो सीता को केवल राम की पत्नी नहीं, बल्कि एक ऐसी स्त्री के रूप में दिखाती है जो अपने दुःख को बोलने की हिम्मत रखती है, और जो अपने अनुभवों को मौन में नहीं, स्वर में व्यक्त करती है। इसी तरह, चित्रा बनर्जी दिवाकरुणी के उपन्यास The Forest of Enchantments में सीता की कहानी को उसकी भीतर की आवाज़ से सुनाया गया है, जहाँ वह अपने अधिकार, पीड़ा और अस्तित्व की राजनीति को समझती और सवाल करती है।
पितृसत्ता का प्रभाव केवल बाह्य स्वतंत्रताओं या सामाजिक भूमिकाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह स्त्रियों के मानसिक स्वास्थ्य और उनके ‘स्व’ की समझ पर भी गहरा असर डालता है। हाल ही में एक गुणात्मक (qualitative) शोध अध्ययन में यह सामने आया है कि पितृसत्तात्मक ढांचे में जीने वाली स्त्रियाँ अक्सर आत्महीनता, आत्म-संदेह, कम आत्म-सम्मान और चिंता (anxiety) जैसे मानसिक संघर्षों का सामना करती हैं। यह अध्ययन इस बात को उजागर करता है कि लिंग आधारित भेदभाव, यौन वस्तुकरण, सांस्कृतिक वर्जनाएँ और सामाजिक अपेक्षाएँ, स्त्रियों में आत्म-दया की भावना को बाधित करती हैं।
पितृसत्ता स्त्रियों के लिए यह निर्धारित करती है कि उन्हें कैसे बोलना है, कैसे जीना है और कैसे सहना है। इस नियंत्रण का परिणाम यह होता है कि महिलाएं अपने दुख, असंतोष या असहमति को दबाना सीख जाती हैं — और यही repress की प्रक्रिया उन्हें धीरे-धीरे खुद से दूर कर देती है। इस मानसिक दबाव में पली-बढ़ी स्त्री अपने लिए करुणा महसूस करना या खुद के पक्ष में खड़ा होना गलत मानने लगती है। इस प्रकार, आत्म-दया की कमी केवल एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक सामाजिक संरचना की उपज है, जो उन्हें लगातार “अच्छी स्त्री” बने रहने के लिए प्रेरित करती है।
निष्कर्ष
पितृसत्ता केवल एक सामाजिक ढाँचा नहीं है, बल्कि वह अदृश्य जाल है जो स्त्री की सोच, संवेदना और आत्म-छवि को नियंत्रित करता है। यह व्यवस्था महिलाओं को त्याग, सहनशीलता और चुप्पी का पाठ पढ़ाकर उन्हें यह यकीन दिलाती है कि उनकी सबसे बड़ी पहचान दूसरों के लिए जीने में है — न कि खुद के लिए। परिणामस्वरूप, महिलाएं न केवल अपने अधिकारों से बल्कि अपने ही प्रति करुणा (Self-Compassion) रखने के हक़ से भी वंचित हो जाती हैं।
सीता का आदर्श स्त्री बन जाना, और उनके मौन को महानता का प्रतीक मानना, दरअसल उस पितृसत्ता की योजना है जो स्त्री को उसकी पीड़ा में भी गरिमा ढूँढने को मजबूर करती है। लेकिन जैसे-जैसे साहित्य, मनोविज्ञान और नारीवादी दृष्टिकोणों के माध्यम से इस चुप्पी को पढ़ा और समझा गया है, यह स्पष्ट होता है कि सीता की कथा केवल आदर्श की नहीं, असंतोष और पीड़ा की भी कथा है — एक ऐसी पीड़ा जिसे पीढ़ियों की स्त्रियों ने भीतर ही भीतर जिया है।
शोध यह दर्शाते हैं कि महिलाओं में आत्म-दया की कमी केवल उनके स्वभाव की बात नहीं, बल्कि यह एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दमन का परिणाम है। सामाजिक अपेक्षाओं, यौनिकता पर नियंत्रण, भावनात्मक अभिव्यक्ति पर रोक और “अच्छी स्त्री” बनने का दबाव — ये सभी स्त्री को खुद से अलग कर देते हैं। वह अपने आंसुओं, थकावट, क्रोध और दुख के लिए खुद को दोषी मानने लगती है, न कि उन सामाजिक संरचनाओं को जो ये भावनाएं जन्म देती हैं।
लेकिन इस मौन के बीच भी उम्मीद की किरण है — जब कोई स्त्री कहती है कि “मुझे भी थकने, रोने, दुखी होने और समझे जाने का हक़ है”, तब वह केवल अपनी ही नहीं, हर उस स्त्री की आवाज़ बनती है जो चुप रह गई थी। आत्म-दया को अपनाना, आज की स्त्री के लिए केवल एक मानसिक चिकित्सा नहीं है — वह एक आंदोलन है, प्रतिरोध है और पुनर्जागरण है।
अतः, यदि हमें एक मानसिक रूप से स्वस्थ, आत्मसजग और सशक्त समाज बनाना है, तो स्त्रियों को आत्म-दया सिखाना होगा — न केवल व्यक्तिगत कल्याण के लिए, बल्कि एक पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देने वाले मौन विद्रोह के रूप में ।
सन्दर्भ-
Devi, R., & Raghav, P. (2023). Deconstructing Sita: A study of female ‘self’ under patriarchy. IIS University Journal of Arts, 12(3&4), 74–85. ISSN: 2319-5339 (Print), 2583-7591 (Online).
Kaur, K. (2023). The impact of patriarchy on women’s mental health and well-being. Journal of Emerging Technologies and Innovative Research (JETIR), 10(5), https://www.jetir.org/view?paper=JETIR2305444
Neff, K. D. (2003). Self-compassion: An alternative conceptualization of a healthy attitude toward oneself. Self and Identity, 2(2), 85–101. https://doi.org/10.1080/15298860309032
Yarnell, L. M., Stafford, R. E., Neff, K. D., Reilly, E. D., Knox, M. C., & Mullarkey, M. (2015). Meta‐analysis of gender differences in self‐compassion. Self and Identity, 14(5), 499–520.
सभी चित्र गूगल से साभार
दिक्षा भदौरिया
शोधार्थी, मनोविज्ञान विभाग
बनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान
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