आज स्त्रीकाल के पाठकों के लिए सुधा अरोड़ा की एक छोटी सी टिप्पणी जो १९९७ में जनसत्ता में छपी थी . यह टिप्पणी सुधा अरोड़ा और अरविन्द जैन के स्त्रीकाल में प्रकाशित पिछले लेखों के साथ पढी जानी चाहिए . आलेखों के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें :
कलाकार के सौ गुनाह माफ़ हैं : सुधा अरोड़ा
डार्क रूम में बंद आदमी की निगाह में औरत : अरविन्द जैन
यूं भी औरत को भारतीय संस्कृति में इंसान का दर्जा दिया कब गया ? वह तो देवी है , श्रद्धा की मूर्ति है , पूजनीय-वंदनीय है और देवियां बोला नहीं करतीं। वे तो पूजा के पंडाल में सजी-धजी , मूक-बधिर ही अच्छी लगती हैं।
अपनी इस फितरत से हटकर जब वह बोलती है तो एक प्रबुद्ध पत्रकार उसे राय देते हैं – ’’आपको देर से ही सही ,अपनी-अपनी औकात का पता चल गया है तो उसको चैराहे पर चड्ढी की तरह फींचने से कौन सा राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाएगा ?‘‘ (क्या आपने यह ’ चड्ढी फींचना‘ मुहावरा सुना है ? मैंने तो नहीं सुना। वैसे यह अंग्रेजी के ’वाॅशिंग डर्टी लिनेन इन पब्लिक‘ का ’मौलिक‘ हिंदी रूपांतर है। )
12 जनवरी 1995 के जनसत्ता की रविवारीय साहित्य-पत्रिका ’सबरंग‘ के पृष्ठ 18 पर सत्येंद्र राणे का एक रेखांकन है, जिसमें औरत के चेहरे पर आंखें बंद हैं और होठों की जगह एक बंद ताला है। आज भी एक आदर्श औरत की तस्वीर यही है। यह बंद ताला जैसे ही खुलता है, औरत अपने सदियों पुराने गरिमामय-महिमामंडित ’एन्टीक‘ आसन से नीचे गिरा दी जाती है।
यह महज एक संयोग नहीं है कि अस्मिता से जुड़े अधिकांश शब्द स्त्रीलिंग हैं – मर्यादा-प्रतिष्ठा, गरिमा-महिमा, व्यथा-पीड़ा, इज्जत-आबरू-हया, लज्जा-शर्म-यातना आदि आदि… क्योंकि ’लाज‘ रखने की पूरी जिम्मेदारी एक औरत के ही खाते में डाली गई है। एक अंग्रेजी पत्रिका ’सैवी‘ ने अपने 16 नवंबर 1995 के अंक में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री लीला नायडू का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित किया था। 1940 में जन्मी लीला का सोलह वर्ष की उम्र में प्रसिद्ध रायबहादुर ओबेराय खानदान के पुत्र तिलक राज उर्फ टिक्की से विवाह हुआ और एक साल बाद वह दो जुड़वां बेटियों की मां बनीं। दो साल तक, शिकार के शौकीन अपने रईस शराबी पति से लगातार पिटने के बाद सिर्फ़ अठारह साल की उम्र में, 1958 में ही, वह ओबेराय खानदान से अलग हो गई। उसके बाद उन्होंने कुछ फिल्में की, जिसमें अनुराधा, द हाउसहोल्डर काफी सराही गईं। बलराज साहनी के साथ अभिनीत फिल्म अनुराधा में लीला नायडू को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
ग्यारह साल बाद, 29 साल की उम्र में, 1969 में उन्होंने अंग्रेजी के सुप्रतिष्ठित कवि डाॅम माॅरेस से प्रेम विवाह किया और उनकी तीसरी पत्नी बनी। दांपत्य जीवन के सत्ताइस साल साथ रहने के बाद डाॅम माॅरेस अपने से आधी उम्र की पत्रकार सरयू आहुजा के प्रेम में पड़ कर लीला नायडू से अलग हो गए।
यह कहानी न तो नई है, न अविश्वसनीय।
लीला नायडू, कमला दास या मल्लिका अमरशेख जैसी लेखिका नहीं हैं जो अपनी तकलीफ को शब्दजाल में लपेटकर शुगर कोटेड कुनैन की तरह ’माय स्टोरी‘ या ’मला उध्वस्त व्हायचंय‘ जैसी कहानी प्रस्तुत करने की कला में माहिर हों। आत्मदया के बगैर उन्होंने अपनी जिंदगी की आधी सदी की दास्तान बिना किसी लाग-लपेट के तटस्थ नजरिए से बयान की है।
उनके इस बयान का रस लेते हुए हिंदी के एक वरिष्ठ पत्रकार-कवि ने (नूतन सवेरा-12 जनवरी 1997, पृष्ठ 49-50) अपने साप्ताहिक स्तंभ ज़रिया-नज़रिया में ’शादी और बरबादी के बाद का नजारा‘ लिखकर सवाल पर सवाल उठाए हैं – ’’जिसे आप समाज के सामने गधा सिद्ध करना चाहती हैं , उसी के साथ सत्ताइस साल हम बिस्तर रहीं ?…….. इतने साल साथ रहने के बाद ’मोहतरमा‘ को यह तथ्य समझ में आया ? ……….यह समझने के लिए ’मैडम‘ को दो-दो पतियों और साल-दर-साल घुटने रहने की जरूरत पड़ी, यही हैरत है।……..‘‘
बोलना ही इंसान को इंसान बनाता है पर यही ’बोलना‘ एक औरत को इंसान के दरजे से गिराकर ’मैडम‘ और ’मोहतरमा‘ बना देता है। मैं यह नहीं कहती कि मैडम और मोहतरमा गालियां हैं ,पर जिस अंदाज़ में इन संबोधनों का इस्तेमाल किया गया है ,वह मुंह खोलनेवाली औरत के प्रति लेखक का नजरिया स्पष्ट करता है जो मुझे खासा आपत्तिजनक लगा ।
यूं भी औरत को भारतीय संस्कृति में इंसान का दर्जा दिया कब गया ? वह तो देवी है , श्रद्धा की मूर्ति है , पूजनीय-वंदनीय है और देवियां बोला नहीं करतीं। वे तो पूजा के पंडाल में सजी – धजी , मूक-बधिर ही अच्छी लगती हैं।
बहरहाल, पंद्रह पृष्ठों में बिखरी एक अभिनेत्री की दिल दहला देने वाली और गंभीरता से कुछ सोचने पर मजबूर करने वाली इस यातनाकथा को ’शादी और बरबादी के बाद का नजारा‘ के रूप में एक तमाशबीन की तरह दूर से देखने, मजा ले-लेकर पढ़ने और तथ्यों को अपने अनुरूप तोड़-मरोड़ कर उस पर गैर-जिम्मेदार, उथली और सतही टिप्पणियां करने वाले प्रबुद्ध पत्रकार कब अपने सामंती गिरेबान में झांकने के लिए, अपनी गर्दन को भी थोड़ा सा नीचे झुकाएंगे ?
(जनसत्ता, मुंबई, शुक्रवार 17 जनवरी 1997 से साभार )