संजीव चंदन बातचीत, साथ में अरुण चतुर्वेदी
आज वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर नहीं रहे, 95 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया. 2014 में मोदी सरकार के बनते ही राजनीतिक परिदृश्य पर उनसे बातचीत की थी स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन ने. साथ में थे अरुण चतुर्वेदी. कुलदीप नैयर अपनी धारणाओं में स्पष्ट थे. पढ़ें पूरा इंटरव्यू समय ने कितना सही और कितना गलत सिद्ध किया उनकी धारणाओं को. यह बातचीत लहक मासिक के लिए की गयी थी, जिसका एक हिस्सा बाद में फॉरवर्ड प्रेस में भी छपा.
हमलोगों की तरह ही आपको भी बीजेपी को इतनी सीटें मिलने का अनुमान नहीं था . आपने चुनाव के पूर्व ढाका में ऐसा कहा भी था …
बिल्कुल . बल्कि मैं तो 180 सीटों तक ही इन्हें देख पा रहा था . पोलिंग हो जाने के बाद मुझे लगा कि 200 सीटें बीजेपी को आयेंगी. लेकिन 282 का अनुमान तो निश्चित ही नहीं था. अनुमान तो खुद बीजेपी को भी नहीं था . मेरा ख्याल है कि जनता ने जितना बीजेपी को वोट किया है, उससे आधिक कांग्रेस के खिलाफ वोट किया है, उससे निराशा के कारण . चूकी जनता के पास कोई विकल्प नहीं था , बीजेपी के अलावा, इसलिए बीजेपी को बहुमत मिल गया. आम आदमी पार्टी तो अभी शैशव अवस्था में ही है. कांग्रेस का इतना खराब प्रदर्शन तो इमरजेंसी के बाद भी नहीं था. लोगों में इस बार कांग्रेस के खिलाफ बहुत गुस्सा था- उनके भ्रष्टाचार, मंहगाई और अरोगेंस औफ पावर के खिलाफ जनता में काफी आक्रोश था.
यह जनादेश मोदी लहर के कारण नहीं है. इस बार का चुनाव मुद्दा विहीन भी था. प्रचार का स्तर काफी नीचे था .
हां, वह तो था ही. चुनाव में न गरीबी कोई मुद्दा थी, न ही अच्छी पढाई, या स्वास्थ्य, रोजगार का नहीं. इस बार के चुनाव में भाषण अच्छे नहीं थे.
सीएसडीएस के एक शोध के अनुसार इस बार अतिपिछडों , दलितों और पिछडों का वोट बडी संख्या में भाजपा को मिला है, जबकि अस्मिता की राजनीति की पार्टियों का प्रदर्शन खराब रहा. बसपा का तो खाता तक नहीं खुला . क्या यहां से अस्मिता की राजनीति में नया शिफ्ट माना जाय, वह खत्म तो नहीं होने जा रही है, या ऐसा कहना जल्दवाजी होगी.
यह जरूर है कि बसपा का खाता नहीं खुला, लेकिन भाजपा ने भी महज 31.2% वोट लेकर ही 282 सीटें हासिल की है. ऐसा पहली बार हुआ है. दूसरी पार्टियों का वोट बंट गया है. क्षेत्रीय पार्टियां वही बची है, जिन्होंने काम किया. पश्चिम बंगाल में, उडीसा में और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियों का प्रदर्शन शानदार रहा, लेकिन मुलायम सिंह की पार्टी का लगभग सफाया हो गया. अपवाद बिहार में नीतिश कुमार की पार्टी जरूर है, जिसने काम किया, लेकिन साफ हो गई. अस्मिता की राजनीति खत्म हो जायेगी, ऐसा कहना जल्दवाजी होगी. इस बार भी जाति चली, पैसा चला, सिर्फ धर्म का कार्ड ही नहीं चला.
मोदी में हिटलर की छवि देखी जा रही है, क्या आपको ऐसा लगता है कि 10 सालों तक यदि मोदी की लोकप्रियता बनी रही, तो वे हिटलर की राह पर चल निकलेंगे .
मुझे ऐसा नहीं लगता, वह हिटलर तो नहीं, अटलबिहारी वाजपयी जरूर बन जायेंगे. हिन्दुस्तान के लोकतंत्र की यह ताकत है . मोदी को बहुमत मिला है, यह बहुमत उन्हें बदल देगा इसकी शुरुआत पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को बुलकार कर दी है उन्होंने. बहुमत के कारण वे ऐसी स्थिति में हैं भी. वह् हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री की तरह बात करेगा, बीजेपी के नेता की तरह नहीं. मुझे नहीं लगता, जैसा कि वीएचपी वाले कह रहे हैं, कि वो मंदिर बनायेगा , या 370 को बदल देगा. मोदी खुद ही एक विभाजनकारी व्यक्तित्व है, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उसका यह व्यक्तित्व बदल जायेगा, यही भारतीय लोकतंत्र की ताकत है.
तो क्या लोगों को आशायें इस विभाजनकारी व्यक्तिव में दिख गईं?
नहीं. लोगों को निराशा थी बेरोजगारी से मंहगाई से, उन्हें लगा कि बद्लाव से उसपर नियंत्रण होगा. अगले छह महीने तक लोग देखेंगे , यदि नाउम्मीद होंगे तो फैसला करेंगे. पिछ्ले कुछ सालों से जो सरकार थी, वह ‘नान गवरनेंस’ की सरकार थी. सिर्फ प्रशासन ही दे दे , गवर्नेंस ही दे दे तो लोग खुश हो जायेंगे.
लेकिन कुछ जगहों पर हिन्दुत्व के प्रभाव दिखने लगे है, उसके अलग –अलग संगठन कानून हाथ में ले रहे हैं…
मुझे लगता है कि उनलोगों का उतना प्रभाव मोदी पर नहीं है, जितना कि वैसे लोगों का, जो प्रशासन में यकीन रखते हैं. मोदी पर अशोक सिंघल से ज्यादा अरुण जेटली का प्रभाव है, यानी उन लोगों का, जो सेंसिबल है. मुझे यह भी लगता है कि आरएसएस और बीजेपी दोनो में अब खास फर्क नहीं रह गया है, दोनो ही हार्डलाइनर नही रह गये है. झंडेवालां और नागपुर का फासला कम हुआ है. आरएसएस के बडे लोगों की बातें मोदी मानेंगे.
तो आप 75 की स्थितियां नहीं देखते ?
नहीं, एक तो वैसे भी अब इमरजेंसी लगानी मुश्किल है. अब छः राज्यों का परमिशन लेना होता है. लेकिन मुझे जो डर लगता है, वह है प्रेसिडेंशियल फार्म ऑफ़ गवर्नमेंट का. सरकार में मोदी का वर्चस्व रहेगा. वैसे भी इसने चुनाव प्रचार प्रेसिडेंशियल फार्म औफ गवर्नमेंट की तरह किया है. मोदी सिंगल प्वाइंट औफ फोकस हो जायेगा.
आम आदमी पार्टी अब अवसान की ओर जा रही है…
हां, शुरु में तो इससे उम्मीदें थी, लोगों को लगा यह हटकर राजनीति करेगी, इसलिए वे जाति –धर्म से ऊपर उठकर उसके साथ आये. फिर अन्ना अलग हो गये, उससे फर्क पडा और उससे भी ज्यादा इस बात का फर्क पडा कि जो इसका नेतृत्व आया, उसमें दूसरों की तुलना में फर्क नहीं था, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र भी नहीं है. इस पार्टी का अब पुनः प्रभावी होना मुश्किल है, कोई पुनर्ज़न्म हो सकता है, एक अलग ही तरह का. नहीं तो विकल्प कांग्रेस ही रह जायेगी. और कांग्रेस का मतलब है ‘वंशवाद.’ वे किसी दूसरे का नाम आगे आने ही नहीं देते हैं. मुझे डर लगता है कि एक दूसरे का विकल्प यदि कांग्रेस और भाजपा ही रहेंगे, तो दो दलीय व्यवस्था बन जायेगी . कोई न कोई और विकल्प चाहिए.
तो क्या अस्मिता की राजनीति एक विकल्प नहीं बन सकती है ? और जनप्रतिरोध को आप कहां देखते है, माओवाद के जरिये जो जनसंघर्ष है उसे?
हां, क्षेत्रीय पार्टियां विकल्प बनी रह सकती हैं. माओवाद का जहां तक सवाल है, तो उनका प्रभाव सीमित है. जब तक वे संसदीय चुनाव प्रणाली में नहीं आयेंगे वे कोई बडा विकल्प नहीं दे सकते. इनका पहला टारगेट भी माओवादी होंगे. शहरों में इनका बुद्धिजीवी समर्थक है. सुब्रहम्न्यम स्वामी, मोदी का ही आदमी है, वह तो आम आदमी पार्टी को भी माओवादी कहता है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मोदी शहरों में माओवाद के बुद्धिजीवी समर्थकों को अभी टारगेट करेगा, उसे जरूरत भी नहीं है रिप्रेशन के इस फार्म पर जाने की. इन बुद्धिजीवियों का इतना प्रभाव भी कहां है.
एक अंतिम सवाल कि कांग्रेस ने न तो ओबीसी लीडरशीप पैदा की, न उनके मुद्दे छुए, जिसके कारण वे 43 तक सिमट गये. जबकि भाजपा ने अपने यहां ओ बी सी नेताओं को ग्रूम किया…
हां, कांग्रेस ने इन्हें संबोधित नहीं किया, इनके मुद्दों की पहचान नहीं की , उनसे जोडा नही, खुद को वंशवाद में सिमटाये रखा, जिसके कारण भी यह हस्र हुआ है.
संजीव चंदन स्त्रीकाल के सम्पादक हैं और अरुण चतुर्वेदी उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक सेवा में हैं.
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