आप नहीं गए होंगे। क्योंकि आप दिल्ली में रहते हैं । दिल्ली में नहीं भी रहते हैं तो आप का दिलो-दिमाग वहीं रहता है । आप क्यों जाएंगें नेमरा । यहां तो आए हैं विशु सोरेन और उन सुरेंद्र सिंह जैसे लोग । नेमरा से तीन सौ किलोमीटर दूर पोती को कंधे पर लेकर पहुंचा एक शख्स रात में पैदल चले जा रहा है । मिलों पैदल । साथ में पत्नी भी है । परिवार के दूसरे सदस्य भी । पूछा! क्यों आए हैं । कहने लगे शिबू के गांव कभी नहीं आए थे । देखने आए हैं। हमारी जमीन लूट ली जाती थी । शिबू ने बचाया 70 किलोमीटर दूर हजारीबाग के गांव से पहुंचे विशु सोरेन की पत्नी बिफर कर कहती हैं…”शिबू सोरेन बहुत सहयोग किया तब जाकर जान बचा । भूखे मर रहे थे। महाजन को हबड़ा (हड़बड़ा) दिया तब खाना मिला । बाल बच्चा बच गया । शिबू सोरेन बीत गया त अफसोस हो गया । ओकर जनमथनी (जन्मस्थली) में आ गए तो लोर( आंसू) गिरे लगल । विशु सोरेन की पत्नी कहतीं हैं । शिबू का बेटा भी वैसा ही बने ताकि उनके बाल-बच्चों की जान बचे ।

नेमरा के शिबू ने कभी मंदिर नहीं मांगा । नफरत नहीं बांटी । हिंसा नहीं किया । रोटी-कपड़ा-मकान नहीं मांगा । सिर्फ तीन चीजें मांगीं । जल-जल और जमीन । बाकी का इंतजाम वे खुद कर लेते। 16 अगस्त को शिबू सोरेन का संस्कार भोज था । मटन, मछली, पूरी, मिठाइयां बहुत सारी चीजें बनीं थीं। हिन्दुओं के त्योहार जन्माष्टमी का दिन भी था । आदिवासी समाज अपनी परंपरा निभा रहा था । जो सुबह आठ बजे घर से निकले वे रात के रात आठ बजे नेमरा पहुंचने में सफल हो सके । लोग चले ही जा रहे थे। पुरुषों से ज्यादा महिलाएं थीं । बच्चे थे । एक तरफ से लोग आ रहे थे दूसरी तरफ से जा रहे थे । कहीं कोई अफरा-तफरी नहीं। शाम के 5 बजे तक 7 लाख लोग नेमरा में आ चुके थे । ये सड़क नेमरा में ही जा कर खत्म हो जाती है । आगे पहाड़ है और जंगल । पार्किंग में 20 हजार से अधिक गाड़ियां लगीं थीं। ज्यादातर स्कॉर्पियो और टेकर थे । बरलंगा से नेमरा की दूरी सात किलोमीटर है। दोनों तरफ धान के खेत । नेमरा पंचायत की आबादी तीन हजार से ज्यादा की नहीं होगी । मिट्टी के घर । कुछ एक पक्के मकान । शिबू सोरेन का घर नेमरा का आखिरी घर है। रात के 9 बज चुके हैं । ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी के चेहरे पर थकावट साफ झलक रही है । हजारों लोग अभी भी इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें भोज खाने का मौका मिले । शिबू के घर पहुंचने का , श्रद्धांजलि देने का । थकावट हमें भी महसूस हो रही थी । लेकिन इतने लोगों के साथ देख ऊर्जा मिली । हजारों लोग सड़के के दोनों तरफ अभी भी आ रहे थे जा रहे थे । शिबू सोरेन में लोगों की श्रद्धा थी। उनके प्रति कृतज्ञता। शिबू के लोग पैदल आ रहे थे । दिल्ली के लोग हेलीकॉप्टर से । आसमान से जब जमीन पर देखते होंगे तो खुद को अदना महसूस करते होंगे राजनाथ सिंह । बहुत साल पहले शिबू और उनके लोग दिल्ली चलो का नारा देते थे। पटना में प्रदर्शन करते । तीर-धनुष देख दिल्ली के लोग अपनी हंसी छुपाते थे। जंगली कहते थे । आज दिल्ली के लोग नेमरा आ रहे हैं। शिबू ने यही बदलाव किया है। अपने लोगों को आजादी दी है । सोचने-पैदल चलने अपने नेता तक पहुंचने और यूट्यूबर्स के सामने शिबू की कहानी कहने की ताकत दी है । रात के 10 बज रहे हैं । पुलिसवाले बता रहे हैं कि आठ लाख से कम लोग नहीं पहुंचे होंगे। दिल्ली से मीडिया की कोई टीम स्पेशल कवरेज के लिए नहीं आई है ।

शिबू गुरुजी थे। दिशोम गुरु । गुरु घंटाल नहीं। औरतों , मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों के प्रति नफरत फैलाने वाले बाबा होते तो दिल्ली की मीडिया जरुर आती । एंकर्स इंटरव्यू करते । शिबू सोरेन ने कभी किसी की पर्ची नहीं निकाली। कट्टरता नहीं फैलाई । उन्होंने सिर्फ तीन बातें कहीं जल-जंगल और जमीन । दिल्ली की मीडिया नहीं आई तो कोई बात नहीं.. वे भी नहीं आए जो दिल्ली की मीडिया से निकाले गए हैं और तरह-तरह की खबरें-खुलासे वैकल्पिक मीडिया पर करते हैं । कल्पना सोरेन का ग्लैमर होता है तो खबरें बनाते हैं मगर जब दिशोम गुरु के लिए ना दो शब्द लिखते हैं और ना ही बोलते हैं । शायद उनके घरों में शिबू के लोग मेड का काम करती होंगी । उन्होंने और उनके बाप-दादाओं ने आदिवासियों-दलितों को हमेशा जूते की नोक पर रखा होगा..। वे अभी भी नहीं मान रहे हैं कि मौजूदा राजनीति के दौर में कोई ऐसा करिश्माई नेता था जिसके अंतिम दर्शन के लिए दस लाख लोग पहुंचे। वे कभी नहीं मानेंगे । तब तक नहीं मानेंगे जब तक कि उनके बच्चे शिबू के लोगों के मातहत काम करें। रात के 11 बज चुके हैं । शिबू के लोग घर की लौट रहे हैं । पैदल । थक कर सड़क किनारे ही सो गए । बच्चे माओं की गोद में चिपक गए । आज बारिश नहीं हुई , जमीन सूखी है । थकावट से नींद आ गई । सुबह का सूरज नेमरा में देख लौट जाएंगें…अपनी खेतों में..आपकी घरों में ।