प्रो.परिमळा अंबेकर हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और विभागाध्यक्ष हैं . परिमला अम्बेकर मूलतः आलोचक हैं तथा कन्नड़ में हो रहे लेखन का हिन्दी अनुवाद भी करती हैं . संपर्क:09480226677
( दहेज़ कानून को कमजोर करने की कोशिशों के विरोध में देश भर से आवाज है . स्त्रीकाल भी इस मुहीम में शामिल है. यहाँ हम इस संबंध में आलेख और रपटें प्रकाशित करते रहे हैं . संयोग से दो महिलाओं ने ही ऐसे आलेख लिखे , जो यह राय रखते हैं कि इस कानून पर पुनर्विचार की जरूरत है . हमने इस आवाज को भी यहाँ जगह दी है . गुलबर्गा वि वि की हिन्दी प्राध्यापिका प्रो. परिमला अम्बेकर भी दहेज़ कानूनों को जंग लगा हथियार बता रही हैं , इन्हें बदलने की जरूरत पर जोड़ दे रही हैं . असहमति हो सकती है , लेकिन सहमति का बिन्दू यहाँ स्त्रियों को पैतृक सम्पत्ति में अधिकार की सुनिश्चितता की मांग है. )
स्त्रीकाल में इस सबंध में प्रकाशित विचार / रपट पढ़ने के लिए क्लिक करें :
१. न्याय व्यवस्था में दहेज़ के नासूर
२. हम चार दशक पीछे चले गए हैं
३. सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आगे आये महिला संगठन
४. दहेज़ विरोधी क़ानून में सुधार की जरूरत
जब जंग खाया हथियार, अपनी धार खोते जाता है, तब उस हथियार की उपयोगिता या तो परंपरा की एंटिक निशानी के रूप में रह जाती है या उसकी उपयोगिता केवल झूठमूठ में डराने धमकाने के लिए की जाती है,बच्चों के खिलौनों की तरह ! संविधान और न्यायपालिका द्वारा गढे गये कुछ कानून भी मेरे ख्याल से , समय और परिस्थिति के बदलाव के साथ साथ , इन्हीं जंग खाये हथियार के माफिक अपनी न्यायिक और सामाजिक असर को खोते जाते हैं । यूं तो, संवैधानिक कानूनी नियम ,कलम या धाराएॅं , अपनी संवैधानिक माॅडिफिकेशन के पर्याय के साथ तो प्रस्तुत रहते हैं लेकिन कभी कभी, अपनी परिसीमा के समाज में हो रहे आर्थिक शैक्षणिक और सांस्कृतिक बदलाव के चलते कुछ विधिक नागरिक प्रवाधान , अपनी न्यायिक और सामाजिक धार खो द्ते हैं । जैसे स्त्रियों की सुरक्षा एवं संरक्षण हेतू बनाये गये दहेज निग्रह के कानून !! आज दहेज निग्रह कानून ( IPC ) धारा 498 अ ) की इंटेसिटी को कम करके उसमें शिथिलता , सुधार लाने की संसदीय एवं कानूनी कार्यवाही की पहल हो रही है। मेरी राय में, भारतीय स्त्रियों एवं परिवार की सुरक्षा और संरक्षण के लिए बने दहेज संबंधी अपराध के रोकथाम के लिए बने दहेज विरोधी कानून की स्थिति भी आज जंग खाये हथियार के माफिक है। संक्रमण दौर की स्थिति में, आज भले ही इस कथन की पुष्टि के लिए हमें , वास्तविक आधार हाथ न लग रहे हो। लेकिन लगता जरूर है कि इक्कीसवी सदी के बनते समाजशास्त्र की यह आंतरिक चेतना है!
एन् सी आई बी ( NCIB ) राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा सन् 2012 में दिये गये दहेज हत्या संबंधी आॅंकडें जरूर चैकाने वाले हैं । सेक्शन 302/304 के तहत सन् 2008 में ( 8172 ) से लेकर 2011 में ( 8618) तक के दहेज संबंधी स्त्रियों की मौत की बढती संख्या में सन् 2012 में ( 8233 ) में हठात 4.5 प्रतिशत की गिरावट का आना, निस्संदेह विचारणीय है । क्या इसे हम, भारतीय महिला की शिक्षा, उसकी अस्मिता, उसके द्वारा प्राप्त की जा रही आर्थिक संबलता, जिये जा रही स्वछंदता की चेतना और तो और स्त्री के व्यक्तित्व और चरित्र को लेकर स्थापित रूढबद्ध सामाजिक सोच एवं दृष्टि में पड रही शिथिलता आदि के जरिये हो रहे सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव की चेतना का, शुभ संकेत मान सकते है ?
आज दहेज निग्रह कानून IPC धारा 498 A में लायी जानेवाली शिथिलता याने सुधार की पहेल और उस संबंधी संसदीय कार्यवाही का समाचार और उच्च न्यायलय द्वारा इस संबधी व्यक्त चिंता की चर्चा प्रिंट एवं तकनिकी माध्यमों की सुर्खियों में हैं । ये खबरें ऊपर से स्त्री सुरक्षा विरोधी या घरेरू हिंसा को बढावा देने की पुरूष वर्चस्वता के दाॅंव पेंच भले ही लगे , लेकिन यह निस्संदहे एक शुभ संकेत भी है। क्यूॅंकि अब समय आ गया है कि हमें सामाजिक तौर पर इस वास्तविकता को स्वीकार कर लेने का कि दहेज विरोधी कानून और बहू बचाओ की विधिक धाराएॅं बस अब जंग खाये हथियार बन गयी हैं जिसे केवल अब व्यक्ति और परिवार के सदस्यों को डराने धमकाने के लिए प्रयोग में लाये जा रहे हैं। अर्थात स्त्री की शिक्षा, बढते उद्योगों के अवकाश, आर्थिक स्वतंत्रता, इक्कीसवी सदी के बाजारवाद की माॅंग और आपूर्ती के बदलते क्षेत्र,पुरूष की तुलना में स्त्री का संख्यागत आनुपातिक पतन के चलते समाज के हर वर्ग और जाति में लडकियों की बढ़ती माॅंग आदि ने आज दहेज और उससे जुडी पारिवारिक एवं सामाजिक चैखटे की परिभाषा ही बदल दी है । स्त्री की सामाजिक चेतना और अपने बलबूते पर पाई गई उसकी सशक्तिकरण की ऊर्जा के सम्मुख आज दहेज, शतरंज के खेल में मार खाये प्यादे की तरह, कोने में खिसका जा रहा है । लेकिन सावधानी तो चाहिए कि कहीं यह मार खाया पुरूषसत्ता का प्यादा ,पैतरा बदलकर, रूप बदलकर पुनः अपनी व्यवस्था में आ तो न जाय !! अंग्रेजी फिल्मों के खलनायक टर्मिनेटर की तरह !
आज दहेज निग्रह कानून ( IPC धारा 498 A) को लेकर सभी स्तरपर यह शंका झांक रही है कि अपने संरक्षण के लिए बने कानूनी प्रावधानों को स्त्रियाॅं अब ढाल की तरह नहीं तलवार की तरह इस्तेमाल कर रही है !! हो क्यूॅं नहीं !! यह तो निर्विवाद सच है कि कानून जब अपनी सामाजिक प्रखरता या धार , अपनी अस्मिता को खोने लगता है तब वह खिलवाड बन जाता है। कानून का जब सामाजिक दायरा खिसकते जाता है तब उसके मानवीय मूल्य कूच करने लगते हैं । परिवर्तित समाजिक व्यवस्था और वास्तविकता के आधार पर, स्त्री पुरूष के वैवाहिक संबंध के मूल में रही परंपरागत रूढी वरदक्षिणा के नये सरोकार और नयी परिभाषा को गढने की आवश्यकता की माॅंग आज प्रस्तुत है । भारतीय समाज में दहेज नाम की प्रथा के या रूढी के, अनेक अर्थ और परिभाषाएॅं हैं । पिता की संपत्ति पर अपना कानूनी अधिकार को जताने या चलाने की मानसिकता के अभाव में दहेज भारतीय ब्याहता लडकी को स्त्रीधन के रूप में सहेजता है। लेकिन दुराग्रह में, सामाजिक प्रतिष्ठा का पर्याय बनकर यही स्त्रीधन , अपनी बाजारू मूल्य के चलते उसीके गले का फंदा भी बन सकता है ! और तो और दहेज जुटाने में असमर्थ लडकी के माता पिता, सामाजिक स्थानमान की झूठी प्रतिष्ठा में पडकर , बेटी के जीवन को असहनीय बना डालने के बहुत से किस्से भी हमे मिलते हैं । उपन्यासकार प्रेमचंद की निर्मला, दहेज संबंधी इन्हीं संगीन परिस्थितियों और बिखराव को झेलती है । अपने समय की सामाजिक विद्रूपता और स्त्री जीवन की अनकही वास्तविकता को प्रेमचंद कैनवास प्रदान करते हैं, निर्मला के जीवन संघर्ष और दारूण अंत का चित्रण करके । लेकिन गंभीर प्रश्न यह उभरता है कि क्या प्रेमचंद की निर्मला आज की वास्तविकता है ? प्रेमचंद के उपन्यासकालीन समय और समाज , क्या इक्कीसवी सदी के स्त्री जीवन की वास्तविकता को और आज के समाज के बदले तेवर और रवय्ये को अपने में पचा पायेगा ?
भारतीय न्याय देवता के तराजू के पलडे में पडे दहेज उत्पीडन, दहेज हिंसा और हत्या रोक संबंधी कानून, दूसरे पलडे में हजारों लाखों भारतीय लडकियों औरतों की जलने के कटने के संगीन हत्याओं के भार से भी भारी पडने की कथा का, सहज बयान करते आ रहे हैं। लेकिन आज स्त्री शिक्षा, उसकी तरक्की पसंद मानसिकता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, जाति व्यवस्था में विवाह संबंधी उभरती शिथिलता, पुरूष की तुलना में स्त्री का अनुपात का गिरना , वधू दक्षिणा का उभरता रूप इत्यादि इस भारी भरकम पलडे को अपना अंजाम दिखा रहे हैं । सन् 2013-2014 तक की अवधि में दहेज संबंधी वारदातों की घटती संख्या , अंधकार मे प्रखरता से जलते उस लौ की तरह जरूर है, जिसका होना मात्र, स्त्रियों में पनप रहा आत्मस्थैर्य , अंकुरित हो रही जागरूक चेतना और स्वतंत्र निर्णय शक्ति के धैर्य की आशा को बंधवाते जा रहा है । यूॅं तो वरदक्षिणा का कानूनी या सामाजिक पर्याय वधूदक्षिणा नहीं हो सकता । वरदक्षिणा अर्थात दहेज कुछ हद तक स्त्रीधन के अर्थ में समीकृत होकर, स्त्री के भावी जीवन की सुरक्षा का आर्थिक आधार तो बन सकता है । जैसे इस्लाम धर्म में प्रचलित मेहर की राशि, पति के न होने या तलाक की स्थिति में , स्त्री के अस्थिर जिन्दगी में आर्थिक सहारा बनने ,उसमें आत्मस्थैर्य भरने के लिए होता है । लेकिन आज हमारे समाज में स्त्री और पुरूष के मध्य की बिगडती सानुपातिकता, लडकियों की गिरती संख्या ने वधूदक्षिणा के चोर दरवाजे खोल रही है । यूॅं तो भारतीय समाज के अनेक जाति एवं जनजातियों में, कस्बों में वधूदक्षिण, का रिवाज है, एक प्रथा के रूप में । मध्य प्रदेश के भील जनजाती में आचरण में रही भगोरिया पर्व हो या कर्नाटक और महाराष्ट्र के निचली जातियों में प्रचलन में रहे विवाह इसके उदाहरण है। लेकिन अधिक गंभीर आपत्तिजनक ढंग से आज समाज के मध्यवर्ग एवं निम्नमध्यवर्ग में वधूदक्षिणा याने, लडकी के पिता को आपसी बातचीत से तय हुई राशि को थमाकर लडकी को अपने बेटे से ब्याहने का व्यवहार, बडी तेजी से पनप रहा है ।
चाहे विवाह में तय किया गया व्यवहार वरदक्षिणा का हो या वधूदक्षिणा का, कहर तो बरपेगा, लडकी पर ही । माता पिता की स्वार्थ घिनौनी मानसिकता के चलते, बडी आसानी से वधूदक्षिणा के नाम पर बेटी बेचने के बाजार को गर्माते जाने में देर नहीं लगेगी । वधूदक्षिणा का यह नया रूप, परिवार की बाजारी मानसिकता के चलते, अपने कोख जाये लडकियो को बेचने के फ्लश् मार्केट के अत्याधुनिक रूप में तब्दील होने में कोइ कसर नहीं छोडेगा। भले ही प्रेमचंद की निर्मला की समस्याएॅं आज की कडवी सच्चायी न हो लेकिन, आधुनिकीकरण की मानसिकता का यह नंगापन , हमारी बहू बेटियों को निर्मला के जीवन की संघर्षों के ऐवज में कही विजय तेंडूलकर की कमला की घिनौनी यातनाओं को न थमा दे !!कारण , महिला की सुरक्षा और विकास संबंधी संवैधानिक प्रवधानो को, उसके आरक्षण और प्रगति हेतु बनाये गये कानून को, बदलते परिवेश के अनुसार, उसके व्यक्तित्व और अस्मिता में आए परिवर्तन के आधार पर फिर से खंगालने की आवश्यकता है । दहेज के रोकथाम के लिए बनी विधियाॅं, पारिवारिक हिंसा और दौर्जन्य पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी धाराएॅं, वैवाहिक जीवन के क्लेश और विवाह विच्छेद संबंधी कानूनी नीतियाॅं, जितनी व्यक्ति सापेक्ष है, उससे अधिक गुना वे समय और परिवेश सापेक्ष भी हैं । ये कानून पुरूष विचार या स्त्री विचार के एकपक्षीय संकीर्ण नीतियों के दायरे में बांधे भी नहीं जा सकते । इसीलिए जागरूकता हमारी सोच की यह होनी चाहिए कि कही हम अपने बहू बेटियों की सुरक्षा और उनके संरक्षण के लिए नये सिरे से गढने जा रही नीतियाॅं, विधियाॅं , कहीं उसी के पैर की कुल्हाडी न बने !!
चर्चा को हम इन आम प्रश्नों पर केन्द्रित कर सकते हैं –
क्या लडकियाॅं, पिता की संपत्ति में अपने अधिकार को अपनी भविष्य सुरक्षा निधि ( दहेज/स्त्रीधधन ) के रूप में पाने की हकदार हैं ?
दहेज/स्त्रीधन का प्रमाण और स्वरूप निर्धारित करने का अधिकार देनेवाले के हाथों में सुरक्षित रक्खें कि लेनेवालों के ?
दहेज रोकथाम कानून को जंगखाये हथियार मानकर, उसे सिरे से ही मिटाकर, नये परिवेश के अनुकूल नये कानून को ऐसे गढे, जो दहेज के स्थान पर लडका और लडकी के समान संपत्ति के अधिकार को सामाजिक बल प्रदान करता हो ।
इक्कीसवी सदी की मुक्त व्यापार और आर्थिक नीतियों के चलते, समाज के ऊंचे वर्ग से लेकर , निचले वर्ग तक की स्त्रियों द्वारा, अपने आसमान को छूने की जद्दोजहद और संघर्ष की मानसिकता के कारण , प्राप्त की हुई आर्थिक संबलता के सम्मुख, दहेज और उसके रोकथाम संबंधी बने कानून क्या फिसड्डी हो रहे हैं ? और उसके सुधारित रूप की चर्चा करना, बेकार है?
अपने गिरेबान में झांक कर देखें कि कही हमारे शास्त्रीय और जनजातीय जीवन की प्रथाएॅं, स्त्री पुरूष संबंधों को लेकर उनके द्वारा गढी गयी प्राचीन मानकताएॅं, विवाह , दहेज , विच्छेद संबंधी पारंपरिक नीतियाॅं और कानून ही न कहीं आज की मांगे हैं ? परंपरा एवं शास्त्र को, जनजातीय जीवन व्यवस्था को बौना, कूढा अवैज्ञानिक मानकर समाज एवं नृतत्वशास्त्र के साचे में ढलते आ रही नीति और कानून पर सनातनी और कस्बायी का हव्वा बिठाने की गलती कहीं हम कर तो न गये हैं ?
NCB की रिपोर्ट के मुताबिक अंडमान निकोबार में दहेज संबंधी किसी भी स्त्री के मौत का न पाया जाना , कहीं अपने आधुनिक अत्याधुनिक जीवन शैली के सामने ,फिर से आत्मावलोकन के लिए उठा हुआ बृहत्त प्रश्न चिन्ह तो नहीं है ?
इन तमाम गुत्थियों का उत्तर श्रम श्रद्धा और सृजन में ढली भारतीय स्त्री के अपने जीवन विमर्श में है, जो ही इक्कीसवी सदी का नया स्त्री विमर्श कहलायेगा । इस नये स्त्री विमर्श का पहला पडाव, स्त्री विचार ,पुरूष विचार, दलित स्त्री दलितेतर स्त्री जैसे विभाजनों से समाज को मुक्त करना है । तदनुरूप प्रगतिगामी विचार को प्रतिष्ठित करनेवाली लिंगविहीन , तात्पर्य जैविक पहचान को खोना नहीं , जातिविहीन विचारवाद को बढावा देनेवाली मानसिकता को व्यक्तियों में पनपाना है। और अंतिम लक्ष्य समाज के आचार व्यवहार में बसी बसायी तमाम आचारण और विचार भेदों को मिटाकर , मानवीय विचार वाद को बढावा देकर हर व्यक्ति को चाहे स्त्री हो या पुरूष उसके अधिकार का स्पेस प्रदान करना ह। इसके लिए लडायी जिनती कानूनी होगी उतनी ही गहरायी में वह मानसिक भी होगी, आर्थिक भी होगी और राजनयिक भी । तभी जाकर इस मंथन अर्थ निकलेगा , खंगालन की प्रक्रिया का सार्थक परिणाम निकलेगा !!