रश्मिरेखा की कविताएँ

रश्मिरेखा

एक कविता संग्रह ‘सीढ़ियों का दुःख’, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. संपर्क : rashmirekhakavi@gmail.com

समय

एक समय वह होता है जो घड़ी बताती है
दूसरा वह जिसे  शब्दों में पकड़ लेते है
इस दुनिया के कुछ खास कवि
स्थिर हो जाता है वह समय इतिहास के बहाव में
घड़ी की टिक टिक की तरह घड़कता है लगातार
हमारी धमनियों के रक्त में
पीढ़ी दर पीढ़ी

इनसे अलग एक समय वह भी है
जो हमारे सपनो में शामिल होता है
जिसके आगोश में रहता है सारा जीवन
हमारी स्मृतियों में भी बचा रहता है वह समय
एक नमी,एक तिनका,एक शाम की उदासी
एक पगडण्डी,एक कुलाँचे भरते हिरन की तरह
स्मृतियों के आकाश में पर फैलाये उड़ते हैं
सपनों के परिन्दे तमाम उम्र

आज जब सूचनाओं को बदला जा रहा है
हमारी स्मृतियों में
शब्दों के घोसले में दुबक रहे हैं सपने
इच्छाएँ अपनी जगह तलाश रही है
अफ़रा तफ़री के इस माहौल में।
बड़ी मुश्किल से सुनाई देती है
समय की फुसफुसाहट
वे कुछ जो देख पा रहे हैं फिर भी
समय के आईने में उसका चेहरा
वे हैरान परेशांन है इस खबर से
सपने और स्मृतियाँ भी
खरीद फ़रोख़्त की वस्तुऍ हैं
और
जज़्बात बाज़ार की एक पसंदीदा चीज़

रचना का सफ़र 

समय पंख समेत उतर गया था
समुन्द्र किनारे
डूबकर हो रही थी उससे बातचीत
जहाँ पानी पर थी लगातार हवा की कारीगरी

ख़ामोशी में भीतर की दबी आवाजें
घोल रही थी खाने में नमक का स्वाद

आसमान में भरा था डब डब पानी
नम हवा के असर में थी पत्तियाँ
पक्षियों की आवाजाही के बीच
कूँची में खास रंग लिए सूरज आ गया था
बहुत पास चाँद के घर में
जहाँ बह रही थी नदी
नींद में पानी का संगीत लिए
गुफाओं में बन रहे थे गीले भीत्ति चित्र
परछाइयां भी डूबने लगी थी साथ साथ
इस जीवंत और साँस लेते संसार में
नहला रही थी तरह तरह की आवाजें
इबादत की तरह दीख रहे थे
सफ़ेद पंखों पर मचलते नीले अक्षर
शाम के रंग भींगने लगे थे
नाव रह रह कर थरथरा रही थी अथाह जल मे
मानो अपनी कविता की कुछ पंक्तियां

साभार गूगल

लुकाठी

छह सौ साल बाद
अचानक जगह जगह
सेमिनारों में मौसम कबीर हो रहा है
मेरी आँखों के आगे और स्याह होता जा रहा है अँधेरा

बुनकर बस्तियों में बेकार पड़ा है कबीर का करघा
और भारत के बाजारों में,दुकानों में
सज गए है विदेशी कपड़ों के थान
ठीक मस्जिद की बग़ल में है
मेरा किराये का मकान
लेकिन मेरे कान नहीं सुन पाते है अज़ान
मंदिर की ईमारत मैं दूर से ही  देख लेती हूँ

मुझमें नहीं बची है
बहुरिया की बेचैनी
अपने राम को पाने की

इस मौसमी बारिश की टप टप में
मुझे याद आ रही है
छह सौ साल पुरानी कबीर की वह लुकाठी
वह न होती तो शायद कबीर न होते कबीर

जैसे सभ्यता की शुरुआत हुई होगी
आग के आविष्कार से
कुछ वैसे हो मेरे लिए कविता
कबीर की लुकाठी से

वे जो दंगा फ़साद करते है
अपने पड़ोसियों का घर जलाते है
अक्सर राख के ढेर  में तब्दील कर देते है
वर्णहीन बस्तियाँ
उन्हें कैसा मालूम हो सकता है
कबीर की लुकाठी का मतलब

दूसरों का नहीं
सिर्फ अपना घर जलाने के लिए
किया था कबीर ने
जिस लुकाठी का आविष्कार

पहरुए

पहरे की सबसे ज्यादा जरुरत होती हैं
पहरुए को लोकतंत्र में

पहरुए अपने चेहरों की हिफाज़त में
इस्तेमाल करते हैं कई कई मुखौटे
प्रान्त के पहरुए से अधिक जादुई है
देश के पहरुए का नकाब

पहरे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है
पहरुए को
जब वह पिकनिक मनाता है
झरने के पास शिलाखंड पर पर बैठकर
खेलता है शतरंज
पहरुए की रखवाली करते है पहरुए
पहरे पर पहरा
लोकतंत्र मे पहरुए की हकीक़त

बचे रहें पहरुए
बिगड़ जाय भले देश का नक्शा
सभी दिशाओं में फैला है
उनके भीतर का भय
लोकतंत्र के पहरुए तेज रफ़तार से
दौड़ा रहे है कागज़ी  घोड़े
धरती पर खुले आम चल रही है ज़ंग

बाँधते हुए हवाई पुल
पहरुए फ़तह करते रहे हैं हवाई किले

छत

किराये के मकान से भी आँखें देख लेती है आकाश
देखते हुए आकाश आँखें बन जाती हैं आकाश
कई तरह की छतों के साये में एक के बाद एक
कई तरह की छतों में अपने को बदलती
अपने लिए एक अलग छत की तलाश में
जुटी रही ज़िन्दगी तमाम उम्र

एक ऐसा दरवाज़ा होता जहाँ सिर्फ़ अपनी दस्तक होती

आज कितना मुश्क़िल होता जा रहा है
इतने बड़े भूमंडल में
बचाये रखना एक कोना
जहाँ सर पर अपनी छत हो और
उस छत से उड़ान के लिए एक आसमान

याद आती है बचपन की वह छत
जहाँ ढेर सारे सपनें देखे
मीलो लंबी चहलकदमी की
चाँद से की जी भर बातें
आँगन की कैद से ली मुक्ति
जुलूस में हुए शामिल

आज अदृश्य होते जा रहे हैं वे माथे
जिसपर कई बार त्योरियाँ पड़ जाया करती थीं

क्या कभी संभव है
स्मृतियों की बस्ती में मिल पाना
बचपन का वह खोया रास्ता
जिसपर चलते हुए
सिर पर महसूस करती थी छत

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ISSN 2394-093X
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