हिन्दी के बहुपठित कथाकार उदय प्रकाश की कहानी ‘ पीली छतरी वाली लडकी’ जब पहली बार कथा मासिक हंस में प्रकाशित हुई , तो हिन्दी कथा परिदृश्य में व्यापक हलचल हुई – प्रशंसा और हमले की बाढ़ सी आ गई थी. इस कहानी की ताकत इसपर होने वाले हमलों की पृष्ठभूमि से बनती है , क्योंकि यह एक ऐसी प्रेमकथा है , जो हिन्दी विभागों , विश्वविद्यालयों और हिन्दी पट्टी के स्वभाव में शामिल जातिवाद के खिलाफ एक कालजयी कथन की तरह घटित हुई है. निसस्न्देह जब जड़ता पर प्रहार होता है, तो वह बदले में ‘प्रतिप्रहार’ भी उतना ही तेज करती है. जब यह धारावाहिक प्रकाशित हुई थी, तब मैंने कॉलेज की पढाई ख़त्म की थी, विश्वविद्यालय में जाने ही वाला था, बाद में जिस विश्विद्यालय का छात्र हुआ , वह हिन्दी के लिए ही स्थापित है, शायद इसीलिए वहां इस कहानी में उपस्थित जातिवाद और क्रूर, और घृणित रूप में दिखा . कहानी यथार्थ और जादुई यथार्थ के साथ हमारे समय के सच के रूप में घटित होती दिखी.
पहले पाठ के बाद कहानी में जातिविहीन नायक( कहानी में उसकी जाति का उल्लेख नहीं हैं , लेकिन उसका लोकेशन ब्राह्मणवाद विरोधी है ) राहुल के द्वारा ब्राह्मण नायिका अंजलि के साथ आक्रामक यौन संबंध स्त्रीवादी आलोचना के नजरिये से स्त्रीविरोधी दिखा . सवाल बना कि क्या नायक अपनी पीड़ा और अपमान का बदला एक जाति की स्त्री के प्रति हमलावर होकर लेने का सन्देश तो नहीं दे रहा है ! लेकिन नहीं, वह व्याप्त जातिवादी / ब्राह्मणवादी अन्याय के प्रति आक्रोश से बनी अपनी ‘ कुंठा’ से तत्क्षण बाहर आकर लडकी के प्रति प्रेम और स्नेह से भर उठता है –प्रेम ही जातिरूढ़ समाज का सफल प्रतिकार हो सकता है. तब तक नामदेव ढसाल की कविता के भीतर आक्रोश और उसके व्यक्त करने के स्टाइल से मैं परिचित नहीं हुआ था. ‘दलित –जीवन’ के दंश, जीते हुए हर पल के अपमान और उपेक्षा के खिलाफ विश्वकवि ढसाल न सिर्फ ‘ पैंथर आन्दोलन’ के रूप में आक्रामक प्रतिकार के साथ सक्रिय हुए, बल्कि आक्रोश और आक्रामकता , जिसका अंतिम लक्ष्य करुणा और समता था के साथ वे अपनी कविताओं में भी प्रकट हुए हैं . उदय प्रकाश की कहानी में यह प्रसंग मेरे सामने नामदेव ढसाल की कविता की तरह अब खुलता है – यद्यपि ढसाल और उदय प्रकाश का जातीय लोकेशन सर्वथा भिन्न है – और उदय जी का नायक भी गैरद्विज दलित नहीं , जातिहीन नायक है – अपनी प्रिय कहानी का बार –बार पाठ नए अर्थ –सन्दर्भों के साथ खुलता जाता है .
इन दिनों इस कहानी को पढ़ते हुए हालांकि एक बात खटकती है और कहानीकार के आज के लेखन और चिंतन को देखते हुए ऐसा लगता है कि शायद वे आज, जब इस कहानी को लिखें तो वे भी उन प्रतीकों से परहेज करें , जिसे उन्होंने तब अपनाया था. कहानी में बुराई और जातिवाद के प्रतीक के तौर पर मिथकीय चरित्र ‘ रावण’ को और उससे संघर्ष करते हुए मिथकीय चरित्र ‘राम’ को प्रतीक के तौर पर बार –बार पेश किया गया है . ऐसा इसलिए कि रावण की जाति ‘ ब्राह्मण’ बताई जाती रही है. हालांकि कहानीकार इस बात से जरूर वाकिफ हैं कि रावण और राम के चरित्र का पुनर्पाठ दलित अस्मिता किस तरह करती है. बहुपठित कथाकार से रामकथा के वैकल्पिक पाठ अछूते नहीं होंगे – कहानी के शिल्प में ही मौजूद व्यापक फलक पर फ़ैली जानकारियाँ तो कम से कम कथाकार को यह छूट नहीं दे सकती कि वह दलित अस्मिता के द्वारा ‘ रावण –राम’ मिथ के पुनर्पाठ से खुद को अलगा ले.
कहानी का अंत सुखद है . विश्विद्यालय कैम्पस के युवा जातिवादी , नस्लवादी समूह से सफल लड़ाई लड़ते हैं. अपने करियर को दांव पर लगा कर , यातना सहते हुए भी एक बड़े कॉकस से वे मुठभेड़ करते हैं. नायक –नायिका अपने सफल प्रेम की यात्रा पर अपने मित्रों की मदद से निकल जाते हैं . हालांकि सुखद अंत के पूर्व एक भयावह स्वप्न दृश्य भी नायक के सपने के साथ उपस्थित होता है, जो पाठकों के को दुःख और क्षोभ से भर देता है. लेकिन अंत सफल प्रेम संघर्ष के रूप में होता है , ट्रेन की गति के साथ सारी बुराइयों, जड़ताओं और मक्कार परिवेश को पीछे छोड़ते हुए. कहानी के इस सुखद अंत से अधिक क्रूर है यथार्थ , जो अंत के पूर्व के भयावह स्वप्न दृश्य तक ही घटित होता है – उदाहरण के लिए जाति-पंचायतों के सामने निरीह जोड़ों की कहानियाँ हमारे सामने हैं . कहानी में यथार्थ स्वप्न में घटित होता है और मारे जो रहे प्रेमी युगलों के बावजूद प्रेम कहानियों की निरंतरता के सत्य की तरह स्वप्न (यूटोपिया) यथार्थ में घटित है . यही कहानी की सफलता है.
दैनिक भास्कर से साभार