स्त्री एवं भाषा : तीसरी परम्परा की खोज एवं वैकल्पिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन

प्रो.शैलेन्द्र सिंह

प्रो.शैलेन्द्र सिंह पूर्वोत्तर में नार्थ इस्टर्न यूनिवर्सिटी ( नेहू ) में पढ़ाते हैं संपर्क : tosksinghnehu@gmail.com

( प्रोफ. शैलेन्द्र सिंह ने स्त्रीकाल और गुलबर्गा वि वि के द्वारा आयोजित सेमिनार     में  ‘ स्त्री एवं भाषा’  विषय पर एक आलेख प्रस्तुत किया था , जो शीघ्र ही        स्त्रीकाल   के प्रिंट एडिशन में प्राकाश्य है . उस आलेख का एक हिस्सा स्त्रीकाल के  पाठकों के लिए . शैलेन्द्र सिंह की प्रस्तुति के बाद वहाँ मौजूद स्त्रीवादियों ने उनसे जम  कर बहस की थी. असहमति की स्थिति में आलेख आमंत्रित हैं. )

वैज्ञानिक सोच,भाषा को ईश्वरीय देन एवं वरदान नहीं मानती है। अर्थात मनुष्य ने भाषा को रचा और संवारा, तो भाषा ने मनुष्य को। भाषायी निर्माण की उक्त प्रक्रिया में स्त्री एवं पुरुष एक दूसरे काप्रतिभागी नहीं रहा है, बल्कि एक ही मानवीय सिक्के के दो पहलूकी तरह दिखाई देते हैं। नतीजतन, भाषा न तो स्त्री की अनुपस्थिति में साकार हो सकती है, और न तो पुरुष की अनुपस्थिति में। अगर समाज निर्माण में स्त्री एवं पुरुष की उपस्थिति बुनियादी शर्त है, तो भाषा निर्माण की प्रक्रिया में भी स्त्री एवं पुरुष की उपस्थिति अनिवार्य शर्त है। अर्थात एक दूसरे की अनुपस्थिति में भाषा एवं समाज दोनों की उपस्थिति असंभव है। नितान्तः जिस कदर समाज निर्माण की प्रक्रिया में दोनों की समान सहभागिता है, वैसे ही दोनों की समान सहभागिता है भाषा निर्माण की प्रक्रिया में। जिस तरह स्त्री एवं पुरुष की अनुपस्थिति में समाज की उपस्थिति असंभव है, वैसे ही स्त्री एवं पुरुष की अनुपस्थिति में भाषा की उपस्थिति असंभव है। यह भी लाजिमी है, कि किसी विशिष्टभाषा की रचना न तो स्त्री की है और न तो पुरुषकी।पुरुष एवं स्त्री दोनों एक ही भाषा का प्रयोग करते आए हैं और करेंगे भी। कुछ भिन्नताएं सहज हैं, जिसको लेकर भाषाविदों ने अवश्य माथापच्ची की है।  भाषा एवं स्त्री के अंतरसंबंधों को भिन्न धाराओं के तहत परिभाषित एवं विश्लेशित करने की कोशिश की गयी है।

स्त्री, भाषा एवं सैद्धांतिकीः
भाषा एवं स्त्री के अंतरसंबंधों को निम्नलिखित सैद्धांतिक परिपाटियों के तहत समझना समीचीन होगाः

मूल सिद्धांतः


प्रथमतः भाषा, लिंग एवं स्त्री के अंतरसंबंधों के वैज्ञानिक सत्यापन, शोध एवं निष्कर्ष के लिए मूल सिद्धांत के तहत अध्ययन करना समुचित होगा। भाषाविज्ञान वैज्ञानिक विद्या है, इसलिए इसे सिर्फ सौन्दर्य शास्त्रीय मानकों की जरूरत नहीं है। वहीं दूसरी ओर इसे सिर्फ किसी विशिष्ट विचारधारा के तहत भी परिभाषित करना अनुचित होगा। विशुद्ध ज्ञान का हिस्सा बनकर इसे कद्र मुक्त होना होगा ताकी निष्पक्ष अध्ययन किया जा सके। मूल सिद्धांत, वैज्ञानिक अन्वेषण के तहत इसका अध्ययन करता है। सिद्धांत प्रतिपादन का आधार वस्तुनिष्ठ होता है। वैज्ञानिक सोच यह मानती है कि भाषा एवं लिंग के अन्तरसंबंधों को प्राथमिक डेटा संग्रह के द्वारा सत्यापित किया जा सकता है। अतः सिद्धांतो को वैज्ञानिक स्वीकृति की आवश्यकता होती है। मूल सिद्धांत विशुद्ध ज्ञान से प्रेरित एवं आश्रित भी होता है। लाजिमी है कि यह कद्र मुक्त एवं निष्पक्ष होता है।

सेमिनार में श्रोता

किसी भी भाषा की संरचना का समग्र विश्लेषण, लिंग विश्लेषण के बिना संभवनहीं है, क्योंकि भाषा संरचना में लिंग एक महत्वपूर्ण संरचनात्मक इकाई होती है। एक ओर अगर भाषा के बिना सम्प्रेषण संभव नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर भाषा के बिना ‘‘स्व’’ की तलाश भी संभव नहीं है। भाषा प्रत्येक मनुष्य के ‘‘स्व’’ को पहचानने में हमारी मदद करती है। मनुष्य का ‘‘स्व’’ नारी एवं पुरुष में सदैव से विभाजित रहा है, जिसका सत्यापन भाषा के माध्यम से भी होता है। भाषामनुष्य को पहचानती है और साथ ही संरचनात्मक स्तर पर स्त्री एवं पुरुष की भिन्नता को सहज स्थान देती है। यही कारण है कि विश्व कीअधिकांशभाषाओं में लिंग भेद किसी न किसी रूप में भाषा संरचना का हिस्सा है। भाषा अगर मनुष्य द्वारा निर्मित धरोहर है, तो मनुष्य ने ही स्त्री एवं पुरुष को पहचानने के तरीकों का प्रावधान भाषा के माध्यम से भाषा के अन्दर भी किया है। सृष्टि में तीन मुख्य जातियां हैंः स्त्री,पुरुष एवं जड़। विश्व की अधिकांशभाषाओं में इन्हीं जातियों के आधार पर तीन भेद किए गए हैंः पुल्लिंग, स्त्री लिंग एवं नपुसंक लिंग। कुछ भाषाओं में लिंग की अभिव्यक्ति वाक्यों मेंभी होती है, तभी संज्ञा पदों का लिंग भेद स्पष्ट होता है। स्पष्ट है, कि संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु के लिंग भेद का बोध होता है, उसे भाषाविज्ञान में ‘लिंग’ कहते हैं। संज्ञा के रूप, लिंग, वचन एवं कारक के कारण बदलते है। उदाहरण के लिए, हिन्दी में ‘लड़का जाता है’ एवं ‘लड़की जाती है’, होता है तो वहीं ‘लड़कियां जाती हैं’ एवं ‘लड़के जाते हैं’ होता है। अंग्रेजी मेंभी लिंग का निर्णय इसी व्यवस्था के आधार पर है। कुछ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में भी लिंग भेद इसी आधार पर होता है। मराठी, गुजराती आदि भाषाओं में ऐसी व्यवस्था है, परन्तु, हिन्दी में नपुंसक लिंग नहीं है। हिन्दी में लिंग, विशेषण, सर्वनाम, क्रिया, विभक्ति में विकार उत्पन करता है। लिंग भिन्नता के प्रति हिन्दी भाषा इतनी संवेदनशील है, कि विभक्तियों में भी लिंग भेद पाए जाते है – जैसे कि, उसका मुख एवं उसकी नाक। आधुनिक भारतीय भाषा की जननी संस्कृत में लिंग का अर्थ ‘चिन्ह’ या ‘निशान’ होता है। भाषा में संज्ञा चिन्ह एवं निशानी समेटी होती है। सरल शब्दों में किसी वस्तु, भाव और जीव के नाम को संज्ञा की संज्ञा दी जाती है। वस्तु मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त हैः- जाति, व्यक्ति, समूह एवं द्रव्य। स्पष्ट है, कि वस्तु या तो पुरुष जाति की होगी या स्त्री जाति की। संज्ञा के भी दो रूप हैं: प्राणीवाचक एवं अप्राणीवाचक। कुछ भाषाओं में अप्राणीवाचक संज्ञा में भी लिंग भेद के प्रावधान हैं। लिंग भेद के उपरोक्त तथ्यों को भाषाविज्ञान के मानदंडों के आधार पर सत्यापित किया जा सकता है। भाषाओं के लिंग भेद को विश्लेषित करना भाषावैज्ञानिकशोध का हिस्सा हो सकता है। इण्डो-यूरोपियन भाषा में लिंग भेद पाए जाते हैं। स्वाहिलीभाषा में सोलह प्रकार के लिंग भेद पाए जाते हैं, परन्तु कुछ भाषाओं में लिंगभेदकर्ता में निहित होता है। जैसे कि, अंग्रेजीमें- he left, she left औरit left। कुछ भाषाओं में लिंग वर्गीकरण का औचित्य सर्वथा वैज्ञानिक, भाषा वैज्ञानिक एवं संज्ञानिक नहीं होता है,बल्कि तार्किक, यादृच्छिक एवं स्थानीय होता है। उदाहरण के लिए जर्मन में ‘पेड़’पुल्लिंग है, तो ‘कलियां’ स्त्री लिंग एवं ‘पत्ते’ नपुसंग लिंग। हिन्दी में ‘पेड़’पुल्लिंग है, तो ‘कलियां’ स्त्रीलिंग परन्तु ‘पत्ते’ के लिए पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग दोनों भेदविद्यमान हैं। यही स्थिति हिन्दी की भी है क्योंकि ‘बस’ स्त्रीलिंग तो ‘ट्रक’पुल्लिंग। वहीं दूसरी ओर ‘घोड़ा’ जर्मन में लिंगविहीन है, तो हिन्दी में पुल्लिंग। वहीं दूसरी ओर कुछ भाषाओं में लिंग विशेष तौर परभाषिक प्रतीक से चिन्हित किया जाता है, जैसे किः खासी, ग्रीक, जर्मन एवं फ्रेंच। जर्मन एवं खासी का उदाहरण प्रस्तुत हैः

Der-man
पुल्लिंग-पुरुष
Die-frau
स्त्रीलिंग- महिला
das –kind
नपुंसकलिंग- बच्चा

भारत के चारों भाषा परिवार में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया में भिन्नता है। कहा जा सकता है कि भाषा भी स्त्री एवं पुरुष के बीच के नैसर्गिक विभाजन को भाषिक इकाईयों एवं संरचना के माध्यम से प्रदर्शित करती है। इसके लिए उस भाषा एवं समाज में गुजर-बसर करने बाले व्यक्ति को गलत नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि अगर मानव जाति की संरचना की बुनियाद मानव जाति के दो प्राणियों के अन्तरण में निहित है तो भाषा में ऐसे अन्तरण को पहचानने की शक्ति भला गलत कैसे हो सकती है। भले ही आज यह समाज भाषाविज्ञान का नया अंग है, परन्तु भाषा एवं लिंग संबंधी अध्ययन की परम्परा बौद्धिक लेखन की शुरूआत से होती है। अरस्तु के अनुसार-“ग्रीक दार्शनिक पाइथोगोरस ने व्याकरणिक लिंग की अवधारणा की पुष्टि के लिए संज्ञा के साथ प्रयुक्त होने वाले पुल्लिंग, स्त्री एवं नपुसंक भाषिक कोटियों की चर्चा की।” ऐसा माना जाता है कि- सुमेरियन महिला Emesal नाम की विशिष्टभाषा का प्रयोग करती थीं, जो कि मुख्य भाषा से भिन्न थी। वहीं दूसरी ओरEmegir स्त्री एवं पुरुषदोनों के द्वारा बोली जाती थी। महिलाओं की भाषा में विशिष्ट प्रकार के शब्दों का प्रयोग होता था।  पौराणिक ग्रंथों में देवियों की भाषाशैली में भिन्नता के प्रमाण मिलते हैं एवं स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में भाषिक भिन्नता की चर्चा है। ऐसे प्रमाण भारत में भी मिलते हैं। कुछ संस्कृत नाटकों में महिलाओं की बातें प्राकृत भाषा में हैं। इस तरह के भरपूर उदाहरण निम्नवर्गीय एवं अशिक्षित लोगों के लिए भी मिलते है। गारिफुना में स्त्री एवं पुरुष द्वारा प्रयुक्त भाषा में भिन्न शब्दों के प्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। हांलाकि इससे भाषा प्रभावित नहीं होती है। सच यह है कि पुरुष द्वारा प्रयुक्त शब्द अधिकाशतः Carib के होते हैं, वहीं दूसरी ओर स्त्रियों द्वारा प्रयुक्त शब्दArawak के। ग्रीक भाषा में भी स्त्री एवं पुरुष द्वारा प्रयुक्त भाषा में अन्तर के कुछ नमूने मिलते है। यह भी प्रमाणित है,कि नृजातीय आस्ट्रेलियन भाषा‘ऐनयुवा’ में भी स्त्री एवं पुरुष की बोलियों में अन्तर है।

शैलेन्द्र सिंह का स्वागत

अतिवादी सिद्धांतः


अतिवादी सिंद्धात जीवन की विविध धाराओं से जुड़ी होती है। अतः इसे दैनिक जीवन का सिद्धांत भी कहा जा सकता है, जिसे वैज्ञानिकता की कसौटियों पर बांधा नहीं जा सकता है। शायद यही कारण है, कि स्त्री अध्ययन  में आज नव विमर्शों की भरमार है। कुछ विचार धाराएं तो फैशनयुक्त हैं। अतिवादी सिंद्धात स्त्री एवं भाषा के अन्तर्संबंधों को सुविधानुकूल नजरिया एवं दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता है। इसमें खास वैचारिक मंथन का गुंजाइश बनी रहती है। स्त्री एवं भाषा के अन्तर्संबंधों को परिभाषित करने के नए हथकण्डे़ अपनाए जाते हैं। कुछ हद तक तो यह छिद्रान्वेषण है, जिसमें सबकुछ विचाराधीन नजर आता है। अतिवादियों को ऐसा हक प्राप्त है। इन्हीं कारणों से उक्त श्रेणी के सिद्धान्त को प्रायोगिक नहीं माना जा सकता है। इन्हें तो खेमायी प्रश्नों को उछालने में विश्वास है न कि सार्थक उत्तर खोजने में। किसी भी प्रश्न का ठोस उत्तर तो संभव ही नहीं है। अर्थात इसकी गति प्रश्नों एवं विचारधाराओं में है। यह खेमायी रूझानों से लबालब होता है। खुशी इस बात कीहै कि स्त्री से संबंधित भाषायी प्रयोग का मामला आज गहन विमर्श का हिस्सा बन चुका है। साथ में आम सहमति बनाने में भी सफलता प्राप्त की है। किसी भी सिद्धांत के लिए अस्वीकृति  विफलता नहीं है बल्कि नयी सोच का हिस्सा। डोना हारवे बायम की विचार धारा plurist है जो वर्तमान स्त्री आलोचना में प्रतिबिंबित Shouldएवंmusts के मानदण्ड़ों का रोना रोती है। कोलोडनी ने यहां तक कह दिया कि- “Seminar in the feminist theory has become soley a means to profession advancement”। अर्थात व्यक्तिगत, स्थानीय, एवं बौद्धिक दृष्टियों की गुंजाइश सदैव बनी होती है। कभी कभार अतिवादि सोच को मुख्यधारा का हिस्सा बनाना खतरनाक भी साबित होता है।

कैमरॉन (1992) का मानना है कि स्त्री अध्यन साहित्यिक अध्ययन का चहेता है और भाषावैज्ञानिकदृष्टि से अभी इसमें अभी बहुत कुछ करना बाकी है। उनका यह भी कहना है कि ध्वनि विज्ञान, वाक्य विज्ञान एवं भाषाविज्ञान की कोरशाखाओं में इसके अध्यन के गुंजाइश अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की तुलना में बहुत कम है, क्योंकि भाषिक परिवर्तनस्त्री-पुरुष के वजूद के कारण आम-तौर पर बहुत नहीं दिखायी पड़ता है,परन्तु भाषाविज्ञान की अन्य उप-शाखाओं में, जैसे कि समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, प्रोक्ति, अनुवाद एवं कई अन्य में इसकी तमाम संभावनाएं बरकार हैं। इन विद्याओं के जरिए नयी सोच, प्रविधि एवं विचारधाराओं को शामिल किया जा सकता है। कैमरॉन ने यह भी साबित करने की कोशिश की है, कि किस तरह से ‘स्व’निम विज्ञान एवं वाक्य विज्ञान भाषा एवं स्त्री अध्ययन को प्रभावित नहीं कर पाया है। अतः मुख्य धारा से इतर नयी सोच की आवश्यकता है, जिसमें अतिवादियों को समझना समीचीन होगा।

वैकल्पिक सिद्धांतः


अपनी किताब ‘ओरिएण्टलिज्म’ में एडवर्ड सईद  (1978:1995) ने ठीक ही कहा है, कि पूरब के बारे में पश्चिमी दृष्टिकोण अविवेकी, अकारण, अयुक्तिक, विकृत और बचपना पूर्ण रहा है। भिन्न सांस्कृतिक अस्मिताओं के प्रति संवेदनशीलता और सजगता ही ‘‘स्व’’ के पुनर्प्रतिस्थापन के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि हो सकती है, जिसके लिए स्त्री के प्रति आभार प्रकट करना आवश्यक है। आज गैर-पश्चिमी छवि को बिगाड़ने वाले के विरूद्ध  वैकल्पिक पश्चिम का अभ्युदय हो चुका है। लेकिन आक्रामकता में अभी भी कमी है। वास्तविक स्थिति,रूख,दृष्टिकोण और कथन के स्थापन को देशीय अलंकारों के साथ आक्रामक तरीके से दर्ज करने की आवश्यकता है। नृजातीय एवं स्थानीय आवाजों को  लयात्मक होना आवश्यक है। वैकल्पिक पश्चिम में बौद्धिक गरिमा पुनर्जीवित हो रही है। वैकल्पिक पश्चिम निष्प्राणीयता के चंगुल से छुटकारा पाने की भरपूर कोशिश कर रहा है। हालांकि और अधिक आक्रामक होने की जरूरत है। इसलिए गायत्री तीसरी दुनिया की नारीवादी लेखन,“not fully at one with the rhetoricity of language” (1993:2000) मानती है । भारतीय नारीवादी पाठ को गायत्री प्रभावशाली तो मानती हैं, लेकिन साथ में यह भी कहती हैं, कि इसमें नृजातीय चारित्रिक जीवनता की बड़ी कमी है, जिसके कारण वे अपनी विशिष्ट छाप बनाने में असफल हैं। गायत्री अपने लेखन में ब्रिटिश अंग्रेजी का प्रयोग न कर अमेरिकी अंग्रेजी का प्रयोग करती हैं, ताकि भारतीय पाठक औपनिवेशिक बू से एक हद तक दूर रह सकें। आज ऐसे प्रयोगों की जरूरत भी है।

यदि स्त्री अध्ययन का उद्देश्य संसाधन निर्माण है, तो मूल्य मानवीय है एवं सीमा सार्वभौम। आज उचित संदेश देने की जरूरत है। 21वीं सदी में नयी पीढ़ी को सही संदश देने का समय आ गया है। आज स्त्री विमर्श महज अकादमिक उतरदायित्व नहीं है, बल्कि वैकल्पिक सामाजिक यथार्थ। निरन्तरता बनाए रखने की जरूरत तमाम वर्गों में है। आमहित के लिए नयी आकांक्षाओं को गढ़ना होगा ताकि हाशिए पर रह रहे वर्गों को केन्द्र की नयी भूमिका में अवस्थित किया जा सके। स्त्री विमर्शकों की नयी पीढ़ी में सृजनात्मकता की नयी शक्ति सृजित हो रही है। कौन? क्या? कहां ? किससे? क्यों ? कैसे? किसलिए? जैसे प्रश्नों का सार्थक हल नये पैमानों पर होगा,अर्थात 21वी सदी में स्त्री विमर्श का विमर्श बदलेगा, स्त्री विमर्श की भाषा बदलेगी एवं स्त्रियों की भाषा बदेलगी ।

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ISSN 2394-093X
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