आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी: ‘चिड़िया भी तुम्हारी, पिंजरा भी तुम्हारा’

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

( पिछले दिनों हमने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्त्रीवादी पुनर्पाठ करते हुए रवींद्र कुमार पाठक का एक आलेख अपने यहाँ प्रकाशित किया था , आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने भी  वाणभट्ट की आत्मकथा के सन्दर्भ से द्विवेदी जी की ‘स्त्रीदृष्टि’ पर लिखा है . उनके लम्बे आलेख का एक छोटा अंश ) 


चार उपन्यासों के अतिरिक्त अन्य गद्य विधाओं में प्रभूत सृजन करने वाले आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के विषय में एक तथ्य अनायास उभर कर सामने आता है कि उपन्यासकार के रूप में अपनी चौहद्दियों का निर्माण उन्होंने स्वयं अपने पहले उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में 1946 में कर लिया था। शेष उपन्यास उन चौहद्दियों पर सतर्क पहरेदार बैठाने के उपक्रम मात्र हैं, उन चौहद्दियों का अतिक्रमण करते हुए संवेदना एवं अंतर्दृष्टि के फलक का विस्तार करने के सर्जनात्मक प्रयास नहीं। यही कारण है कि आज भी वे ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के प्रणेता के रूप में याद किए जाते हैं और ‘चारु चंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ तथा ‘अनामदास का पोथा’ उनके कृतित्व में शामिल भर कर लिए जाते हैं। जाहिर है इससे अनायास यह प्रतीति होती है कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उनकी ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य की अमूल्य कृति है,  जिसमें अपने युग के सामने उपस्थित जटिलताओं से जूझने हेतु उन्होंने ज्वलंत प्रश्नों को भविष्यद्रष्टा दार्शनिक की गहन अंतर्दृष्टि के साथ उठाया होगा। लेकिन हजारीप्रसाद द्विवेदी सघन-सायास ढंग से सामाजिक समस्याओं को नहीं उठाते, ऐतिहासिकता के कलेवर में वर्तमान को छुपा कर मनुष्य एवं दर्शन से जुड़े चिरंतन एवं सूक्ष्म प्रश्नों पर संस्कृति एवं अध्यात्म की जमीन पर खड़ेे होकर विचार करते हैं। बेशक इससे वर्तमान परिवेश प्रखर एवं ठोस ढंग से उभर नहीं पाता, लेकिन कुछ बुनियादी सवालों को व्यापक गहराई एवं विस्तार के साथ विश्लेषित करने की संभावना अवश्य बलवती होे जाती है कि सृष्टि, जीवन, मनुष्यता और संस्कृति के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए व्यक्ति व्यक्ति का, व्यक्ति और सम्बन्ध का, सम्बन्ध और व्यवस्था का स्वरूप एवं अंतर्सम्बन्ध कैसा होना चाहिए; कि स्त्री एवं पुरुष, सवर्ण एवं दलित के विषमतामूलक त्रासद विभाजन को खारिज कर आदर्श मनुष्य एवं व्यवस्था में किन उदात्त विचारबिंदुओं को जोड़ना होगा। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने समूचे साहित्य में निरंतर इन्हीं प्रश्नों का संधान किया है, किंतु दुर्भाग्यवश वे शास्त्रीय दृष्टि एवं ब्राह्यणवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। परिणामस्वरूप वर्णाश्रम व्यवस्था के संवर्धन में लिप्त उनका समूचा चिंतन अस्मिता विमर्श की नुकीली पड़ताल के संदर्भ में बगले झांकने लगता है। शास्त्रीय दृष्टि से ‘श्रेष्ठ’ रच देने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि वह अनिवार्यतः जमीनी सच्चाइयों से जुड़ा साहित्य भी है। फलतः द्विवेदी जी की स्त्री दृष्टि वैचारिक औदात्य के घटाटोप में छिपी मानसिक जड़ता को उकेरने में जरा भी देरी नहीं करती।

रवींद्र कुमार पाठक के आलेख के लिए क्लिक करें : ज्वलंत स्त्री-समस्या पर कविताई 

स्त्री को लेकर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बेहद गंभीर हैं। समूचे साहित्य में स्त्री की गरिमा के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं। सर्वत्र देवी, भगवती, महामाया, त्रिपुरभैरवी जैसे विशेषणों से अलंकृत वह एक दिव्याकृति है, जो ‘हिमालय से भी अधिक महीयसी और समुद्र से भी अधिक गंभीर है’। ब्रह्म  को लेकर नहीं, वरन् स्त्री को लेकर ‘नेति नेति’ की सी स्थिति, पहले ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बाण के संग कि ”मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूं” और फिर राजा सातवाहन के साथ बाकायदा हलफनामा कि ”मैं नारी जाति का सम्मान करना जानता हूं। उसकी महिमा और मर्यादा का जानकार हूं। मुझे यह भी मालूम है कि मेरे कुल का कोई भी बालक नारी लम्पट नहीं होता।” (चारु चंद्रलेख, पृ0 18) . लेकिन नारीवादी चिंतक हैं कि इन्हीं मुखर घोषणाओं के चलते उद्घोषक के व्यत्क्तित्व और नीयत दोनों को शक के घेरे में ले आते हैं।

”नारी का जन्म पाकर केवल लांछन पाना सार नहीं है”  बनाम ”औरों की शांति के लिए अशांत होना ही सच्ची साधना है”
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि उनकी अभिजात मनोवृत्ति सामाजिक व्यवस्था की क्रूरता से संत्रस्त सामान्य स्त्री पात्रों की नियति पर विचार करना नहीं चाहती। दरअसल व्यवस्था की क्रूरता उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ती। बेशक वे जानते हैं कि शहर में गणिकाएं हैं, मंदिरों में देवदासियां हैं, राह चलती बालाओं को अपहृत करते दस्यु हैं, यौन हिंसा से सभी वर्गों की कन्याओं में भय फैलाते लम्पट अभिजन हैं, जहां-तहां शार्विलक के अड्डे हैं, जिनमें दिनदहाड़े कन्याओं की खरीद-फरोख्त होती है और घरों में एक अलग तरह का उत्पीड़न झेलती विधवाएं हैं,  जिन्हें घर की तुलना में सड़कंे अधिक निरापद जान पड़ती हैं। लेकिन तथ्यों को जानना स्थिति को स्वीकारना नहीं होता। पहली अवस्था में जानकारी बेजान सूचना भर है और दूसरी अवस्था में चेतना के द्वार खटखटा कर कुछ बेहतर कर डालने का बीड़ा बन जाती है। व्यक्ति को सूचना बना डालना उस अमानवीय व्यवस्था की कूटनीति है जो अपने से इतर किसी अन्य की जीवंत सत्ता नहीं स्वीकारती। इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते जान पड़ते हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी। यही कारण है कि मंदिरों के गर्भगृह में कामलोलुप महंतों के यौन शोषण की शिकार देवदासियों की घुटी चीत्कारें उनके कानों तक नहीं पहुंच पाती,  क्योंकि शास्त्रों के अनुसार देवदासियां वे सौभाग्यवती कन्याएं हैं,   जिन्हें उनके धर्मपरायण माता-पिता धर्म की रक्षा हेतु मंदिर के प्रांगण में देवता को अर्पित कर जाते हैं  । गृहस्थी के ससीम बंधन में बंधने की अपेक्षा देवाराधन का असीम व्योम पा जाना क्या सौभाग्य का लक्षण नहीं? ठीक इसी प्रकार पुरुषों के प्रसादन हेतु अपनी देह एवं कला को बेचती गणिकाएं भी उनके समक्ष एक प्रश्नचिन्ह बन कर नहीं उभरतीं जिनसे समाज व्यवस्था ने एक नैसर्गिक जीवन जीने का अधिकार छीना है। न ही वे इस प्रश्न की पड़ताल करना चाहते हैं कि क्या गणिकाएं या देवदासियां स्वेच्छा से इन व्यवसायों को अपनाती हैं? उन्हें दूर से सुखी, सम्पन्न और प्रतिष्ठित दिखा कर मानो वे हर जवाबदेही से पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। लेकिन स्थान एवं प्रतिनिधित्व न दिए जाने की हर चौकस चेष्टा के बावजूद जहां-जहां ये सामान्य स्त्रियां पात्र रूप मे कथा में प्रविष्ट हुई हैं, वहां-वहां अपनी व्यथा एवं समाज व्यवस्था के षड्यंत्रों को उन्होंने तीखी अभिव्यक्ति दी है। ‘पुनर्नवा’ की गणिका मंजुला समृद्धि, प्रतिष्ठा एवं प्रशंसकों की भीड़ के बावजूद कितनी रंक, एकाकी एवं अपमानिता है इसका अनुमान उस मनोद्गार से लगाया जा सकता है जिसे वह जीते जी व्यक्त भी नहीं कर सकी। बस, लिपिबद्ध कर दिया, भविष्य की किसी सहृदय घड़ी/पीढ़ी के पाठ के लिए जो शायद उसके उत्पीड़न और उत्पीड़क दोनों को भलीभांति समझ कर उस जैसी गणिकाओं को रौरव नरक की असहनीय यातनाओं से मुक्ति दिला सके। मंजुला के पत्र का एक-एक शब्द अमानुषिक व्यवस्था और उसके रक्षकों के चरित्र को चीन्ह-खोज कर निदान की मांग करता है – ”यहां मिट्टी के गाहक आते हैं। अपना सर्वस्व उलीच कर, पाप खरीद कर लौट जाते हैं। पुरुषत्व के वे कलंक हैं, स्त्रीत्व के अपमानकारी। वे रसिकम्मन्य होते हैं, रसिक नहीं। इस विटों, विदूषकों और बंधुलों के स्वर्ग में केवल नरक यातना के अधिकारी ही आते हैं। यहां कामुकता को पुरुषार्थ, भोंडेपन को सरसता, मूर्खता को विदग्धता, स्त्रैण भाव को पौरुष माना जाता है। ” (‘पुनर्नवा’ पृ0 55) यानी लेखक व्यवस्था का अभिशाप ढोती मंजुला की पीड़ा का साक्षी है   – बाणभट्ट की तरह, जो तिरस्कृता-लांछिता सहचरी निपुणिका की दुर्दशा देख कर बौखला गया है – ”स्त्री के दुख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसके दशमांश भी नहीं बता सकते। . . . क्या स्त्री होना ही अनर्थों की जड़ नहीं है? . . . निपुणिका में इतने गुण हैं कि वह समाज और परिवार की पूजा का पात्र हो सकती थी, पर हुई नहीं। . . . वह हंसमुख है, कृतज्ञ है, मोहिनी है, लीलावती है – ये क्या दोष हैं? मेरा चित्त कहता है कि दोष किसी और वस्तु में है,  जो इन सारे सद्गुणों को दुर्गुण कह कर व्याख्या करा देती है। वह वस्तु क्या है? निश्चय ही कोई बड़ा असत्य समाज में सत्य के नाम पर घर बना बैठा है।” (‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, पृ0 255) बाण दो बातें भलीभांति जानता है कि ‘सहानुभूति द्वारा ही पीड़िताओं की मर्मवेदना का किंचित आभास पाया जा सकता है” और दूसरे, ”मनुष्य के सामाजिक सम्बन्धों की जड़ में ही कहीं बहुत बड़ा दोष रह गया है।” (‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, पृ0 254) लेकिन उसके पास दोनों ही बातों के लिए अवकाश नहीं। चूंकि स्त्री देव-मंदिर में प्रतिष्ठित देवमूर्ति है, उसकी ‘मर्मवेदना’ के प्रति’सहानुभूति’ का निदर्शन उसे बेहद क्षुद्र लगता है। वह मनोयोगपूर्वक उसके देवत्व का संधान कर उसकी लौकिक पीड़ा पर दिव्य लेप कर देना चाहता है – ”तुम जिस पाप जीवन की बात कह रही हो, वह मनुष्य की बनाई हुई विकृत सामाजिक व्यवस्था की देन है। चिंता न करो देवि, इससे उद्धार हो सकता है। तुम्हारा देवता तुम्हारे भीतर बैठा हुआ अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है। कोई बाहरी शक्ति किसी का उद्धार नहीं करती। यह अंतर्यामी देवता ही उद्धार कर सकता है। . . . देवता न बड़ा होता है, न छोटा, न शक्तिशाली होता है, न अशक्त। वह उतना ही बड़ा होता है, जितना बड़ा उपासक उसे बनाना चाहता है। तुम्हारा देवता भी तुम्हारे मन की विशालता और उज्ज्वलता के अनुपात में विशाल और उज्ज्वल होगा।” (‘पुनर्नवा’,पृ0 22)

आध्यात्मिक कुहासे की सृष्टि कर प्रचंड लौकिक प्रश्नों को धुंधला देना परंपरावादियों की कारगर युक्ति रही है जिसका भरपूर उपयोग आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनेे नायकों के बचाव के लिए किया है। देवरात-मंजुला प्रकरण में आत्मसाक्षात्कार की कठिन प्रक्रिया से गुजरते हुए मंजुला जिस बिंदु पर उत्तरोत्तर अहं का विसर्जन कर ‘स्व’ को पा लेती है, ठीक वहीं गणिकावृत्ति से मोक्ष दिलाने के लिए कथा में आचार्य देवरात के सबल-संपुष्ट हस्तक्षेप की नियोजना की जाने लगती है। ”सदा प्रसन्न, सदा श्रद्धापरायण, सदा निर्लोभ” जैसे विशेषणों से अलंकृत वीतरागी देवरात ही मंजुला के गुरु हैं जिन्होंने उसे सिखाया है कि ”अपने को खोकर ही अपने को पाया जा सकता है” (पृ0 18)। यह वही हैं जिन्होंने लोक के विरुद्ध चल कर गणिका को न केवल ”नारायण की स्मित रेखा के समान पवित्र और मनोहर” बताया है बल्कि उसमें ”भावविह्वला भक्तिमती लीलारूप” (पृ0 63) भी देखा है। पाठक इन्हीं देवरात को वेश्यावृत्ति जैसी घृणित व्यवस्था के उन्मूलन में निःशेष भाव से समर्पित देखना चाहता है। पुरुषार्थी के लिए इससे बड़ी तपोभूमि और क्या होगी भला? लेकिन किन्हीं महीयस उद्देश्यों की संपुष्टि में रत लेखक को ऐसीे किसी समानांतर कार्य-योजना में रुचि नहीं। परिणामतः देवरात अपने शिष्यों के अध्यापन कार्य में और भी निष्ठा से डूब जाते हैं; मृत पत्नी का शोक हरहराती नदी बन उनकी चेतना को अपने उच्छ्ल आवेग में जकड़ लेता है; और किसी आकस्मिक महामारी की मूक चपेट मंजुला को उदरस्थ कर लेती है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। प्रकरण समाप्त होने पर निष्कृति का आश्वस्तिपरक उच्छ्वास! जरूरी नहीं होता कि लेखक का हर करतब पाठक को अभिभूत ही कर दे। असहमति और आक्रोश में दूर छिटकने को वह स्वतंत्र रहता है। इसलिए स्वप्न बन कर मंजुला नहीं, वरन् पाठकीय क्षोभ देवरात जैसे कट्टरवादियों की खबर लेने लगता है कि ”अपनी शांति के लिए तपस्या करना सबसे बड़ा स्वार्थ है। वह सबसे बड़ी छलना भी है। औरों की शांति के लिए अशांत होना ही सच्ची साधना है।”

मंजुला की व्यथा का मानवीय विस्तार है ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की एकमात्र स्मरणीय एवं गतिशील पात्र निपुणिका। अभाव ने उसे रचा है, सामाजिक रूढ़ियों ने उसे दिशा दी है और संघर्ष ने उसे संवारा है। कांदविक वैश्य (जो भड़भूजे से सेठ बना था) की पत्नी के रूप में एक वर्ष का दाम्पत्य जीवन जीने वाली निपुणिका ने वैधव्य के अभिशाप को शारीरिक-मानसिक स्तर पर बहुत गहरे झेला है। पूर्णतया अरक्षित इस बालिका को आत्मरक्षा के उद्योग में घर से भाग कर अकेले इधर-उधर भटकना पड़ा है। जीवन उसके लिए कांटों भरी डगर रहा है। समतल तब हुआ जब सोलह वर्ष की अबोध आयु में अपना परिचय और दीनता छुपाती हुई वह बाणभट्ट की नट-मंडली में बतौर अभिनेत्री शामिल हुई। अभिनय उसके लिए कठिन कार्य था भी नहीं क्योंकि नारी-विग्रह लेकर परिवार-समाज में कदम-कदम पर अभिनय ही तो करना पड़ता है स्त्री को – ”जो वास्तव है उसको दबाने और जो अवास्तव है उसका आचरण करना – यही तो अभिनय है। सारे जीवन यही अभिनय किया। एक दिन रंगमंच पर उतर जाने से क्या बन या बिगड़ जाएगा।” (‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, पृ0 281) समूचे दिक्-काल का अतिक्रमण कर निपुणिका विशुद्ध स्त्री है और व्यथामूलक नियति के आधार पर समूची स्त्री जाति को एकीकृत कर देने वाला घटक। उसकी व्यथा धर्मशास्त्रीय मान्यताओं से जन्मी और सामाजिक रूढ़ियों से पोषित है जिन्हें पुरुष और सत्ता का अहं अंतिम सत्य मान उसकी मानवीय इयत्ता को सूक्तियों और आप्तवचनों में रिड्यूस कर डालना चाहता है। इसलिए निपुणिका पूरे उपन्यास में मनुष्य के रूप में एक जीवंत इकाई नहीं दीखती, कुछ छवियों, कुछ पूर्वग्रहों, कुछ अपेक्षाओं के मिश्रण से तैयार अबला नारी का प्रतीक है। पुरुष वेश में शार्विलक के अड्डे पर एक दिन नौकरी करती निपुणिका उन तमाम संकटों और विद्रूप सत्यों की ओर उंगली उठाती है जो स्त्री जीवन को आए दिन घेरे रहते हैं। स्त्री वेश में वह निर्द्वंद्व नहीं घूम सकती क्योंकि अपहरण या यौन शोषण का भय हर दम सिर पर मंडराता रहता है। शार्विलक के अड्डे पर ऐसी ही अपहृता कन्याओं के क्रय-विक्रय के घृणित व्यापार को वह देख चुकी है और दासी अथवा गणिका के रूप में उन कन्याओं के लाचार जीवन को भी। स्वयं सम्मानजनक जीवन की आकांक्षा में वह पान की दुकान चलाती है लेकिन पाती है कि पान से ज्यादा मुस्कान बेच कर उसे अपना पेट भरना पड़ता है। स्त्री शरीर को देवमंदिर के समान पवित्र और रमणीय मानने वाले बाणभट्ट से उसे ढेरों अपेक्षाएं हैं लेकिन आकाश-कुसुम के लिए भटकता भट्ट जमीनी सच्चाइयों से रू-ब-रू होना ही नहीं चाहता। निपुणिका शब्द-शब्द अपनी यातना उसे बताती है – ”मेरा कौन सा ऐसा पाप चरित्र है जिसके कारण मैं निदारुण दुख की भट्टी में आजीवन जलती रही? क्या स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थों की जड़ नहीं है? तुम इस छोटे से सत्य के साथ राष्ट्र जीवन के बड़े सत्य को अविरोधी पा रहे हो?  क्.या बृहत्तर सत्य के नाम पर मिथ्या का तांडव नहीं चल रहा है?” (पृ0 245) भट्ट अक्षर-अक्षर पिघलता चलता है लेकिन बकौल निपुणिका वह ‘जड़ पाषाण पिंड मात्र है’ जिसके भीतर न देवता ह,ै न पशु। है तो एक अडिग जड़ता। उद्बोधन और निवेदन, आक्रोश और संकल्प के बीच झूलती निपुणिका लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मात्र एक करावलम्ब चाहती है – ”मेरी इच्छा है कि एक बार तुम सम्राटों की भृकुटियों की उपेक्षा करके इस महासत्य को ऊँचे सिंहासनों तक पहंचा दो। . . .बड़ा दुख है आर्य, इसी विराट दैन्य के अंतःस्पंदनहीन ढूह पर साम्राज्य की नयनहारी रथयात्रा चली जा रही है। मैं इस ढूह की एक नगण्य कणिका मात्र हूं। मुझे इस योग्य बना दो कि आप अपनी अग्नि से धधक कर समूचे जंजाल को भस्म कर दूं। मैं तुम्हारा करावलम्ब चाहती हूं . . . मुझे तेज की चिनगारी दो आर्य।” (पृ0 245) बेचारा भट्ट! उसके पास न तेज ह,ै न आधार। वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का साया है। इसलिए निपुणिका का उद्बोधन परिवर्तनकामी संघर्ष की टंकार बन कर नहीं उभरता, ‘प्रलाप’ बन कर रह जाता है। हालांकि मन के किसी कोने में यह ‘प्रलाप’ उसे ‘सत्यपूर्ण’ भी लगता है लेकिन तुरंत इसे स्नायु दुर्बलता का प्रभाव कह वह उपेक्ष्य मान बैठता है। साया न सोचने को स्वतंत्र है न अपनी ओर से कोई पहलकदमी करने को। वह कठपुतलियों की तरह सिर्फ संकेत पर हाथ-पैर हिला सकता है। भट्ट में बस यही नैपुण्य है।

निपुणिका की निर्णय लेने की क्षमता और कर्मठता (जो भट्ट को नर-बलि से बचाने के प्रकरण में वज्रतीर्थ श्मशान में प्रचंड नृत्य बन कर उभरी है) उपन्यासकार को ज्यादा रास नहीं आती। इसलिए हर दोराहे-चौराहे पर ठिठके भट्ट को सही मार्ग पर ले जाने वाली और अपनी आंखों में आंसुओं की जगह अग्नि स्फुलिंग भर कर व्यवस्था से टकराने का माद्दा रखने वाली निपुणिका को लेखक हतबल कर देता है। अब वह बार-बार परकटे पक्षी की भांति ‘संज्ञाहीन अवस्था में’ पहुंचने लगती है। संज्ञा होने पर आत्मधिक्कार से ग्रस्त –  ”मैं बड़ी पापिनी हूं आर्य. . . मैं सेवा धर्म में भी असफल हूं . . . .हाय, अगर तुम मेरी पाप ज्वाला देख सकते?” ( पृ0 262) ऐसी ‘दुखिया’ स्त्री का उद्धार करने में लेखक को कोई परेशानी नहीं। बल्कि पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को कंधे पर ढोते नायक का यह सौभाग्य है कि निपुणिका के निजी जीवन के दृष्टांत से वह स्त्रीत्व की मर्यादा स्थापित कर सके। तब शुरु होता है निपुणिका के दुखी जीवन के सामाजिक-पारिवारिक आधार को दृष्टिओझल करने का सिलसिला जिसकी अंतिम परिणति भट्टिनी-भट्ट-निपुणिका प्रेम त्रिकोण की प्रतिष्ठा में होती है। भट्ट-भट्टिनी के परस्पर निवेदित प्रेम के बीच वह अवांछित है, लेकिन प्रेम को ‘काम’ से अलगा कर उसमें आध्यात्मिक अर्थच्छायां एवं सात्विक लक्ष्य का रंग भरने वाली।  जाहिर है अब वह न लोक में व्याप्त है न समय-समाज में स्थित; वह न एक पृथक् इकाई है न स्त्री; है तो एक माध्यम – प्रेम को समर्पण, सेवा और आत्मोत्सर्ग की भावना में विलीन कर देने की निमित्त मात्र! ”दो विरोधी दिशाओं में जाने वाले प्रेम को एकसूत्र कर देने वाली” वासवदत्ता! बेशक लेखक उसके बलिदान को सफल नारी जीवन के उत्कर्ष की संज्ञा देकर गणिका चारुस्मिता से असत्य भाषण का स्पर्श करती अतिरेकपूर्ण प्रशंसा कराते हैं- ”निपुणिका स्त्री जाति का श्रृंगार थी, सतीत्व की मर्यादा थी, हमारी जैसी उन्मार्गगामिनी नारियों की मार्गदर्शिका थी” (पृ0 300) लेकिन सत्य यह है कि निपुणिका मूलतः और अंततः सामाजिक-धार्मिक विकृतियों का शिकार थी। उसकी मृत्यु (बलिदान नहीं) अमानवीयता के गहरा जाने का प्रमाण है। उपन्यास में चारुस्मिता का एक और वाक्य है-”दुनिया केवल प्रस्तर प्रतिमाओं पर जान देती है।” इस वाक्य के दो श्रोता थे – धावक और बाणभट्ट। धावक बुद्धिहीन है और बाणभट्ट चाह कर भी इसके आशय को नहीं समझ पाता। क्या इसलिए कि निपुणिका की मृत्यु जर्जर समाज व्यवस्था की पुनर्संरचना का बृहद् आह्वान है जिसके मूल में है व्यक्ति-वर्ग और वर्ण के आपसी सम्बन्धों के ढांचे को आमूल बदलने की आकांक्षा? कहना न होगा कि प्रेम और समर्पण की प्रतिमूर्ति के रूप में निपुणिका का मुखर जय-निनाद सत्य से आंख चुराती लेखकीय मनोवृत्ति को ढांपने का प्रयास है।

सामाजिक समस्याओं से किनारा करने की लेखकीय प्रवृत्ति ‘चारु चंद्रलेख’ में भी द्रष्टव्य है जहां चंद्रलेखा की भांति कुमारी-पूजन को सामाजिक विकृति समझने के बावजूद (”स्त्री पूजा के इस विकृत रूप को मैं एकदम नहीं समझ पाती. . . .सच्चा होकर भी आदमी गलत आचरण कर सकता है”, पृ0 112) वे इसे तंत्र-साधना के लिए अनिवार्य सोपान मानते हैं। किसी भी समस्या का आलोचनात्मक विश्लेषण और उसके विरुद्ध जनमत तैयार करना उसके भौतिक संज्ञान के बिना संभव नहीं। आचार्य द्विवेदी की पारलौकिक दृष्टि भौतिक यथार्थ का निषेध करती हुई सिद्धि, साधना और दर्शन की जटिल गुत्थियां खोल डालना चाहती है। अतः वे तत्परतापूर्वक कुमारी-साधना का विस्तृत परिचय अनिवार्य पृष्ठभूमि के साथ देते हैं  ; कुमारी साधना के लिए अपनी कन्याओं को समर्पित करने वाले माता-पिता के अप्रतिम बलिदान की मुक्त कंठ से सराहना करते हैं  तथा किसी भी प्रकार की साधना के लिए लड़कियों की कमनीय काया की अनिवार्यता को रेखांकित कर गद्गद भाव से स्त्री को महिमामंडित करते हैं। तब इस प्रक्रिया में अनायास भूल जाते हैं कि विशुद्ध ब्राह्मणवादी मनोवृत्ति का परिचय देते हुए तथा विषमतामूलक समाज व्यवस्था की अभ्यर्थना करते हुए वे स्वयं कितनी कुत्सित एवं रुग्ण मान्यताओं का अनुमोदन कर रहे हैं – ”प्रकृति के जड़ पिंडों का जितना सुंदर और सामंजस्यपूर्ण संघात मानव देह है उतना और कुछ भी नहीं है। मानव देह में भी किशोरावस्था का शरीर सर्वोत्तम है। . . .उसमें सब कुछ विकसित हो गया होता है और क्षयोन्मुख कुछ भी नहीं होता। . . . जिस मनुष्य को जितना ही नीच समझा जाता है, उसके मन और बुद्धि को विकसित होने से उतना ही वंचित किया जाता है। इसलिए नीच कही जाने वाली जातियों में मन और बुद्धि का बाहर प्रस्फोट नहीं हो पाता। वह शरीर के भीतर ही भीतर जड़ पिंड को उत्तेजना देते रहते हैं। इसलिए देवि, नीच समझी जाने वाली जातियों का शरीर साधना का सर्वोत्तम साधन है, उसमें भी स्त्री शरीर अधिक श्रेष्ठ है तथापि किशोरावस्था दुर्लभ है।” (चारु चंद्रलेख, पृ0 109) बेशक तुरंत अपनी भूल का परिमार्जन करते हुए वे मनुष्य जीवन में तंत्र-मंत्र की उपयोगिता को खारिज करने में जुट जाते हैं  लेकिन अंत तक न तो स्त्री और दलित के संदर्भ में वर्णाश्रम धर्म की महत्ता एवं उपयोगिता स्थापित कर पाते हैं, और न ही अपनी इस कसौटी पर उसे खरा सिद्ध कर पाते हैं कि ”केवल परदुखकातरता, अपार करुणा, कठोर आत्मदमन और अनाविल सत्यनिष्ठा, यही क्या मनुष्यता की विशेषता नहीं है?” कहना न होगा कि आचार्य के ब्राह्मणवादी संस्कार उन्हें सदैव आत्मनिरीक्षण से निरस्त करते रहे हैं। अन्यथा क्या वजह है कि स्त्री एवं नीच कही जाने वाली जातियों के मन, बुद्धि और तन का आखेट करती कर्मकांडी व्यवस्था के अहम्मन्य स्वार्थपरक शोषक रूप को नहीं देख पाते , जो महाराज की उपाधि धारण करने पर भी हरिश्चंद्र को ‘डोम’ मानने का अहंकार मन में पाले हैं,  क्योंकि ”यह विधान मनुष्य के बदलने से थोड़े ही बदल जाएगा। वह तो विधाता का विधान है।” (चारु चंद्रलेख, पृ0 250) यह वही व्यवस्था है , जो कुमारी पूजन के जरिए स्त्री की आराधना करने के छद्म में हर मंगल-अमंगल का अभिषेक-निदान करने हेतु कन्या बलि की परंपरा का सूत्रपात करती आई है। उल्लेखनीय है कि जहां आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी संदर्भ होते हुए भी विषय से कतरा कर निकल गए हैं, वहीं संदर्भ न होते हुए भी तस्लीमा नसरीन स्वतंत्र लेख के जरिए ‘नष्ट लड़की नष्ट गद्य’ में कन्या पूजन/बलि की अमानवीयता की पड़ताल करती हैं। कहना न होगा कि विश्लेषणशील संदेही दृष्टि से विच्छिन्न कर्मकांडी शास्त्रीय मेधा अंततः आचार्य की परंपरावादी रुग्ण स्त्री दृष्टि का ही निदर्शन करती है।

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ISSN 2394-093X
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