‘जाति’ या जातिवाद शब्द पर अक्सर सुनने को मिलता है, यह सब आजकल कहां होता है? अब सब बराबर हैं। देखो हमारे देश के प्रधानमंत्री ओबीसी हैं, राष्ट्रपति आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक दलित महिला राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और सत्ता पर अपनी मजबूती आज भी बनाए हुए हैं। सब पढ़-लिख रहे हैं, अब कहां जातिवाद? यह कहते हुए हम अगली पंक्ति में यह भी बोलते हैं कि इसके नंबर कम थे लेकिन मुझसे बढ़िया कॉलेज में एडमिशन मिला है। कोटा का फायदा होता है। ऐसा कहने वाले बहुत सारे लोग खुद ईड्ब्ल्यूएस, एससी, एसटी, ओबीसी के फर्जी प्रमाण-पत्र बनवाकर इन विद्यार्थियों की सुविधाओं को हड़पते हैं।
धड़क2 फिल्म शुरू होती है एक मर्डर से जिसमें एक लड़का-लड़की साथ समय बिताते हैं। कुछ देर में लड़की चली जाती है, तब एक व्यक्ति लड़के के पास आता है। उसके कमरे में डॉ अंबेडकर की फोटो, लिखा हुआ जय भीम, बुद्ध की तस्वीर देखकर गुस्से से भर जाता है| कुछ देर बाद वह आदमी उस लड़के को नीचे फेंक देता है| लोगों ने माना कि तनाव में आकर उस लड़के ने आत्महत्या की है| कोई कहता दारू के नशे में नीचे गिर गया है।
धड़क 2, नीलेश और विधि की कहानी है। नीलेश ढोल बजता है वह दलित बस्ती में रहने वाला एक विद्यार्थी है, जिसके पिता लौंडा नाच में लड़की का वेश धारण कर नाचते हैं। उसे अपने पिता के काम से शर्म महसूस होती है। नीलेश की मां जाति-व्यवस्था के दंश को समझने वाली एक समझदार महिला है। वह यह भी जानती हैं कि पढ़ने से ही उनके परिवार और समाज की स्थिति में परिवर्तन आ सकता है, इसीलिए वह अपने बेटे का एडमिशन ‘इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ’ में करवाती है| यहां नीलेश की दोस्ती विधि से होती है, दोनों में एक दूसरे के प्रति भावनाएं भी हैं| विधि को यह बात समझने में काफी परेशानी होती है कि उसके और नीलेश के बीच ऐसा क्या है, जो वह साथ नहीं रह सकते, प्यार नहीं कर सकते| विधि समाज के जातिवाद को न समझना चाहती न मानती है।
नीलेश को कभी उसकी हिंदी, कभी सरनेम पूछकर, उसपर कोटा से आए मुफ्त में पढ़ने वाले, उसकी सीट पीछे निर्धारित करके, बार-बार जातिवादी लोगों द्वारा हमले किए जाते हैं। विधि की बहन की शादी में नीलेश के साथ मारपीट की जाती है और उसपर पेशाब किया जाता है। शेखर फिल्म में एक अंबेडकरवादी विचारधारा छात्र दिखाया गया है, घर आर्थिक रूप से कमजोर फेलोशिप पर चलता है| वह बार-बार फिल्म में तर्क करता है कि आरक्षण जरूरी है और जातिवाद को खत्म करने पर आरक्षण की जरूरत भी खत्म हो जाएगी| जातिवादी मानसिकता वाले लोग उसकी फैलोशिप रोक लेते हैं जिससे वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। यहां यह कहानी हैदराबाद के होनहार विद्यार्थी रोहित वेमुला की याद दिलाती है और अधिकांश दर्शक शेखर की इस संस्थागत हत्या पर भावुक हो जाते हैं।
फिल्म के आरंभ में मर्डर करने वाला व्यक्ति अंत तक कई हत्याएं करता है। उसने अपनी बहन को भी इसलिए मार दिया था क्योंकि वह किसी से प्रेम करती थी। उसकी नजर में यह काम समाज की सफाई का है, इसीलिए वह इस काम को बहुत शिद्दत के साथ करता है। फिल्म के दूसरे भाग में जातिवाद झेलता नायक, नायिका से दूर होना चाहता है ताकि व्यवस्था उसे चैन से जीने दे। नायिका का भाई ऐसा होने नहीं देता। वह बार-बार नीलेश को अपमानित करता है। यूनिवर्सिटी में उस पर सीवर का पानी फेंका जाता है। उसके साथ मारपीट, क्रूर व्यवहार किया जाता है उसे बार बार यह बताने की कोशिश की जाती है कि वह कोटा से आया है इसलिए उसमें काबिलियत नहीं है। उसके पिता को उनके पेशे के कारण अपमानित किया जाता है। यूनिवर्सिटी में उनके कपड़े उतार कर उन्हें अपमानित किया जाता है। नायक, नायिका को बार-बार समझाता है कि लोगों में जातिवाद इतना है कि दलित जातियों द्वारा इस्तेमाल होने वाले पानी में पेशाब करना, नीलेश के प्रिय कुत्ते को मार देना, उसपर जानलेवा हमले करवाना उनके लिए एक साधारण सी बात है| रौनक भारद्वाज हत्यारे (शंकर) को सुपारी देता है ताकि नीलेश और विधि का प्रेम न बढ़ पाए और इज्जत बच जाए|

कहानी अंत में एक नया मोड़ लेती है| कहानी का आरंभ जातिवाद के विरोध से शुरू होता है| कहानी पढ़ने और लड़ने तक चलती है| समाज में निम्न जाति के साथ हुए व्यवहार पर कहानी टिकी है लेकिन उसका अंत पूरी फिल्म के भाव को बदल देता है| नीलेश की हत्या करने के लिए भेजा गया शंकर अपने काम में असफल होता है। नीलेश लगभग मरने की अवस्था में था लेकिन पुरानी फिल्म के हीरो की तरह अंत में उसमें शक्ति आती है और अपने और दूसरों के साथ हुए अन्याय भी उसे याद आने लगते हैं। वह पूरी ताकत के साथ शंकर को मारता है और उसे लगभग अधमरा छोड़कर रौनक के पीछे दौड़ता है। वह विधि भारद्वाज के घर जाकर रौनक को खूब मारता है और अंत में उसका एक वार चुकने पर रौनक मरते-मरते बचता है। फिल्म के अंतिम दृश्य में नीलेश पेपर में आगे की सीट पर बैठा है उसका पेन खत्म हो गया है वह अपने पेन से ही लिखने की कोशिश में है उसके पीछे रौनक बैठा है और वह उसे अपना पैन देता है। पेन देते हुए रौनक के चेहरे पर मुस्कान है। यहाँ रौनक के हृदय परिवर्तन को दिखाने की फिल्म में कोशिश की गई है। यह वही रौनक है जो नीलेश को आगे की सीट पर बैठने की कारण बहुत मारता है, उसके दोस्त उसे मरते हैं। अंत में हृदय परिवर्तन होने पर नीलेश आगे की सीट पर बैठा हुआ दिखाई देता है।
यहाँ सवाल उठता है कि क्या मारपीट से हृदय परिवर्तन संभव है? और किसका हृदय परिवर्तन हुआ है? क्या उन सभी विद्यार्थियों का जो यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं? क्या लॉ यूनिवर्सिटी के त्रिपाठी सर का जातिवादी दिमाग भी रौनक की पिटाई से ठीक हो जाता है? मारपीट सिर्फ रौनक के साथ हुई थी क्या सिर्फ इसके आधार पर सबका हृदय परिवर्तन संभव है? और इस आधार पर क्या यह फिल्म पढ़ने की बजाय लड़ने का संदेश नहीं दे रही है? फिल्म ने प्रारम्भ में अच्छे प्रश्न उठाए थे। दलित छात्रों की संस्थानिक हत्या, फेलोशिप की जरूरत, पढ़ाई की ताकत, (प्रिंसिपल का एक वाक्य है कि जो जुलाहा कह कहकर चिढ़ाते थे, आज वही बच्चों के एडमिशन के लिए हाथ जोड़ते हैं), लौंडा नाच करने वालों की स्थिति, उभरती स्त्री छवि (ऋचा का छात्र आंदोलन में सक्रिय होना) जैसे मुद्दों को लेकर शुरू हुई फिल्म हृदय परिवर्तन और एक व्यक्तिगत बदलाव पर खत्म होती है, जो कि संभव नहीं है| हैप्पी एंडिंग दिखाने के लालच में निर्माता-निर्देशक मुख्य बिंदुओं से अंत में कहीं भटक गए|
फिल्म के कुछ दृश्य बेहद मार्मिक, संवेदनशील और हिट करने वाले हैं। पहला दृश्य प्रिंसिपल और नीलेश का है| डॉ आंबेडकर, सावित्रीबाई फुले की तस्वीर के ठीक आगे पढ़ाई की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले नीलेश और प्रिंसिपल|
फिल्म में शेखर की आत्महत्या के ठीक पीछे अंबेडकर की तस्वीर भी एक संवेदना जागती है| साथ ही दीवार पर नीले रंग से लिखे शब्द| नीलेश जब अपने चेहरे पर हाथ रखता है तो वह नीला रंग उसके चेहरे पर लग जाता है यहां दर्शन यह उम्मीद करता है कि शायद अब वह अंबेडकरवादी विचारधारा को आगे बढ़ाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
भले ही संविधान में सभी को पढ़ने का अधिकार दिया गया है लेकिन आज भी बहुत से विद्यार्थी जातिवादी मानसिकता के कारण स्कूल, विश्वविद्यालय छोड़ने को मजबूर हैं। यदि वह किसी तरीके से पढ़ाई पूरी कर भी लेते हैं तो उनको विभिन्न तरीकों से परेशान करने किया जाता है बहुत से छात्र इन्हीं सब तनावों के कारण आत्महत्या कर रहे हैं फिल्म इस बिंदु को भी उकेरती है।
फिल्म में नीलेश की मां पर पुलिस वाले का थप्पड़ पूरी व्यवस्था को दिखाता है कि कैसे महिलाएं खासकर दलित, गरीब महिलाएं पुलिसिया तंत्र से शोषित होती हैं। फिल्म में कीचड़ का पानी जब फेंका जाता है तो विधि अपने भाई को मारने व गुस्सा करने लगती है, जिस पर रौनक का हाथ विधि तक उठता है जिसके बीच में नीलेश आता है और वही गंदा साना हाथ रौनक पर लगता है। यह दृश्य भी अपने आप में एक बड़ा विद्रोह पैदा करता है। विधि का अपने मोहल्ले में सबके सामने नीलेश के साथ खड़े होना और जोर से चिल्लाना भी एक मार्मिक और संवेदनशील दृश्य है और विधि द्वारा यह अप्रत्यक्ष रूप से ऐलान भी है कि वह रौनक की बजाय नीलेश के साथ है।
कुल मिलाकर फिल्म में कई ज्वलंत और महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया गया है। जातिवाद एक ऐसा जहर है जो हमें दिखाई नहीं देता लेकिन कम या ज्यादा मात्रा में हम भारतीय इससे ग्रसित ही हैं जरूरत है इसे पहचानने और खत्म करने की।
आरती रानी प्रजापति
स्वतंत्र लेखक
चित्र गूगल से साभार
स्त्री काल के यूट्यूब चैनल पर इस फिल्म पर संवाद देखा जा सकता है
https://www.youtube.com/live/DWCWiIVy2-c?si=PDL6jvtI6bQtsV1O