कार्बाइड का कलंक

स्वाति तिवारी


लेखन की कई विधाओं में सक्रिय स्वाति तिवारी मध्यप्रदेश सरकार की एक अधिकारी हैं.   संपर्क : stswatitiwari@gmail.com

( ३० साल हो गए हैं उस  हादसे के जब यूनियन कार्बाइड ने भोपाल में हजारो लोगों को तबाह कर दिया , देखते -देखते एक शहर मुर्दों के टीले में बदल गया था. स्वाति तिवारी ने इस हादसे की शिकार परिवारों की औरतों का दर्द दर्ज किया है , अपनी पुस्तक  ‘ सवाल आज भी ज़िंदा हैं’ में. दो दिसंबर को भोपाल त्रासदी की बरसी है , स्त्रीकाल के पाठकों के  लिए स्वाति तिवारी की किताब से दो अंश . कल ( दो दिसंबर ) का  अंश  पीड़ित/ प्रभावित  स्त्रियों से बातचीत और मुलाक़ात पर आधारित होगा . )

शुरू करते हैं यूनियन कार्बाइड से। एक ऐसा कलंक, जो हमारे माथे पर गहरा लगा है। हादसे ने तो इसे दुनिया के सामने जाहिर कर दिया। देश भर में हर दिन होने वाले छोटे-मोटे हादसों का एक सबसे बड़ा प्रतीक, जिनमें हमारी व्यवस्था उतने ही निष्ठुर और निर्मम रूप में सामने आती है, जितनी भोपाल में देखी गई। तारीख 11 जनवरी 2011। गैस पीडि़त औरतों की दुनिया में दाखिल होने से पहले मैं इसी कलंकित कार्बाइड को नजदीक से देखना चाहती थी। कीटनाशकों के उत्पादन का वह अमेरिकी उद्योग, जो भारत में मौत का दूसरा भयावह नाम बन गया। हादसे के ढाई दशक गुजरने के बाद वह किस हाल में है, यह जानने के लिए मैंने उसी की तरफ कदम बढ़ाए। मैंने जानबूझकर वहां तक जाने का लम्बा रास्ता चुना जो पुराने भोपाल से होकर जाता है। भोपाल की इन्हीं सडक़ों पर उस रात मौत का तांडव हुआ था। इन पर अब तक लाखों पन्ने लिखे जा चुके हैं। हजारों ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें छपी हैं। मैंने भी देखीं हैं। लाशों के ढेर। बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतें और पशु-पक्षियों की मौत से लबालब तस्वीरें। मौत अपनी फितरत के मुताबिक ही बेरहम थी। उसने हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, अमीर, गरीब सब पर एक साथ हमला बोला। उसकी आमद सबसे ज्यादा थी इसी इलाके में।

जब मैं कार्बाइड के करीब जा रही थी तो बाजारों में रौनक दिखी और रास्तों पर भीड़। सडक़ किनारे सब्जी, भाजी के ठेले लगातार मुश्किल होते यातायात में सदाबहार किरदारों की तरह भीड़ जुटाए खड़े थे। ड्रायवर ने गाड़ी गलती से कारखाने के मुख्य दरवाजे से कुछ आगे बढ़ा दी थी। रुककर एक ऑटो वाले से कार्बाइड में जाने का रास्ता पूछा। उसने बायां हाथ उठाया और कहा, वो मौत का कारखाना तो पीछे छूट गया है। मैं जैसे ही पीछे मुड़ी तो देखा सामने एक स्मारक है, जो दुनियाभर में इस त्रासदी की पहचान बन चुका है। यह एक आदमकद मूर्ति है। एक मां की मूर्ति, जिसकी गोद में एक बच्चा है। बच्चा उसके आंचल को थामे हुए है। एकदम सादा इस सफेद मूर्ति को मैंने छूकर देखा, नीचे से ऊपर तक। फिर एक परिक्रमा की। मैं चारों ओर से उसे देखना चाहती थी। मां के अलावा और कोई शिल्प इतना बोलता, झकझोरता और मार्मिक नहीं हो सकता था। भोपाल की उस भयावह रात का सबसे संजीदा प्रतीक। मुझे इस प्रतिमा में वह युवती नजरआई, जो अपने होने वाले पहले बच्चे के लिए गुलाबी स्वेटर बुन रही थी। अगर उसका बच्चा हो भी जाता तो शायद इसी हाल में वह कहीं भीड़ में भागती हुई मारी जाती। मौत से बचने की कोई सूरत उस रात नहीं थी। यह सोचते हुए मेरी आंखें भीग गईं। मुझे लगा कि मैं ही हूं, जो भागते हुए गैस की शिकार हो गई हूं। मैं ही हूं, जिसके हाथों बना गुलाबी स्वेटर कहीं पीछे छूट गया है।
मैं सोच ही रही थी कि इस प्रतीक को एक मां ही गढ़ सकती है। तभी मेरी निगाह मूर्ति पर उकेरे शब्दों पर गई, जिस पर लिखा था-रुथ वाटरमेन। पता किया तो मालूम चला कि यह महिला नीदरलैंड  से कुछ दिनों के लिए भोपाल आई थी। यह मार्मिक यादगार उसी की बनाई है। एक स्त्री और मां ही यह कर सकती थी। फिर वह चाहे हिन्दुस्तान की हो या नीदरलैंड  की। औरत औरत होती है। उसकी प्रकृति और उसका अंतस एक सा ही होता है। वह किसी मुल्क, किसी मजहब और किसी कालखंड  की ही क्यों न हो।

हादसे का यह यादगार प्रतीक किसी हरे-भरे उद्यान से घिरे मैदान में इज्जत से स्थापित नहीं है, जैसा कि आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय पहचान के ऐसे स्मारक होते हैं। यह माँ तो कार्बाइड के ठीक सामने सडक़ पर खड़ी है, न कोई रखवाली करने वाला है और न ही कोई देखभाल करने वाला। भारत की उपेक्षित अवाम, खासतौर पर औरतों की एक सबसे असल और सशक्त प्रतीक! न जीते-जी किसी ने परवाह की और मरने के बाद बना दिए गए इस बेजान बुत के साथ भी वही सलूक। हमेशा से यही होता आया है। वे तहजीब के नाम पर परदों के अंधेरों में धकेली जाएं या ऑनर के नाम पर किल की जाएं। उन्हें इज्जत से बराबरी के दर्जे पर रखना अभी एक सुनहरा ख्वाब भर है!

इस स्मारक से सटी हैं वे इंसानी बसाहटें, जहां गैस ने सबसे पहले हवाओं में दस्तक दी थी। कार्बाइड की मौत उगलती चिमनियों से महज पांच सौ कदमों के फासले से शुरू होती हैं ये अभागी बस्तियां। वक्त के साथ तब की झुग्गियों की बनावट जरूर बदल गई है। कई रहने वाले भी बदल गए। अब यहां एक नई पीढ़ी सांसें ले रही है। लेकिन यहां की तीन पीढिय़ों को हादसे की स्मृतियां अनेक हैं। भोपाल हादसा और हिटलर के गैस चेम्बर अलग नहीं हैं। प्रथम विश्व युद्ध में फास्जीन मस्टर्ड गैस का उपयोग किया गया था। इसी जहरीली गैस ने दूसरे विश्व युद्ध में भी कहर ढाया था। हिटलर ने जर्मनी में लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारने के लिए इसी जहरीली गैस का इस्तेमाल कुख्यात गैस चेंबरों में किया था। वही गैस पूरे भोपाल को भी जहरीले चेम्बर में बदल चुकी थी।

रूथ वाटरमेन के लिए यह मानसिक स्मृति यातना का दौर रहा होगा और जब पीड़ा का आवेग असहनीय हो गया होगा तो वे भारत की यात्रा पर निकल पड़ी होंगी। अपनी स्मृतियों में खोई हुई अपनी मां को यहां किसी मां में ढूंढती हुई वे जब यहाँ अनाथ ममता से मिली तो माँ की ममता का यह यादगार मूर्त रूप खड़ा कर गयी। मैंने कहीं  ‘रूथ वाटरमेन एण्ड स्टोरी आफ ममता।’ यह एक व्यथा है। ममता भी रूथवाटरमेन की तरह हादसे में माता-पिता और भाई को खो चुकी थी। स्मारक में ममता माँ के पीछे खड़ी है। यह उसकी जिंदगी में आई हादसे की काली रात की कहानी है। तब वह भी अपनी माँ के भी पीछे-पीछे थी। कब साथ छूटा पता ही नहीं चला। ममता की मां की बांहों में झूलता वह छोटा बच्चा वहीं मर गया था और रोती बिलखती बेबस मां भी मौत के मुंह में समा गई। उसे न इलाज का पैसा मिला न  इसीलिए वह पढ़ाई नहीं कर सकी। रूथ वाटरमेन अपनी ही तरह की पीड़ा से लड़ती उस नन्हीं ममता से मिली। ममता में उसने खुद की तकलीफों को जिंदा देखा तो जो शिल्प की शक्ल में सामने आया, वह यही स्मारक दुनिया के सामने था। स्मारक के रूप में यह गैस त्रासदी की पहचान बन चुकी मां है। कारखाने को पीठ दिखाती इस प्रतिमा पर तीन तरफ शिलालेख लगे हैं, जिन पर उर्दू, अंग्रेजी और हिन्दी में लिखा  है – हिरोशिमा नहीं..भोपाल नहीं..हम जीना चाहते हैं..उन हजारों लोगों को समर्पित जो २ और ३ दिसंबर की रात, बहुराष्ट्रीय हत्यारे यूनियन कार्बाइड के हाथों मारे गए।

ऐसा विकट हादसा झेलने वाला भोपाल दुनिया में इकलौता शहर है और भोपाल में यह जगह इकलौता ठिकाना है, जहां एक यादगार बननी ही चाहिए थी, जो आने वाली पीढिय़ों को इस भयानक हादसे की याद दिलाती। लेकिन हम यह नहीं कर सके। हम यह जाहिर नहीं कर सके कि हमने कोई सबक भी सीखे हैं। बल्कि हमने यह जाहिर किया कि हम दिसंबर 1984 के पहले जैसे थे। वैसे ही अब हैं। सुधार में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। जो हो रहा है, होने दीजिए। जो चल रहा है, चलने दीजिए। परवाह मत कीजिए। यहां लोगों की याददाश्त बहुुत कमजोर होती हैं। वे सब भूल जाएंगे। थोड़े दिन गुस्सा होंगे। गरियाएंगे। फिर किसे याद रहेगा कि क्या हुआ था? आप तो मजे कीजिए।क्या हमारी व्यवस्था और व्यवस्थापकों की नजर में गैस हादसा, हर दिन होने वाली दूसरी मामूली दुर्घटनाओं की तरह एक और दुर्घटना थी, जो उस रात घटी? अदालत में तो बाकायदा इस हादसे को इसी दिशा में मोड़ भी दिया गया था। हादसे के वक्त देखा ही कि किस तरह सरकारें सबूत मिटाने में लगी थीं। वे किसके लिए काम कर रही थीं? जाहिर है कि फिर किससे उम्मीद की जाए? यूनियन कार्बाइड के बाहर और इस बुत के सामने कई सालों से देश-विदेश के संवेदनशील कार्यकर्ता और कलाकार अपने दिल की बात दीवारों पर उकेरने आते रहे हैं। मैंने देखा कि एक जगह म्यूरल बनाकर कलाकारों ने अपने दर्द को दीवारों पर कुछ इस तरह बयान किया-
हमारे शहर पे जब मौत का गुबार गिरा
हवास खो गए, पैदल गिरा सवार गिरा।
जरा सी देर में सांसों के पड़ गए लाले
गिरा जमीन पर जो भी, वो बेकरार गिरा।
सिवाए अपने किसी जात की खबर न रही
सडक़ पे टूटके रिश्तों का एतबार गिरा।
वो हंसता-खेलता भोपाल बन गया मकतल
हर एक कूचे में लाशा जो बेशुमार गिरा।
-ज़फर सेहवाई

स्मारक और आसपास की कार्बाइड की दीवारों पर दर्ज तस्वीरों और नारों को पढ़ते हुए मैं 93 एकड़ के उजाड़ परिसर की तरफ बढ़ती हूं। अब यह ताकतवर अमेरिकी उद्योग परंपरा एक शानदार कारखाना नहीं बल्कि जहरीले अपशिष्ट से भरा एक सिरदर्द बन चुका है। अंदर-जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है अब। कीटनाशकों के उत्पादन के अपने बेहतरीन दौर में शायद ही कोई बाहरी आदमी यहां दूर भी फटक पाता होगा। लेकिन अब इसका काम खत्म हुए 26 साल गुजर गए हैं। यह अपने घातक रसायनों के इस्तेमाल का असर इंसानी चूहों पर देख चुका है।

मुझे अंदर जाते हुए किसी ने नहीं रोका। होमगार्ड के चंद जवान सर्दी में धूप सेंकते हुए इसकी सुरक्षा के लिए तैनात जरूर थे, लेकिन शायद अब किसी को रोकने की जरूरत ही कहां थी? यह हत्यारी फैक्टरी अपना काम खत्म कर चुकी थी। धातु के इस बेजान ढांचे और खंडहर होती इमारतों में हर तरफ मख्खी और मच्छर जैसे कीटों की भरमार थी, जो बीमारियों की शक्ल में इंसानों के लिए हमेशा से ही मुश्किल पैदा करते रहे हैं। यूनियन कार्बाइड में इन्हीं कीटों के नाश के उपाय किए गए थे, लेकिन उन्होंने इंसानों के साथ ही कीट-पतंगों का सलूक किया। मैंने महसूस किया कि हमारे आसपास मंडरा रहे अनगिनत कीट-पतंगे कार्बाइड को चिढ़ा रहे हैं। मैं देख रही थी एक अमेरिकी आसुरी उद्योग का मायाजाली विस्तार। करीब 80 एकड़ जमीन पर। जहरीली दवा बनाने वाली फैक्ट्री के संयंत्र में हर तरफ झाड़-झंखाड़ और गाजर घास का कब्जा था। यह कारखाना भारत में इस बात का स्मारक जरूर है कि ताकतवरों के आगे अवाम की हैसियत कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा न आजादी के पहले थी, न आजादी मिलने के बाद है! जीते-जी यह कारखाना भी इसी हकीकत की मिसाल था और इसने दिसंबर 1984 में दुनिया के सामने इस हकीकत के सबूत भी दे दिए। बंद होने के बाद उजाड़ शक्ल में भी यह उसी हकीकत की याद दिलाता रहा है। शायद इसीलिए सरकारों को लगा हो कि अलग से किसी स्मारक को बनाने की जल्दी क्या है? लोग सीधे असली स्मारक को ही आकर देख लें। सर्दी की इस सुबह मैं इसी असली स्मारक के सामने थी।

दीवार फांदकर भीतर आने वाले बच्चे, जो पतंगें उड़ा रहे थे। बकरी चराती एक बूढ़ी औरत, जो सूनी आंखों से कभी कारखाने को देखती है तो मुंह फेर लेती है। कार्बाइड के पड़ोस की ये दो पीढिय़ां कभी भी यहां देखी जा सकती हैं। एक पीढ़ी ने हादसे को देखा और भोगा है और नई पीढ़ी ने सिर्फ सुना है या तस्वीरों और खबरों में देखा-पढ़ा है। कारखाने के बाहर आंखों के सामने हैं घनी बस्तियां। संकरी गलियां। गंदगी। बदइंतजामी। फटेहाली। बेबसी। गलियों में अंदर चहलकदमी कीजिए। किसी घर के दरवाजे पर दस्तक दीजिए। बेमकसद बैठे या टहलते लोगों की शक्लें देखिए। एक अजीब सा अहसास भीतर कड़वाहट घोल देता है। यहां आकर गैस हादसा पीछे छूट जाता है। सिर्फ सवाल सर्प की तरह फन उठाने लगते हैं। साठ साल से सरकारों के दावे, आश्वासन, नीयत और नीतियों, अरबों की योजनाओं और उनके बेईमान अमल का सबूत है यह सब। एक दिशाहीन देश की दर्दनाक तस्वीर! शाम ढले जब कारखाना देखकर घर लौटी तो सबसे पहले भरे मन से मैंने अपनी डायरी में लिखा-
कार्बाइड के इस आंगन में
उग आए हैं कुछ नीम के प़ेड
फुदकने लगी हैं कहीं-कहीं गौरय्या
दूर ऊंचे ताबूत पर आ बैठे हैं कबूतर
वो अनजान गाय चरती बैठी हैं
भोले बच्चे ले आए हैं पतंग की डोर
डर लगता है मुझको अब……
कहीं ऐसा ना हो…..
कहीं से कोई ले आए अनुमति
की कोई नई पतंग,
लिख दे जिस पर हुक्मरान
यहां फिर बनेगी जहरीली गैस
यह कहकर किसी बच्चे को
पक ड़ा दे डोर….जाओ उड़ाओ
हजारों चेहरों के गुब्बारे
भरकर मिक या फास्जीन
या कोई और
क्या पता…….?
पड़ी मशीनों पर तरस खाकर
उद्योगों को मध्यप्रदेश की धरती पर
जमाने की चाह में एक बार फिर
बनने लगे ऐसी ही कोई जहरीली चीज
खुदा ना करे….. फिर कहीं भोपाल
की पुनरावृत्ति हो…

यूनियन कार्बाइड वही है जिसे अमेरिका की वित्तीय मामलों की प्रसिद्ध पत्रिका ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ ने १९७९ के प्रारंभ में एक ‘भारी भरकम, भद्दा जोखिम भरा उद्योग’ कहा था। दुनिया भूली नहीं है कि साठ-सत्तर के दशक में इसे पर्यावरण का सबसे बड़ा दुश्मन ठहराया गया था। जो कुछ भोपाल ने भोगा इसी भयावह नतीजेे की आशंका को देखते हुए कई देश इसे नकार चुके थे। इसी कार्बाइड को कनाडा तथा स्कॉटलैण्ड से बाहर निकाल दिया गया था। वही जिसके बारे में अमेरिकी व्यापारिक पत्रिका ‘फॉरचून’ ने कहा, ‘यूनियन कार्बाइड मुनाफा खोरी से ग्रस्त एक ऐसा प्रतिक्रियावादी राक्षस है, जिसे नागरिकों की भलाई से कोई वास्ता नहीं है।’ भोपाल इस बात का गवाह है कि इसमें से कुछ भी गलत नहीं था। लेकिन गलती की परवाह हमारे यहां कौन करता है। भारत शायद दुनिया का अकेला देश है, जो मुसीबतों को गले लगाता है और इतिहास से कभी कोई सबक नहीं सीखता।
तभी तो यहां एक बड़े उद्योग की स्थापना के नाम पर कृषि मंत्रालय ने किसी बड़ी खुश खबरी की तरह बाकायदा अधिकारिक के जरिए एडुआर्डो म्यूनाज को सूचित किया था कि सरकार यूनियन कार्बाइड को प्रतिवर्ष पांच हजार टन कीटनाशक के उत्पादन का लाइसेंस प्रदान कर रही है।  यह वास्तव में सेविन के उत्पादन का निमंत्रण था, जिसका अर्थ था इस संयोजन में शामिल सभी रासायनिक तत्वों को भारत में ही तैयार किया जा सकेगा। शायद यही वह पहली भूल थी, जिसने भोपाल को मौत के मुंह में ढकेल दिया था।

बहुराष्ट्रीय कम्पनी यूनियन कार्बाइड ने सन् १८८६ के आरंभ में शुष्क सेल बेटरी बनाना शुरू किया था। सन् १९१४ से १९१८ तक कुछ नए उत्पादों को इसने अपनी योजना में शामिल करते हुए बैटरियां, एसीटिलीन स्ट्रीट लाइट के लिए आर्म लैम्प और कारों के लिए हेड लैम्प बनाकर लोकप्रियता हासिल की।  इस तरह यह एक स्थापित कम्पनी बन गई। १९१७ में यूनियन कार्बाइड ने अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार शुरू किया और चार अन्य कम्पनियों का संविलियन करते हुए यूनियन कार्बाइड एवं कार्बन कार्पोरेशन की स्थापना की। देखते-देखते यह विश्व के ३८ देशों में १३४ विभिन्न उद्योगों का एक बड़ा साम्राज्य बनाने में कामयाब हो गई। पेट्रोल, कोयला और प्राकृतिक गैस के भण्डार खोजने वाली इस कम्पनी ने कनावा घाटी में ही विभिन्न कारखानों में दो सौ रासायनिक द्रव्यों का उत्पादन किया था।

कार्बाइड ने बहुत से द्रव्य एथलीन आक्साइड, क्लोरोफार्म, एक्रीलोनीट्राइल, बेंजीन, विनाइल क्लोराइड जैसे घातक रसायन तो बनाए ही, साथ ही पेट्रो केमिकल्स उद्योग में उपयोग की जाने वाली गैसों, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बनिक गैस मिथेन, एथीलीन प्रोपेन और रासायनिक द्रव्यों, अमोनिया और यूरिया की भी सबसे बड़ी आपूर्तिकर्ता बन गई। उच्च तनाव उपकरण एरोप्लेन टर्बाइन में प्रयुक्त कोबाल्ट, क्रोम, टंगस्टन जैसे उपकरण बनाकर अपने भाग्य को आजमाने लगी। इसके साथ ही वह संवेदनशील धातुओं के निर्माण के अलावा घरेलू उपयोग में आने वाली छोटी-छोटी वस्तुओं के निर्माण में भी लगी थी। जहर से लेकर रोजमर्रा तक अपना व्यवसाय फैलाने वाली यूनियन कार्बाइड प्लास्टिक बोतलें, खाद्य पदार्थ पैङ्क्षकग, फोटोग्राफिक फिल्म, एरोसोल लाई, ङ्क्षसथेटिक हीरे बनाते-बनाते मच्छर मारने का स्प्रे तक बनाने लगी और मच्छर मारते-मारते यह कृषि की तबाही के जिम्मेदार कीट पतंगों को मारने के स्प्रे भी बनाने का सोचने लगी।

प्रथम विश्व युद्ध में एक जहरीली गैस के प्रयोग ने कार्बाइड को एक नए कारोबार का विचार दिया। प्रथम विश्वयुद्ध में फॉस्जीन मस्टर्ड गैस का उपयोग किया था। इस जहरीली गैस ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इसी जहर से प्रेरित होकर कम्पनी रसायनों के प्रति ज्यादा उत्साही हुई।  मीडिया प्रकाशनों और लेखकों ने इस जहरीली परंपरा के घातक परिणामों पर खूब लिखा है।दिनमान साप्ताहिक ने १६ दिसम्बर, १९८४ को बताया, ‘दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नागासाकी में इसी गैस ने कहर बरपाया था। हिटलर ने जर्मनी में लाखों यहूदियों को मौत के घाट उतारने के लिए इसी जहरीली गैस का इस्तेमाल कुख्यात गैस चैंबरों में किया था।’  जनसत्ता ने बताया, ‘फॉस्जीन गैस पहली बार प्रथम विश्वयुद्ध में इस्तेमाल हुई। १९१८ की २५ एवं २६ जनवरी को जर्मनी ने पेनसेविले के नजदीक मित्र राष्ट्रों के सैनिकों पर इसका इस्तेमाल किया था और बदले की राजनीति की तरह इसके जवाब में जून १९१८ में अमेरिका ने भी फ्रांस के बोस-द-मोर्ट नामक स्थान पर जर्मनी के खिलाफ फॉस्जीन नामक इसी गैस का इस्तेमाल किया।’ मैक्सिको में इस गैस की मामूली मात्रा ने मौत और दहशत का बवंडर खड़ा कर दिया था। भोपाल का दुर्भाग्य था कि यह मात्रा पूरे चालीस टन थी। हादसे से जाहिर है कि यह 15 हजार लोगों को मौत के घाट उतारने के लिए काफी थी और लाखों को हमेशा के लिए अपाहिज बनाने में। अगली पीढिय़ों तक इसके असर दिखाई देेने वाले थे।

डोमिनीक लापिएर और जेवियर मोरो बताते हैं  कि 38 देशों, जहां यूनियन कार्बाइड ने अपना नीला और सफेद ध्वज फहराया था, इनमें से किसी भी देश ने कम्पनी के साथ इतने दीर्घकालिक एवं उत्साहपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं किए थे, जितने भारत ने। शायद ऐसा इस तथ्य के चलते था कि यह बहुराष्ट्रीय कम्पनी लगभग एक शताब्दी से करोड़ों भारतीयों को बिजली उपलब्ध करा रही थी। कार्बाइड के लैंपों ने भारतीय उप-महाद्वीप के सर्वाधिक दूर-दराज के गांवों में प्रकाश फैला दिया था। वार्षिक बीस करोड़ डॉलर टर्नओवर वाली, यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड न्यूयार्क मल्टीनेशनल ग्लोबलाइजेशन पॉलिसी का सफल नमूना था। भारत में यूनियन कार्बाइड सन् १९०५ में नेशनल कार्बन कम्पनी (इंडिया) लिमिटेड के नाम से आई। यहां सबसे पहले कम्पनी ने बैटरी के क्षेत्र में काम शुरू किया। यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (अमेरिका), भारत में यूनियन कार्बाइड (इंडिया) लिमिटेड के नाम से सन् १९३४ में कलकत्ता में स्थापित हुई। इसका रजिस्टर्ड कार्यालय कलकत्ता में ही है। भारत में इसने तेरह कारखाने डाले। पहला केमिकल संयंत्र १४ दिसम्बर, १९६६ को स्थापित  किया। यह ट्राम्बी द्वीप के ऊपर था।

१९७० में यूनियन कार्बाइड ने भारत में ‘सेविन’ बनाने का लाइसेंस मांगा। सन् १९७३ में यूनियन कार्बाइड (इंडिया) लिमिटेड और यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (अमेरिका) के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते में तय हुआ कि ‘सेविन’ और कुछ अन्य कीटनाशक भारत में ही बनाए जाएंगे लेकिन इसके लिए मिथाइल आइसोसाइनेट को अमेरिका से आयात किया जाएगा। साथ ही साथ सेविन बनाने के लिए आवश्यक मशीनरी भी आयात होगी। इस अभागे शहर में १९६७-६८ में जब कार्बाइड की स्थापना की गई तब यह इलाका नगर निगम क्षेत्र के बाहर था। आबादी बढ़ी तो शहर ने पैर पसारे। धीरे-धीरे शहर कार्बाइड के करीब आ गया। १९७५ में तत्कालीन नगर निगम प्रशासक महेश नीलकंठ बुच द्वारा यूनियन कार्बाइड को नोटिस दिया गया कि यह क्षेत्र अब निगम सीमा क्षेत्र में है। अत: कारखाने को शीघ्र ही सीमा से बाहर ले जाया जाए। कार्बाइड के सितारे बुलंद थे। बुच कुछ कह पाते इसके पहले ही उनका तबादला हो गया। कार्बाइड के तत्कालीन महाप्रबंधक सी.एस. राम द्वारा नगर निगम को वद्र्धमान पार्क के निर्माण के नाम पर २५ हजार रुपए का चन्दा दिया गया। नोटिस ठण्डे बस्ते में चला गया। और भोपाल में काली ग्राउंड स्थित कार्बाइड संयंत्र सघन आबादी के बीचों-बीच शान से खड़ा रहा।

कम्पनी ने अपनी सुविधाएं देखीं और सरकार ने एक बड़ा जोखिम अनदेखा कर दिया। अनदेखी का परिणाम ही था कि सरकार ने भोपाल स्थित काली परेड ग्राउंड की पांच एकड़ जमीन यूनियन कार्बाइड को आवंटित कर दी। यही सबसे खतरनाक भूल थी। सरकार ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि इस कारखाने में किस तरह के रसायनों का उत्पादन किया जाएगा। वैज्ञानिकों और पत्रकारों की चेतावनी को भी नकार दिया कि ये रसायन मनुष्यों और प्रकृति के लिए कहीं घातक तो नहीं। भोपाल संयंत्र १९६९ में प्रारंभ हो गया था, जिसमें सबसे पहले सांद्रित द्रव से कार्बमेट पेस्टीसाइड बनाता था। उसके बाद १९७५ में भारत सरकार ने यू.सी.आई.एल. को सेविन के नाम से कार्बोरिल बनाने का लाइसेंस दे दिया। इसके बाद इंडिया में जैसे यूनियन कार्बाइड की हर मांग को आंखें बंद कर स्वीकार करते जाने का चलन हो गया और १९७८ में वीरेन्द्र कुमार सकलेचा के मुख्यमंत्रित्वकाल में कम्पनी ने मध्यप्रदेश के प्रदूषण नियंत्रण मंडल से हरी झंडी हासिल की। यह ग्रीन सिगनल एक और बड़ी भूल साबित हुआ, क्योंकि यूनियन कार्बाइड ने फॉस्जीन जैसी अति घातक गैस बनाने का कनाडा प्लान्ट भोपाल स्थानान्तरित कर लिया। कनाडा सरकार ने जिसे हटाने का नोटिस दे दिया था।

कुछ वर्ष तक एम.आई.सी. वेस्ट वर्जीनिया स्थित यूका कारखाने से आयात की जाती थी। सन् १९७९ में भोपाल में ही दूसरी जहर एम.आई.सी. उत्पादन की इकाई भी स्थापित हो गई।  कारखाने के टैंक ६१० एवं ६११ में परिष्कृत एम.आई.सी. का संग्रहण किया जाने लगा। यह भोपाल में मौत की दस्तक की उलटी गिनती की शुरुआत थी…सरकार भले ही आंखें मूंदे रही हो, लेकिन ऐसा नहीं था कि सब सोए हुए थे। भोपाल मूल के वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी के खाते में सिर्फ यह चमकदार क्रेडिट है कि उन्होंने सबसे पहले दुनिया को कार्बाइड के खतरे से चेताया।  एक अक्टूबर १९८२ को उन्होंने लिखा था कि ‘मानवीयता के विरुद्ध एक घृणित षडय़ंत्र चल रहा है। अपनी-अपनी धुन में डूबे लोग बेखबर से हैं जिनको खबर है वे चुप हैं। मौत दबे पांव आगे बढ़ती आ रही। भोपाल सो रहा है, फिलहाल अगली सुबह तक के लिए और किसी दिन शायद बिना अगली सुबह को जागने के  लिए।’

कार्बाइड के परिसर में जारी उत्पादन की गतिविधियों से भोपाल और देश का अवाम अनभिज्ञ था। यह बातें उसकी समझ के परे थीं कि कीटनाशक कितने खतरनाक रसायनों के सम्मिश्रण होते हैं एवं उनको प्रयोग करते वक्त किस तरह की जानलेवा लापरवाहियां होती हैं। दिसंबर 1984 में जो हुआ, वह तो दुनिया ने देखा ही, लेकिन यह एकमात्र हादसा नहीं था। यह हादसा कई छोटी-छोटी लापरवाहियों और दुर्घटनाओं के बाद का बड़ा धमाका था। एकमुश्त आखिरी धमाका। खुद तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने माना था कि इससे पहले भी यूनियन कार्बाइड में गैस कई बार रिस चुकी थी। लेकिन न तो हमने केसवानी की चेतावनी पर कान दिए और न ही उन दुर्घटनाओं से कुछ सीखा, जो आने वाले कल की भयावता के इशारे कर रही थीं। क्या यह हादसा सोची-समझी चाल थी? क्या वाकई कोई परीक्षण हो रहे थे? इसलिए जब हादसा हो गया तो प्रतिष्ठित संस्था ‘एकलव्य’  ने लिखा कि एम.आई.सी. का प्रभाव मनुष्यों पर क्या होता है, दुनिया में इसका सबसे बड़ा प्रयोग भोपाल में हुआ। अभी तक प्रयोगशालाओं में एम.आई.सी. के प्रभाव के प्रयोग चूहों पर होते थे, लेकिन भोपाल ने तो जानवरों की जगह ‘मानव चूहे’ प्रयोग के लिए उपलब्ध करा दिए।

‘जन विज्ञान का सवाल’ शीर्षक से जारी दस्तावेज में दर्ज है कि ‘रसायन और जैविक युद्ध के बहुत से विशेषज्ञ, मनुष्य पर मिक के प्रभाव के अध्ययन करते हैं। क्लोरीन, फॉस्जीन, मिथाइल आइसोसाइनेट गैस सहित अन्य गैसों का उपयोग युद्ध में मनुष्यों को मारने के लिए कैसे किया जा सकता है। शायद आने वाले (तीसरे महायुद्ध) युद्धों में मिक के उपयोग पर उनकी आंख है।’ यूनियन कार्बाइड में जिस तरह से ये खतरनाक रसायन उपयोग होते थे, उसके हिसाब से सुरक्षा व्यवस्था और खतरे की चेतावनी देने वाले सूचक यंत्र बेहद नाकाफी थे। जो उपलब्ध थे वे काम नहीं कर रहे थे। खतरनाक मिक की इतनी ज्यादा मात्रा का भण्डारण क्यों किया गया? जबकि वैज्ञानिक जानते थे कि जरा सी भी लापरवाही बर्बादी का मंजर खड़ा कर सकती है तो उत्पादन बन्द होने की स्थिति में कर्मचारी एवं जनता व प्रशासन को खतरे की सूचना क्यों नहीं दी गई। यूनियन कार्बाइड ने सभी सुरक्षा साधन एक साथ निष्क्रिय कैसे होने दिए और आसपास के रिहायशी क्षेत्रों को बचाव की दृष्टि से प्रथम चिकित्सा प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया गया। क्या हादसे में जीते-जी तबाह हो गई औरतों को यह कभी पता चल पाएगा कि हादसा होने दिया गया या हो गया?

मैंने यूनियन कार्बाइड के परिसर और आसपास के इलाकों को खामोशी से देखा। यह शहर मेरे लिए नया था। लेकिन अलग कुछ नहीं था। आमतौर पर जो अव्यवस्था और लापरवाही सडक़ों और टे्रफिक में देश में करीब-करीब हर जगह नजर आती है, वही बदइंतजामी यहां भी भरपूर थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इन 26 सालों में कम से कम इस इलाके को तो रौनकदार बनाया ही जा सकता था। कुछ तो ऐसा हो सकता था, जो हमारे मानवीय सरोकारों का प्रमाण होता। क्या जापान ने हिरोशिमा और नागासाकी या अमेरिका ने वल्र्ड ट्रेड सेंटर के बरबाद बिंदुओं को नक्शे पर यूं ही रफा-दफा कर दिया था? नहीं। उन्होंने इन जख्मों को न सिर्फ भरा बल्कि इन जगहों को दुनिया की याददाश्त में लगातार जिंदा भी रखा है ताकि सदियों तक सनद रहे। भोपाल हादसे के इस इलाके में आकर किसी को लगेगा ही नहीं कि यहां कभी कुछ हुआ था? और यह वो देश है, जो अपने राजनेताओं के मरने पर आलीशान समाधियों और स्मारकों पर अरबों रुपए फूंक देता है, जबकि उनमें से ज्यादातर को लोग अपनी नजरों और यादों से उतार फेंक चुके होते हैं!

कार्बाइड के केम्पस से लौटने के बाद ऐसे ही कई सवालों से मैं घिरी रही। मैं उन लोगों से मिलना चाहती थी, जो असल में गैस की चपेट में आए। उन औरतों से जिनका सब कुछ बरबाद हो गया। वे किस हाल में रही हैं? मुझे गैस पीडि़त मजबूर औरतों के एक जनसंगठन के जाने-माने कार्यकर्ता बालकृष्ण नामदेव के बारे में पता चला। पता चला कि लिली टॉकीज के सामने तिब्बतियों की स्वेटर की मौसमी दुकानों के पीछे हर रविवार और शुक्रवार एक बैठक होती है। यह है भोपाल का नीलम पार्क। कई सालों से गैस पीडि़त निराश्रित महिलाएं यहां आती रही हैं। बैठक का तय वक्त रहा है-दोपहर बारह से चार बजे। नामदेव ने कहा कि आप वहीं आ जाइए…मुलाकात हो जाएगी। अब मैं उन महिला किरदारों से रूबरू होने वाली थी, जिनके सवाल मेरे लिए सबसे अहम थे। मेरा फोकस उन्हीं पर था। उनके बीच जाते हुए मैं डरी हुई थी। मैं एक ऐसी जमात से मिल रही थी, जो  26 साल से सिर्फ उम्मीदों के आसरे थी। जिसके लिए जिंदगी जीते-जी बोझ बन गई थी। एक हादसे ने उनकी दुनिया को उलट-पलट कर रख दिया था। कैसी दिखती होंगी वे? क्या सोचती होंगी? उनके दिन और रात कैसे कटते होंगे? जो खो गए उन अपनों की यादों के कितने टुकड़े उनके भीतर तैरते रहते होंगे? वे जो बेमौत मारे गए। आंखों के सामने। अपनी गोद में। हंसते-खेलते। मां, बाप, भाई, बहन, पति, बच्चे और पड़ोसी!

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ISSN 2394-093X
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