हरियाणा में पंचायत चुनाव के लिए शिक्षा की अनिवार्यता के बाद इस सामंती , पितृसत्ताक समाज में उसकी प्रतिक्रिया भी ऐसी ही होनी थी – कोई ४५ की पत्नी ४७ के अपने पति को उससे १४ साल छोटी लड़की से शादी की सहमति दे रही है , ताकि घर की सरपंची घर में बची रहे , तो कोई आनन -फानन में बेटे की शादी करके क्राइटेरिया में फिट न बैठने पर साले की तलाक दिलवाकर उसकी पत्नी से खुद ही शादी कर रहा है। वयस्क मताधिकार वाले देश में शिक्षा की असंवैधनिक अनिवार्यता का प्रतिफल है यह – हम लोकतंत्र को १०० साल पहले ले जा रहे हैं , समाज तो वहीं अभी भी ठहरा हुआ है ही। हरियाणा से मुजतबा मन्नान की रिपोर्ट।
हरियाणा में पंचायत चुनावों को लेकर कई महीनों से चुनावी प्रक्रिया चल रही है। पंचायत चुनाव के इस माहौल में अगर गांवों में जाकर वहाँ हाल जानने की कोशिश करे तो गाँव के हर चौराहे पर इन चुनावों को लेकर चर्चा मिलेगी। हर सीट को गुना-भाग करते गाँव के लोग मिलेंगे।सीटों को सामान्य या आरक्षित रखने को लेकर लोगों में जिज्ञासा है और प्रत्येक स्थिति के लिए न केवल संभावित उम्मीदवार, बल्कि गाँव के मतदाताओं के पास भी अपनी एक योजना है कि किसके पाले में रहना है और किसे जिताना है। चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार के पास अपनी योजना है।
मगर विडंबना है कि यह योजनबद्धता स्थानीय मुद्दों या गाँव की समस्याओं के आधार पर कतई नहीं है। इसका आधार जाति और लोगों के अपने-अपने व्यकीगत स्वार्थ हैं। हर किसी का गणित है कि किस प्रत्याशी को जिताने पर उसे क्या और कितना फायदा मिल सकता है। अगर किसी गाँव में एक ही जाति के दो-तीन लोग चुनाव में उतर रहे है तो वहाँ व्यक्तिगत हितों के आधार पर मतदाताओं के कई खेमे बन रहे है, जैसे फलां उम्मीदवार से फलां व्यक्ति के संबंध अच्छे है। तो परिवार समेत उसका वोट उसी उम्मीदवार को जाएगा। अब कौन कैसा है, किस छवि का है और उसका क्या ऐजेंडा है आदि सब बातें बेकार है।
1. आठ बच्चों के बाप नें सरपंच बनने के लिए की दूसरी शादी (पूरा समाचार पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें )
कई महीनों से चल रही पंचायत चुनावों की इस भागदौड़ में हरियाणा सरकार ने विधानसभा में पंचायत चुनाव प्रक्रिया में संशोधनके बाद बिल पास कर नया कानून बना दिया। नए कानून के अनुसार ‘केवल दसवीं पास पुरुष व आठवीं पास महिला उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते है।’ सरकार के इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने पक्ष-विपक्ष की बहस, आंकड़ो तथा तर्को के आधार पर सरकार के पक्ष में फैसला दिया।कोर्ट के इस फैसले ने उम्मीदवारों को मुश्किल में डाल दिया, क्योंकि चुनाव लड़ने वाले ज़्यादातर उम्मीदवार दसवीं पास नही है और कई गांवों में तो महिला आरक्षित सीटों पर उम्मीदवार ही नहीं मिल रही है , है क्योंकि पढ़ा-लिखा नहीं होने के कारण ज़्यादातर उम्मीदवार चुनाव के लिए हो गई हैं। लेकिन कुछ उम्मीदवारों के बच्चे पढ-लिख रहे है, उनके सामने समस्या यह है कि उनके बच्चे दसवीं पास तो है लेकिन चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार उनकी उम्र 21 वर्ष से कम है। इसलिए वो चुनाव नहीं लड़ सकते।समस्या यह है कि ऐसी संकट की घड़ी में उम्मीदवार क्या करे?क्योंकि ऐसी स्थिति में गाँव में उनकी राजनीतिक विरासत पर खतरा मंडराने लगा है।
काफी विचार-विमर्श के बाद उम्मीदवारों को एक सुझाव तर्कसंगत लगा। उसी सुझाव पर अमल करते हुए पंचायत चुनाव में सरपंच पद के एक उम्मीदवार ने मुझे फोन किया। हालचाल पूछने के बाद अपनी समस्या पर आते हुए उन्होने कहा “बेटा आपसे एक छोटा सा काम है।” मैंने हैरानी जताते हुए पूछा ‘सरपंच जी,भलाआपको मुझसे क्या काम पड़ सकता है?’ फिर उन्होने मुद्दे पर आते हुए कहा “मुझे अपने बेटे की शादी करनी है और उसके लिए आठ पढ़ी लड़की चाहिए, लेकिन उसकी उम्र 21 साल से कम नहीं होनी चाहिए और हाँ शादी एक हफ्ते के अंदर करनी है।” उनकी बात समझकर में असमंजस में पड़ गया कि ऐसा क्या हो गया जो सरपंच जी को एक हफ्ते के अंदर बेटे की शादी करनी है और सरपंच जी का बेटा तो अनपढ़ है तो फिर उन्हे पढ़ी- लिखी बहू क्यूँ चाहिए? थोड़ी देर दिमाग घुमाने के बाद पता चला आने पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए उन्हे पढ़ी-लिखी बहू चाहिए क्योंकि वो खुद तो पढे-लिखे नहीं है और ना ही उनका बेटा पढ़ा लिखा तो वह अपने बेटे की शादी करके होने वाली बहू के सहारे अपनी गाँव की राजनीतिक विरासत को बचाना चाहते है।
पति की सरपंची बचाने के लिए पत्नी लाई सौतन (पूरा समाचार पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें )
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद गाँवोंमें पंचायत चुनाव में संभावित उम्मीदवारों के यहाँ अनेक शादियाँ हो चुकी है और दिन-प्रतिदिन यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि ज़्यादातर शादियाँ बिना किसी दहेज और बारात के हो रही है। आमतौर पर गाँव के इन राजनीतिक घरानों में भारी भरकम दहेज और बड़ी बारात के साथ ही बेटे का ब्याह करना साख माना जाता है। चाहे इसके लिए लड़की वालों को अपने जीवन भर की पूंजी ही दांव पर क्यूँ ना लगानी पड़े। लेकिन संकट की इस घड़ी में वो अपनी साख भूल चुके है और उनकी नज़र केवल पंचायत चुनाव में पदों पर टिकी है।
हरियाणा के ज़िला मेवात के गाँव झिमरावट के शख्स कंवर खाँ चुनाव में सरपंच के पद पर अपनी किस्मत आज़माना चाहते है लेकिन उनके गाँव की सीट महिला आरक्षित होने तथा पंचायत चुनाव प्रक्रिया में संशोधन के बाद दसवीं पास नहीं होने की वजह से वह खुद चुनाव नहीं लड़ सकते है और ना ही उनके घर में कोई पढ़ी-लिखी महिला है। इसलिए उन्होने अपने 19 वर्षीय बेटे की शादी 23 वर्षीय दसवीं पास महिला अनीशा से करवा दी ताकि नए नियमों के मुताबिक चुनाव में पुत्र वधु को उम्मीदवार बनाया जा सके और दहेज के नाम पर कार रूपये, गहने नहीं बल्कि केवल एक गाय ली। बिना दहेज की शादी के बाद अनीशा बहुत खुश है और अब वो चुनाव में पंचायत समिति के पद पर अपनी किस्मत आजमाएँगी।
इस तरह के अनेक उदाहरण हरियाणा के गांवों में भी देखने को मिल रहे है। मेवात ज़िले के पुन्हाना खंड के सबसे बड़े गाँव सिंगार में अलग तरह का उदाहरण देखने को मिला है। सिंगार गाँव के मौजूदा पैंतालिस वर्षीय सरपंच हनीफ की पहली पत्नी ने ही उनकी दूसरी शादी करवा दी ताकि गाँव में उनका सरपंच जी वाला रुतबा बना रहे। क्योंकि पढ़ा-लिखा ना होने के कारण हनीफ चुनाव नहीं लड़ सकते थे। इसलिए उनकी पत्नी ज़ाहिरा ने कुछ दिनों पहले ही उनसे उम्र में 14 साल छोटी आठवीं पास महिला से शादी करवा दी। अब गाँव में सरपंच के पद पर वो अपनी दावेदारी पेश करेंगी।
गांवों में महिलाओं की गंभीर स्थिति दर्शाने वाले कुछ और उदाहरण देखने को मिल रहे है। मेवात ज़िले के नगीना खंड के सैतालीस वर्षीय सरपंच व आठ बच्चों के पिता दीन मोहम्मद ने अपनी सरपंची बचाने के खातिर दूसरी शादी की है। कुछ महीने पहले ही दीन मोहम्मद ने 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने बड़े बेटे की आठवीं पास लड़की से शादी करवा दी ताकि उनकी पुत्र वधु चुनाव लड़ सके। लेकिनपुत्र वधु की आयु 21 वर्ष से कम निकली। इसलिए उन्होने अपने साले की आठवीं पास पत्नी को तलाक दिलवाकर खुद शादी कर चुनाव के मैदान में ताल ठोक दी है। दीन मोहम्मद के इस कदम उसके परिवार वाले खुश नज़र आ रहे है। वहीं उनकी दूसरी पत्नी सजिया का कहना है कि वो इस शादी से खुश है क्योंकि बच्चा ना होने के कारण उसके ससुराल वाले उससे खुश नहीं थे।
यह उन असंख्य उदाहरणों में से कुछ ही है जो दिन-प्रतिदिन सामने निकल कर आ रहे है। इस तरह के अनेक उदाहरण आपको गांवों में आसानी से देखने को मिल जाएँगे, जो साफतौर पर महिला उपभोक्तावाद को दर्शाते है। सबसे दुखद बात तो यह है कि इस प्रकार की हो रही घटनाओं को लेकर किसी को कोई आपत्ति नहीं है और गाँव वाले हर्ष के साथ स्वीकार कर रहे है।हालात यह कि अगर आप चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के पोस्टरों पर नज़र डाले तो चौकने वाली चीज़ें नज़र आएंगी जैसे चुनाव में उम्मीदवार तो महिला है लेकिन प्रचार वाले पोस्टर पर फोटो उनके पति या ससुर का है। महिला उम्मीदवार का तो केवल नाम ही लिखा गया है।
सत्ता के लिए सौतन भी मंजूर (पूरा समाचार पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें )
मेवात जिले के नुह खंड के गाँव घासेड़ा में सरपंच पद की पढ़ी-लिखी उम्मीदवार और समाजसेविका नसीम जी बताती है कि पंचायत चुनाव में महिला आरक्षण की वजह से महिलाओं की संख्या तो बढ़ी है लेकिनी महिलाओं की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है। आज भी महिला आरक्षित सीट पर चुनाव तो महिला ही लड़ती है लेकिन सरपंच तक का सारा काम-काज पुरुष ही करता है और गाँव वाले पुरुष को ही सरपंच मानते है। महिला सरपंच को केवल हस्ताक्षर करने के लिए ही बुलाया जाता है और इसमें गाँव वालों को भी कोई बुराई नज़र नही आती है। चुनाव में पर्चा दाखिल करने से लेकर जीतने तक का सारा काम पुरुष ही करता है। क्योंकि महिला को चुनाव के मैदान में उतारने के पीछे भी उनके अपना स्वार्थ होता है और वह अपनी योजना में आसानी से कामयाब भी हो जाते है।
इस प्रकार की घटनाओं को देखकर मन में कई प्रकार के सवाल उठते है। हम लोकतन्त्र की जिस सबसे छोटी इकाई यानि पंचायत को मजबूत करना चाहते है वो किस ओर जा रही है? आज भी गाँव में महिलाओं की क्या स्थिति है? नंबर वन हरियाणा का नारा देने वाले और भारत के सबसे विकसित राज्यों में गिने जाने वाले हरियाणा में आज भी पुरुष-महिला अनुपात सबसे कम है। समाज में आज भी महिला उपभोक्तावाद और पितृसत्तात्मक नज़रिया साफतौर से उभर कर आता है। जहा पुरुष अपने राजनीतिक हितों की एवज में महिलाओं का मनमाफिक इस्तेमाल कर रहे है। अपने राजनीतिक हितों को पूरा करने के लिए बिना मर्ज़ी के लड़की की शादी कर दी जाती है तथा शादी में खुश होने के नाम पर भरी-भरकम दहेज दे दिया जाता है। पुरुषवादी विचारधारा इसको महिलाओं के प्रति अपनी शान और कर्तव्य समझती है लेकिन यह आज के दौर में व्याप्त महिला उपभोक्तवाद की तस्वीर पेश कर रहा है कि किस प्रकार महिलाओं को अपने स्वार्थ के लिए वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। जोकि भारत जैसे लोकतान्त्रिक व संवैधानिक देश के लिए चिंता का विषय है।सरकार चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने को ही अपनी उपलब्धि मानकर चल रही है जबकि उसका दुरुपयोग कर रहे लोगों खिलाफ कोई योजना नहीं है। इसलिए आज महिलाओं को आरक्षण देने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है जोकि एक बहुत ही दुखद पहलू है। हालांकि इस बार पंचायत चुनाव प्रक्रिया में संशोधन के बाद लोगों का लड़कियों को पढ़ाने की तरफ ध्यान गया है जोकि सुधार की ओर एक अच्छा कदम साबित हो सकता है। बशर्ते लोग पढ़ाई की अहमियत को समझ पाये।
अल्टो छोड़ दहेज में लाई गाय, ससुराल वाले फूलों न समाय (पूरा समाचार पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें )
अब देखना यह है कि अगर गाँव में इन पढ़ी-लिखी महिलाओं को चुनाव लड़ने का मौका मिलता है और अगर वह चुनाव जीतकर आती है तो गाँव के पुराने राजनीतिक लोगों का क्या होगा? उनकी राजनीतिक सोच में महिलाओं को लेकर कोई बदलाव आएगा? या फिर यह सिर्फ एक राजनीतिक दांव-पेंच बनकर ही सिमट जाएगा? अगर बदलाव आता है तो किस प्रकार का बदलाव आएगा? क्योंकि इस बार पूरे राज्य में पढे-लिखे उम्मीदवर ही चुनाव लड़ रहे है। तो कहीं ना कहीं पूरे राज्य में पढे-लिखे सरपंच होंगे।
लेखक जामियामिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली से स्नातकोत्तर हैं और हरियाणा के जिला मेवात में रहते । आजकल शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत है। लेखन में रुचि रखते है और सामाजिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. संपर्क ; 9891022472, 7073777713