कलाकारों की कल्पना में कैद स्त्री, कलाकारों के सौन्दर्यबोध की कसौटी स्त्री, कलाकारों के रंगों के लिए कैनवास पर वस्तू बनकर बिखरती स्त्री, सदियों से अपने आप को रंग, शब्द, रूपों के सम्मुख परोसती आयी स्त्री, गढी
गढायी मिथक को तोडकर, खुद रंग की तूली को अपने हाथ जब लेती है तो नया इतिहास ही कैनवास पर बिछलने लगता है। रंगों को अपने हिसाब से वस्तु के चुनाव का छूट मिलने लगता है। स्त्री संबंधी, कल्पित मानित स्वरूप, अपने बदलाव के लिए जब छटपटाने लगें, तब स्त्री की मानसिकता अपने ही ढंग की स्पेस को पाने के लिए,कैनवास पर अपने ही अंदाज में लकीरों एवं रंगों में ढालने के लिए सम्मुख आती है। स्त्री कलाकार के हाथों ने, याने वुमेन आर्टिस्टों ने, जब से रंग की तूली संभालना प्रारंभ किया तबसे परंपरागत, पुरूष केन्द्रित कला और सौन्दर्य बोध के मानदंड, अपने आप टूटने लगे हैं, बखरने लगे हैं ।
परंपरा का कैनवास, जिस पुरूष सत्तायी दृष्टिकोण के रंगों और लकीरों को आकार स्वरूप देते आया था, स्त्री की कला में प्रवेश ने, उन सारे पुरूषप्रधान मानसिकता रूपी कलात्मक कसौटियों को अपने ही अंदाज में पुनः परिभाषित करने लगा और प्रश्नांकित भी करने लगा। चित्रकला में स्त्री के प्रवेश से जो नये सजे सजे कैनवास उभरने लगे, वे ही आज के स्त्री कलाकारिता के नये अंदाजो बयाॅं हैं !!, उसके अपने सुख दुख हैं, उसके अपने सपने हैं उसके अपने होने हैं। अर्थात वुमेन आर्ट, वह दुनिया है जहाॅं स्त्री अपनी ही आॅंखों से दुनिया देखती है, परखती है, अपनी संवेदना और सोच को लकीरों में उभारकर उसमें अपने ही अंदाज में, रंग भरती है। उसकी कला वह सच्चाई है, जिसे खुद उसका ज़मीर कल्पना और मिथक में बंधकर कैनवास पर फैलता है।
उसका आर्ट वह यथार्थ है, जिसे स्वयं उसकी संवेदना, उसका आंतरिक संघर्ष, उसके अपने विश्वास मान्यताएॅं, कैनवास पर के रूपाकार को तराशते हैं, उसमें रंगों का जीवन भरते हैं । वुमन आर्ट यानी जीवन का वह इतिहास जो अब तक लिखा नहीं गया है, मनुष्य संसार का वह वर्तमान, जिसमें पुरूष के साथ साथ स्त्री भी अपना जीवन जीती है साथ साथ भी और साथ रहित भी याने स्वतंत्र और स्वछंद भी । और वुमन आर्ट याने मानवीय जीवन का वह भविष्य है जिसमें स्वतंत्रता के स्वप्न बिखरें है, स्वछंदता के छंद खिले हैं । मुक्ति के गीत गाते हुए, प्रगति के सुर मिलाते हुए…मनुष्य मात्र के ।
चित्रकला में स्त्री के प्रवेश ने कला को जेंडर पहचान दिलाया है और निस्संदेह कला को एक प्रत्येक दृष्टि और आधार भी प्रदान कराता है। स्त्री केवल देह बनकर जहाॅं पुरूष के कलात्मक विज़न के कैनवास पर वस्तूगत आधार की लकीरों को अपने जिस्म के कोरों और आकारों में उभरता हुआ महसूस करती थी, वही स्त्री अपनी कला की तूली को स्वयं अपने हाथ पकडकर, अपनी आर्ट द्वारा, देह के परे भी अपने अस्तित्व के होने की उसकी अपनी निजी अस्मिता के वस्तुता के तात्पर्य को प्रस्तुत करने लगी। साथ ही अपनी कला में जीवन के उन बारीकियों को भी उभारने लगी जो पुरूष दृष्टि से वंचित रहे थे, या यूॅं भी कह सकते हैं कि जो अबतलक पुरूष संवेदना के चौखटें से बाहर पडते रहे थे ।
यॅूं तो भारतीय संदर्भ के, पुराण कथाओं में, इतिहास प्रसिद्ध प्रेम कथाओं में नायिका के हाथों रंग की तूली का होना, और वह अपनी प्रेमी की कल्पना में डूबी होकर, रूमानी कलाओं के चित्रों को और चित्र परिसर को उकेरने के दृश्य वर्णन मिलते जरूर हैं । यानी, प्राचीन काल से, चित्रकला स्त्री के सोलह कलाओं में एक बनकर प्रस्तुती पाते आती रही है। लेकिन यही चित्रकला, स्त्री के जीवन में, गुण से भी आगे बढकर, एक प्रोफेशन के रूप प्रवेश पाने का इतिहास, आधुनिक युग की देन है । यूॅं तो लोक कलाओं का इतिहास रचा ही है स्त्री के हाथों ने। लेकिन स्त्री का एक कलाकार बनकर पुरूष की तरह उभरने का इतिहास बहुत पीछे का नहीं है । भारत में लगभग स्वतंत्रता पूर्व के संदर्भ टैगोर के परिवार में, अपने भाइयों के साथ अपनी चित्रकला को रखने का धैर्य दिखाया था सुनयना देवी ने । उसके बाद हम कुछाध नामेां को गिना तो सकते हैं जैसे अमृता शेरगिल्, अंजोली इला मेनन्, अर्पिता सिंग, नीलिमा शेख … इत्यादि ।
लेकिन लगभग १९७० के बाद, स्त्रियों का दखल चित्रकला में विशेषतया देखा जा सकता है। स्त्री कलाकार भी पुरूषों की तरह एकल शो करने का धैर्य दिखाने लगी, कला समीक्षक भी स्त्री की कला को विशेष अंदाज में देखने परखने लगे , उसकी प्रत्येकता को पहेचानने लगे, और इसी संदर्भ में हम कुछाध स्त्री साहित्यकार एवं कवियों को भी देख सकते हैं जिन्होनें, अपनी शब्द साधना के साथ साथ रंगों और तूली के माध्यम से भी अपनी भावना एवं विचारों को अभिव्यक्ति दी है। इस कोटी के कला साधकों में हम महादेवी वर्मा का नाम बडे ही विश्वास के साथ ले सकते हैं । बहुत सी स्त्रियों का हम, आर्ट कैंपों को, गैलरियों को संस्थाओं को चलाने का अद्भुत योग्यता और प्रतिबद्धता को रखता हुआ देख सकते हैं ।
स्वतंत्र, व्यक्तिगत चित्रसाधना के साथ साथ आज बतौर शिखा और शैक्षणिक कोर्सों द्वारा स्त्रियों का कला के क्षेत्र में अपना हुनर आजमाना,उत्तर आधुनिक युग की पहेचान बन रही है । शैक्षणिक संस्थाएॅं, काॅलेज और विश्वविद्यालयों में पुरूष कलाकारों के साथ स्त्री को भी अपनी कला को, शिष्टबद्ध अभ्यास और ट्रेनिंग के माध्यम से निखारने का, हर आधुनिक जीवन के माॅंग के मुताबिक अपनी चित्रगत अभिव्यक्ति को शिद्धत से संवारने का समान स्पेस और मौका मिल रहा है । आज चित्रकला को स्त्रियाॅं , बतौर प्रोफेशन के रूप में निस्संकोच अपना रही है । पुरूषों के साथ साथ भी, और विशेषतया, स्त्रियों के लिए ही, अलग से आर्ट कैंपों का संयोजन करते हुवे, वुमेन आर्ट ओरिऐंटेंड वर्कशाॅपों को चलाने के माध्यम से शैक्षणिक संस्थाएॅं , कला अकादमियाॅं और विश्वविद्यालयों के विजुवल आर्टस् के विभाग, कला के क्षेत्र में स्त्रियों को विशेष अवसर और जगह प्रदान करने के प्रयत्नों में जुटे हुए हैं ।
ऐसे ही प्रयत्नों के चलते, गुलबर्गा विश्वविद्यालय में स्थित, विजुवल आर्टस् का विभाग, कर्नाटक ललित कला अकादमी के सहयोग से, फरवरी 2015 मेंअखिल भारतीय महिला आर्ट कैंप का आयोजन किया था। देश के विविध भागों से आयी वुमेन आर्टिस्टों की तूली से निखरे चित्र, उनकी संवेदना कल्पना के रंगों से सजे संवरे कैनवास, कुछ अलग ही दास्तां बयां कर गयीं ….
‘‘आर पार है इस जहाॅं आसमान की जिंदगी … ऐ मेरे साथी…. मेरे गुइंया….. बस एक मुठ्ठिी भर का अहेसास !! मुझे भी जीने दे.. रंगों का इतिहास … अपनी बयां का ….मुझे भी रचने दे !!
1 . मुक्ता अवचट शिरके (पूना, महाराष्ट्र)
बच्ची की मासूमियत बच्ची के जुबान !! बच्चियों की मासूमियतता, उनका अगाध विश्वास, हर बाहरी व्यक्ति या वस्तू, जो कोमल है सुंदर है उसे अपना लेने की अपना मान लेने की अगाध मुग्धता को अपने कैनवास में कैद करने के लिए उठायी गयी मुक्ता अवचट शिरके की तूली, इस पेंटिंग में बोल रही है । उडती तितलियाॅं, तितलियों के उडान की चंचलता, रंगीन पंखों के खुलने और बंद होने की आॅंख मिचैली । मुग्ध कोमल बच्चियों का लुभावना रूप और उन तितलियों को देखने की सहज आतुरता, मुक्ता अवचट के रंगों द्वारा आकार पायी है । मुक्ता द्वारा कैनवास पर उभरे ये रंगहमें कहीं दूर ले जाकर,भारतीय बच्चियों की मासूमियता को बचाने की, उनकी टिमटिमाते आॅंखों की रोशनी और कदमों की फुदकनी को तितली के मानिंद संजोये रखने की सौगात तो नहीं दे रहे हैं …… ?
2 . डाॅ शुभ्रा चंद (गाजियाबाद, यूपी)
लगभग 25 सोलों से रंगों के मार्फत अपनी पर्यायी दुनिया को बसाने वाली, रंगों और तूलियों के आयाम से मन की बातों को कैनवासों पर फैनानेवाली डाॅ शुभ्रा चंद, अपने अमूर्त चित्रकारी याने, एब्स्ट्राक्ट आर्ट के लिए पहेचानी जाती रही है । गोल्ड धातू बेशकीमती भी है और औरतों का मनपसंदीदा लोहा भी । जहाॅं सोना औरतों के श्रृंगार के आभूषणों के हेतू अनेक सुंदर आकर्षक आकारों में ढलता है, वहीं वह अर्थ का पर्याय बनकर भी प्रस्तुत होता है । डाॅ शुभ्रा लगभग, गोल्ड के इस धातूयी अस्तित्व और चमक को अपने कैनवासपर कलर एफेक्ट के लिए बरबस उपयोग करती हैं । जैसे सोने की आभा, कला की कीमत को बयाॅं कर रही हो !! जैसे कह रही हो art is as valuable … as gold ..!!
3 . कामिनी बाघेल (झाॅंसी)
ग्रामीण औरतों का जीवन, उनके अपने विश्वास, उनके अपने जीवन मूल्य मान्यताएॅं, उनकी अपनी आशाएॅं उनके अपने सपने जैसे कामिनी बाघेल की रंगों की दुनिया है । उनके लगभग हर कैनवास पर के चित्र याने, जैसे झाॅंसी की औरतों की कहानी बोल रही हो !! झाॅंसी के औरतों की आशा और बदलाव की चाहत ली हुयी जिज्ञासा और भरोसे मंद आॅंखे, हर अलग और विश्वसनीय पहेल का बाॅडी लैंग्वेज, और हर विरोधों में अपना स्पेस ढॅूॅढ रहे उनके कदम, और इन तमाम संवेदना और शिद्धतों को रंगों में आकार देकर अपने कैनवास को खोलनेवाली कामिनी बाघेल की कला, एक पर्यायी फेमिनिसम् को रूपायित करती है । बाघेल की कला वह है, जहाॅं जेहाद की लडायी लडती केवल औरतें ही हैं ! और वह भी पूरी कद्दावरता के साथ !!
4 . जिज्ञासा ओझा (बड़ोदा )
वर्तमान चाहे बरगद के पेड की तरह अपने फैलाव की बाहें चारों ओर पसारे खडे क्यूॅं न हो, लेकिन परंपरा और संप्रदाय है कि, बीज की तरह ,वर्तमान के रेशे रेशे में घुले मिले रहते हैं, बस आवश्यक है उसे महेसूसने की, उसे संजोने की !!कलाकार जिज्ञासा ओझा अपने नाम की सार्थकता को अपनी कला में देखती है । उनके रंग बोलते हैं ‘‘नानी की कहानी पोती की जुबानी …!! ‘‘ आश्चर्य और जिज्ञासा से लडकी झुककर देखती है अपने वर्तमान के जडों को और बदले में पाती हैपरंपरा तथा संस्कारों के आधुनिक अर्थ को और मजबूत होता हुआ , और अधिक प्रासंगिक होता हुआ !! tradition & traditional के अद्भुत समीकरण को संजोते हुवे वर्तमान के गणित को हल करने की कला, जिज्ञासा को सिद्धहस्त है। अलग अलग रंगों के शेड्स से संवरे कैनवास पर उभरने जा रहा है मासूम कटे बाल, आधुनिक लिबास के माडर्न ढब की लडकी का ब्रहत् इमेज जो झुककर बडे ही संवेदनीय हाथों से राजस्थानी परंपरा और सांप्रदायिकता के रूप को, जिज्ञासा भाव से देख रही है, उसे सहज स्वीकारते हुवे, झुककर …आश्चर्य की अदायगी के साथ!!
5 . एस्.एम बानू मुनाफ़ (तुमकूर, कर्नाटक)
एस्.एम्.बानू मुनाफ इंडियन ट्रेडिशनल् आर्ट में खासा हस्तक्षेप रखती है । यॅूॅ तो श्रृंगार और प्रसाधन पर हर स्त्री का अधिकार है, वह सजती है अपने लिए, अपने मनभावन के लिए । साज श्रृंगार के अपने रूप और मायने है । कर्नाटक के बेलूर हळेबीडू के मंदिरों की भित्तियों पर खिले शिल्पाकृतियाॅं, स्त्री के इन अद्भुत मनोल्लास के रूप को दर्शाते हैं । बानू का कैनवास उसी औरत के मनभाव को कैद कर रहा है , जहाॅं स्त्री तल्लीन है अपना जूडा बांधने में, लेकिन उसकी देह की भंगिमा, कसक कुछ और ही कहानी केह रहे हैं … ? जैसे वह यह गीत गुन गुना रही हो … सजना है मुझे…सजना के लिए …!! उसकी सजावट, उसका श्रृंगार केवल और केवल उसका है !!
6 . हूमा उल्लाह खा़न (भोपाल)
कैनवास पर जब रंग फैलने लगते हैं तब उसकी तबीयत स्वछंद रहती है … रंग अपने ढंग से आकार लेते जाते हैं…. लेकिन इन फैलते हुवे रंगों का भी अपना दायरा होता है … कैनवास के ये रंग अपने दायरे में , अभिव्यक्ति के अद्भुत लकीरों को चित्रपटल पर बिखेरते जाते हैं .. ! हूमा उल्लाह खा़नके चित्र कला की इसी सच्चाई को दर्शाते हैं । टिंट मीडिया में अपना खासा दख़ल रखने वाली हूमा, रंगों और कैनवास का अत्यंत किफायती उपयोग करते हुवे भी अधिक दूरस्थ की और अधिक गहनस्थता की बातें कह जाती हैं । ब्लाॅंक आंड व्हाइट में खिला उनका यह चि़त्र रंग और तूली की इसी सार्थकता को बताने जा रहा है ।
7 . अंजली एस् अग्रवाल (चंडीगढ़)
यूॅं तो प्रतिबद्ध आर्टिस्ट अपनी हर कलाकृति में अपने सिग्नेचर कोआंकते जाता है , कवियों द्वारा प्रयोगित काव्यनाम या अंकितनाम की तरह । खरगोश अपनी मासूमियत के लिए, कोमलबोध के लिए और निरीहता के लिए भी प्रतीकबद्ध है। अंजली अग्रवाल, खरगोश को आंकते जाती है, कैनवास में अपने सत्यताबोध के अहेसास में, वास्तविक आॅबर्सेशन् के रूप में और जीवन के अहसास के अर्थ में । बौद्धदर्शन को रंगों के माध्यम से रिफ्लेक्ट करने की अदम्य लालसा उनके रंगों और भावों में ध्वनित है । पानी अपने गुण के अनुकूल उूॅंचायी से नीचे की ओर बहता है । जीवन दायिनी स्वरूप को समेटते हुवे, वहीं जीवन विकास की धारा उूघ्र्वमुखी होती है !! मृण्मय जीवन के संघर्षों से उूपर उठकर आध्यात्मिकता या भौतिकेतर जीवन की सच्चायी को छूने की उजास को लिये लिये !! मानवीय विकास के उूध्र्वमुखी जिजीविषा को अपने आगोश में समेटते हुवे !! अपने कैनवास में इसी जीवन विकास और अर्थ की सच्चाई को आंकने में मगन हैं अंजली अग्रवाल ।
8. ज्योति हत्तरकी (गुलबर्गा कर्नाटक)
ट्रेडिशनल आर्ट को समकालीनता के आकार प्रकार में ढालते जाना अपने आप में चुनौती है । पारंपरिक या पौरिणक प्रसंग चरित्रों कोकन्टेंपररी बनाना और कंटेंपररी व्यवस्था या जीवन को पौराणिक रूप या मिथकों के ढब में चित्रित करना ज्योति हत्तरकी की चित्रकला की विशेषता रही है । वह लगभग हर अपने विज़न को फोक याने जनपदीय टच के साथ प्रसुत करते आयी है । उनके कैनवास पर, धार्मिक एवं जातीय प्रतीक चिन्हों का साथ ही आधुनिक जीवन के प्रतीकों का सुन्दर फयूज़न मिलता है । अर्थात ज्योति हत्तरकी बडे ही सलीके से ,जीवन तात्पर्य को पारंपरिक एवं आधुनिकता के समीकरण के रंग एवं चित्रों के बिंबोंद्वारा अर्थ देते जाती है । अर्धनारीश्वर का यह बिंब दांपत्य जीवन की वास्तविकता में सहभागिता के साथ साथ स्त्री और पुरूष के स्वतंत्र अस्मिता को भी चुपके से आंक देता है । अपने हर कलाचित्रों में हत्तरकी, उत्तर कर्नाटक की प्रादेशिक मिट्टी के महेक को लेकर आती है साथ ही जीवन युग्म के सिद्धांत को भी प्रस्तुत करती है ।
गुलबर्गा विश्वविद्यालय के कैम्पस में आयोजित इस महिला कलाकारों के कैप्म में, कुलपति महोदय प्रो जी.आर.नायक ने इन पोट्रेटों को देखते हुवे , सराहनीय प्रतिक्रिया भी दी । कला के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को रेखांकित किया साथ ही बडेही संवेदनीयता के साथ कहा‘‘ कैम्प में भागलेने वाली सारी महिलाएॅं निस्संदेह अपनी अकादमिक और कलात्मक योग्यता के प्रभावी रिज्यूम को ली हुयी हंै, लेकिन इस आयोजन का उपयोग इस अर्थ में हमें, जरूर हो रहा है कि आगे जाकर, इन सभी स्त्री कलाकारों के रिज्यूम में गुलबर्गा विश्वविद्यालय का नाम जुड जायगा !!
देश का इक्कीसवां दशक, नये नये उभरते हुवे महिला चित्रकारों को देख रहा है । विमेन् आर्टिस्ट सारे अवरोधकों को पार कर कैम्पों में ,गैलरियों में, शो आदियों में अपना हिस्सेदारी निभा रही है । स्त्री कलाकारों द्वारा उठाये गये इन तमाम अहम कदमों के बावजूद भी यह प्रश्न जरूर लटका रह जाता है कि ‘ क्या अपने देश में , इन महिलाओं की कला के लिए पुरूष के समानांतर स्थान है ? क्या देश मानसिकता महिलाओं की कला को भी संजीदगी से परख रही है ? आखिर उसके मेहनत और हुनर का कद्र करना हम जान गये हैं ? कला को चाहने वाले कहीं दूर निगाह में अपने, स्त्री और पुरूष कला रूपी जेंडर विभाजन की रेखा तो नहीं खींच रहे ? और इस मानसिकता के चलते, पुरूष की तुलना में स्त्री की कला को कम अर्थ में (कीमत के रूप में भी) आंकने की बाध्यता तो समाज में नहीं पाला जा रहा ?
कला के क्षेत्र में इस जेंडर पेरैटी को भांपते ,नीलांजना राॅय ने अपने लेख में , इतिहासकार एवं समीक्षक गायत्री सिन्हा को कोट किया है । गायत्री सिन्हा कहती हैं‘‘ यूॅं तो सन् सत्तर के दशक के बाद, स्त्रियों के लिए सारे दरवाजे खुल तो गये और पुरूष के समनांतर ही स्त्री की कला को गैलरियों में और समीक्षा में समान स्पेस तो मिलने लगा है । लेकिन प्रश्न यह लगा ही रहता है कि क्या आज भी स्त्रियों की चित्रकला को वही दाम और वही स्थान मिल रहा है जो पुरूष की कला को प्राप्त है ‘‘ ?
यूॅं तो हर लडायी चाहे वह कला के माध्यम से लडी गयी हो या आंदोलनों के माध्यम से, तात्पर्य तो यही बंधा रहता है कि हरेक व्यक्ति को उसके हिस्से की धूप मिले !! उसके हिस्से की जमीन उसे नसीब हो !! चाहे वह व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष हो । क्यूॅं कि हमेशा कला की लडायी लोकतांत्रिकता मूल्यों की होती है ।
ऐसे आयोजित कैम्पों द्वारा, गैर समानतावादी मूल्यों की सामाजिक प्रतीती संभव हो पाती है, कहीं न कही मानवीय आनंद के रंगों को आंकने के लिए,जीवन का कैनवास बिछते जाता है, या एक बेहतर दुनिया के बसाने के पर्यायी सोच की कल्पना में, अदृश्य हथेलियाॅं कूॅंची धरकर रंग भरने लग जाते हैं, तो समझिये, हम और आपके प्रयत्नों की मेहंदी, रंग चढगयी !!
प्रो. परिमला अंबेकर
हिन्दी विभाग, गुलबर्गा विश्वविद्यालय गुलबर्गा- 06 कर्नाटक