क्यों विवादों में है बिहार सरकार का राजभाषा पुरस्कार

लेखक : विनय कुमार सिंह

साहित्य अकादेमी के पदाधिकारियों की इंट्री राजभाषा विभाग में रामवचन राय की वजह से होती रही है। राजभाषा विभाग में पुरस्कारों की बंदरबांट साहित्य अकादेमी के इन्हीं लोगों के कारण होती रही है। रामवचन राय से पहले प्रेमकुमार मणि नीतीश कुमार के खासम-खास होते थे, तो उन्होंने इसकी कमिटियों में नामवर सिंह, मैनेजर पांडे और देवेंद्र चौबे जैसे सवर्ण लेखकों को शामिल करवाया। उस दौर में भी बिहार के बहुत सारे लेखक इस पुरस्कार से वंचित रहे। इन नामवर लेखकों ने भी यहां आकर अपने ही भाई बंधुओं और परिचितों को सम्मानित करवाया।

मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग (राजभाषा) द्वारा वित्तीय वर्ष- 2023-24 के लिए ‘हिन्दी सेवी पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ ही विवाद शुरू हो गया है। विवाद की शुरुआत कवि, पत्रकार विमल कुमार ने सोशल मीडिया पर जारी अपने एक पत्र के माध्यम से किया। ज्ञात हो कि मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग (राजभाषा) द्वारा राष्ट्रकवि दिनकर सम्मान दिये जाने संबंधी पत्र विमल कुमार को प्रेषित किया था। जिसे उन्होंने लेने से अस्वीकार कर दिया। विवाद का एक तगड़ा प्रकरण अभी सामने आया है। राजभाषा ने डॉ. के श्रीनिवास राव को बाबू गंगा शरण सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया है। राव साहित्य अकादेमी दिल्ली के सचिव हैं और यह वही शख्स हैं, जिन्होंने अपने ही संस्थान में काम करने वाली, एक महिला सहकर्मी के साथ यौन दुराचरण के आरोपी हैं। सन 2018 में उनपर जब उक्त महिला ने केस किया तो उसे एक साल बाद बर्खास्त कर दिया गया। उनका यह मामला कोर्ट में चल रहा था। अभी कोर्ट ने उस महिला की सेवा बहाल कर दी है और यह सख्त आदेश दिया है कि आरोप की जांच लोकल कमिटी से होनी चाहिए। विभाग ने इसबार तीन ऐसे लेखकों को पुरस्कृत किया है, जो पहले भी पुरस्कृत हो चुके हैं. ये घटनाएं बतलाती हैं कि साहित्य को लेकर यह विभाग, जो कि स्वयं मुख्यमंत्री का विभाग है, कितना लचर और यथास्थितिवाद का पोषण करने वाला है।


विभाग ने इस बार जिन 15 लेखकों को पुरस्कृत किया है उनमें ब्राह्मण जाति समुदाय के 7. भूमिहार के 3, कायस्थ के 2 और 1-1 लेखक बेलदार और दलित समाज से आनेवाले हैं। पुरस्कार पाने वालों की सूची में ओबीसी समाज का लेखक पूरी तरह से बाहर है। यह नीतीश कुमार का सवर्ण प्रभुत्व आधारित ऐसा छ‌द्म है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम होगी। यह गौरतलब है कि जिस बिहार में बहुजन समाज से आनेवाले लेखकों की एक बड़ी आबादी हिन्दी साहित्य में लिख रही है, बावजूद इसके पिछड़े वर्ग से एक भी लेखक को यह सम्मान नहीं दिया गया। यह उपेक्षा नीतीश कुमार की सरकार में ही संभव थी। यूं ही नहीं नीतीश यहां के सवर्णों के प्रिय हैं। बिहार में जिन जाति समूहों की आबादी 88 प्रतिशत है, इस पुरस्कार में उन्हें मात्र 2 पुरस्कार मिले हैं और जिनकी आबादी मात्र 12 प्रतिशत है, उसी सवर्ण जाति समूह के लोगों ने सारे-के-सारे पुरस्कार अपने खाते में डाल दिये।
वित्तीय वर्ष-2023-24-2024-25 के लिए हिन्दी सेवी पुरस्कार, सम्मान योजना के लिए गठित निर्णायक मंडल का अध्यक्ष डॉ-विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को बनाया गया था, जो पहले से ही पुरस्कार लेने और दिलवाने की जुगाड टेक्नोलॉजी के मास्टरमाइंड माने जाते रहे हैं। राजभाषा में उनकी पहुंच का माध्यम रामवचन राय रहे हैं, जो नीतीश कुमार के करीबी बतलाये जाते हैं। आगे हम बतलाएंगे कि रामवचन राय के कारण कैसे इस विभाग की विश्वसनीयता गर्क हुई है। निर्णायक मंडल में शामिल सदस्यों में डॉ. एस-सिद्धार्थ (दलित), डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल (बनिया), डॉ श्योराज सिंह बेचौन (दलित) डॉ. मंजुला राणा, अरुण कमल (ब्राह्मण) और डॉ नन्दकिशोर नंदन यादव शामिल थे। इन सभी निर्णायकों में एक भी ऐसे नहीं थे, जो समकालीन रचनाशीलता की श्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुन सकें। जाहिर है ये सभी के सभी जुगाड़ टेक्नोलेंजी से आये लोग थे। राजभाषा ने बी.पी. मंडल पुरस्कार शिवनारायण को दिया है। इससे पहले भी विभाग इन्हें 2003 में नागार्जुन सम्मान से सम्मानित कर चुकी है। फिर ऐसा क्या था कि दुबारा इन्हें सम्मानित किया गया? इसके पीछे भी जुगाड़ का पूरा तंत्र काम करता रहा है। शिवनारायण नई धारा पत्रिका के संपादक हैं। वह अरविंद
महिला कॉलेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हैं। वह जिस ‘नई धारा पत्रिका से जुड़े हैं, उसका स्वामित्व बिहार के चर्चित लेखक राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के परिवार का है।

यह संस्था भी हर साल अपने बैनर तले तीन पुरस्कार देती है। शिवनारायण ने कुछ वर्ष पूर्व राजभाषा पुरस्कार चयन समिति के वर्तमान अध्यक्ष डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को ‘नई धारा पुरस्कार, दिलवाया और बदले में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने उन्हें बी.पी. मंडल पुरस्कार देकर उपकृत किया। इससे जुड़ा एक और सच यह है कि जिस शिवनारायण को यह पुरस्कार दिया गया इसमें निर्णायक मंडल के एक और लेखक श्योराज सिंह बेचैन भी शामिल थे। उन्होंने भी खुलकर शिवनारायण को यह सम्मान दिये जाने का पक्ष लिया था, बदले में शिवनारायण ने उनकी पत्नी रजतरानी मीनू को ‘नई धारा रचना सम्मान 2025’ दे दिया। कुछ माह पूर्व भी ‘नई धारा विवादों में घिरा था। हिन्दी कवि कृष्ण कल्पित और एक युवा लेखिका को इस संस्था ने लेखक इन रेजीडेंसी नामक एक फलोशिप के लिए चयन किया था। उक्त कवि ने उस युवा लेखिका के साथ जबरिया यौन संबंध बनाने की कोशिश की, जिसके कारण वह विवादों में रहा। इस पूरे प्रकरण में संस्था ने कोई ऐसी पहल नहीं ली, जिसके कारण कल्पित को सजा दिलायी जा सके ।

विभाग द्वारा अब तक किसी भी गैर ब्राह्मण (सवर्ण) ओबीसी, दलित, अल्पसंख्यक या महिला साहित्यकारों की राशि वाला राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान नहीं मिला है। इस बार भी एक ब्राह्मण आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी को यह सम्मान दिया गया। यह वही आलोचक हैं जिनके प्रिय कवि तुलसी दास हैं। जिन पर उन्होंने तुलसी का देश’ नामक पुस्तक लिखी है। और जो फणीश्वरनाथ रेणु के गद्य को विचारहीन गद्य मानते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि किन लोगों ने और किन कारणों से ऐसे जातिवादी लोगों को बिहार के इन बड़े पुरस्कारों से विभूषित करने का निर्णय लिया। इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि चूंकि राजभाषा के अध्यक्ष आमतौर पर दिल्ली के लेखक ही होते रहे हैं और प्रायः

‘मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग (राजभाषा) द्वारा वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए ‘हिन्दी सेवी पुरस्कार की सूचीके लिए बिहार हलचल पत्रिका का यह इमेज देखें

वे सवर्ण जातियों से आते हैं, इसलिए आमतौर पर उनकी पहली पसंद उनकी अपनी ही जाति के दायरे के लेखक होते रहे हैं। यहां सवाल यह उठाया जा सकता है कि इनके चयन में कौन सा-मापदंड है जिसकी वजह से वे ही इसके अध्यक्ष बनते रहे हैं। इसका मूल कारण यह है कि चूंकि यह विभाग मुख्यमंत्री का है और उनके सभी कामों में प्रो. डॉ. रामवचन राय की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्रो. राय चूंकि अरसे से लगातार बिहार से साहित्य अकादेमी के सदस्य मनोनीत होते रहे हैं, इसलिए वह साहित्य अकादेमी में अपनी उपस्थिति की कीमत वहां से उनके पदाधिकारियों को राजभाषा में अध्यक्ष पद और पुरस्कार दिलवाकर पूरा करते रहे हैं। सच पूछा जाए तो इसके मास्टर माइंड रामवचन राय ही हैं।

इनकी ही कृपा से साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया था। वित्तीय वर्ष 2020-21 एवं 2021-22 के लिए गठित निर्णायक मंडल का अध्यक्ष माधव कौशिक थे, जो वर्तमान में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं। ज्ञात हो कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अकादमी के अध्यक्षपद से हटने के बाद अपने विश्वास पात्र डॉ. माधव कौशिक को अकादमी का अध्यक्ष बनवाया। डॉ. कौशिक ने इस उपकार का बदला डॉ. तिवारी को राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान से सम्मानित कर चुकाया।

वित्तीय वर्ष 2023-24 एवं 2024-25 के लिए ‘हिन्दी सेवी पुरस्कार, सम्मान योजना के लिए गठित निर्णायक मंडल के अध्यक्ष पद पर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। उन्होंने साहित्य अकादमी के सचिव डॉ के. श्रीनिवास राव को बाबू गंगा शरण सिंह पुरस्कार से पुरस्कृत किया। ज्ञात हो कि वर्ष 2018 में साहित्य अकादमी के सचिव डॉ के. श्रीनिवास राव पर उनकी एक महिला सहकर्मी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। अकादमी ने उन्हें यह कहकर नौकरी से निकाल दिया था कि उन्होंने काम में खराब प्रदर्शन किया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अकादमी के इस कदम को न केवल अनुचित और अवैध बताया बल्कि बदले की कार्रवाई माना है। 28 अगस्त, 2025 को सुनाये गए फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अकादमी और सचिव दोनों की दलीलों को पूरी तरह से खारिज करते हुए पीड़ित महिला को उनके पद पर दोबारा बहाल कर दिया है। फैसला आने के पांच दिनपूर्व 23 अगस्त 2025 को ऐसे चरित्रहीन व्यक्ति को बिहार सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सम्मानित करते हैं। इससे मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग राजभाषा ही नहीं बल्कि पूरी चयन समिति पर प्रश्न उठना लाजिमी है।

साहित्य अकादेमी के पदाधिकारियों की इंट्री राजभाषा विभाग में रामवचन राय की वजह से होती रही है। राजभाषा विभाग में पुरस्कारों की बंदरबांट साहित्य अकादेमी के इन्हीं लोगों के कारण होती रही है। रामवचन राय से पहले प्रेमकुमार मणि नीतीश कुमार के खासम-खास होते थे, तो उन्होंने इसकी कमिटियों में नामवर सिंह, मैनेजर पांडे और देवेंद्र चौबे जैसे सवर्ण लेखकों को शामिल करवाया। उस दौर में भी बिहार के बहुत सारे लेखक इस पुरस्कार से वंचित रहे। इन नामवर लेखकों ने भी यहां आकर अपने ही भाई बंधुओं और परिचितों को सम्मानित करवाया।

नामवर सिंह ने स्वयं अपने छोटे भाई काशीनाथ सिंह को यह सम्मान दिलवाया, जबकि राजभाषा में यह स्पष्ट नियम है कि पुरस्कार निर्णायक से जुड़े लोगों के किसी संबंधी को नहीं दिया जा सकता। पाठकों का यह सवाल उठ सकता है कि कौन से मूर्धन्य आलोचक, लेखक हैं, जिन्हें यह सम्मान दिया जाना चाहिए था ? राणा प्रताप, तारानंद वियोगी, सुरेंद्र नारायण यादव, कमलेश वर्मा, राजेंद्र प्रसाद सिंह, अनंत आदि कई लेखक, साहित्यकारों को आज तक यह सम्मान नहीं दिया गया। यह एक खास पैटर्न की ओर स्पष्ट संकेत देता है। किसी पुरस्कार के दिये जाने का मापदंड यह होना चाहिए कि कौन-सा वह लेखक है, जो समकालीन हिन्दी रचनाशीलता के बड़े सवालों को व्यापक ढंग से उठा रहा है, अगर यह कसौटी होती तो हिन्दी में यह सम्मान ओमप्रकाश कश्यप, वीरेंद्र यादव, अश्विनी कुमार पंकज, कमलेश वर्मा, राजेंद्र प्रसाद सिंह सरीखे लेखकों को मिलना चाहिए था, जो अपने समय की रचनाशीलता को अपने तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन उन्हें यह पुरस्कार इसलिए नहीं दिया गया, क्योंकि निर्णायक मंडल के अध्यक्ष ब्राह्मण बनते रहे हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य बंदरबांटतक ही सीमित होते रहे हैं। अंगिका में एक कहावत है ‘तोरा ब्याह में हम नटुआ, हमरा ब्याह म तोंय नटुआ। यानि कि एक-दूसरे का सहयोग कर बंदरबांट करना यही खेल यहां भी चल रहा है। और इसके कर्तादृधर्ता हैं प्रो. रामवचन राय।

विवाद का चौथा कारण हृषिकेश सुलभको वर्ष 2023-24 के लिए फणीश्वरनाथ रेणु सम्मान दिया गया। ज्ञात हो कि वर्ष 2015 में हृषिकेश सुलभ को बिहार सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग द्वारा रामेश्वर सिंह कश्यप पुरस्कार दिया गया था, जिसे उन्होंने लौटा दिया था। सनद रहे कि उस समय बिहार सरकार में जदयू के साथ राजद भी शामिल थी। आलोचकों का कहना है कि चूंकि उस समय सत्ता में राजद भी शामिल थी इसलिए उन्होंने उस समय उक्त पुरस्कार को लौटा दिया था।शायद छोटी राशि मानकर, या राजद से दूरी बनाने के उद्देश्य से अब चूंकि जदयू के साथ सत्ता में भाजपा भी शामिल है और राशि भी चार लाख रुपये की है इसलिए इस बार पुरस्कार लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

बिहार सरकार में संवैधानिक पद परआसीन एक वयोवृद्ध प्रो. साहित्यकार ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘मुझे यह आश्चर्य हो रहा है कि चयन समिति के अध्यक्ष जब डॉ. राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान का चयन कर रहे थे तब उन्होंने एक क्षण के लिए यह क्यों नहीं सोचा कि एक तो अपने हमनाम और दूसरा एक ही शहर के रहने वाले का चयन वे कैसे कर रहे हैं? तनिक भी संकोच क्यों नहीं हुआ? साथ ही अपने ही स्वजाति का चयन करने में। यदि यही काम कोई बहुजन समाज से आने वाला व्यक्ति करता तो तुरंत यही लोग उस पर जातिवाद करने का ठप्पा लगा देते। इस कमिटी को निश्चित रूप से भंग कर दिया जाना चाहिए। चयन पारदर्शी और समावेशी होनी चाहिए।’

शायद विवादों के कारण ही वित्तीय वर्ष-2024-25 के लिए पुरस्कार, सम्मान की घोषणा नहीं किया गया है। यूं तो पूर्व मेंदो वित्तीय वर्षों का पुरस्कार, सम्मान एक साथ ही दिया गया था। उस समय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने घोषणा किया था कि यह पुरस्कार, सम्मान प्रत्येक वर्ष हिन्दी-दिवस के मौके पर 14 सितंबर को दिया जाएगा, लेकिन इस बार यह पुरस्कार 23 अगस्त, 2025 को दिया गया। शायद आगामी चुनाव को देखते हुए ऐसा निर्णय लिया गया हो। हद तब तब हो गई जब डॉ भीमराव अम्बेडकर पुरस्कार से सम्मानित जियालाल आर्य ने इस बार के समारोह में अपनी एक किताब माननीय मुख्यमंत्री को भेंट करने गए। उन्होंने नीतीश कुमार का नाम भी सही से नहीं लिखा, जिसको लेकर मुख्यमंत्री ने वहां ही उन्हें टोक दिया कि आप कैसे लेखक हैं, जो हमारा नाम भी सही नहीं लिख सकते।

मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग (राजभाषा) द्वारा आर्थिक रूप से अक्षम साहित्यकारों को उनकी अप्रकाशित कृति के लिए पांडुलिपि प्रकाशन योजना अंतर्गत अनुदान राशि दिया जाता है, लेकिन उसमें भी बड़े पैमाने पर अनियमितता होती है जिससे पात्र साहित्यकार उक्त योजना के लाभ से वंचित रह जाते हैं। विभाग द्वारा निर्धारित मापदंडों को ताख पर रखकर सारे निर्णय लिए जाते हैं। एक साहित्यकार ने बिहार सरकार के सूचना एवं प्रावैधिकी मंत्री कृष्ण कुमार सिंह ‘मंटू’ को लिखित आवेदन देकर इसकी उच्चस्तरीय जांच की मांग की है। प्रतिष्ठित साहित्यकार अनंत ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 17 अगस्त, 2025 को ईमेल द्वारा और 20 अगस्त, 2025 को हार्ड कॉपी में मुख्यमंत्री सचिवालय में कई साहित्यकारों के हस्ताक्षर के साथ आवेदन दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में मंत्रिमंडल सचिवालय विभाग (राजभाषा) द्वारा स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से साहित्यकारों का चयन करेगी, जिससे उसकी विश्वनीयता कायम हो सके।

बिहार हलचल से साभार
(लेखक हिन्दी के महत्वपूर्ण बहुजन विमर्शकार हैं। संप्रति बरियारपुर, मुंगेर में रहते हैं।)

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ISSN 2394-093X
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