देश के किसी नेता में न यह हैसियत है, न हिम्मत की वह तानाशाही लेकर आये: देवीप्रसाद त्रिपाठी



राज्यसभा सांसद और हिन्दी के विद्वान् देवीप्रासाद त्रिपाठी से संजीव चंदन और उत्पलकान्त अनीस की बातचीत  

मूलतः हमलोग समय को लेकर बात करेंगे. आपको अभी क्या लग रहा है? पिछले कुछ सालों से इस समय को आप किस रूप में देखते हैं? क्या हम उन्माद की तरफ जा रहे हैं? क्या क्षरण की ओर जा रहे हैं?
उन्माद दरअसल क्षरण का ही प्रतीक है. देश में हो क्या रहा है आज की परिस्थिति में- राजनीति का क्षरण, साहित्य का क्षरण,संस्कृति का क्षरण हो रहा है. मैं आपको जो बताने जा रहा हूँ, जिससे बहुत से लोग असहमत होते हैं कि राजनीति, साहित्य और संस्कृति का बहुत अन्योन्याश्रित संबंध है. पूरे भारत में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी हिंदी साहित्य के तमाम साहित्कारों से मिलते थे और उस समय के सारे नेताओं को देखिये, सब लिखते थे, पढ़ते थे, चिंतन करते थे. तो साहित्य, कला, संस्कृति के विकास में राजनीतिक चेतना की भूमिका महत्वपूर्ण है. राजनीति के विषय में एक समझदारी, साहित्य, कला, संस्कृति के क्षेत्र में भी. फिर क्या हुआ पिछले तीन दशकों में कि ये जो पारस्परिक संबंध थे, वह टूट गया है. बड़े साहित्यकार का सम्मान करना पड़ेगा चाहे कोई राजनेता हो.

ये तीन दशक का मतलब आप 1990 के बाद चिन्हित कर रहे हैं…
उससे पहले से भी होता रहा है.

वैसे यह 1990 के बाद का दौर किसी दूसरे सकारात्मक कारणों से भी जाना जाता है और वह  है दलितों और पिछड़ों के भागीदारी को लेकर, साहित्य से लेकर राजनीति तक में – शिल्प बदला, कथ्य बदला, साहित्य बदला और राजनीति के कथन बदल गये हैं, यह एक सकारात्मक पक्ष भी रहा है.
यह एकदम सकारात्मक पक्ष है कि दलित, पिछड़ों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों इन सबकी भूमिका साहित्य, कला, संस्कृति और राजनीति में होना बहुत आवश्यक है-देश की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक है. यह सकारात्मक बात हुई, लेकिन सकरात्मक बात के बावजूद जो संगति राजनीति और संस्कृति, साहित्य में होनी चाहिए वह संगति अव्यवस्थित हो गई है.

मैं समझना ये चाह रहा था कि वह हुआ कैसे? इसका एक पक्ष और कथ्य ऐसे होगा न कि तीस साल पहले जो समाज था वहां साहित्य और राजनीति का परस्पर संबंध भी था. अब यहां जब पीछे छूट गये लोगों की बारी आई है, चेहरे बदल गये हैं, दोनों तरफ साहित्य और राजनीति में- तो क्या रूचियां इनकी घट गई हैं? एक तो यह है और दूसरा कि क्या वे इस योग्यता के साथ नहीं आये, उस सांस्कृतिक समझ के साथ नहीं हैं? 

लेकिन बुनियादी कमी तो राजनीतिक क्षेत्र की है. राजनीतिक नेताओं में सांस्कृतिक चेतना, साहित्यिक रुचि के अभाव ने इस तालमेल में गड़बड़ी पैदा किया. 


अभी तो उन्माद की स्थिति पूरे देश में है लेकिन यह एक तरह से हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक हलचलों के कम होने का प्रत्युदपाद देख रहे हैं कि 1990 के बाद यही प्रदेश है जो सक्रिय प्रदेश हो गया– दक्षिणपंथी उभार के लिए, भाजपा के उभार के लिये, सांप्रदायिक ताकतों के उभार के लिए.
देखिये, प्रमुख कारण इसका यह है कि सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधि कम हुई है. सांस्कृतिक चेतना का पूरी तरह से अभाव हो गया है. हिंदी सांस्कृतिक चेतना की अगर बात करें तो वह  एकदम अनुपस्थित है. मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि हिंदी सांस्कृतिक चेतना, हिंदी से अनुपस्थित है. उसका कारण है कि समाज में नकारात्मक विचार उभरे हैं, और यह आपकी पहचान, आपकी वैचारिक रूझान, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र इन सभी विषयों पर निर्भर करता है.

उस सांस्कृतिक चेतना को आप कहाँ देख रहे है? कौन सी सांस्कृतिक चेतना, एक सांस्कृतिक चेतना जो लोहिया की है, एक सांस्कृतिक चेतना जो राम की है. एक तीसरी भी बात हो रही है कि राम के पूरे मिथकीय चरित्र को सवालों के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, एक स्त्री के हिसाब से, दलित के हिसाब से, आदिवासियों के तरफ से….
लोहिया तो रामायण मेला का भी आयोजन करते थे, लोहिया ने तो राम और कृष्ण के ऊपर लेख भी लिखा है.  यही तो एक सांस्कृतिक समझ थी समग्रता की.

आप कहां खड़े हैं? लोहिया वाले राम या हमारी जो राम की व्याख्या है- स्त्री दृष्टि से या दलित दृष्टि से, हम जो शम्बूक की दृष्टि से देखते है राम को, सीता के उत्पीड़न के दृष्टि से. यह भी तो एक सांस्कृतिक चेतना है और यह भी हिंदी पट्टी की आवाज है, जैसे महिषासुर का मामला संसद में गूंजा और यही हिंदी पट्टी आज महिषासुर की शहादत दिवस मना रहा है. 
ऐसा है कि सारे प्रश्न सही नहीं है. एक होता है नकारात्मक विचार. अब महिषासुर की जयन्ती मनाना एक नकारात्मक विचार है. क्योंकि कई पुस्तकें हिन्दुओं ने अपनी शास्त्रों की पढी नहीं. जरा दुर्गा सप्तशती पढ़िए आप. उसमें क्या होता है, जब राक्षस संग्राम करने जाता है दुर्गा से तो दुर्गा के सौन्दर्य का वर्णन करता है. उससे कहता है कि मुझसे विवाह करो. तो दुर्गा कहती है कि हां, लेकिन एक शर्त है कि तुम मुझे युद्ध में हरा दो. ये तो एक विनियोजित यथार्थ है. हिन्दुओं ने ज्यादातर शास्त्रों को पढ़ा ही नहीं तो दिक्कत यही है. तमाम मूर्खता, दुर्लभ मूर्खता की बाते आपको यहीं मिलेगी? मेरा ख्याल है कि समाज सुधार करने के लिए राम और सीता को गाली देने की जरूरत नहीं है. लोहिया यह काम नहीं करते थे, लोहिया को पढ़िए आप. लोहिया भारतीय राजनीति के एक तरह से अकेले मौलिक चिंतक हैं, जो भारतीय संस्कृति की, सभ्यता की मूल धारणाओं को समझने की कोशिश करते है- वे निडर होकर बात करते हैं और डरते नहीं हैं.

लेकिन जिन-जिन समूहों को लगता है कि राम हमारी कथा नहीं है या जो-जो समूह महिषासुर से अपने आप को जोड़ते है, रावन के साथ जोड़ते हैं, सूर्पनखा के साथ जुड़ते है, अपनी व्याख्यायें लेकर आ रहे हैं- मिथकीय कथाओं का, उनको कैसे रोका जा सकता है! यह उनका हक़ है , और यही आप नकारते हैं. फिर तो आप कहीं न कहीं संस्कृति के होमोजेनाइजड तर्क के साथ, स्मृति ईरानी के चिखने के साथ खड़े हो जाते हैं. यही कारण था कि कोई भी नहीं खडा हुआ स्मृति ईरानी के विरोध में, जब वे संसद में ‘दुर्गा प्रकरण’ पर चीख रही थीं, सीताराम येचुरी को छोड़कर- जिन्होंने महाबली की बात की. येचुरी ने कहा कि आपका बामन आपका अवतार हो सकता है लेकिन बहुत से लोग महाबली से जुड़े हुए हैं.  तो मसला यही है कि आपकी पूरी सांस्कृतिक चेतना हिन्दू सांस्कृतिक चेतना है.
देखिये इन मसलों को कहना कतई जरूरी नहीं है, जो सीताराम येचुरी ने संसद में कही है वो कोई बड़ी बात है, ऐसा मैं नहीं मानता. ये आलोचना की रचनात्मक पृष्ठभूमि से अलग बात होती है. राम की आलोचना बहुतों ने की है. पेरियार पर किसी ने प्रश्न उठाया? उन्होंने राम की आलोचना की, इसी देश में खूब की, उस समय में की, जब बहुत मुश्किल समय था. अब राम की इस तरह की आलोचना का कोई अर्थ नहीं है. यह मानना कि भारत में जो सांस्कृतिक और सभ्यता की चेतना है वह  हिन्दू चेतना है, गलत है.  जाहिर है कि तमाम नास्तिक लोग भी रह रहे हैं, जिसने लिखा है, सबकुछ लिखा है तो किसी हिन्दू ने उनके खिलाफ तो कुछ नहीं बोला. अब हिन्दू सांस्कृतिक चेतना में भी नकारात्मक और उग्रवादी तत्व प्रखर हो रहे है, जो सही नहीं है, सर्वथा अनुचित है. मैं मानता हूँ कि लोहिया की दृष्टि से देखने की जरूरत है, नरेन्द्र देव की दृष्टि से देखते, जवाहरलाल की दृष्टि से देखते तो शायद ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि वे समावेशी चेतना की बात करते हैं, जहां आपने एकदम विरोधाभाषी चेतना की बात की वहां बिखराव, संघर्ष और आपसी मतभेद की शुरूआत होती है जो नहीं करना चाहिए.

लेकिन आपके यहां,  महाराष्ट्र में, वहां की जो दलित चेतना है इन मिथकों से टकराती है..
वे अपने मिथक को ठीक ढंग से समझते नहीं हैं. पूरे हिंदुस्तान का आप भक्ति आन्दोलन देख लीजिये. भक्ति आन्दोलन में अगर तुलसीदास और मीरा को छोड़ दें, वैसे मीरा तो महिला थी , उसको तो पिछड़ा मानना चाहिए- अगर तुलसीदास को छोड़ दें तो उसमें उच्च जातियों का कोई संत या कवि नहीं है या तो पिछड़े जातियों के हैं या दलित हैं. पूरा भक्ति आन्दोलन, जो आधुनिक भारत की भाषा, सांस्कृति, सभ्यता का जो निर्माण करता है तो उस आन्दोलन में देखिये कि कौन से लोग हैं और कौन से लोग नहीं हैं. उस आन्दोलन में सब हो गया, पूरे समाज ने उसे स्वीकार कर लिया, अब आप कह रहे है कि हम इस समाज को नहीं सुधार सकते है तो आप एकता की नहीं विभाजन की बात कर रहे हैं. यह जो विभाजन की भाषा है, बिखराव की भाषा है, बांटने की भाषा है,  वह जोड़ने का काम नहीं कर सकती और देश में, संस्कृति में, साहित्य में आज जोड़ने की जरूरत है.

तो अब हम ऐसे समझें कि 1990 के बाद या तीन दशकों के बाद ये सब जो स्वर आये हैं, इन स्वरों को आने को आप जातिवादी होने के रूप में चिन्हित कर रहे है. जाति के सवाल उठेंगे- जहां जाति की सवाल उठती है, वहां आप बात करने लगते हैं विभाजन की, तो आपकी दृष्टि और वह भी भाजपा वाली समरसता की दृष्टि में क्या फर्क है?
पहली बात तो यह है कि दलित प्रश्न को तो उठना ही है, आवश्यक है.

तो वह क्या जातिवाद है?
नहीं मेरी दृष्टि से वह जातिवाद नहीं है. एक वर्ग और समुदाय की आकांक्षाओं का प्रतिफलन है. महिलाओं का प्रश्न है, युवाओं का प्रश्न है. ये सारे प्रश्न अनिवार्य हैं. और आज के भारतवर्ष में किसानों का प्रश्न ये भी बड़ा महत्वपूर्ण है. किसान तो जातियों से ऊपर हैं, जाति की तो बात ही नहीं है वहां पर. तो दलित, युवा, महिला और किसान ये मिलकर आज का भारतवर्ष बनते हैं , और उनकी चेतना के बिना न राजनीति न संस्कृति सही रास्ते पर जा सकती है.

अभी आप राजनीति की क्या दशा और दिशा देखते है? अभी क्या लगता है कि किस तरफ हमलोग जा रहे हैं? क्या हम डिक्टेटरशीप देखने वाले हैं? 
नहीं, बड़े से बड़े नेता की या प्रधानमंत्री की न हिम्मत है न हैसियत है कि वह तानाशाही की  तरफ जाये. देश में लोकतांत्रिक परिपाटी की कुछ ऐसी व्यवस्था है कि यह संभव नहीं है. एक और सकारात्मक बात भारतीय राजनीति में हो रही है, जिसका जिक्र कोई नहीं करता कि नया नेतृत्व पैदा हो रहा है, हर पार्टी में, कहीं नीतीश कुमार है, कहीं शिवराज सिंह चौहान हैं तो कहीं सुदूर त्रिपुरा में माणिक सरकार.

ये सब नेतृत्व तो पिछले 20-30 सालों का नेतृत्व है…
आप समझ नहीं रहे हैं. ये सब नया रास्ता दिखा रहे हैं. ये नेतृत्व ऐसा है कि किसी को तीन बार, दो बार, चार बार जनता का समर्थन मिला है- सबको. यह देखना महत्वपूर्ण है. जिसको हमलोग देख नहीं रहे हैं. मायावती तीन बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं- दलित महिला मुख्यमंत्री भारत के सबसे बड़े प्रदेश में, ये कल्पना की थी किसी ने? दलित भी हैं और महिला भी हैं. कोई कल्पना करता था तीन दशक पहले कि ये नेता होंगे इस देश में. आज आप देखिये कि हर क्षेत्र में नया नेतृत्व आया है.

लेकिन इसमें मायावती को छोड़ दें तो बाकी सभी का राजनीतिक कथन एक ही है और वह है विकास.  राजनीतिक कथन आज के केंद्र के सत्ताधारियों का भी वही है, बल्कि उनका दायरा काफी बड़ा है, विस्तृत है.
विकास के अलग अलग तरीके हैं. सब नया- नया नेतृत्व उभरा है. कुछ आन्दोलन से, कुछ अलग-अलग तरीके से उभरा है. इस नए नेतृत्व की  ब्याख्या जब तक आप नहीं करेंगे, विश्लेषण नहीं करेंगे तब तक भारत की राजनीति में जो नया आयाम उभरा है, उसे नहीं समझ सकते .
उसको किस खास तरीके से देख रहे हैं? अंततः राष्ट्रीय क्षितिज पर तो कोई परिवर्तन तो होता नहीं. क्षत्रप के तौर पर हर जगह है.
यही तो परिवर्तन कहेंगे. एक परिवर्तन तो भारत की राजनीति में हो गया न. एकवचन समाप्त हो गया, बहुवचन आया. आज केंद्र में भाजपा बहुमत लाने के बावजूद अन्य पार्टियों के सहयोग से सरकार चला रही है, आगे भी चलाना पड़ेगा.

आगे भी आप यही संभावना देख रहे हैं? क्षत्रपों के गठबंधन से सरकार बनेगा?
गठबंधन का मतलब क्षत्रप नहीं होता है. दुनिया के लोकतंत्र में जो देश हैं, उनमें ज्यादातर देशों में गठबंधन सरकारें चल रही है और अच्छे तरीके से चल रही है. ऐसा नहीं है कि आर्थिक विकास, सामाजिक विकास नहीं हो रहा है, हो रहा है.

राजनीति विकल्प नहीं दिखाई देता है. 1990 के बाद एक ही परिघटना है,  वह है मनमोहन सिंह, उसी का विस्तार है नरेंद्र मोदी सरकार. ये जो आप नाम ले रहे हैं,  उनके यहां क्या वैकल्पिक दशा और दिशा देख रहे है?
आप देखिये समय आ रहा है. जनता का संकल्प, विकल्प तलाश लेता है और आप आनेवाले दिनों में इसे देखेंगे.

शरद पवार की राजनीति को आप कैसे देखते हैं?
वे देश के बहुत बड़े और अनुभवी नेता हैं, पार्टी उनकी छोटी है- सबसे बड़ा अंतर्विरोध यही है उनके सामने और पार्टी मूलतः महाराष्ट्र में केन्द्रित है.

तो क्या उनके यहाँ संभावना नहीं दिखती है, शरद पवार के राजनीतिक चातुर्य के साथ बहुत दिनों के सरकार का उनका अनुभव..वह तो है, एक, कोई भी सरकार में प्रधानमंत्री रहे उसको शरद पवार साहब से सलाह लेनी पड़ती है. लेकिन शरद पवार स्वयं प्रधानमंत्री बनें इसकी संभावना कम दिखाई पड़ती है.एक आरोप लगता है शरद पवार पर यह कि उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति को चीनी मिल और कोआपरेटिव सेक्टर के बीच सीमित रखके और कम करके भ्रष्ट किया है, भ्रष्टों का नेतृत्व के आरोप भी लगते रहे हैं ....
यह एकदम गलत बात है, आधारहीन है. इस तरह का काम शरद पवार ने नहीं किया है. शरद पवार को इस बात के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने प्रदेश को विकसित किया है. अगर आप बारामती चले जाइये, जो पहले उनका क्षेत्र था, अब सुप्रिया सुले का क्षेत्र है, तो आपको पता लग जायेगा कि विकास क्या है. अमेठी, रायबरेली ये तमाम क्षेत्र है प्रधानमंत्रीयों के इस देश में. लेकिन फर्क बारामती में जाकर देख लीजिये पता चल जायेगा. उनहोंने जनता के उद्यम और अध्यवसाय पर आधारित आर्थिक सामाजिक विकास किया है. इसलिए मैं आपसे चाहूंगा कि शरद पवार पर इस तरह की आधारहीन बात करने की  बजाय ज़रा बारामती जाकर आप देख लीजिये, जनता से पूछ लीजिये.

मोदी की सरकार से ज्यादा आर.एस.एस. की सरकार ने दो ढाई सालों में समाज में एक हलचल पैदा किया है, हर जगह पर- वह चाहे शिक्षा हो, या सामाजिक या लेखन का क्षेत्र हो, एक बेचैनी पैदा कर दी. अपने एजेंडे पर वह सफल रही. क्या लगता है आपको कि इन सारी चुनौतियों से निकलकर 2019 में मोदी का विकल्प तैयार हो सकेगा?
विकल्प तो जनता तलाशेगी. जनता को जागृत करना राजनीतिक दलों का कर्त्तव्य है- खासकर जो लोकतांत्रिक जनतांत्रिक राजनीति दल हैं, उनको चाहिए कि वे जनता के बीच जाकर मोदी सरकार की विफलताओं के बारे में बात करें. जहां तक आर.एस.एस. और मोदी सरकार की हिंदुत्व राजनीति की सफलता की बात है,  तो वह सफल नहीं हो पाया और न सफल हो पायेगा. सारी कोशिश वे कर रहे हैं – घर वापसी से लेकर लव-जिहाद, क्या क्या नहीं उठा रहे हैं – लेकिन कहीं सफलता मिली क्या – नहीं मिली..

लेकिन हमें सफलता दिख रही है. हैदराबाद में अप्पा राव बने हुए हैं, एफटीआईआई में चौहान बने हुए हैं, यूपी में मटन, बीफ में बदला जा रहा है. उनहोंने हलचल और बेचैनी पैदा कर दी और वे अपने एजेंडे पर कायम हैं. लोग विरोध कर थक और हार जा रहे हैं.
नहीं, हलचल कौन सी पैदा की- खाने के सवाल पर, विभिन्न साम्प्रदायिक सवालों पर.  तमाम अयोग्य लोगों को सिर्फ विचारधारा के स्तर पर तमाम संस्थाओं में नियुक्त करना. ये इन्होंने एक फैसला किया, लेकिन उस फैसला के बावजूद, लागू करने के बावजूद क्या समाज ने उसे स्वीकार किया. जो एफटीआईआई के मुद्दे पर विरोध हुआ उसकी कल्पना करिए आप. पूरे देश में रोहित वेमुला के प्रश्न पर कितना विरोध हुआ. जेएनयू के मुद्दे पर कितना विरोध हुआ देशभर में. ऐसा नहीं है. एक जो आम स्वीकृति हो उनके विचारधारा की, उनकी गतिविधियों की, कार्यकलापों की, नहीं हो रही है समाज में.

वामपंथी राजनीति से शुरूआत करके आप यहां आ गये. यानि आपको मोहभंग हो गया होगा? इस राजनीति की कितनी सफलता आप देख रहे हैं? एक लम्बा दौर हो गया आपको वामपंथियों से अलग हुए?
वामपंथियों से मैं अलग नहीं हूं. लेकिन मूलतः मैं वामपंथी हूं. मैं मानता हूं कि भारत के विकास के लिए वामपंथी विचारधारा आवश्यक है. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि जब देश को वामपंथ की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, तब वामपंथ निरंतर कमजोर हो रहा है.जिसमें उनके नेतृत्व की गलतियां है, उनकी राजनीतिक सोच और समझ की गलतियां हैं. उसके लिए वो जिम्मेदार हैं,  और कोई जिम्मेदार नहीं है. यूपीए सरकार से भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर समर्थन वापस लेकर सीपीएम ने अपना काम तमाम कर लिया 61 से 26 पर पहुंच गई. बंगाल में तीसरे नंबर पर पहुंच गई, जहां माना जाता था कि वामपंथ का कितना बड़ा आधार है. आज केरल में सरकार जरूर बन गई है लेकिन आगे देखिएगा क्या होता है..

अलग होने का कोई व्यक्तिगत कारण था?
कोई व्यक्तिगत कारण नहीं था. मेरा मतभेद था, लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली पर जेएनयू के दिनों से ही. खासकर मैं जब यूरोप गया, सोवियत यूनियन गया तो वहां कुछ क्षेत्रों में कम्युनिस्ट सरकारों को देखा तो लगा कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ है, दुनिया के कम्युनिस्टों में.

आप जब अपनी आत्मसमीक्षा से भी देखते होंगे खुद के प्रसंग में कि आपकी स्वीकार्यता खेमों से अलग है अर्थात सभी खेमों में है, ये कैसे संभव है?
संभव इसलिए है कि मैं लोकतंत्र में किसी को शत्रु नहीं मानता हूं और संवाद की निरंतरता और अनिवार्यता पर विश्वास करता हूं. अगर आप बात नहीं करेंगे लोगों से तो किस तरह से उनको एक सही विचार के तरफ लायेंगे. मैं चाहे सरकार हो, चाहे विपक्ष हो सबसे बात करता हूं. नरेंद्र मोदी से भी मैं बात करूंगा और सीताराम येचुरी से भी.

साहित्यिक हलकों की भी मैं बात कर रहा हूं, यहां भी आपकी सर्वस्वीकारता है…
मैं सबसे बात करता हूं. देखिये संवाद की निरंतरता और अनिवार्यता हर क्षेत्र की आवश्यकता है. शिक्षा, संस्कृति, कला और साहित्य, राजनीति, विज्ञान और कोई भी क्षेत्र हो- सबमें संवाद की आवश्यकता है.

क्या हम इसको ऐसे कह सकते है कि आप अजातशत्रु देवी प्रसाद त्रिपाठी रहे हैं?
वो तो मैं नहीं कह सकता हूं कि मैं क्या हूं, शत्रु तो गाहे-बगाहे मिलते रहते है. हमारे समाज में शत्रुभाव ज्यादा है, मित्रभाव कम है, जो दुर्भाग्य की बात है, हिंदी प्रदेशों में तो और भी. किसी से नकारात्मक व्यवहार रखने की जरूरत नहीं है, सोच भी रखने की जरूरत नहीं है. सबसे प्रसन्न रहिये, आपका काम भी अच्छा होगा और जीवन प्रसन्न भी रहेगा.



साभार : लहक 

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ISSN 2394-093X
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