बनारस घराने की अंतिम ठसक का विदा-लेख

अभिषेक श्रीवास्तंव 


बुधवार की शाम बनारस बेचैन था और कलकत्ता मौन। काल के निरंतर प्रवाह में सदियों से ठिठके हुए ये दो शहर जो हमेशा ही जुड़वां नज़र आते रहे, आज इनका दिल जुड़ा गया था। विदुषी गिरिजा देवी- बहुतों के लिए अप्पाजी- जा चुकी थीं। ”बाबा विश्व नाथ, गंगा और गिरिजा” की तिकड़ी टूट चुकी थी। बिस्मिल्लाह खां जि़ंदा होते तो उनके लिए बनारस में जीने की एक वजह आज कम हो गयी रहती।

बीते दिनों कई फ़नकार हमारे बीच से गये। जगह खाली होती रही। गिरिजा देवी का जाना एक बड़े-से खोखल का अचानक पैदा हो जाना है। उस खोखल में कुछ चीज़ें रह-रह कर चमकती हैं। गूंजती हैं। मसलन, उनके करीने से संवारे हुए झक सफेद केश। बिलकुल एमएस सुब्बु लक्ष्मी के जैसे। उनकी अलग से दमकती लौंग। बिलकुल बेग़म अख़्ंतर के जैसी। गाते वक्त उनकी मुख-मुद्रा की दृढ़ता और स्वर के माधुर्य के बीच जो विपर्यय पैदा होता, ऐसा लगता कि यह तो उस्तााद बड़े गुलाम अली खां का हूबहू संस्करण है। वे जब बीच में गायन रोक कर समझाती थीं, तो ऐसा लगता था गोया पूरी दुनिया उनकी शागिर्द है और वे प्राइमरी की मास्टर।

यह कला में आस्था से उपजा ‘कनविक्शन’ था। इसी ने उन्हें गढ़ा था। इसी कनविक्शन ने बेग़म अख़्तर को भी गढ़ा। शादी के बाद दोनों का निजी जीवन बहुत त्रासद रहा था। उस दौर में जबकि औरतों का सार्वजनिक रूप से गाना ठीक नहीं समझा जाता था, गिरिजा देवी ने एक परंपरागत हिंदू परिवार की बेडि़यों से कैसे मोलभाव किया होगा, यह केवल सोचा ही जा सकता है।

आम तौर से हम लोग जब किसी कलाकार के बारे में बात करते हैं तो उसकी कला तक खुद को सीमित कर लेते हैं। अमूमन श्रद्धांजलि देना कलाकार की उपलब्धियों को गिनवाने का पर्याय बन जाता है। कम ही देखा जाता है कि उसकी कला के अलावा पूरी की पूरी जिंदगी ही अपने आप में एक उपलब्धि हो सकती है। कलाकार की पृष्ठभूमि पर बात करना तो लगभग वर्जित ही हो चला है।

ऐसे में यह बताया जाना ज़रूरी है कि गिरिजा देवी के पिता भले रसिक रहे हों, लेकिन वे बनारस के जिस परिवार और बिरादरी से आती थीं वह बनारस घराने की ब्राह्मणवादी परंपरा का प्रतिनिधि नहीं था। वह याचक नहीं था। वह शासक था। कहने को तो पूरब अंग के प्रतिनिधि छन्नूलाल मिश्र भी हैं, लेकिन उन्हें  आज तक शास्त्रीय परंपरा में रामकथा वाचक से आगे की शोहरत नहीं मिल पाई तो इसकी वजह जातीयता की जड़ों में है।

संगीत समाजशास्त्रीय विवेचन के बगैर अधूरा है। ये बातें स्मृतिशेष में वर्जित मानी जाती हैं, लेकिन गिरिजा देवी के गायन में मुख-मुद्रा की ठसक और कालांतर में पति के निधन के बाद कृष्ण पक्ष की ओर उनका रुझान समझने के लिए ज़रूरी हैं। उन्हें ऐसे ही ‘क्वीन ऑफ ठुमरी’ नहीं कहते। जिस खूबसूरती से वे झूले में बंदिश और ठुमरी की मुर्कियों को निभाती थीं, कोई सहज ही प्रश्न कर सकता है कि उन्होंरने आरंभिक जीवन में खयाल गायकी को क्यों नहीं अपनाया। वास्तरव में बार-बार उनसे यह सवाल पूछा गया है। इसका जवाब बनारस घराने की ब्राह्मणवादी परंपरा से विक्षेप में है। इस पर आगे भी बातें होती रहेंगी।

वे कलकत्ता में रहकर बनारस में एक अदद संगीत अकादमी खोलने के प्रयास में जुटी रहीं। सरकार ने बरसों जमीन नहीं दी। आज भी कोशिश चल रही है। बनारस से उनका प्रेम भाव कभी रत्ती भर कम नहीं हुआ। हां, इस बार कुल 22 साल बाद वे संकटमोचन संगीत समारोह में हिस्सा लेने आई थीं। यह अपने आप में दर्ज की जाने वाली बात है। कुल दो दशक से ज्यादा वक्त तक वे इस पारंपरिक आयोजन से दूर रहीं। यह केवल छह महीने पहले की बात है। रह-रह कर सवाल उठता है कि क्यां उन्हें अपनी रुख़सती का इल्म  हो गया था?

वे अपनी पीढ़ी की आखिरी फ़नकारा थीं जो रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी देवी और बेग़म अख्तर की विरासत को अपने भीतर संजोए हुए थीं। जिनके भीतर एमएस सुब्बु लक्ष्मी के भी दर्शन होते थे। जिनके स्वर में राम नहीं, कृष्ण पक्ष हावी था। जहां बनारस घराने के ब्राह्मणवाद की याचना नहीं थी, ठसक थी। वह ठसक, वह टनकार, एक अफ़सोस की तरह अब रसिकों के दिलों में पैबस्त, है। वे कलकत्ता, से आखिरी बार बनारस आ रही हैं। कभी न लौटने के लिए। इस ढहते हुए प्राचीन शहर में एक संगीत अकादमी का खुल जाना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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