सुनो चारुशीला और अन्य कवितायें

कर्मानन्द आर्य

कर्मानन्द आर्य मह्त्वपूर्ण युवा कवि हैं. बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी पढाते हैं. संपर्क : 8092330929

( यह  प्रेम का सप्ताह  है -वसंत भी दस्तक दिया ही चाहता है . पिछले दिनों प्रेम को दक्षिणपंथी राजनीति का शिकार बनाया जाने लगा है . इस  सप्ताह को लेकर चरमपंथी संगठनों का सलाना विरोध फिर से अपने चरम पर है . स्त्रीकाल ने प्रेम के इस सप्ताह को प्रेम की स्त्रीवादी कविताओं , रचनाओं , आलेखों को समर्पित किया है . पवन करण की कविताओं और निवेदिता की यादों के बाद कर्मानंद की कवितायें  आप भी करें सहयोग . ) 

 

अब अमूमन हर किसी की बहन जाती है पार्क


पहले मेरी बहन गई
फिर मेरे दोस्त की
अब अमूमन हर किसी की बहन जाती है पार्क

वे तंग जगहें हैं
जहाँ नहीं होता पार्क और फूल
जहाँ नहीं होती नदियाँ

विकृतियों का जमघट होता है
अपने ही करते हैं व्यभिचार
मेरी बेटी बताती है
‘एक कहानी उसको भी पता है’

मैं पूछते हुए डरता हूँ
अपनीही बेटी से
बंदकमरे कैसे सड़ जाते हैं
बंद गली कैसे ख़त्म हो जाती है
पार्कों का होना अच्छा है
पहले मेरी बहन गई
फिर मेरे दोस्त की
अब अमूमन हर किसी की बहन जाती है पार्क

ओ मोरे बासंती बालम !

कहाँ हो ? तुम्हारी याद सता रही है. गंधमादन
निहार रही हूँ तुम्हारा पथ
सच कह रही हूँ पैसे की जरुरत नहीं है
अब सोना भी नहीं मांगती
आ जाओ ! बेकार में क्यों परेशान होते हो

जानती हूँ जितना तुम कमाते हो
उतना सब कबीर की भेंट चढ़ जाता है. अब कबीर के नाम पर लड़ना नहीं
दूध और ट्यूशन का पैसा तो मैं ही पूरा करती हूँ
मैं और मेहनत करुँगी
ओ मोरे बासंती बालम !
तुम्हारे प्यार में मैं मजदूरिन सी कमसिन हो आयी
देखो न !

तुमने ही कमाने से रोक दिया था
जानती हूँ जरुरत में दो हाथ मिलें तो
तो….क्या…..
घरबसता है बुद्धू !

मोरे बासंती पिहू !
हम लड़कियां कमजोर नहीं होती
न ही होती हैं लकड़ियाँ
बस हमें कह कहकर कमजोरी का काढ़ा पिला दिया जाता है
समय समय पर सर्दी की आग बना
ताप लिया जाता है
जियत मरत घूंट घूंट कर पीती हैं हम
काढ़ा और सर्दी

कहाँ हो!बासंती बालम
तुम्हारी याद सता रही है
अबकी बार वीकेण्ड पर भी मिलना नहीं हुआ

बसंत 

ओ मेरी चन्द्रवर्णी प्रियतमा
बसंत आ गया है
सरसों पियरा गई है
तुम्हेंमटर काटने जाना है

पिछले कई सालों से
तुम्हारे जूड़े और खेत से जूझते हुए
तुम्हारी चोटी नहीं संवार पाया

हमकिसान ऐसे मनाते हैं बसंत
मिलजुल बोते हैं
रखवाली में जागते हैं सारी सारी रात

बसंत भी तो यही करता है
फुरसत के पलों में
देहसे लिपटकर
काट लेता है एक फसल

ओमेरी चन्द्रवर्णी प्रियतमा
इस बार हम दोनों की सावधानी से
उगेंगी अच्छी फसलें

सुनो कात्यायनी

सुनो! उतारता हूँ सब तीर, धनुष, गांडीव
कवच कुंडल
सब तुम्हारे निमित्त था
वन प्रांतर, साम्राज्य की इच्छा
सत्ता के लोलुप दोस्त
सब छोड़ता हूँ अब

ये घोड़ो की टापें नहीं चाहिए
यह पीठ पर लदी जीन भी
सब कुछ तुम्हारे निमित्त रहा
हजारो किलोमीटर का भटकाव
तुम्हारी यादों के साथ
अब नहीं चाहिए कुछ

कह दो राजाओं ने छोड़ दिया सिंघासन कीइच्छा
कुछ खास करने का लोभ त्याग दिया
अब वे नीले आसमान के तले
कुछ न पाने की कसम खायेंगे

जो कुछ था वह तुम्हारे निमित्त था
घन गरजता था
बारिस की बूंदें उठती थीं
वन प्रांतर महकता था
सब कुछ तुमसे संदर्भित था

तुम नहीं तो विराग की यह रात किस काम की

सुनो चारुशीला

मैं तुम्हें तुम्हारी गंध से नहीं पहचान सकता
न तुम्हारे आम्रकुचों से जान सकता हूँ
तुम्हारे मन की अमराई
हाँ तुम्हें छूता हूँ तो इस बात से बेखबर
कि तुम एक देह हो
मद और पसीने से लथपथ

तुम्हारा स्वाद कितना खट्टा है
यह विषय बहुत गूढ़ है
कितना नमक बचा है तुम्हारी नाभि में
यह भी जानना कठिन है
कितनामीठा,तीखा, कसैला एवं कड़वा है
तुम्हारी इस रंग का स्वाद
कह नहीं सकता

मैं यह स्वीकारता हूँ
तुम्हारी अमूल्य प्रतिभा ने किया है प्रभावित
तुम्हारी कविताओं किताबों ने जादू बिखेरा है
तुम्हारी छवियों से होता हूँ प्रभावित
तुम्हें मंचों पर देखकर खुश होता हूँ
पर यह भी स्वीकारता हूँ
तुम्हारा लावण्य भी खींचता है उससे तेज

दुनिया की कोई किताब
मेंहदी की कुछ पंखुरियां जो छोड़ जाती है लाल निशान
वही रंग है आज मेरे मन का
मेरा मन लाल है
तुम चाहो तो छू सकती हो अपनी देह से
मेरे मन के लाल आन्तरांग

किताब में नहीं है
गुलाब में नहीं है
चम्पा,बेला, जूही, रोज़ी, लिली,
यासमीन, सुंबुल, नर्गिस
कहीं नहीं है इस मन की भावना

जो है सो देह में है
तुमभी देह में हो
तुम्हारा मन भी देह में है
देह में ही है सब सुनो

तुम्हें तुम्हारे ही हाथों ने छुआ होगा बार बार
तुम्हें कई और हाथों ने सहलाया होगा कई बार
इस बात से अंजान कि तुम सिर्फ देह हो
सिर्फ मिट्टी

देह से उपजता है प्रेम
देह से उपजती है गंध
देह से उपजता है एक नरक
जो जीवन देता है
तुम वही नरक हो सुनो चारुशीला

मुझे नरक अच्छा लगता है
तुम्हारी देह भी
और वह मुझे उसी तरह पसंद है
जैसे जीवन

मैं तुम्हें तुम्हारी गंध से नहीं पहचान सकता
न तुम्हारे आम्रकुचों से जान सकता हूँ
तुम्हारे मन की अमराई
हाँ तुम्हें छूता हूँ तो इस बात से बेखबर
कि तुम एक देह हो
मद और पसीने से लथपथ

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ISSN 2394-093X
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