चर्चा
वह उसे बहुत पसंद कर रही थी
लगभग चाहने की तरह
और चाहती थी सुकून पाना
चाहने में उसे
पसंद करने में उसे
लौटना ज़िन्दगी में
उसे पसंद करना पूरी तरह
और चाहती थी
सुकून पाना
उस चाहने की चर्चा में
पर हर बार जब वह करीब आती
उस सुकून के
एक नया ज्वालामुखी फुफकारता कहीं पास
जैसे खुरचता हो कोई धरती की रीढ़ को।
हर बात का तराज़ू
उसके साथ की सुबहें
या वो सुबहें जब वो साथ था
कुछ उसकी बातों में आकाश था
कुछ मेरी आँखों में
कुछ आकाश हमारे आगे था
कुछ पीछे
कुछ दायें, बायें, की राजनीति थी
कुछ पत्थर सी कूटनीति थी
कुछ प्रतिध्वनियाँ थीं
प्रतिबिम्ब थे
हर बात की नाप जोख थी
हर बात में तराज़ू।
अब की खिड़की से
बिखेर लेने के बाद
ढेरों ताज़ा लिखावट इर्द गिर्द
पूरी तरतीबी से
अधूरे किस्से
बहसें अधूरी
कागज़ का वह सफ़ेद जो कहीं नहीं मिलता
चमकता सुबह की नीलाभ रौशनी में
जैसे और कुछ नहीं चमकता
और पीताभ हो जब लालिमा
उगते सूर्य की, आज
बिखेर कर कैनवस अधूरे चित्रों के
सूखते रंगों की खुशबू के
सराबोर रंगों की खुशबू में
जब बाकी सब हो नितांत शून्य
देखना अब की खिड़की से
अब के लम्हे से
अतीत को
उसके साथ वाले घर को
प्यार भरी आँखों से
इंतजार भरी आँखों से
तरसती आँखों से
कि उसका जाना हो
सबकुछ का जाना
बेहतरीन हिस्से का गवाना
एक ऐसे अब में रहते हुए
एक हुकुमत के बनाये
ऐसे अब में
जहाँ पुरुष की एक नयी सत्ता हो
तानाशाही तंत्र की गिरफ्त की खिड़की से
देखते हुए उस गुज़रे कल को।
उसकी दराजें
टूटने पर नींद के
पाना हर सुबह
कि गायब अचानक
दराजें क्या, मेजें भी
तमाम कुर्सी
टेबल
आल्मारियां
कमरे में खड़े दो बड़े, बड़े, सूटकेस
या तीन भी
खोले तक नहीं गए
तमाम लगेज, बैगेज
लिविंग आउट ऑफ़ सूट केसेज़
अंग्रेज़ी की उस नफीस कहावत की तर्ज़ पर
जो उसकी वह सहपाठिन
कहा करती थी
जिसके सूटकेस सबसे उम्दा
सबसे नामी ब्रांड के हुआ करते थे
सबसे महंगे
लेकिन उनके वैसा न होने पर भी
उसकी बातों में माद्दा था
‘लिविंग आउट ऑफ़ सूटकेसेज़’ में
अगर खस्ता भी हों सूटकेस आपके
पुराने, घिसे हुए लॉक के
जो अटक जाता हो बार, बार
और कपडे की सूटकेस का ज़िप
जो बुरी तरह अटक जाता हो बार बार
पुराने, घिसे सामानों को खुला छोड़ देने की तरह
खुले सूटकेसेज़ वाले दिनों रातों की तरह
कुछ वैसी ही तर्ज़ पर
‘लिविंग आउट ऑफ़ लौंडरी बास्केट्स’
जो डिमोशन हो
वास्तव में
कि सारी हस्ती सिमट गयी हो
प्लास्टिक के उन डब्बों में
प्लास्टिक के खुले लौंड्री बास्केट्स
ढेरों लिखे हुए रजिस्टर उनमें
थाक रजिस्टरों की
कपड़ों की भी
जिस्ता कागज़ का
लांड्री बास्केट जो बिखरे हों
कमरे में
फर्श पर
तोशक की बगल में
सारा बिखराव फर्श पर
सारी गुजर बसर फर्श पर
एक आन्दोलन के बाद
जिसकी मुहिम हो
हु डज़ द हाउसहोल्ड लांड्री
और बन गया हो वह आन्दोलन
कि तंग कर रहे हों हम आपको
और दायर करें रिपोर्ट आप
मुक़दमा आप
जबकि मारे लड़ाई के
बदहाल हों आप
फटेहाल हों आप
सुस्ता रहे हों
‘किसी तरुवर की छांव में’
मुहावरे की धुन पर
कमरे में किसी
और उस सहपाठिन का ताज़ा बयां आया हो
कि ‘इफ दे लाइक इट’
और ये तय करना मुश्किल हो
कि किस बारे में कहा हो उसने
कहीं लिविंग आउट ऑफ़ सूट केसेज़ का अपना बयां रिवाइज़ न कर दिया हो
या कि लिविंग आउट ऑफ़ लौंड्री बास्केट्स’
पर कहा हो
या कि सुस्ताने पर उसके
जैसे गर्मी में हाँफता हो चीता
लेकिन इफ दे लाइक इट
का उसका जुमला
बहुत प्रसिद्ध हो गया था
ऊँचे ओहदों के सारे अधिकारियों के बीच
ये वो दिन थे
जब उसके तमाम दोस्तों का मूल्य
बहुत बढ़ गया था
वो बहुत लोकप्रिय हो गए थे
बहुत बड़े
और दराजों में चूमकर
रखे जाने वाले कागजों का कोई पता नहीं था।
घास पटाने के मेरे बूट
दूब, तृण, तिनका
निकलता जैसे अंकुर
जैसे धरती के बीज
अम्बर की छाँव
घास जैसे पावन हरित सामग्री
वेदी पर जैसे मंत्र सृजन के
हर रोज़ उगती परत
हर रोज़ बिछती परत
परत गहराती
गहराता रंग
सहज, सुन्दर
ज़िन्दगी का रंग
रंग विस्तार का
विकास का
फैलाव का
गति का
रंग सपनों का
रंग, रंग बदलते अपनों का
नहीं बनता रंग प्रेम का उनके
बनता जाता रंग अनावश्यक सवालों का
पानी, मिटटी, कीचड, कादो
आवश्यक घास उगाने को
कुछ थमाव पानी का, कुछ जमाव पानी का
परहेज़ किसी भी उछाल से
उबाल से
पानी में चलने के बूट उसके
टखनो से ऊपर तक के
दरकार ठहराव की
शांति की
सुखद शामों की
खरीददारी की
घुटने तक के बूट
चमड़े के
जो उसने अबतक नहीं खरीदे
और जब कुछ डोलने लगे
इंच इंच उगती घास
सारे दिन उगती घास
सुबह से शाम तक उगती घास
सारी रात उगती घास
जो बिल्कुल अलग नज़र आती हो
सूरज की बदलती दिशा में
और जज़्ब हो जाने के बाद
सारा पानी
नंगे पाँव खड़े होकर
हरी धरती पर
सूर्य नमस्कार
चन्द्र नमन
अभिवादन दिशाओं का
असीम अनंत का
पूजा प्रकृति की।
पंखुरी सिन्हा को कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2017 का पहला पुरस्कार, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, ‘कोई भी दिन’ , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, मिल चुका है. ‘एक नया मौन, एक नया उद्घोष’, कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार. ‘कोबरा: गॉड ऐट मर्सी’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला. इनकी कविताओं का मराठी, पंजाबी, बांग्ला, अंग्रेज़ी और नेपाली में अनुवाद हो चुका है.