प्रियदर्शन की कहानी “न्यू नॉर्मल” की समीक्षा

आज के तकनीकी डिजिटल युग में “न्यू नार्मल” एक लोकप्रिय किंतु विरोधाभासी अवधारणा बन चुकी है, जो न केवल हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को पुनर्परिभाषित कर रही है बल्कि मनुष्य के अस्तित्व, संवेदना और विचारधारा के आयामों को भी बदल रही है।“न्यू नार्मल” वास्तव में एक मानसिक अवस्था है। कोरोना काल के बाद “न्यू नार्मल” शब्द हमारे जीवन की एक स्थायी जीवनशैली जैसे मास्क, सोशल डिस्टेंस, वर्क फ्रॉम होम, आदि के रूप में प्रचारित हुआ। ‘हंस’ पत्रिका में प्रकाशित प्रियदर्शन की कहानी “न्यू नॉर्मल” इस संकल्पना को मीडिया-हाउस की एक छोटी-सी घटना के माध्यम से व्यापक सामाजिक, राजनैतिक और तकनीकी परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करती है। कहानी “न्यू नार्मल” को गहन वैचारिक और मानसिक अवधारणा के रूप में प्रस्तुत करती है। संक्रमण के दौर में उत्पन्न होने वाली परिस्थितियाँ , जिन्हें लगातार दोहराए जाने के कारण सामान्य मान लिया जाता है, न्यू नार्मल बन जाता है । कहानी में नई- नई पत्रकार प्रेरणा के संवाद  स्पष्ट करते हैं कि सरकार की आलोचना न करना आज “न्यू नार्मल” है।  जो दर्शाता है कि सत्ता और पूँजी की संरचना का हिस्सा बन चुका मीडिया की कार्यप्रणाली “न्यू नार्मल” हो चुकी है जिसमें सरकार की वैचारिक असहमति और उनकी आलोचना अब असामान्य है। कहानी का केंद्रीय तत्व इस बात पर टिका है कि कार्य स्थलों पर आज व्यवस्था और अनुशासन के नाम पर जो नीति-नियम स्थापित किये जाते हैं  वे वास्तव में कर्मचारियों के रूप में नागरिक की स्वतंत्रता, रचनात्मकता और आत्म सम्मान समाप्त करने का उपक्रम है । “न्यू नार्मल” के तहत कार्य स्थलों पर बायोमेट्रिक मशीन , स्कैनर, कैमरे, स्वाइप कार्ड या अन्य तकनीकी साधन केवल उपस्थिति दर्ज करने के लिए ही नहीं है बल्कि इसके माध्यम से कर्मचारियों की गतिविधियों व्यवहार और सोच पर भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नजर रखी जाती है और चूंकि कर्मचारियों को मालूम भी है कि उन पर नजर रखी जा रही है वे खुद को असुरक्षित अनुभव करते हुए डर के माहौल में जी रहे हैं । इस असामान्य विषम माहौल में भी सत्ता के खिलाफ कोई बोलने को भी तैयार नहीं । कहानी में बार-बार सवाल उठाती है- “यार लोग इतना डरते क्यों हैं”? यह डर दरअसल उस व्यवस्था का है, जहाँ संवेदना के लिए जगह नहीं केवल अनुशासन का महत्व है , धीरे धीरे कर्मचारी इसके अभ्यस्त हो जाते है और इस प्रक्रिया में असामान्य स्थितियाँ भी सामान्य प्रतीत होने लगती हैं।  

कहानी का आरम्भ मीडिया हाउस में घटित एक मामूली घटना से होता है जब वे बायोमेट्रिक सिस्टम के दरवाज़े के न खुलने पर जबरदस्ती धकेल कर आगे बढ़ते हैं लेकिन सायरन बज उठता है और मैनेजरनुमा व्यक्ति उन दोनों पत्रकारों को चोर-डाकू कहता है, तिसपर उनके संसथान के प्रबंधक उन्हीं से माफ़ीनामा की मांग करते हैं तो उनके अहम को ठेस पहुँचती है वे माफ़ी न मांगने का फैसला लेते हैं धीरे-धीरे बाकी कलीग्स उनका साथ देने को तैयार हो जाते हैं और बिना माफ़ी मांगे ही अंत में उन्हें मानो माफ़ कर दिया जाता है जो कहानी को विडम्बनापूर्ण बनाती है। आरम्भ में ही कहानी के मूल बिंदु को स्थापित कर दिया गया है “उसने ठंडी सांस ली यह नॉर्मल है… न्यू नॉर्मल, फिर उसने माहौल हल्का करने के लिए कहा “अब हम टेक्नोलॉजी के गुलाम हैं  उसके इशारे पर ही चलते हैं” नवीन ने संशोधित किया “टेक्नोलॉजी के नहीं, उन लोगों के जिन्होंने ये टेक्नोलॉजी लगाई है” यह पूंजीवादी शक्तियों के उस नए चेहरे की ओर इशारा है जो बायोमेट्रिक सिस्टम AI जैसे तकनीकी टूल्स के ज़रिए मनुष्य की पहचान को आंकड़ों में बदल देती हैं। बायोमेट्रिक सिस्टम द्वारा कर्मचारियों को नियंत्रित करना सम्पूर्णता में उनकी पहचान को रद्द कर देना है, जो मानवीय गरिमा को खंडित कर रहा है। तकनीक और पूंजी की मिलीभगत ने पत्रकारिता के मिशन को “प्रोफ़ेशन” में और जनता जिसके हक़ में उसे आवाज़ उठानी चाहिए उसे “प्रोडक्ट”  में बदल दिया है। “एक तारीख को सैलरी लो और बाकी 30 दिन वह लिखो जो मालिक को भी रास आए और प्रधानमंत्री को भी” बिना किसी लाग लपेट के इतना स्पष्ट और बेबाक लिखने के लिए कहानीकार बधाई के पात्र हैं । यह वाक्य  ‘पत्रकारिता के कॉर्पोरेट हाउस में रूपांतरण’ का उद्घोष है। जो इस यथार्थ को सामने रखने का साहस करता है कि मीडिया हाउस अब सिर्फ ख़बरों का माध्यम नहीं है बल्कि सत्तातंत्र का अभिन्न अंग बन चुका है।

अगर अभिषेक और नवीन की बात करें तो दोनों में पत्रकारिता के आदर्श  बाकी हैं, लेकिन भय, असुरक्षा और निराशा के वातावरण में तो वे भी जी रहे हैं। पत्रकारिता का पतन का उस केन्द्रीय घटना से जुड़ता है जब इन दोनों पत्रकारों को बिना अपराध के “चोर-डाकू” जैसे शब्दों से अपमानित किया जाता  है जो वास्तव में आज की मीडिया के ‘चरित्र-हनन’ की ओर भी संकेत करता है जो सत्ता के नियंत्रण में ख़बरों के ‘नैरेटिव सेट’ करता है। कर्मचारियों में तब्दील पत्रकारों का वजूद अथवा ‘एंकर्स’ जिनका काम अब खबरों में ‘वाहियात एंगल’ (साम्प्रदायिक या जो ट्रेंड में है ) खोजना जैसे कुंभ में भगदड़ की रिपोर्टिंग से पहले नॉरेटिव सेट करना हो गया है, उस पर विडम्बना कि दर्शक या जनता को भी खबरों में रोमांच या मसाला चाहिए । जिसके वे अभ्यस्त हो चुके हैं, किये जा चुके हैं यह भी “न्यू नॉर्मल” है। बलात्कार या मॉब-लिंचिंग में नृशंस हत्याओं पर समाज का उदासीन रुख ‘ब्रेन राट’ की स्थिति को इंगित करता है अथवा इसे संवेदनहीनता का सामान्यीकरण कहा जा सकता है। वास्तव में हम जितना ज्यादा सूचना संपन्न हो रहे हैं उतने ही ज्यादा संज्ञा शून्य भी हो रहे हैं। हम असामान्य अत्याचार को भी सहजता से देख पाते हैं जो न्यू नॉर्मल है । आप कह सकते हैं कि हमारे मन मस्तिष्क के सॉफ्टवेयर निरंतर तकनीक की भांति अपडेटेड/ अद्यतन होते जा रहे हैं मनुष्य अपने आप को परिस्थितियों के अनुकूल ढालना सीख रहा है इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि उसके पास विकल्प नहीं इसलिए भविष्य में कोई आशा नजर नहीं आ रही।

संवाद प्रधान ‘न्यू नार्मल’ कहानी की भाषा, प्रतीक और व्यंग्य सामाजिक यथार्थ को प्रकट करते है। संवादों में लेखक ने तीव्र प्रभाव उत्पन्न किया है- “यह गाड़ियाँ किसके लिए रेस लगा रही हैं”? या “पेड़ के पत्ते जितने शांत दिखते हैं, उतने हैं नहीं”  जैसे वाक्य सामाजिक असंतोष और मानसिक हलचल के प्रतीक हैं। कॉरपोरेट जगत में “माफ़ी”  की माँग, चुपचाप अपमान सह लेना ये सब मनुष्य के आत्मसम्मान को कुचलने वाली सत्ता की सूक्ष्म क्रूरता को उजागर करते हैं। समाज की पितृसत्तात्मक संरचना की यदि बात करें तो यहाँ अभी पुराना वाला ‘नार्मल’ ही लागू है,समाज में स्त्री के प्रति ‘व्यवहार’ अथवा भाषा प्रयोग आज भी सदियों पुराना है । कहानी में विनीता कपूर इसी मीडिया हाउस में एच.आर. कॉरपोरेट अधिकारी हैं लेकिन वह स्त्री सशक्तिकरण के रूप में न उभर कर सत्ता और पूँजीवाद की क्रूरता का मुखौटा प्रतीत होती है, उसकी स्मित मुस्कान व्यवस्था की कठोरता छिपा ले जाती है। कहना होगा कि पूँजीवादी सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाली विनीता कपूर का विनम्र व्यवहार और सुसंस्कृत भाषा “कॉर्पोरेट चेहरे” का प्रतीक है। दूसरी ओर व्यवस्था के विद्रोही नवीन का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण अब भी वही पुराना ‘नॉर्मल’ है। नवीन कहता है “इस विनीता कपूर से माफी नहीं माँगूंगा” तब प्रतुल पूछता है  “क्यों? क्या इसलिए कि वह लड़की है”?…लड़की होने से समस्या नहीं है, कुछ है जो खटक रहा है” यह “कुछ” वह सत्ता है जो स्त्री को मिली है, कोमलता के पीछे छिपी कठोरता आज भी पुरुष को असहज बनाती है। यह स्पष्ट करता है कि पितृसत्तात्मक समाज में जैसे ही स्त्री व्यवस्था का चेहरा बनती है, वह असहज लगने लगती है। वहाँ न्यू नार्मल का सिद्धांत लागू नहीं कर पाते।

“न्यू नॉर्मल” कहानी मात्र मीडिया हाउस की कहानी नहीं अपितु यह हमारे समय, समाज की लगातार बढ़ती अचेतना का आईना भी है।कहानी सवाल उठाती है कि क्या हम सच में परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल रहे हैं, या असहज स्थितियों को ‘सामान्य’ मान कर निष्क्रिय होते जा रहे हैं?  मनुष्य की संवेदनहीनता और मानसिक थकावट का प्रमाण है खबरों के बाद की बेचैनी अब नहीं रही।   जैसे “11 महीने से फ्रिज में रखी लाश की खबर” को लोग हँस-हँस कर साझा कर रहे हैं, यह मानवीय त्रासदी नहीं तो क्या है ? उपभोक्तावादी संस्कृति में ख़बरें मनोरंजक हो चुकी है । अंत में नवीन से प्रतुल का हाथ मिलाना भले ही एक आशा हो सकती थी कि  शायद “छोटी क्रांति” कभी तो “बड़ी क्रांति” का मार्ग प्रशस्त करेगी लेकिन यह भी कटु यथार्थ है कि पूंजीवादी तकनीक और सत्ता अंततः सबको अपने अनुरूप ढाल ही देती है। कहानी के पहले हिस्से में प्रियदर्शनजी  लिख चुके थे कि “पत्रकारिता के नाम पर क्रांति करने का जो कीड़ा तुम लोगों को दिमाग में घुसा है उसे निकाल दो जिसने नौकरी दी है उसके हितों का ख्याल रखो”। नवीन के दिमाग का कीड़ा बाद में देर तक भन्नाता रहा। जानता है आज जो लोग क्रांति के नाम पर साथ हैं भी कल को किसी संकट में साथ खड़े नहीं होंगे बल्कि उन्हें जरूरतमंद जानकार उसका शोषण करने लगे । अभिषेक ने तो अपने भीतर के कीड़े को बहुत दूर तक सुला दिया है, नवीन की तरह से यह कीड़ा काटता नहीं है बस उदास कर जाता है। अंत में “लेकिन असली बात नवीन ने कही-हां, छोटी क्रांति रंग लाई ताकि बड़ी क्रांति का स्कोप न रहे”। यानी क्रांति का कीड़ा बड़ा अजगर न हो पाए, उसके पहले ही उसे थपकी देकर सुला दो “आखिर हम काम तो उन्हीं का कर रहे हैं, उन्हीं के ढंग से कर रहे हैं, तो हमें क्यों छेड़ते।  थोड़ा-सा गुमान बचा रहने दिया” । बड़े तंत्र केवल उतना ही बदलाव स्वीकार करते हैं जिससे उनकी सत्ता पर कोई आंच ना आए छोटी-छोटी और बदलाव की संभावना भी ना रहे अंत में यह वाक्य कि “यह बहुत बड़ा सुनहरा पिंजरा है जिसमें हम कैद है और यह भी न्यू नॉर्मल है “न्यू  नार्मल” के इस पिंजरे में हमारे पास ज्यादा संभावनाएं नहीं है विकल्प नहीं है।

वस्तुत: जनता के पास विरोध या विद्रोह के लिए विकल्प कहाँ बचे? सोशल मीडिया पर चारों ओर रील्स ने रियल्टी पर मनोरंजन का आवरण चढ़ा रखा है उसी में दो घड़ी की खुशी ढूंढ ली जाती हैं। हरि भटनागर की कहानी “आपत्ति” में देख सकते हैं कि अकेले प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति का क्या हश्र होता है, जब भौंकने वाले कुत्ते उसे नोंच खाने को दौड़ते हैं जबकि प्रियदर्शन जी की ही कहानी ‘देश के लिए’ के नायक को तो गोली ही मार दी जाती है। कहानी में “कृपया अनुशासन बनाए रखें, लिफ्ट की प्रतीक्षा करें और एक-एक करके प्रवेश करें” सोचने पर विवश करता है कि हम मशीन द्वारा संचालित हो रहे हैं, होना ही पड़ेगा और यह “न्यू नॉर्मल” है। “न्यू नॉर्मल” ऐसा मुहावरा बन चुका है कि जो समय-कुसमय की कसौटी पर खरा उतरेगा है वही आगे बढ़ सकता है। इस प्रकार “न्यू नॉर्मल”  केवल  जीवन-शैली का बदलाव भर नहीं,या पारिस्थितिक अनुकूलन भर भी नहीं अपितु  संवेदनाओं का ह्रास है। डिजिटल कंट्रोल,ख़बरों का मनमाना विकृतिकरण, संवेदनहीनता और भीड़तंत्र की मानसिकता सब मिलकर हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं जहाँ किसी एक विद्रोह की आवाज़ असहज लग सकती है जबकि घटनाओं, दुर्घटनाओं,युद्धों की विभीषिकाओं का ‘न्यू नार्मल’ सामाजिक, मानसिक और राजनीतिक असामान्यता का सुंदर मुखौटा है जिसे स्वीकार कर लेना सहज बन चुका है इस असामान्यता के इतने अभ्यस्त कर दिए गए हैं कि प्रतिकार/प्रतिक्रिया  करना ही भूल गये हैं। कहानी के अंत में प्रतुल कह रहा था ‘एक तेंदुआ कुएं में गिर पड़ा है, कुछ देर इसी पर “खेल लो” !  यह ‘खेलना’ पूँजीवाद के कॉरपोरेट जगत का बड़ा ही महत्वपूर्ण शब्द है जिसके लिए हर बात ‘खेल’ है, आपके पास पैसा है तो आप किसी के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं। अंत में यह कहना चाहूंगी कि “न्यू नार्मल” संकल्पना के तहत यदि साहित्य अध्ययन किया जाए तो मनुष्य की संवेदनशीलता के ह्रास पर चिंतन के नए आयाम खुलेगे जो विमर्शों की सीमाओं स्वतंत्र होंगे, विमर्श जो सत्ता और पूँजी के खेल बन चुके हैं।

स्त्रीकाल के यूट्यूब चैनल पर आप इस कहानी पर संवाद देख-सुन सकते हैं|

https://youtu.be/7yRewgQbAPw  

      

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles