जगजीवन राम और उनका नेतृत्व पुस्तक सामाजिक संस्कारों में विन्यस्त करने को प्रेरित करती है

कर्मेन्दु शिशिर

पता नहीं क्यों बाबू जगजीवन राम जिन्हें प्यार से लोग बाबूजी कहते हैं को याद करने अथवा उन पर चर्चा करने को लेकर लोगों में एक हिचक बनी हुई रही।

यहाँ तक कि बिहार सरकार ने भी उनको उनके कद के अनुरूप प्रतिष्ठा न दी। यहाँ तक कि ललितनारायण मिश्र के नाम पर जिस तरह विश्वविद्यालय बिजनेस शिक्षा संस्थान और सरकारी भवनों का नामकरण हुआ उस तरह स्मृति-स्मारक बाबू जगजीवन राम के सम्मान में न बने। बेशक बाबू जगजीवन राम का योगदान और कद कहीं ज्यादा ऊँचा था। क्या इसके पीछे सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर जातिवादी कुंठा थी। एक ऐसी कुंठा जो सवर्णों से पिछड़ों तक में पसरी हुई है।

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हमने एक ऐसा समाज बनाया कि दिवंगत महापुरुषों को भी उसी संकीर्ण नजरिये से देखा जाता है। वे सब जो सार्वजनिक व्यक्तित्व थे।  वे दिवंगत होकर भी जातिमुक्त नहीं रह जाते। वे पूरे समाज के पूर्वज नहीं बन पाते। हम उनमें से अपनी जाति के अनुसार चयन करते हैं और वर्त्तमान में अपनी सहूलियत के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं। हम न उनके विचारों से प्रेरित हुए और न ही व्यक्तित्व से प्रभावित।

        ऐसे दौर में यह बेहद सुखद बात है कि बाबू जगजीवन राम की सम्यक और प्रामाणिक जीवनी के लिए इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने बड़ी निष्ठा से चुपचाप अथक श्रम किया। उन्होंने उनके जीवन विचार और योगदान को लेकर जो बीहड़ शोध-यात्रा की है उसका मूर्त्त साक्ष्य है- ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ नामक पुस्तक। हिन्दी पाठकीयता के मौजूदा अकाल को देखते हुए यह विस्मय होता है कि छपने के साथ ही इस जीवनी के आठ संस्करण हो चुके हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। इस पुस्तक के अंग्रेजी और बांग्ला भाषा संस्करण भी प्रकाशित हो चूके हैं। एक बार डॉ० रामविलास शर्मा ने कहा था कि जिनकी सायास उपेक्षा होती है, उनके पाठक जब परिदृश्य पर आते हैं तो वे अपने नायकों की पहचान करने में कोई कंजूसी नहीं करते। आज बाबू जगजीवन राम का एक विशाल पाठक वर्ग मौजूद है। यह बात सही है कि इं0 राजेन्द्र प्रसाद कोई पेशेवर लेखक नहीं हैं । मगर बाबूजी के इस जीवनी को इस रूप में लिखकर उन्होंने एक बड़े लेखक जैसा ही कार्य किया है।

            उनकी पुस्तक से गुजरते हुए यह बात बिलकुल स्पष्ट दिखती है कि उनका उद्देश्य एक ऐसी जीवनी लिखने का था जिसमें बाबू जगजीवन राम को लेकर जो लोगों’ में आधी-अधूरी धारणा बनी है या बनाई गई है वह दूर हो। उनका कोई वांग्मय उपलब्ध नहीं थी न कोई दस्तावेज सहित प्रामाणिक जीवनी उपलब्ध थी। उन पर लिखी जो सामग्री उपलब्ध थी वह एक तरह से औपचारिकता का निर्वाह भर था। राजेन्द्र प्रसाद जी न सिर्फ उनके बारे में फैली अनेक भ्रांतियों को दूर करना चाहते थे बल्कि उनकी इच्छा थी कि उनके व्यक्तित्व के विविध पक्ष उनके सामाजिक आर्थिक धार्मिक और राजनीतिक विचार और उनके द्वारा किए गए विभिन्न क्षेत्रों में योगदान को संपूर्णता में प्रस्तुत किया जाय। यह एक मुश्किल काम था क्योंकि इसके लिए दीर्घ शोध कार्य जरूरी था। इस जीवनी को पढ़ने के बाद यह बात पूरे विश्वास से कही जा सकती है कि इसमें वे बिलकुल सफल हुए हैं। राजेन्द्र प्रसाद जी सासाराम संसदीय क्षेत्र के निवासी और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के अपने छात्र जीवन से ही जगजीवन राम से जुड़े रहे । जिस कारण उन्हें बाबूजी के क्रियाकलाप और राजनैतिक सफर की गुत्थियों की ज्यादा समझदारी रही। इसलिए राजेन्द्र प्रसाद जी ठोस और प्रामाणिक सामग्री की तलाश-उनके जीवन के लंबे कार्यकाल में जुड़े मुख्य अवसरों और प्रसंगों पर उनकी भूमिका को लेकर मूल सच्चाई तक आसानी से पहुँच बना पाए। बहुत सारे ऐसे ऐतिहासिक प्रसंग थे जिसकी आधुनिक भारतीय इतिहास में चर्चा तो खूब होती है मगर उसमें बाबू जगजीवन राम की क्या भूमिका थी इस पर कोई चर्चा नहीं मिलती अथवा उनकी भूमिका को अत्यन्त गौण कर दिया जाता है। जैसे पूना-पैक्ट में उनके विचारों और भूमिका की चर्चा नहीं होती और होती भी है तो डॉ० आंबेडकर के धुर विरोधी के रूप में एक खलनायक के रूप में। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के प्रसंग में भी बाबू जगजीवन राम की प्रमुख भूमिका थी जिसका कहीं कोई जिक्र नहीं होता जबकि पं॰ जवाहरलाल नेहरू को उन्होंने ही समझाया कि यही उचित निर्णय होगा। उसी तरह जब बिहार में मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह और उनके मंत्री अनुग्रह नारायण सिंह के बीच में जब भी गंभीर मतभेद हो जाते थे तो नेहरूजी बाबूजी को ही सुलह कराने का यह काम सौंपते थे और बाबूजी दोनों नेताओं में सुलह सपाटा कराते थे। इस तरह इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी की यह पुस्तक अनेक नये तथ्यों का उद्घाटन करती है और आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन की कमियों को पूरा भी करती है। इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने पुस्तक में काफी तटस्थता बरतते हुए बाबूजी का मूल्याकंन किया है।

         इस पुस्तक को पढ़ते हुए इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी के घोर शोध-श्रम और संलग्नता का सुफल है कि उन्होंने ऐसी-ऐसी सामग्री पहली बार प्रकाश में लाई है जिसको पढ़ते हुए पाठक बार-बार विस्मित होता है। ऐसे अनछुए पहलुओं को लेकर उनकी जानकारी और सूझबूझ आपको जगह-जगह ठिठककर सोचने पर विवश करती है। मसलन यह पुस्तक बाबू जगजीवन राम के बारे में एक तरह का पुनर्मूल्यांकन करने का अनुरोध करती है। यह पुस्तक बाबू जगजीवन राम के अदीठ व्यक्तित्व से योगदान और उपलब्धियों से, पाठकों को नये आलोक में परिचित कराती है। इसमें उन्होंने बाबू जगजीवन राम के बौद्धिक व्यक्तित्व को जिस तरह उनके सामाजिक राजनीतिक आर्थिक धार्मिक और अल्पसंख्यकों पर विचार प्रसंगानुसार रखा है वह पुस्तक का बहुत ही मूल्यवान खंड है। बाबूजी संवैधानिक आरक्षण को सामाजिक क्रांति लाने का जरिया कहते थे। जाति विभेद के जहर को समाप्त करने के लिए अंतर्जातीय विवाह की अनिवार्यता कानून की वकालत करते थे। वे कहते थे कि जातिवाद और राष्ट्रवाद दोनों एक दूसरे के धुर विरोधी हैं ।

 बाबू जगजीवन राम की बुद्धिमत्ता की चर्चा तो होती है लेकिन वे बौद्धिक स्तर पर कितने समृद्ध और ठोस थे इसका अहसास लोगों को नहीं था। इं0 राजेन्द्र प्रसाद ने भारतीय समाज की संरचना को लेकर, उसकी तमाम तरह की जटिलताओं को लेकर उनकी समझ कितनी स्पष्ट और दृढ़ थी यह सब इसमें शामिल है। गाँधीवाद से राष्ट्रीय समस्याओं का निर्माण उसके प्रयोग करने की नीति और दक्षता पर निर्भर है। इसलिए व्यावहारिक स्तर पर उनकी प्रशासनिक सूझ और क्षमता को लेकर इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने जो लिखा है उसे खासकर आज के राजनेताओं को सीखना चाहिए। देश का आर्थिक विकास मौजूदा संसाधनों में भी संभव है मगर कैसे? इस पर उनके विचार व्यवहार और कार्य के स्तर पर यथार्थ परक थे। वे आदर्शवादी नहीं व्यावहारिक राजनेता थे।

अक्सर यह देखा जाता है कि बाबू जगजीवन राम की चर्चा करते हुए बाबासाहेब आंबेडकर को प्रतिमान के रूप में ला खड़ा कर दिया जाता है। यह किसी व्यक्तित्व के मूल्यांकन का एक गलत तरीका है। हर व्यक्तित्व की भूमिका और उपलब्धि एक-दूसरे से भिन्न होती है। सबके टॉस्क अलग होते हैं । इसलिए एक ही प्रतिमान से आप सबका आकलन नहीं कर सकते। देखना यह होता है कि उक्त व्यक्तित्व जिस भूमिका में था वहाँ उसका योगदान क्या था और कैसा था?

जो लोग बाबू जगजीवन राम को सत्तावादी और अवसरवादी कहकर उनके योगदान को एकदम रिड्यूस कर देते हैं उनको यह जीवनी जरूर पढ़नी चाहिए। लोगों को यह भ्रम है कि सत्ता में ऊँचे पद पर जाकर बाबू जगजीवन राम को आंबेडकर की तरह अपमान नहीं झेलना पड़ा। संघर्ष नहीं करना पड़ा। वे अय्याशी और ऐश्वर्य का जीवन जीते रहे। इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने इस झूठ से पर्दा उठाया है। कोई गौर करे कि ऊँचे पद पर पहुँच जाने के बावजूद उनको सवर्ण मानसिकता का दंश छल प्रपंच और तंज पूरे जीवन भर झेलना पड़ा। किस तरह से लोग उनको लांछित करते थे। उन पर अपमानजनक टिप्पणियाँ करते थे। उनके जीवन और परिवार को झूठे आरोपों में डालकर कलंकित करते थे कींचड़ उछालते थे। दलित विरोधी मानसिकता वाली मीडिया उनकी उपलब्धियों पर चुप्पी साध लेती थी अथवा गौण रूप में प्रस्तुत करती थी। उनका श्रेय दूसरे के हिस्से में दे दिया जाता था और उनके योगदान और चरित्र को कलंकित कर बौना बना दिया जाता था। उनको अभद्र और गंदे विशेषणों’ से नवाजा जाता था। बावजूद बाबू जगजीवन राम ने यह सब झेलते हुए एक योद्धा की तरह निरंतर आगे बढते रहे । खाद्य मंत्री से रक्षा मंत्री तक जो भी मंत्रालय उनको मिला। उस पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। उन्होंने ऐसे-ऐसे मौलिक निर्णय लिए ऐतिहासिक फैसले किये कि उसका असर पूरे देश में महसूस किया गया और उन्होंने उस मंत्रालय की काया ही बदल डाली। राष्ट्र और जनता के हित में सरकार का क्या रुख होना चाहिए- इसका उन्हें सम्यक बोध होता। सबसे बड़ी बात यह कि उनकी प्रतिभा और दृष्टि बहुमुखी थी। वे आर्थिक सामाजिक राजनीतिक सवालों और समस्याओं को बड़ी गहराई और बारीकी से समझते थे। कैसे उसे समय के अनुरूप जनमुखी किया जाय यह उनकी सोच के केन्द्र में रहता था। भारतीय समाज की सबसे बड़ी और जटिल रूढ़ि जाति थी। एक विशाल दलित समाज गर्त में पड़ा हुआ था। जगजीवन राम को पता था कि यह समस्या आर्थिक स्तर को सुलझाने से नहीं सुलझने वाली। इसके लिए वे अक्सर संतों के सांस्कृतिक जड़ों को कुरेदते थे। डॉ० रामविलास शर्मा संत कवियों की भूमिका को लोकजागरण कहते थे। बाबू जगजीवन राम को इसका ज्ञान अपने पिता शोभी राम से ही संस्कार में मिला था। इसलिए वे अक्सर संत कवियों की उस ऐतिहासिक धारा और विचारों के साथ सामाजिक बदलाव की पहल करते थे। संत कवियों पर उनकी समझ बहुत विलक्षण थी। अनेक संत कवियों के पद उन्हें कंठाग्र थे। भले उन्होंने लिखा नहीं लेकिन अपने भाषणों में वे जब भी संत कवियों की चर्चा करते, उनके पद उद्धृत करते तो उनकी समझ विद्वानों को भी विस्मित कर देती थी। एक तो वे वक्ता बहुत प्रभावशाली थे। हिन्दी और भोजपुरी का उच्चारण इतना मोहक और उत्कृष्ट होता था कि सुनने वाला मुग्ध हो जाता था। आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी बाबूजी को संत साहित्य का अप्रतीम विद्वान कहते थे।

        इं0 राजेन्द्र प्रसाद की इस जीवनी लेखन को पढ़ते हुए आजाद भारत में सवर्ण ताकतों की छटपटाहट और धूर्त्तता का बखूबी अहसास होता है। जब संविधान में प्रदत्त दस साल के आरक्षण को बढ़ाने का प्रस्ताव आया तो सवर्ण ताकतों ने अपनी पूरी मेधा का इस्तेमाल किया। उस समय सरकार और विपक्ष की सवर्ण ताकतों में कोई भेद न रहा। इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने इसे बड़े ही प्रभावशाली ढंग से रखा है। सत्ता में बदलाव तो हुआ था मगर समाज से प्रशासन तक ढाँचा यथावत था। सवर्ण ताकतें ऑक्टोपस की तरह पूरी व्यवस्था को जकड़े हुई थी। इस कपट और कुटिल चाल को समझना एक बात है और इसे रोकना बिलकुल ही अलग। इसे बाहर के विरोध से रोकना तो लगभग असंभव था। सरकार के भीतर रहकर बाबू जगजीवन राम ने कैसे इस चाल को निरस्त किया, इसका विस्तृत वर्णन राजेन्द्र प्रसाद जी ने किया है। बाबू जगजीवन राम ने सरकार के भीतर रहकर ऐसे नाजुक और संवेदनशील मामले में दलित समाज के हित में क्या किया इस पर गौर करना चाहिए। इं0 राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि और समझ का महत्व ऐसे स्थलों पर देखने लायक है। उन्होंने हर ऐसे संवेदनशील पक्षों पर एकदम आवेगहीन होकर एक बौद्धिक बहस खड़ी की है। आज यह काम अपेक्षाकृत आसान है लेकिन तब स्थिति ज्यादा प्रतिकूल और जटिल थी। आप कल्पना कीजिए जवाहरलाल नेहरू जी जैसे प्रचंड विचारक प्रधानमंत्री के सामने उनके कथन के विपरीत विचारों को रखना कितना साहसिक काम रहा होगा। मसलन वैचारिक निर्भीकता को लेकर बाबू जगजीवन राम एक स्पष्ट, दृढ़ और बिलकुल खरे इंसान थे।

       यह आत्मविश्वास यह वैचारिक दृढ़ता और खरापन कभी-कभी खतरनाक निर्णय लेने को भी प्रेरित करता है। ऐसा निर्णय जिसका विपरीत परिणाम पूरी प्रतिष्ठा को गर्त में मिला सकता है। लेकिन ऐसे निर्णयों से ही व्यक्तित्व की दृढ़ता भी निखरकर सामने आती है। ऐसे ही एक निर्णय का उल्लेख इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने किया है। जब  बाबूजी 1971 में  रक्षा मंत्री थे तो पाकिस्तान से युद्ध हो गया। उनके पास लोगों के लगातार टेलीफोन चिट्ठियाँ मशविरे आये थे कि युद्ध में सीमा पर वे अगली कतार में मुसलमानों के सैन्य जत्थे को नहीं भेजें। बाबू जगजीवन राम ने ठीक इसके उल्टा किया। उन्होंने बाबू जगजीवन राम के शब्दों में ही यह उद्धरण दिया है-“मैंने एक मुस्लिम बहुल बटालियन को सबसे आगे शंकरगढ़ में भेजा। क्यों भेजा, क्योंकि मुसलमानों की देशभक्ति पर मुझे संदेह नहीं था। मैं लड़ाई हारना नहीं चाहता था । मैं लड़ाई जीतना चाहता था। लेकिन मैं लड़ाई यह दिखाकर जीतना चाहता था कि पाकिस्तान का मुसलमान पाकिस्तानी है और भारत का मुसलमान भारतीय है।“ इं0 राजेन्द्र प्रसाद जी की दृष्टि सूक्ष्म भी है और व्यापक भी। उन्होंने ऐसे अनेक स्थलों, प्रसंगों और घटनाओं को देकर उनकी सोच की विविधता और विलक्षणता को उद्घाटित किया हैं। उनकी कोशिश रही है कि लोग बाबू जगजीवन राम के व्यक्तित्व के विस्तार और बहुमुखी क्षमता को जान सकें। देश के निर्माण में तमाम धार्मिक अल्पसंख्यकों पारसी, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध और मुसलमानों के योगदान को रेखांकित करें। वे मजहब और राष्ट्रीयता के फर्क को समझते थे- इसमें तनिक संदेह नहीं। गौर करने वाली बात विचारों की स्पष्टता नहीं उसे आचरण में उतारने की है।

          बाबू जगजीवन राम के प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए समाजवादी कांग्रेसी सवर्ण और पिछड़े समुदाय के नेताओं तक ने ऐसी कुटिल चाल चली। चरण सिंह और राजनारायण ने एक बार ऐसी घृणित चाल चली कि 1978 में उनके बेटे सुरेश कुमार का अपहरण कर उसके साथ किसी लड़की की नंगी तस्वीर के चित्र को मेनका गांधी ने अपनी पत्रिका सूर्या में छाप दिया। सवर्ण मानसिकता की मीडिया ने बाबू जगजीवन राम की बुरी तरह चरित्र-हत्या करने की कोशिश की। चरण सिंह जैसे लोगों ने भी उनको प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए कुटिल चाल चली। जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद अधिकांश सांसद चाहते थे कि बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री बने। अगर जगजीवन राम प्रधानमंत्री बने होते तो सरकार निश्चित रूप से पाँच साल चलती। उनका लंबा राजनीति अनुभव देश की समझ और प्रशासनिक क्षमता ऐसी थी कि देश का शासन अपेक्षाकृत बेहतर होता। महात्मा गाँधी का सपना कि कोई दलित प्रधानमंत्री बने, इसका न सिर्फ देश में सकारात्मक संदेश जाता बल्कि विश्व में भी भारत की प्रतिष्ठा बढ़ जाती। मगर राजनारायण जो बड़े समाजवादी नेता थे उन्होंने ही पहला प्रहार किया। इसे अंतिम परिणति दी लोकनायक कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी ने। इन दोनों नेताओं ने गैरलोकतांत्रिक तरीके से मोरारजी भाई देसाई को प्रधानमंत्री बनवा दिया। मोरारजी भाई पूँजीपतियों को भी प्रिय थे और भाजपाइयों को भी। उनका ऐसा अकडँ स्वभाव था कि जनता पार्टी की  सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी बल्कि इसके विपरीत टूट कर बुरी तरह बिखर गई। 1980 में फिर कांग्रेस की वापसी भी हो गई। सवर्ण मानसिकता नहीं दलित विरोधी मानसिकता का यह सबसे कलंकित उभार था। बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री न बने इसके आये अवसरों और उसे असफल करने की कोशिशों को राजेन्द्र प्रसाद जी ने प्रमाण और इसमें शामिल नेताओं के नाम सहित पूरा वाकया विस्तार से लिखा है। बेशक इसकी चर्चा आधुनिक भारत के इतिहास में शामिल की जानी चाहिए। ये सारे प्रसंग इस पुस्तक को अत्यन्त महत्वपूर्ण बनाते हैं। पाठक इसे पुस्तक में पढ़े इसलिए मैंने इसे विस्तार नहीं दिया।

           इं0 राजेन्द्र प्रसाद की इस पुस्तक को सम्यक मानने के पीछे सिर्फ यह कारण नहीं है कि उन्होंने बाबू जगजीवन राम के जीवन विचार उनकी प्रशासनिक क्षमता और उपलब्धियों को प्रमाणिक साक्ष्यों के साथ लिखा है। इसको सम्यक कहने के पीछ सबसे बड़ा कारण पुस्तक का परिशिष्ट भाग है। उन्होंने उनकी स्मृति में स्थापित विभिन्न 14 संस्थानों का विवरण । खुद इं0 राजेन्द्र प्रसाद के द्वारा लिया गया साक्षात्कार जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और आत्मीय है। डॉ० आंबेडकर पर मद्रास में दिया उनका व्याख्यान इस पुस्तक का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। ये उनके वैचारिक व्यक्तित्व का साक्ष्य है। फिर उन्होंने बाबू जगजीवन राम के बारे में संसद में दी गई श्रद्धांजलियों का संकलन है। इसमें उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं और व्यापक सरोकारों का अंदाज होता है। फिर राज्यसभा में दी गई श्रद्धांजलियों का संकलन भी है।

         राजेन्द्र प्रसाद जी ने  बाबूजी के संपूर्ण जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं को कालानुक्रम से एक बहुत ही  उपयोगी विवरणी दी है, जिससे पाठक उनकी एक नज़र में संपूर्ण जीवन छवि से परिचित हो जाता है। संदर्भ-ग्रंथों की सूची इं0 राजेन्द्र प्रसाद के अकथ शोध-श्रम का प्रमाण है। लेकिन संदर्भ-ग्रंथों की सूची और अनुक्रमणिका अधुनातन शोध-ग्रंथों का अनिवार्य हिस्सा है। यह हिस्सा आने वाले शोधार्थियों के लिए आत्यन्त उपयोगी है। इसलिए राजेन्द्र प्रसाद जी की इस पुस्तक को मैं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सम्यक मानता हूँ। पाठकों को इसे जरूरी टॉस्क समझकर पढ़ना चाहिए क्योंकि इसमें भारत के निकटतम अतीत का इतिहास है। न सिर्फ राजनीतिक इतिहास की कुछ अनदिखी सच्चाइयों पर रोशनी पड़ती है बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि भारतीय समाज के संक्रमणकाल से भी वे परिचित होते हैं। अगर हम ईमानदारी निष्पक्षता और मानवता के सचमुच पक्षधर हैं तो यह पुस्तक सामाजिक न्याय को न सिर्फ विचारों में बल्कि संस्कारों में विन्यस्त करने को प्रेरित करती है। मानवकृत कृत्रिम जातिवाद ने हमारी चेतना को कुंद कर दिया है। हमारी बुद्धि को जड़ बना दिया है और देश की प्रगति को रोक दिया है। इसलिए अगर यह जीवनी इस दिशा में जड़ता को खत्म कर लोगों में गतिशील चेतना की स्वीकार्यता लाती है तो यह बहुत बड़ा काम होगा। यह सभी के लिए प्रेय और करणीय है और सबके हित में है।

    कर्मेन्दु शिशिर

सम्प्रति : बी.डी. कॉलेज, मीठापुर, पटना में प्राध्यापक
प्रकाशित कृतियाँ : बहुत लम्बी राह (उपन्यास), कितने दिन अपने, बची रहेगी जिन्दगी, लौटेगा नहीं जीवन (कहानी-संग्रह), नवजागरण और संस्कृति, राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण, हिन्दी नवजागरण और जातीय गद्य परम्परा, 1857 की राजक्रान्ति : विचार और विश्लेषण, भारतीय नवजागरण और समकालीन सन्दर्भ, निराला और राम की शक्ति- पूजा (शोध-समीक्षात्मक लेख, आलोचना)।
सम्पादन : भोजपुरी होरी गीत (दो भाग), सोमदत्त की गद्य रचनाएँ, ज्ञानरंजन और पहल, राधामोहन गोकुल- समग्र (दो भाग), राधाचरण गोस्वामी की रचनाएँ, सत्यभक्त और साम्यवादी पार्टी, नवजागरण पत्रकारिता और सारसुधानिधि (दो खंड), नवजागरण पत्रकारिता और मतवाला (तीन खंड), नवजागरण पत्रकारिता और मर्यादा (छह खंड), पहल की मुख्य कविताएँ और वैचारिक लेखों का संकलन (दो भाग)। 8 पुस्तिकाएँ और समकालीन कविता, कहानी पर आलोचना लेख

*यह पुस्तक फ्लिपकार्ट अमेजन गुडरीड्स और गूगलबुक्स पर उपलब्ध है। इस पुस्तक के अंग्रेजी और बंगला संस्करण भी प्रकाशित हैं और फ्लिपकार्ट अमेजन गुडरीड्स और गूगलबुक्स पर उपलब्ध हैं। पुस्तक की छपाई और जिल्द उम्दा किस्म की है। पुस्तक रेड साइन प्रकाशन से प्रकाशित की गई है जिसका मूल्य ₹600 है।

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ISSN 2394-093X
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