बेंगलुरू: धिक्कार है! लड़कियों की संख्या से आपत्ति है!!(लड़कियों के लिए हाई कट ऑफ़ मामला)


किस-किस तरह से लड़कियों को रोकेंगे? उन्हें गर्भ में आने से रोकेंगे, गर्भ में आ गई तो पैदा होने से रोकेंगे, पैदा हो गई तो जीने से रोकेंगे, जी ली तो पढ़ने से रोकेंगे, पढ़ ली तो आगे की पढ़ाई नहीं होने देंगे, आगे की पढ़ाई कर ली तो उच्च शिक्षा से रोकेंगे…और आधुनिकता का छद्म आवरण ओढ़कर रोकेंगे…तथाकथित सभ्य समाज का पैहरन ओढ़कर रोकेंगे, और तो और, बड़े भले और भोले बनकर रोकेंगे… इस तरह के हथकंडे अपनाना अब बस कीजिए… वर्ष 1848 में ही सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए पहला स्कूल चलाकर पुरुषी सामंती व्यवस्था से लोहा लेने का बल दिलवा दिया था और आज वर्ष 2019 है…अच्छे बनने का स्वाँग छोड़ दीजिए और लड़कियों की रेखा काटने के बजाय अपनी रेखा बड़ी करने की जुगत कीजिए।


वर्ष 2014-15 में, भारत में, उच्च शिक्षा में, सकल नामांकन अनुपात (जीईआर, सकल नामांकन का सामान्य अनुमान लगाने के लिए नामांकित किए गए छात्रों की कुल संख्या तथा संबंधित आयु-समूह के व्यक्तियों की कुल संख्या का अनुपात ज्ञात किया जाता है।) के अनुसार कम से कम 1.4 करोड़ लड़कों ने स्नातकपाठ्यक्रमों में दाखिला लिया था (लड़कियों की तुलना में करीब 17.5 फीसदी अधिक), स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम में लड़कों की संख्या 0.16 करोड़ थी जो किलड़कियों की तुलना में 61 फीसदी अधिक थी लेकिन तब किसी के दिमाग में इस तरह का कोई ख्याल नहीं आया था कि लड़कों के लिए कट ऑफ़ अधिक कर दिया जाए ताकि लड़कियों की संख्या समान हो जाए लेकिन अब कहीं घुप्प अंधेरे में उजाले की कोई पतली किरण दिखी है, जहाँ उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या अधिक हो रही है तो विकास के चक्र को फिर उल्टा घुमाने के लिए लड़कियों के लिए कट ऑफ अधिक किया जा रहा है ताकि लड़कों-लड़कियों का अनुपात सही बना रहे मतलब अधिक लड़कियाँ, अधिक पढ़ाई न करें, लड़कों के मुकाबले तो ज़रा नहीं और इस तरह का तथाकथित शानदार विचार किसी पिछड़े राज्य या कस्बे में नहीं आया है बल्कि विकसित कहे जाते कर्नाटक के हाई टैक बैंगलुरू में आया है। यहाँ के एमईएस पीयू कॉलेज में विज्ञान संकाय के लिए लड़कों के लिए कट ऑफ़ 92 प्रतिशत है, जबकि लड़कियों के लिए 95 प्रतिशत है। वाणिज्य लेने वाले लड़कों के लिए कट ऑफ़ 92 प्रतिशत है जबकि लडकियों के लिए कट ऑफ़ 94 प्रतिशत है। क्राइस्ट जूनियर कॉलेज में विज्ञान के लिए लड़कों के लिए कट ऑफ़ 94.1 प्रतिशत है जबकि लड़कियों के लिए यह 95.1 प्रतिशत है। यहाँ वाणिज्य लेने वाले लड़कों के लिए 95.5 प्रतिशत है जबकि लडकियों के लिए कट ऑफ़ 96 प्रतिशत है। कला संकाय के लड़कों के लिए कट ऑफ़ 84.5 प्रतिशत है तो लड़कियों के लिए 89.2 प्रतिशत है। क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के कुलपति इसे इस तरह सही ठहराते हैं कि यह कट ऑफ़ उन्होंने लिंग संतुलन बनाए रखने के लिए किया है। उनके अनुसार यदि ज्यादा कट ऑफ़ नहीं होगा तो कॉलेज में सिर्फ़ लड़कियाँ होंगी। क्राइस्ट यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर फादर अब्राहम, लिंग संतुलन लाने के लिए उच्चतर कट ऑफ़ को सही मानते हैं।

गहन शोक और रोष का विषय है कि यह विषमता केवल तभी कैसे ध्यान आती है जब लड़के पिछड़ते नज़र आते हैं? जब-जब लड़कियाँ पिछड़ी हैं या उन्हें पीछे रखा गया है तब तब तो जेंडर के मुद्दे केवल महिलाओं के मुद्दे माने गए हैं, पूरे समाज के नहीं और इसे राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, 2006 ने इसी तरह स्वीकारा भी है। वर्ष 2005 में जब राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा की रूपरेखा बनी थी तब उसका उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से जेंडर संवेदनशीलता को जगाना था पर क्या ऐसा हुआ? अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा 2015 में किए गए अध्ययन के अनुसार, उच्च शिक्षा में लड़कियों का नामांकन 2014 में 46 फीसदी हुआ। करीब 1.2 करोड़ महिलाओं ने स्नातक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया है लेकिन इनमें से कुछ हीव्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए पढ़ाई करती हैं; 2013 में, नवीनतम वर्ष जिसके लिए आँकड़े उपलब्ध हैं, 600,000 महिलाओं ने डिप्लोमा पाठ्यक्रम में नामांकनलिया। यहाँ तक कि कुछ ही महिलाएँ पीएचडी में नामांकन कराती हैं; केवल 40 फीसदी पीएचडी छात्र महिलाएँ हैं।
2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जारी की गई, उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण के मुताबिक, 2014-15 में, उच्च शिक्षा में 3.33 करोड़नामांकन होने का अनुमान किया गया है, जिसमें से 1.79 करोड़ पुरुष थे और 1.54 करोड़ महिलाएँ। तब किसी के दिमाग में उच्च कट ऑफ़ वाला इस तरह का नायाब विचार लड़कों के संदर्भ में नहीं आया। वस्तुत: ऐसा होना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह मनुष्य होने के नाते सभी के समान होने के अधिकार का हनन है। सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में लड़कियों और लड़कों की समान संख्या बनाए रखने के लिए कर्नाटक राज्य सरकार के पूर्व-विश्वविद्यालय शिक्षा विभाग ने पीयू कॉलेजों को यह दिशा निर्देश जारी किए थे, जिसमें उन्हें सीट-मैट्रिक्स का पालन करने के लिए कहा गया था। यह मुख्यत: इसे सुनिश्चित करने के लिए था कि छात्राओं को निजी और सरकारी कॉलेजों में प्रवेश दिया जाए।
शिक्षा नीति में पिछले तीन-चार दशकों में जेंडर समानता लाने के लक्ष्य को कितनी ही बार रखा गया लेकिन शिक्षा की पहुँच में अभी भी जेंडर असमानता है और यदि कहीं इस असमानता में कुछ अलग और थोड़ा राहत देने जैसा होता है तो सरकारी नीति में लूप होल खोजकर उसे अपने हिसाब से कर लिया जाता है। पूरे देश में एम.फिल, स्नातकोत्तर और सर्टिफिकेट कोर्स को छोड़ कर, हाई स्कूल के बाद से लगभग हर स्तर पर महिलाओं कीतुलना में अधिक युवा पुरुषों की प्रवृत्ति स्पष्ट है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2014-15 में जारी किए गए आँकड़ों के अनुसार, स्नातकोत्तरपाठ्यक्रमों, 49 फीसदी पुरुष और 51 फीसदी महिलाएं हैं। महिलाओं का रुख ह्यूमैनिटीज़ की ओर केंद्रित रहता है, बैचलर ऑफ आर्ट्स (बीए) में 38 फीसदीमहिलाओं ने नामांकन लिया है, इसके बाद विज्ञान और वाणिज्य विषयों में महिलाओं के नामांकन लेने की संख्या अधिक रही है; बीए पाठ्यक्रम के लिए 28 फीसदीपुरुषों ने दाखिला लिया है। करीब 8 फीसदी युवा पुरुष इंजीनियरिंग के स्नातक पाठ्यक्रमों का चयन करते हैं। यह आँकड़ा महिलाओं की संख्या (4.1 फीसदी) सेदोगुना है। प्रौद्योगिकी के स्नातक पाठ्यक्रमों में पुरुष (9 फीसदी) और महिलाएँ (4.5 फीसदी) हैं।
मतलब यदि लड़कों की संख्या अधिक है तो आपको कोई आपत्ति नहीं है लेकिन यदि लड़कियों की संख्या अधिक होने लगी तो आप परेशान हो गए। जैसा कि पूर्व में कहा कि कुलपति जैसा व्यक्ति यह बयान देता है कि ‘ज्यादा कट ऑफ़ नहीं होगा तो कॉलेज में सिर्फ़ लड़कियाँ होंगी’। मतलब पुरुषों की दुनिया में महिलाओं ने कदम रखा तो कई क्षेत्रों में वे अकेली होती थीं, तब आपको समस्या नहीं थी, अब आपको दिक्कत है तो कठोर शब्दों में कहना होगा कि लड़कियों की संख्या नहीं, आपका बयान आपत्तिजनक है। अधिक कट ऑफ़ का हथकंडा लड़कियों के अधिक प्रवेश को रोकना है मतलब उनके शिक्षा के उसी अधिकार का हनन है जो उनका मनुष्य होने का मूलभूत अधिकार है, मतलब यह रवैया पूरी तरह गैर कानूनी है। लड़कियों ने अच्छा प्रदर्शन किया तो उनकी पीठ थपथपाने की बजाए आप उनकी पीठ में खंजर खोंप रहे हैं। हाईस्कूल-हायरसेंकडरी तक अखबारों की सुर्खियाँ होती हैं कि लड़कियों ने बाजी मारी, तो फिर बाजी मारने वाली वे सारी लड़कियाँ कहाँ खो जाती हैं? उन्हें आगे की पढ़ाई करने से रोकने के लिए इस तरह के तथाकथित ‘एलिट’ हथियार अपनाए जा रहे हैं, जिसके लिए कभी सावित्रीबाई फुले ने पत्थर खाए थे, आज पत्थर न फेंककर सभ्य होने का नाटक कर रहे हैं तो इस तरह की नौटंकी बंद कर दीजिए तुरंत…इसे चाहे तो चेतावनी समझ लीजिए लेकिन यह नौबत न आने दीजिए कि कहना पड़े कि लड़कियों की राह काटने की बजाए अपना रास्ता नापिए!

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