गीता मलिक की कविताएँ

१. बेखबर

——–

रात बिजली के खंभे से गिर कर

मर गया एक आदमी

एक पुल से नीचे गिरी है कार

एक निर्वाचित व्यक्ति पिछड़ गया एक वोट से

एक युवा हार गया है पहला क्रिकेट मैच

एक मजदूर गिर गया है गश खाकर जमीन पर

एक लड़की पकड़ी गई है सरेआम प्रेमी के साथ

एक शहर में घुमाया गया औरतों को निर्वस्त्र

एक देश में फैल गया है पानी का अकाल

और एक अखबार कहता हूं भ्रष्टाचार के इंडेक्स में अस्सी वे स्थान पर हैं भारत

जहां दुनिया की तमाम घटनाओं को लगभग चीखती आवाज में बतलाते हैं तमाम टीवी चैनल्स

उसी दुनिया के एक कोने में

तमाम घटनाओं से बेखबर

एक छोटा बच्चा

दीवार पर लिखता है ‘पतंग’

और मांझे की जगह बांधना चाहता है मजबूत मोटी रस्सी

ताकि भगवान के पास गई हुई मां को

उतार लाए नीचे!

२.मातृत्व

——–

जैविक मातृत्व से भी बड़ा है

सृष्टि का मातृत्व

मेरे स्वप्न में आती है

वह गुलाम अफ्रीकी काली महिलाएं

जो बेच दी गई कैरेबियाई द्वीपों अमेरिका और यूरोप के तमाम हिस्सों में

भर दी जाती थी पानी के जहाजों में इतने छोटे केबिनों में

जहां पैर फैलाने की जगह तक नहीं होती थी

लंबी यात्राओं में

मातृभूमि की स्मृति में

उन्हें याद रहता प्रतिपल

मोटे चावल का वही अफ्रीकी स्वाद

गुलाम औरतें जिन्हें जोत दिया गया यूरोपियन प्लांटेशन में

जहां विषम परिस्थितियों में भी उग आता था उनका धान

गुलाम औरतें संपत्ति के नाम पर मात्र स्मृति लेकर आई थी

पुरखों द्वारा अर्जित किए गए

पारंपरिक ज्ञान और अपनी स्मृति में रचे बसे

चावल के स्वाद को

उन्होंने हर जगह रोपा

जहां भी उन्हें रखा गया

 सृष्टि का मातृत्व कितना प्रबल था उनमें

जिसे बचाने के लिए

अफ्रीकी औरतें अपनी बेटियों के बालों में

गूंथ देती थी धान के बीज रात्रि में

इस भय से कि सुबह उन्हें बेच न दिया जाए

एक अजनबी मुल्क की मिट्टी में

और रसोई में

जिन्होंने फैला दी अपने स्वाद की खुशबू

और भर दिए उनकी सन्ततियों के घर भंडार!

जैविक मातृत्व से भी बड़ा है

सृष्टि का मातृत्व

मेरे स्वप्न में आती है

वह गुलाम अफ्रीकी काली महिलाएं

जो बेच दी गई कैरेबियाई द्वीपों अमेरिका और यूरोप के तमाम हिस्सों में

भर दी जाती थी पानी के जहाजों में इतने छोटे केबिनों में

जहां पैर फैलाने की जगह तक नहीं होती थी

लंबी यात्राओं में

मातृभूमि की स्मृति में

उन्हें याद रहता प्रतिपल

मोटे चावल का वही अफ्रीकी स्वाद

गुलाम औरतें जिन्हें जोत दिया गया यूरोपियन प्लांटेशन में

जहां विषम परिस्थितियों में भी उग आता था उनका धान

गुलाम औरतें संपत्ति के नाम पर मात्र स्मृति लेकर आई थी

पुरखों द्वारा अर्जित किए गए

पारंपरिक ज्ञान और अपनी स्मृति में रचे बसे

चावल के स्वाद को

उन्होंने हर जगह रोपा

जहां भी उन्हें रखा गया

 सृष्टि का मातृत्व कितना प्रबल था उनमें

जिसे बचाने के लिए

अफ्रीकी औरतें अपनी बेटियों के बालों में

गूंथ देती थी धान के बीज रात्रि में

इस भय से कि सुबह उन्हें बेच न दिया जाए

एक अजनबी मुल्क की मिट्टी में

और रसोई में

जिन्होंने फैला दी अपने स्वाद की खुशबू

और भर दिए उनकी सन्ततियों के घर भंडार!

३.बूढ़ा नीम

———

कोई पहर है रात का

शायद तीसरा

घड़ी की टिक टिक

एक पचपन

एक छप्पन…

निर्जन समय की चित्कार

पानी की टिप टिप

अँधेरे की सायं सायं

बूढ़े नीम का स्याह तना

भींगे पत्तों की हरहराहट से भरा

देखता भौंचक , हैरान

मेरे दुख के हरेपन की काई को ओढ़े

मेरे पैरों की फिसलन को थामें

देखता रुग्णाई देह से

नीम मेरे पिता की तरह बूढ़ा हो गया है

मेरी माँ की झुर्रियां उभर आयी है उसके तने में

मेरे हर्फ़ इन दिनों

उसकी पत्तियों की तरह झड़ रहे हैं

यहाँ वहां बिखर रहे हैं हवा में

मैं देख रही हूँ नंगी आँखों से

दिशाहीन समय की अनियमित्ता को भागते हुए

जैसे भाग आयी थी मैं

घर से

पिछले माह गंगा के घाट पर

बिना सोचे-समझे

प्रवाह ने बताया

लोग भटक जाते हैं गलत राहों में चलते हुए

लेकिन

नदी जानती है अपने बहने की दिशा

मैं टकरा रही थी

बहाव के विपरित

हवा के थपेड़ों से

यह दुनिया एक भूलभूलैया में

तब्दील होती जा रही हैं

रात के इस पहर में

घोर शान्ति है

सन्नाटा कह रहा हैं

सभी दिशाएं कहीं जाती है

लेकिन कहाँ?

नीम चुप क्यों खड़ा है

बरसों से!

बताओं तो?

४.अन्तिम शब्द

———–

बना लेना चाहती हूँ

अन्तिम शब्दों की

एक अन्तहीन रस्सी

मेरी स्मृति में गूंजते हैं

कई लोगों के अंतिम शब्द

और कई दिनों तक

लोगों की जिह्वा पर टिके

बार-बार दोहराए गए

वहीं अंतिम शब्द

धीरे धीरे भुला दिए जाते है

पिता ने कहा था

‘जो अर्जित नही किया

उसे खोने/ बेचने का हक भी तुम्हारा नही

गाँव ,घर , जमीन

सौंपना अपनी संतति को तुम भी’

मृत्यु तुम्हारी आमद पर

मैंने कितने क़सीदे गढ़े

तुम किस वेश में आओगी

मैं नहीं जानती

यहाँ तक आते आते

मैं समझ गई हूं

खीज़ से उपजे हुए

थोथरे शब्द

नही होते अन्तिम शब्द

बीस दिन पहले जवान बेटे की मौत पर

कैंसर से जूझते हुए व्यक्ति ने कहा था

अपनी पत्नी से

‘अब घर और घेर मैदान हो गए हैं

फिर से ठिया बनाना होगा’

मुझे लगता है

देह की रीत से परे रहा है

देह का संसार

देह ढलती है अनुगामी परिचलन में

रिक्तता को बांधती हैं साथ

रहती है ध्वनियों में

हवाओं में! हमेशा साथ!

५.अजायबघर

———–

मेरे पास एक अजायबघर हैं

एक अपार्टमेंट के दो कमरे

कटहल का पुराना पेड़

एक दीवार पर टंगी है उन्नीस सौ सत्तानवे की एक रात

एक टेबल पर पड़ा है छत्तीस साल की डायना की मृत्यु की खबरों से भरा हुआ अख़बार

एक कच्ची उम्र का नीला धुंआ

जो पहली माहवारी की तरह दर्दनाक और डरावना था

और उससे भी अधिक डरावना था एक अधेड़ का जंघा पर घृणित स्पर्श

एक ऊभ चुभ की कौंध से भरी लेजर लाइट

कमरे की अलमारी में बिछे

अखबार की तह में छिपी

प्रेम की पहली पाती

जो तलाश रही थी प्रेमी का पता

सपने में आकर डरातीं

वह सहपाठिन

जिसकी कंठी टूट गईं थी खेल खेल में

और कितना डर गई थी मैं

उसके रोने से

कभी कभी अजायबघर की छत पर

उल्टा चलता हुआ दिखता है

दुनिया की सबसे सुंदर चाल वाला वह लड़का

जिसकी अंत्येष्ठि की गई थी

मात्र सोलह की उम्र में

दिसंबर की एक सर्द रात में

एक कपटी साया उतर आता

स्याह घने कटहल तले

और अजायबघर में फैलाना चाहता हैं

काला धुआं

अजायबघर भर रहा हैं

और भरता ही जा रहा हैं

दिन प्रति दिन!

गीता मलिक

(उत्तरप्रदेश)

शामली जनपद (उत्तरप्रदेश) में परिषदीय विद्यालय में अध्यापिका 

ई- मेल 

geetasmalik44@gmail.com

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