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बिहार की राजनीति के लिए एकमात्र सुकून है कि विपक्ष भाजपा की बनाई पिच पर खेलने से बच पा रहा है। रोजगार के सवाल या नागरिकता के प्रश्न विपक्ष के सरोकारों में हैं। बिहार को यदि भाजपा शासित राज्यों के उन्मादी वातावरण से बचाना है, जनता के जीवन के मूल सवालों को शासकों के केंद्रीय सरोकार में लाना है तो भाजपा को ताकत देने से बचना एक जरूरी अभियान होना चाहिए, बिहार के नागरिकों का कर्तव्य होना चाहिए।

यह 2012  की बात है। साप्ताहिक शुक्रवार के लिए रिपोर्टिंग करते हुए मैं भागलपुर के कुछ इलाकों में घूम रहा था। भागलपुर की बिहपुर विधानसभा सीट से दूसरी बार विधायक बने थे इंजीनियर शैलेन्द्र। यह विधानसभा सीट परिसीमन में भागलपुर लोकसभा का हिस्सा हो गई थी, इसके पहले खगड़िया लोकसभा का हिस्सा थी।

इस वक्त तक नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी से थोड़ा अलग दिखने की कोशिश करने लगे थे। यह कोशिश 2009 में गुजरात के तब के सीएम नरेंद्र मोदी के लिए बिहार में आयोजित भोज रद्द किये जाने के समय से ही स्पष्ट थी। 2010 में नीतीश कुमार NDA में बड़े भाई की भूमिका में आ गये थे। 115 सीटें थीं उनके पास। जिस वक्त की मैं बात कर रहा हूं, 2012 के अंतिम महीनों में से किसी दिन की, नीतीश कुमार भाजपा से दो-दो हाथ के मूड में आ चुके थे, लेकिन सबकुछ उतना सतह पर नहीं था। इसके बावजूद कि 2009 में नरेंद्र मोदी का भोज रद्द होना और 2010 में संयुक्त पोस्टर पर नीतीश कुमार का आग बबूला होना राजनीतिक दृश्य में स्थाई रूप से अंकित हो गया था।

तब तक 7 सालों से भाजपा-नीतीश कुमार की अगुआई में सरकार में थी, जिसका जहरीला असर मुझे बिहपुर विधानसभा में साफ दिखा। बिहपुर बाजार में रह रहे डोम जाति के लोगों को नीतीश सरकार की 3 डिसमिल रिहायशी जमीन की योजना के तहत जमीन मिली थी। कागज पर सब अच्छा-अच्छा था, लेकिन डोम जाति के परिवारों को तीन डिसमिल जमीन अधिकारियों ने या यूं कहें कि विधायक के प्रभाव ने जहां दिलवाई थी, वहां कोई मजार थी, इमामबाड़ा था। ठीक सामने डोम जाति, जिनके दैनंदिन में पालतू सूअर होते हैं, को जमीन देना सांप्रदायिक शरारत का एक खास नमूना था। सूअर मुसलमानों के लिए नापाक माना जाने वाला जानवर है। यह नफरती मानस से उपजा एक दृश्य था मेरे सामने। जमीन मिली भी काफी गड्ढे में थी। आमतौर पर डलिया खचिया का काम करने वाली परिवार की महिलाओं ने बताया था कि ‘ जानबूझकर  यह लड़ाने – भिड़ाने के इरादे से हुआ था।’ बल्कि उनका मानना था कि बिहपुर बाजार में उनके सामान बिकने की सहूलियत भी इसके खत्म हो जायेगी,  रोजगार पर असर होगा। इस घटना को भाजपा की सीधी सरकारों, या गठबंधन की सरकारों के जहरीले असर के रूप में तब से मैं याद रखता हूं।नीतीश सरकार पर भाजपा के प्रभाव का यह साफ असर था। भागलपुर लोकसभा सीट से तब भाजपा के सांसद थे शाहनवाज हुसैन।

भाजपा और संघ परिवार की जुगलबंदी एवं सरकारी तंत्र का आश्रय समाज में मीठे जहर का काम करता है। यह एक पैटर्न का हिस्सा है, समाज के साम्प्रदायीकरण का। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर 2002 के गुजरात दंगों के बाद संघ से जुड़े संगठनों और सांप्रदायिक जमातों ने एक नई नीति अपना ली है। समाज में निरंतर सुलगते साम्प्रदायिक माहौल की नीति। छोटे और मध्यम आकार के झगड़े, तनाव और दंगे। यह बिहार में भी खास पैटर्न बन गये।
एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार पुलिस के आँकड़ों बताते हैं कि 2005 में दंगों के केवल 205 मामले दर्ज हुए थे। वहीं, 2024 में ये संख्या बढ़कर लगभग 3,186 हो गई। पिछले लगभग दो दशकों में दंगों की वारदातों में करीब तीन गुना वृद्धि दर्ज हुई है

कुणाल पुरोहित की किताब है H-Pop: H-Pop: The Secretive World of Hindutva Pop Stars . यह किताब हिंदुत्वादी साम्प्रदायिक इरादों का पॉपुलर कल्चर में ढल जाने की पड़ताल करती है। कुणाल ने अपने अनुभव से बताया है कि कैसे झारखंड बिहार सहित पूरे देश में हिंदू त्योहारों के दौरान हिंदू संगठनों से जुड़े युवा तनाव पैदा करते हैं। मस्जिदों के पास जाकर डीजे के जरिए उत्तेजक सम्प्रदायिक गाने बजाये जाते हैं। भाजपा की रघुबर सरकार के दिनों की एक केस स्टडी इस किताब में कुणाल ने शामिल किया है।

आजकल तो योगी मॉडल भी चलन में आ चुका है। उत्तर प्रदेश में कई मस्जिदों पर भगवा झंडे लहराने की खबरें आती रहती हैं। बिहार में भी यह पैटर्न बन रहा है। 2024 के नवंबर में काली मूर्ति विसर्जन के दौरान टमटम चौक पर एक मस्जिद पर भगवा झंडा लहरा दिया गया। ऐसा नहीं है कि संघ परिवार और उससे जुड़े हिंदुत्ववादी संगठनों का यह बिल्कुल नया पैटर्न है। बल्कि इसकी जड़ें ऐतिहासिक रूप से संघ और उसके भी पहले हिंदू महासभा के जन्म के समय से ही है। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 1948 में भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल को लिखे पत्रों में स्पष्ट बताया है कि संघ से जुड़े लोगमुसलमानों जैसे वेश भूषा में हिंदू मुस्लिम दंगों की आग भड़काते हैं।

14 मार्च 1948 को वे सरदार बल्लभ भाई पटेल को लिखते हैं, ” मुझे यह बताया गया है कि आरएसएस के लोग उपद्रव करने की योजना बना रहे हैं। उनमे से बहुत से लोगो मे मुसलमानों की तरह की वेशभूषा और उन्ही की तरह दिखने की योजना बना कर हिंदुओ पर हमला करके दंगे फैलाने की योजना बना रखी है। इसी प्रकार से उन्हीं में से कुछ लोग मुसलमानों पर हमला करके उन्हें दंगे के लिये भड़काएँगे। इस प्रकार के उपद्रव से हिंदुओं और मुसलमानों में दंगे की आग भड़केगी। ”( नीरजा सिंह द्वारा संपादित पुस्तक, नेहरू पटेल, एग्रीमेंट विदिन डिफरेंसेज, सेलेक्ट डॉक्यूमेंट एंड करेस्पोंडेंस, 1933 – 1950, एनबीटी, पृ.43 )

ये प्रवृत्तियां सरकारों के संरक्षण के बाद और बलवती हो जाती हैं, संरक्षण पा लेती हैं। भाजपा सरकारों में हुए मॉब लिंचिंग की घटनाओं में शामिल लोगों पर कार्रवाई नहीं होती रही है, बल्कि भाजपा के नेता मॉब लिंचर उन्मादियों को प्रोत्साहित करते समाने आये हैं। साम्प्रदायिक उन्मादियों के साथ खड़ी दिखती सरकार अपने अफसरों के लिए भी न्याय सुनिश्चित नहीं करा पाती। दंगाइयों से मुकाबला करते हुए मारे गए उत्तर प्रदेश के इंस्पेक्टर सुबोध सिंह का परिवार आज भी न्याय से महरूम है।

ये कुछ चंद उदाहरण हैं इतिहास के, वर्तमान के, निजी अनुभवों के, जो पर्याप्त हैं इस संकल्प के लिए कि भाजपा को वोट दिया जाना किस तरह समाज के वंचित और अकलियत तबके के लिए खतरनाक है। सामाजिक शांति और सौहार्द के लिए खतरनाक है।

भागलपुर के बिहपुर की घटना एक अनुभव जन्य उदाहरण है, केस स्टडी है कि कैसे भाजपा के प्रभाव का सरकारी तंत्र दलित बहुजन जमात को अल्पसंख्यकों के साथ लड़वाने के उन्मादी इरादे में सहयोगी होता है। डोम जाति के लोगों ने तब इस उन्मादी इरादे को भांप लिया था, लेकिन वह घटना जिसमें सड़क से बेहद नीचे,गड्ढे में जमीन दी गई थी, जो रोजगार के केंद्र से बहुत दूर भी थी, दलितों के प्रति भाजपा और उसके प्रभावी तंत्र का दलितों के प्रति असंवेदनशीलता और क्रूरता को दर्शाती घटना है।

जनता को बेहोशी में रखने और जीवन के मौलिक सवालों से दूर रखने में भाजपा और संघ परिवार के लोगों से कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। कोई गौर करे तो साफ दिखेगा कि भाजपा के नेताओं के पास भाषा, भंगिमा और मुद्दों के स्तर पर क्या है जनता के लिए। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह पाकिस्तान और झटका, हलाल मीटों की शब्दावली और मेटाफर में अपनी राजनीति की दुकान चलाते हैं, जनता बेगूसराय से दूसरे राज्यों में ले जाये जा रहे उद्योगों का सवाल पूछना भूल जाती है।

डिप्टी सीएम विजय सिन्हा की भाषा और भंगिमा हमेशा उन्मादी होती है। बुलडोजर राज का सपना देख रहे विजय सिन्हा राज्य में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार चाहते हैं। इन नेताओं के पास अपने कार्यकर्ताओं के लिए भी क्या कार्यक्रम है। राष्ट्रवाद भी उन्मादी शक्ल में ही इनके एजेंडे हैं, उनके कार्यक्रम हैं। पिछले दो तीन महीने में भाजपा के कार्यकर्ताओं को क्या कार्यक्रम मिले हैं? ऑपरेशन सिंदूर का जायगान और पीएम मोदी को मिली गाली के खिलाफ प्रदर्शन। वास्तव में लेकिन हुआ क्या? कौन से सवाल भाजपा के कार्यकर्ताओं के सामने भी नहीं आने दिए गये?

देखते देखते प्रधानमंत्री कथित ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान का साथ देने वाले चीन से गलबहियां कर आये। भाजपा कार्यकर्ताओं और देश को बता दिया गया कि अब ट्रंप हमारे दोस्त नहीं रहे, जिनपिंग का जायगान करिए। अबकी बार ट्रंप सरकार का नरेंद्र मोदी का उद्घोष और भारत में जगह जगह ट्रंप के लिए हुए हवन यज्ञ के कार्यक्रम बदल गए चीन से दोस्ती में। जवाहर लाल नेहरू की चीन नीति पर तीखा हमलावर रही जमात के लिए ‘ हिंदी चीनी भाई -भाई ‘ का नारा नरेंद्र मोदी का गिफ्ट बन गया है, यह नारा अब भाजपा कार्यकर्ताओं को नये शब्दों में थमा दिया गया, और थमा दिये गये नरेंद्र मोदी के आंसू – नरेंद्र मोदी की मां का मान। वह नरेंद्र मोदी जिन्होंने राहुल गांधी से लेकर नीतीश कुमार की मां के मान को मान नहीं माना।

क्या जानबूझकर कोई आधुनिक समाज अपने बच्चों को आधुनिक ज्ञान विज्ञान से दूर मिथकीय राष्ट्र गौरव का शिकार होने देगा? भाजपा और उसकी सरकारें जिस तरह कथित भारतीय ज्ञान आम जनता को देना चाहती है क्या उसे कोई सचेतन नागरिक संभव होने देना चाहेगा? क्या कोई मां या पिता अपने बच्चों से किसी अनुराग ठाकुर द्वारा पाया वह ज्ञान सुनना चाहेंगे कि हनुमान अंतरिक्ष के पहले यात्री थे और पुष्पक विमान दुनिया में पहला वायुयान आविष्कार! क्या पश्चिमी सभ्यताओं में मिथकीय धारणाओं की कोई कमी रही है? लेकिन क्या उन धारणाओं को आधुनिक आविष्कारों पर, ज्ञान पर कथित राष्ट्रवादी ज्ञान के आवरण में हावी होने दिया गया? क्या चीन का ज्ञान अमेरिकियों ने प्रतिबंधित कर दिया?


बिहार की राजनीति के लिए एकमात्र सुकून है कि विपक्ष भाजपा की बनाई पिच पर खेलने से बच पा रहा है। रोजगार के सवाल या नागरिकता के प्रश्न विपक्ष के सरोकारों में हैं। बिहार को यदि भाजपा शासित राज्यों के उन्मादी वातावरण से बचाना है, जनता के जीवन के मूल सवालों को शासकों के केंद्रीय सरोकार में लाना है तो भाजपा को ताकत देने से बचना एक जरूरी अभियान होना चाहिए, बिहार के नागरिकों का कर्तव्य होना चाहिए।

मोहन भागवत ने बिहार के मुजफ्फरपुर में अपने कार्यकर्ताओं को बिहार चुनाव का एक एजेंडा दिया है। उन्होंने कह कि ‘ दुर्भाग्य बहुत दिनों तक नहीं। रहता। ‘ वे भाजपा की अपनी सरकार का एजेंडा दे गये हैं। बिहार की जनता के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि भागवत के इरादे को कैसे सफल नहीं होने देना है। बिहार के विभूतियों में से एक राजेंद्र प्रसाद की चेतावनी की अनुगूंज हमारे लिए लोकतंत्र के खतरे से बिहार को बचाने की स्थाई कार्यनीति होनी चाहिए।
राजद समाचार से साभार

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