समय के साथ कवियों का वैयक्तिक स्वर सामाजिक होता जाता है। आरंभ में छोटे-मोटे दुख-दर्दों, सहज भावनात्मक प्रतिक्रियाओं तथा अतीत-स्मरण के रूप में लक्षित होने वाली अभिव्यक्ति धीरे-धीरे जटिल होती गई है।
‘दिल्ली’ कविता में दिनकर लिखते हैं-
‘इस उजाड़, निर्जन खंडहर में
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में
तुझे रूप सजने की सूझी
मेरे सत्यानाश-प्रहर में’[i]
शोषक और शोषित की एक लंबी परंपरा इन पंक्तियों में निहित है। कैसे एक तबका उजड़े घर में सुबक रहा है, भूख उसके लिए एक अहम सवाल है, वहीं दूसरी तरफ़ पूँजी से लैस वर्ग बनने-ठनने में विश्वास रखता है और भूख का अर्थ वह अन्य कई मायनों में लेता हुआ मुस्कराता है। राष्ट्रीयता से जुड़े हुए सवालों पर लिखने वाले कवियों के काव्य में गांधी के असहयोग आंदोलन, राष्ट्रीय भावनाओं से युक्त स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं, शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि, मज़दूरों और किसानों के शोषण के प्रति विद्रोह की आवाज़ को बुलंदी मिली, यह वह समय था जब भारत अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा था। इस संग्राम में जुटे भारतीय दो वर्गों में बँटे थे। एक वर्ग गांधी द्वारा बताए सत्य–अहिंसा का मार्ग अपनाकर आज़ादी का स्वप्न देखता था, जिसमें कवि लिखता है-
“चल पड़े जिधर दो डग-मग में,
चल पड़े कोटि-पग उसी ओर।
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि,
गड़ गए कोटि-दृग उसी ओर।”[ii]
यहीं पर एक दूसरा वर्ग था, जो गांधी के सिद्धांतों से असहमत था और क्रांति में विश्वास रख रहा था। दिनकर लिखते हैं-
“ज़रा तू बोल तो, सारी धरा हम फूँक देंगे
पड़ा जो पंथ में गिरि, कर उसे दो टूक देंगे।”[iii]
दिनकर जी का झुकाव यद्यपि मार्क्सवाद की तरफ़ था लेकिन इन्होंने मार्क्सवाद और गांधीवाद के बीच से मार्ग तलाशा, यहाँ ध्वंस का नहीं, निर्माण का स्वप्न और स्वर साकार होता है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय से हिंदी में प्रगतिवादी आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन प्रगतिशील कविताएँ इस संघ की स्थापना से पहले भी लिखी जा चुकी थीं। सोवियत आदर्शों और रूस की क्रांति से प्रेरित लेखकों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस संगठन को बनाया था। प्रगतिवाद जीवन के प्रति एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेकर आगे बढ़ता है जहाँ ईश्वर, आत्मा आदि की सत्ता को अस्वीकार करके भौतिक विधान को स्वीकृति मिली है।
प्राचीन संस्कारों के मोहपाश को काटकर नवीन युग-यथार्थ की चेतना का स्वागत सर्वप्रथम स्वयं छायावादी कवि पंत ने किया था। ‘युगांत’ में इसकी आहट सुनाई देती है किंतु ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की कविताओं में यह स्वर ओजपूर्ण हो उठता है। पंत की कविता की यह नई ज़मीन थी। ध्यान देने वाली बात है कि छायावाद को रहस्यवाद के घेरे में डालकर उसके कई पहलुओं पर चर्चा नहीं हो सकती थी। एक तरफ़ तो छायावाद से शक्ति-काव्य निकलता है दूसरी तरफ़ शक्ति काव्य का ही पर्याय प्रगतिशील कविताएँ भी निकलती हैं जो कि नि:संदेह प्रगतिवादी कविताएँ हैं।
निराला अपनी कविताओं में सामाजिक-दृष्टि का परिचय उस समय दे रहे थे, जब हिंदी में प्रगतिवाद नाम की कोई बात नहीं थी। उनकी ‘भिक्षुक’, ‘दान’, ‘बादल-राग’, ‘विधवा’ जैसी कविताएँ बहुत पहले रची गईं। सन् 1936 में ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘कुकुरमुत्ता’ तथा अन्य रचनाओं के साथ ठोस यथार्थ से बने धरातल की बात करते हैं। 1936 में आईं प्रगतिशील रचनाएँ कहीं न कहीं प्र.ले.सं. से ज़रूर प्रभावित होकर लिखी जाने लगी थीं। बाद में ‘आराधना’ और ‘अर्चना’ के गीतों में निराला की प्रखर सामाजिक चेतना थोड़ा मंद पड़ी, जिसका कारण उनका और उनकी रचनाओं की लगातार उपेक्षा भी मानी जा सकती है। निराला नेहरू से हिंदी साहित्य की प्रगति को लेकर बातें करके भी सामाजिक कुरूपता को मिटाने का प्रयास किए, पर जब नेहरू जी जेल में थे और जनता की हालत ख़राब थी, उन्होंने लिखा-
“मँहगाई की बाढ़ आई, गाँठ की छूटी गाढ़ी कमाई
भूखे नंगे खड़े शरमाए, न आए वीर जवाहर लाल”[iv]
प्रगतिवादी कविता की क्रांति-चेतना राष्ट्रीय-सामाजिक दोनों पक्षों को लेकर चल रही थी। एक तरफ़ यह भावना पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए ललकारती है तो दूसरी तरफ़ सामाजिक दृष्टि से वर्ग-व्यवस्था को ध्वस्त करने का आह्वान करती है।
दूसरे महायुद्ध के दौरान भारत की जनता ने बहुत दुख सहे, साथ ही उसके सबसे सचेत अंश ने पूँजीपतियों और पूँजीवादी नेताओं की नीति भी पहचानी और साम्राज्यवादी दासता से मुक्ति पाने के लिए उसका मनोबल और दृढ़ हुआ। इस स्थिति को केदारनाथ अग्रवाल सटीक ढंग से प्रतिबिंबित करते हैं- ‘जो शिलाएँ तोड़ते हैं’ काव्य संग्रह में देखा जा सकता है। केदारनाथ अग्रवाल उन थोड़े से लेखकों में हैं जिन्होंने स्पष्ट देखा था कि किसान की सामंत विरोधी क्रांति को स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख अंग बनना है। अपने अंचल के किसानों से सीधे अवधी में बात करते हुए उन्होंने ओसौनी का गीत लिखा-
‘दौरी साधौ अन्न ओसावौ अडर उड़ावौ पैरा
ताल ठोंकि कै मारि भगावौ जेते ऐसा गैरा।’[v]
कांग्रेस और मुस्लिम लीग की सक्रियता से जनता में आशा की लहर थी कि देश को स्वाधीनता जल्दी मिल जाएगी। इस धारणा से बहुत दूर केदारनाथ अग्रवाल लिखते हैं- ‘मारि भगावौ जेते ऐरा गैरा’। किसान इनके पहले के कवियों में भी आता है पर अब वह पूरी धमक के साथ केदार की कविताओं में आता है।
केदारनाथ अग्रवाल से पहले नागार्जुन एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में प्रगतिवादी साहित्य में अपनी धाक जमाते हैं। साधारण जन, निरक्षर लोग और कष्ट भोगती जनता की कविता बने नागार्जुन, नागार्जुन ऐसे ही नहीं कहते- प्रतिबद्ध हूँ…आबद्ध हूँ… इनकी प्रतिबद्धता जन के साथ है, जनता के स्वर से स्वर मिलाते हुए नागार्जुन कहते हैं-
‘जन-जन में विद्रोह भरेगी अन्नब्रह्म की माया
गुरबत का मैदान चरेगी अन्नब्रह्म की माया’[vi]
अन्याय का, अन्यायियों का प्रतिरोध करते नागार्जुन कबीर के समकक्ष खड़े जन की बात करते हैं। वे कबीर की ही भाँति बुद्धिजीवियों को खरी-खोटी सुनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते थे- ‘संग तुम्हारे साथ तुम्हारे’ शीर्षक कविता में उन्होंने सर्वहारा वर्ग के लोगों को संबोधित करते हुए लिखा है-
‘पतित बुद्धिजीवी जमात में आग लगा दो
यों तो इनकी लाशों को क्या गीध छुएँगे
गलित कुष्ठवाली काया को/कुत्ते भी तो सूँघ-सूँघकर
दूर रहेंगे/अपनी मौत इन्हें मरने दो…
तुम मत जाया करना….’[vii]
नागार्जुन यथार्थ की ज़मीन पर दृढ़तापूर्वक खड़े होकर समाज और राष्ट्र के सजग पहरुए की भूमिका निभाने वाले रचनाकार हैं। समाज की अराजक स्थिति उन्हें बेचैन कर देती है और व्यक्तिगत मौजीपन, फक्कड़पन कविताओं में भी बिना लाग-लपेट के सब कुछ कह जाता है- “धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश
ओह, यद्यपि पड़ गया हूँ दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज़
धन्य वे जन, वही धन्य समाज”[viii]
इसके अलावा नागार्जुन उन आस्थाओं, क्रांतिधर्मिता, समता, प्रगति और जनवाद से संबंधित आस्थाओं पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी कर देते हैं- “सोचते रहे-सोचते रहे/क्रांति, समता, प्रगति, जनवाद/आजीवन हमने/ इन शब्दों से काम लिया है/वो हमें चेतावनी दे गए हैं…..”[ix]
त्रिलोचन के यथार्थवाद में जैसे शहर से लेकर देहात तक के दृश्यों की विविधता है। त्रिलोचन की अपनी पीड़ा जन की पीड़ा है उनका आत्मसंघर्ष जनसंघर्ष ही है। व्यवस्था बदलने की ललकार उनकी कविताओं में दिखाई देती है। ‘धरती’ कविता में लिखते हैं-
“ओ तू नियति बदलने वाला
तू स्वभाव का गढ़ने वाला
तूने जिन नयनों से देखा
उन मज़दूरों-किसानों का दल
शक्ति दिखाने आज चला है।”[x
त्रिलोचन हों या नागार्जुन इनकी ज़्यादातर विद्रोही और प्रगतिशील कविताएँ आज़ादी के बाद ही लिखी गईं मिलती हैं। त्रिलोचन की कविता पूरी दुनिया की सैरकर फिर दुनिया में आ जाती है। त्रिलोचन अपने पच्चीसवें सॉनेट में अत्यंत बेधक स्वर में लिखते हैं-
“लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा-हा, ही-ही
चहल-पहल थी, सागर और ज्वारभाटा था
जो सुनता था वही थूकता था, यह छी-छी
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती। वे साहित्यकार हैं।”[xi]
मानवीय संकट का तीखा एहसास कराती है यह कविता। खांटी किसान जीवन की सच्चाई और ग़रीबी से पार पाने के लिए किया गया श्रम साथ ही पति-पत्नी की संवेदना, तीनों तत्वों का मिश्रण करते हुए त्रिलोचन लिखते हैं-
“रस्सियाँ भी नगई बरा करता था
सुतली को कातकर बाध भी बनाता था।”[xii]
जीवन-स्थितियों का ऐसा सजीव चित्रण अपने आप में अनोखा है। कथ्य, शिल्प दोनों पक्षों में कविता का कोई सानी नहीं है। त्रिलोचन के यहाँ ‘एक भले आदमी का ईमानदारी से श्रम करते रहना’ ऐसी भलमनशाहत को महत्व दिया गया और एक भोले नगई के माध्यम से पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद जैसे बड़े सवाल बड़ी आसानी से खड़ा करते हैं।
त्रिलोचन कहते हैं ‘मैं जनपद का कवि हूँ’ सचमुच त्रिलोचन को क्षेत्रीय भाषा चौंकाती नहीं लुभाती है। उनकी भाषा भारत के किसान-जीवन की विविध क्रियाओं परिवेश और लोकोक्तियों से स्वरूप ग्रहण करती है-
‘साम्राज्य औ पूँजीवादी
लिए हुए अपनी बरबादी
ज़ोर आजमाई करते हैं
आज तोड़ने को उनका मन
उठकर दलित समाज चला है’[xiii]
इन प्रमुख प्रगतिशील कवियों के पीछे प्रगतिशील लेखक संघ काम कर रहा था और साहित्य में प्रमुख रूप से जनवादी चेतना और फासिज़्म के विरोध के पीछे भी प्रगतिशील लेखक संघ काम कर रहा था। राजसत्ता, राजतंत्र के ख़िलाफ़ जनवादी आवाज़ का उठना ही तत्कालीन स्थिति के आधार पर बड़ी बात थी। 1942 की अगस्त क्रांति, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का रूस समेत मिश्र राष्ट्रों का और एक तरह से ब्रिटिश सरकार का ही पक्ष समर्थन करना, इसी बीच बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, इस तरह देखा जाए तो 1939 से 1946 तक का दौर अनेक प्रकार के जटिल राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों का दौर बन गया। प्रगतिवादी लेखक संघ के मुख्य उद्देश्य में से भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना भी था, जिसके माध्यम से लेखक जनता तक पहुँचकर उनकी समस्याओं पर बात कर सकते थे और उसे अपनी रचनाओं में शामिल कर सकते थे।
रेखा अवस्थी ‘प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य’ पुस्तक में लिखती हैं- “प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से भारतीय जननाट्य शाला स्थापित करने के प्रयत्न शुरू हुए, 1943 में मुंबई (तत्कालीन बंबई) में ‘भारतीय जननाट्य संघ’ की स्थापना की गई। इसके तुरंद बाद कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ के परस्पर सहयोग से देश के कोने-कोने में जननाट्य शाला की शाखाएँ स्थापित करने की चेष्टा होने लगी। इस सदी के पाँचवे दशक में पीपुल्स थियेटर ने नाट्यकला को बल और शक्ति प्रदान की। इस धारा ने हर प्रांत और भाषा को अच्छे नाटककार, गीतकार, कवि और मंच कलाकार प्रदान किए।”[xiv]
यही कारण रहा कि साहित्य की सभी विधाओं में साम्राज्यवाद विरोधी स्वर उठने लगा। प्रगतिवादी कवियों की भरमार सी आ गई, परंतु इनमें से महत्वपूर्ण रूप से नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध का नाम और उनकी चुनिंदा प्रगतिशील कविताओं का ज़िक्र किया जा रहा है। बंगाल की अकाल की त्रासदी पर बाबा नागार्जुन कालजयी कविता लिखते हैं-
“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उनके पास।”
फिर इसी अकाल का दूसरा दृश्य इस तरह से दिखाते हैं-
“दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद”[xv]
सांप्रदायिक उन्मादों पर लिखी गई शमशेर की कविताओं में गहरी तकलीफ़ और तीखे व्यंग्य का युग्म उसे अद्वितीय कविता बना देता है। शमशेर के व्यंग्य का मिज़ाज नागार्जुन से थोड़ा भिन्न है। यहाँ शब्दों की मार थोड़ी बाकी है-
“ये मुल्क इतना बड़ा है/यह कभी बाहर के/
हमले से/न सर होगा/जो सर होगा
तो बस/अंदर के फितने से”[xvi]
शमशेर तार सप्तक के कवि यानी प्रयोगवाद के अंतर्गत माने जाते हैं पर उनके काव्य के कई रंग हैं, उनकी कविताओं में प्रगतिशीलता भी निहित है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। शमशेर को ग़ैर-प्रगतिशील कहने वालों को उनकी यह कविता झुठला देती है-
“फिर वह हिलोर उठी-गाओ!
वह मज़दूर किसानों के स्वर कठिन हठी
कवि हे, उनमें अपना हृदय मिलाओ!
उनके मिट्टी के तन में है अधिक आग
है अधिक ताप! उसमें कवि हे
अपने विरह मिलन के पाप जलाओ!”[xvii]
मुक्तिबोध का नाम आते ही उन्हें नई कविता के खेमे में फिट कर दिया जाता है लेकिन उनकी प्रगतिवादी कविताओं के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता। मुक्तिबोध अपने काव्य नायक को जीवन की यथार्थ स्थितियों विद्रूपताओं, विश्रृंखलताओं का अवबोधन कराकर क्रांति या विद्रोह का रास्ता सुझाते हैं, वे मार्क्सवाद से भी प्रभावित होते हैं और समाज की ख़ामियों को इसी सिद्धांत से दूर करना चाहते हैं पर पूर्णत: मार्क्स के सिद्धांत को अपने काव्य में उतारने से बचते भी हैं। मुक्तिबोध की रचनाएँ यद्यपि आज़ादी के बाद की हैं, पर कुछ एक कविताएँ जो कि प्रगतिशील स्वर के साथ-साथ आज़ादी के पहले के भावबोध को लिए हुए हैं-
“बारह का वक़्त है
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यंत्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त़ है”[xviii]
राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त अवसरवाद, भ्रष्टाचार, पद लालसा, खोखली नारेबाजी आदि को महत्वपूर्ण ढंग से मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं की विषय-वस्तु बनाया है।
युग के यथार्थ की बात करते हुए ‘अँधेरे में’ कविता में लिखते हैं-
“ओ मेरे आदर्शवादी मन/ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!”[xix]
मुक्तिबोध की कविता अद्भुत संकेतों से भरी हर शब्द में चौंकाती है और एक शब्द के नए और कई अर्थ बना जाती है। युग के चेहरे का आइना हैं मुक्तिबोध। ऐसे यथार्थ की बात करते हैं जो आज के इतिहास के मलबे के नीचे दब गया है, मगर मर नहीं गया है-
“कोशिश करो/कोशिश करो/कोशिश करो
जीने की- ज़मीन में गड़कर भी…।
यही नहीं समय का कुचक्र और दहशत को मुक्तिबोध ‘लकड़ी का बना रावण’ शीर्षक कविता में व्यक्त करते हैं.-
हाय, हाय
उग्रतर हो रहा चेहरों का समुदाय
और कि भाग नहीं पाता मैं
हिल नहीं पाता हूँ
मैं मंत्र-कीलित-सा, भूमि में गड़ा-सा
जड़ खड़ा हूँ
अब गिरा तब गिरा
इस पल कि उस पल…[xx]
मुक्तिबोध आदि कवियों के अतिरिक्त अज्ञेय, भारत भूषण अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती आदि भी प्रगतिवादी कवि के अंतर्गत आते हैं।
प्रयोगवादी कविता वस्तुत: मध्यवर्गीय समाज का चित्र है। यह 1943 में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन के साथ शुरू हुआ, इसमें सामाजिक सत्य के बजाय व्यक्तिगत सत्य को स्वीकार किया गया।
डॉ. नगेंद्र ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखते हैं- “ ‘तारसप्तक’ और ‘प्रतीक’ पत्रिका को देखने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनमें संगृहीत या प्रकाशित कवियों के अनुभव के क्षेत्र, दृष्टिकोण और कथ्य एक ही प्रकार के नहीं है, कुछ ऐसे हैं जो विचारों से समाजवादी हैं और संस्कारों से व्यक्तिवादी- जैसे शमशेर, नरेश मेहता आदि। कुछ ऐसे हैं जो विचारों और क्रियाओं दोनों से समाजवादी हैं जैसे- रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध।”[xxi]
प्रयोगवाद के अंतर्गत महत्वपूर्ण कवि के रूप में अज्ञेय को ही जाना जाता है। ‘प्रयोगवाद’ नामकरण को अनुपयुक्त मानते हुए ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय को स्पष्ट करना पड़ा कि ‘प्रयोग का कोई वाद नहीं है… प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, वह साधन है और दोहरा साधन है….’ देखा जाए तो प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता एक-दूसरे से इस तरह बँधे हुए हैं कि इन काव्यधाराओं में एक-दूसरे की काव्य प्रवृत्तियाँ मिली हुई दिखाई दे जाती है। हिरोशिमा कविता लिखते समय अज्ञेय प्रयोगवादी परंपरा से एकदम बाहर दिखते हैं-
“छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-होकर
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।”[xxii]
यही कवि आगे नए उपमानों की बात करता है और नदी के द्वीप की बात करता है यही नहीं चैत की हवाओं से भी रू-ब-रू होता है, ऐसे में अज्ञेय को सिर्फ़ प्रयोगवादी कवि कहकर ख़ारिज कर देना साहित्य–जगत की बहुत बड़ी ख़ामी को दर्शाता है। ज़ाहिर है प्रगतिवादी आंदोलन के माध्यम से साहित्यिक दृष्टिकोण बदला है।
प्रगतिवादी आंदोलन के विषय में कर्णसिंह चौहान लिखते है “तीसरे दशक में उभरा प्रगतिवादी आंदोलन और सातवें दशक में उभरा जनवादी आंदोलन आज़ादी के आर-पार के समय के हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण आंदोलन हैं। एक यदि 19 वीं शताब्दी में शुरू हुए आधुनिक साहित्य की परिणिति है तो दूसरा आज़ादी के बाद साहित्य में उदित प्रवृत्तियों की। ये दोनों आज़ादी से पूर्व और बाद के साहित्य को तार्किक परिणति और व्यवस्था प्रदान करते हैं। इस व्यवस्था से पूर्व के साहित्य को समझने-समझाने में मदद मिलती है। लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि कोई भी कड़ी व्यवस्था और जकड़बंदी स्थिरता और गतिहीनता को जन्म देती है- फिर वह चाहे भाषा का मामला हो या साहित्य का। इसलिए उस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है।”[xxiii]
इस प्रकार आज़ादी के पहले के शुरूआती दौर की कविताएँ सिर्फ़ रस, नायक-नायिका भेद, राजा की स्तुति, भक्ति काव्य इत्यादि तक सीमित रहे, लेकिन इसी दौर के दूसरे खंड में यानी आधुनिक काल की कुछ द्विवेदी युगीन, छायावादी, प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कविताएँ पहले की विषय-वस्तु से हटकर यथार्थवादी घटनाओं का चित्रण करने लगीं और कविता विधा के लिए या कह लीजिए संपूर्ण साहित्य के लिए कुछ लेखकों द्वारा एक मुहिम चलाई गई थी कि साहित्य को वाद, सिद्धांत इत्यादि से दूर रखा जाना ही उचित होगा, ऐसे विचार को त्यागा गया। साहित्य में प्रगतिशील लेखक संघ के आने से प्रगतिवादी आंदोलन होने से कविताओं में पहली बार राजनीति, पूँजीवाद, मार्क्सवाद, साम्राज्यवाद जैसे शब्द को जगह मिली, जिससे नए तरह का आधुनिक साहित्य हमारे समक्ष आ सका। आज़ादी के बाद की कविताओं में जनवादी स्वर को बख़ूबी देखा जा सकता है।
संदर्भ:
[i] संचयिता: रामधारी सिंह ‘दिनकर’, पृ. 50
[ii] सोहनलाल द्विवेदी, साहित्य आकादमी, पृ. 25
[iii] हुंकार, रामधारी सिंह दिनकर, पृ. 42
[iv] निराला रचनावली, खंड 2, संपादक- नंद किशोर नवल, पृ. 132
[v] रूपतरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि, रामविलास शर्मा, पृ. 215
[vi] नागार्जुन: चयनित कविताएँ, संपादक- मैनेजर पांडेय, पृ. 50
[vii] आजकल, संपादक- सीमा ओझा, जून 2011
[viii] प्रतिनिधि कविताएँ, नागार्जुन, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 29
[ix] आजकल, संपादक- सीमा ओझा, जून, 2011, पृ. 14
[x] रूपतरंग और प्रगतिशील कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि, पृ. 282
[xi] कविता की लोक प्रकृति, डॉ. जीवन सिंह, पृ. 120
[xii] ताप के ताए हुए दिन, त्रिलोचन, पृ. 67
[xiii] धरती, त्रिलोचन, पृ. 29
[xiv] प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य, रेखा अवस्थी, पृ. 41
[xv] नागार्जुन प्रतिनिधि कविताएँ, संपादक- नामवर सिंह, पृ. 98
[xvi] शमशेर बहादुर सिंह विशेषांक, उद्भावना, संपादक-विष्णु खरे, पृ. 116
[xvii] वही, पृ. 122
[xviii] चांद का मुँह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृ. 53
[xix] वही, पृ. 268
[xx] वही, पृ. 51
[xxi] हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. नगेंद्र, पृ. 627
[xxii] चुनी हुई कविताएँ, अज्ञेय, पृ. 87
[xxiii] प्रगतिवादी आंदोलन का इतिहास, भूमिका से