बिहार की सावित्रीबाई फुले कुन्ती देवी की कहानी

नवल किशोर कुमार

कुन्ती देवी की कहानी 1930 के दशक के बाद बन रहे नए भारत की कहानी है. इस भारत को बनाने में जिन लाखों अनाम लोगों का योगदान रहा, उनमें से एक कुन्ती देवी भी हैं. 1924 में बिहार के एक छोटे से गांव में सामाजिक रूप से पिछड़े किसान परिवार में पैदा हुईं कुन्ती देवी ने बालिकाओं की शिक्षा के लिए आजीवन काम किया. 8 वर्ष की अवस्था में ही कुन्ती देवी का विवाह केशव दयाल मेहता से हुआ. विवाह के समय मेहता की उम्र 18 वर्ष की थी. इस दंपत्ति को अपनी शिक्षा के लिए बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

नए बन रहे भारत को सबसे अधिक आवश्यकता शिक्षा और स्वास्थ्य की थी अधिसंख्य आबादी इन दोनों चीजों अन्योन्याश्रित चीजों से वंचित थी. निरक्षरता और बीमारियों का बोलबाला था. स्कूल और अस्पताल बहुत कम थे.

नए भारत के निर्माण के लिए आवश्यक था कि समाज में – विशेषकर पिछड़े-दलित समुदायों में जीवन के प्रति अनुराग उत्पन्न हो. यह तभी संभव है जब लोग स्वस्थ और शिक्षित हों, विशेषकर महिलाएं और बच्चे प्रसन्न हों. इस कमी को पूरा करने के लिए कुन्ती देवी ने नालंदा जिले के कतरीसराय और इसलामपुर कस्बे में 1930 के दशक में बालिकाओं के लिए स्कूल की स्थापना की, जबकि उनके पति केशव दयाल मेहता ने वहीं ‘भारतेंदू औषधालय’ बनाया. इन सबके पीछे उनका मकसद था – सामाजिक व लैंगिक भेदभाव की बीमारी का उन्मूलन तथा एक स्वस्थ भारत का निर्माण.

इस किताब में कुन्ती देवी-केशव दयाल मेहता की पुत्री पुष्पा कुमारी मेहता ने अपने माता-पिता की जीवनचर्या के बहाने भारत के निर्माण की जटिल प्रक्रिया को अनायास तरीके से दर्ज किया है. यह एक ऐसी कहानी है, जो अपनी ओर से कुछ भी आरोपित नहीं करती.

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प्रस्तुत है इस किताब के कुछ अंश :

स्त्री शिक्षा और जनस्वास्थ्य के लिए कुन्ती देवी और उनके पति केशव दयाल मेहता की पहल

केशव दयाल मेहता जी ने स्त्रियों को उत्तम शिक्षा देने के विचार से पत्नी कुन्ती देवी जी को शिक्षक-प्रशिक्षण दिलवाने का विचार किया. कुन्ती देवी भी इस विचार से सहमत हुईं. मेहता जी के आग्रह करने पर उनके माता-पिता एवं सासु मां-श्वसुर जी ने भी इस राय में अपनी सहमति दे दी. इस प्रकार कुन्ती देवी जी को साथ लेकर मेहता जी 1939 ई. में गया जिले के ‘पंचायती अखाड़ा’ शिक्षक-प्रशिक्षण महाविद्यालय गये. वहां औपचारिकता के सभी नियम पूरा करते हुए उसी शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में देवी जी का नामांकन करवा दिया. देवी जी ने उस प्रशिक्षण महाविद्यालय के छात्रावास में रहकर दो वर्षों का प्रशिक्षण की उपाधि प्राप्त की. मेहता जी हर कदम पर उनका साथ देते रहे.

इधर इस बीच मेहता जी की एक चाची (छोटी मां) ने 1939 में एक बच्ची को जन्म दिया, पर दुर्भाग्यवश बच्ची के जन्म के कुछ ही दिनों के बाद बच्ची की मां का आकस्मिक निधन हो गया, उस नवजात बच्ची का नाम ‘जानकी’ रखा गया. जानकी से 4-5 वर्ष बड़ी एक और बहन थी, जिसका नाम उर्मिला था. यहां पर यह भी ज्ञात करना आवश्यक है कि चन्देश्वर और जनार्दन जी, उर्मिला जी एवं जानकी के सगे बड़े भाई थे. अपनी मां के निधन के बाद ये चारों मासूम बच्चे अनाथ हो गए. सबसे अधिक समस्या नवजात जानकी के लालन-पालन की आयी. बड़ी बहन उर्मिला भी अभी छोटी ही थी, अतः इन दोनों की देख-भाल, पालन-पोषण का भार मेहता जी की पूज्या मां जी ने अपने कंधों पर लिया.
इधर मेहता जी वैद्यक औषधियों का निर्माण करते एवं असाध्य से असाध्य रोगों से पीड़ितों की चिकित्सा करते रहे. असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति भी मेहता जी के अमृततुल्य औषधियों से लाभ उठाते रहे. उधर इस बीच देवी जी का शिक्षक-प्रशिक्षण का कार्य 1939-1941 ई. में सम्पन्न हो गया, अतः मेहता जी उन्हें पुनः कतरी सराय ले आये.

मेहता जी के बड़े भाई ईश्वर दयाल मेहता जी को अपने छोटे भाई को हमेशा कतरी सराय में रहते रहना उचित नहीं लगा, इसलिए उन्होंने कतरी सराय जाकर मेहता जी को इसलामपुर जो कि मेहता जी के पैतृक गांव बेले से 6 मील दूर पश्चिम है- वहां जाकर रहने, पीड़ितों (रोगियों) की चिकित्सा करने, सेवा करने एवं देवी जी को ‘स्त्री शिक्षा’ देने की सलाह दी. मेहता-दम्पत्ति अपने बड़े भाई के विचारों से सहमत हुए और मेहता जी अपने सास-श्वसुर की अनुमति लेकर देवी जी को साथ लेकर इसलामपुर चले आये.

मेहता दम्पत्ति के इसलामपुर लौट आने के पूर्व ही मेहता जी के बड़े भाई ईश्वर दयाल जी ने मध्य (बीच) इसलामपुर के संगत नामक स्थान के पास एक मकान किराये पर ले रखा था, जो कि माधो राव नामक व्यक्ति का था, वे जाति से तेली थे. उसी मकान में मेहता दम्पत्ती ने अपनी एक नई जिन्दगी शुरू की. वह बहुत पुराना मकान था, कुछ ईंटों (पक्का) से बना था, कुछ मिट्टी (कच्चा) का बना हुआ था.

वहां पर मेहता जी ने उत्तम एवं शुद्ध औषधियों के निर्माण हेतु किराये का अन्य कमरा लेकर उसमें एक-दो गायें पालने का प्रबन्ध कर लिया, जिनके शुद्ध दूध, घी, मूत्र आदि से अनेक प्रकार के औषधियों के निर्माण करने में सहयोग-मिलने लगा. गायों की देखभाल तथा औषधियों के निर्माण कार्य बच्चे-बच्चियों के साथ ही देवी जी भी अथक परिश्रम करके पूर्ण सहयोग देती थीं. इस तरह मेहता जी बच्चों एवं पत्नी के सहयोग से जड़ी-बूटियों आदि से बड़े-बड़े लोहे एवं मिट्टी के बर्तनों में के असाध्य रोगों की चिकित्सा के लिए च्यवनप्राश, दशमूलारिष्ट, अशोकारिष्ट, त्रिफलाचूर्ण, शीतोपलादि चूर्ण, लाल दन्तमंजन, महानारायण तेल, महाविषगर्भ तेल, चन्दनादि तेल, चन्दामृत रस आदि अनेक प्रकार के औषधियों का निर्माण करते एवं पीड़ितों की पीड़ा की जांच करके उनकी चिकित्सा करते. सुदूर गांव-गांव जाते, पीड़ितों (रोगियों) को इसलामपुर तक आना सम्भव नहीं होता था, क्योंकि आधुनिक युग की तरह उस समय सवारियों की उपलब्धता संभव नहीं थी, अतः मेहता जी स्वयं चार व्यक्तियों के द्वारा ढोये जाने वाली सवारी से (पालकी या खटोली) या निकट के गांवों में स्वयं साइकिल चलाकर जाते थे. इस प्रकार गांवों में पहुंचकर रोगियों की चिकित्सा के लिए उनकी जांच एवं स्वनिर्मित आयुर्वेद की औषधियों से हर प्रकार के असाध्य रोगों की चिकित्सा करते, पीड़ित इनकी औषधियों से अवश्य लाभान्वित होते.

मेहता जी इसलामपुर से पैतृक गांव-बेले साइकिल से ही जाया करते थे. इस क्रम में बीच-बीच में कई गांव मिलते थे, उन गांवों के कुछ निवासियों से अच्छी जान-पहचान हो गई थी, साथ ही बेले गांव के पूर्व जमींदार घराने के प्रतिष्ठित परिवार के ‘रमन महतो’ के बड़े सुपुत्र होने के नाते भी इनकी पहले से ही प्रतिष्ठा बनी हुई थी. उसके बाद वैद्यगिरी (चिकित्सक) का गुण भी इनमें आ गया, अतः अधिकतर गांवों के निवासी अपने एवं अपने परिवार के रोगों के उपचार के बारे में इनसे सलाह लेते एवं चिकित्सा करवाते तथ लाभान्वित होते. बेले गांव से कुछ दूर पश्चिम ‘जैतीपुर’ नामक एक गांव है. वहां एक छोटा सा बाजार है जो कि आस-पास के क्षेत्रों का प्रसिद्ध बाजार है. कुछ वर्ष पूर्व जैतीपुर बाजार में गैर कानूनी तरीके से बंदूकें बनायी जाती थीं. अच्छी-अच्छी अवैध बन्दूकों का निर्माण कर दूर-दराज के क्षेत्रों में भेजी जाता था, जिनका उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों के लोग स्वरक्षा के लिए तो करते ही थे, साथ ही ये बंदूकें डाकुओं एवं आपराधिक तत्वों तक भी पहुंचती थीं. इन कारणों से ‘जैतीपुर’ कुख्यात हो गया था. उस ग्राम में इस्लाम को मानने वालों की संख्या कुछ अधिक है. अतः वहां मेहता जी को एक मुस्लिम भाई से घनिष्ठ मित्रता हो गई. उनका नाम मोहम्मद इब्राहिम था, जिन्हें मेहता जी हमेशा ‘इब्राहिम मियां’ कहकर सम्बोधित करते थे. ‘इब्राहिम मियां’ जी अपने मुस्लिम धर्म की पहचान के मुताबिक अर्थात् परंपरा के अनुसार लंबी-लंबी दाढ़ी रखते थे. वे आयुर्वेद औषघि का ज्ञान रखते थे, साथ ही कुछ औषधियों का निर्माण कर अपने-अपने गांव तथा आसपास के लोगों की चिकित्सा करते थे. इस प्रकार दोनों मित्र एक दूसरे से औषधियों के बारे में राय-मशविरा (विचार-विमर्श) करते. मोहम्मद इब्राहिम मियां के घर के दलान (बैठका) में बैठकर बात करते. इब्राहिम जी भी कभी-कभी इसलामपुर आते और मेहता जी से मिलते थे.

इधर मेहता जी यानी मेरे पिता जी इसलामपुर के संगत के पास माधो साव के मकान में जब रह रहे थे, तब उसी स्थान के पास ‘मंगलचन्द जैन’ के मकान में कमरा किराये पर ले लिया, जिसमें उनकी पत्नी देवी जी अर्थात् मेरी मां स्वतन्त्र रूप से कन्या विद्यालय चलाने लगीं. कुछ समय तक अध्यापन कार्य अकेले चलाती रहीं. फिर बाद में उनकी मंझली (दूसरी) ननद की बड़ी बेटी बिन्देश्वरी इनके यहां आयी, अतः वह भी इनके अध्यापन कार्य में सहयोग करने लगी, भगिनी बिंदेश्वरी सप्तम वर्ग उत्तीर्ण थीं, वे देवी जी की सेवा-सहायता एवं इनके अनेक गुणों से काफी कुछ सीखा. फिर इसलामपुर पक्की तालाब से पूरब में रहने वाली ‘रामप्यारी देवी’ रहती थीं, जो जाति से कहार (रमानी) थीं, उन्हें शिक्षिका कार्य के लिए बुला लिया. उनके पति गोपाल जी बालक मध्य विद्यालय के चपरासी थे. इस प्रकार देवी जी के स्वतंत्र विद्यालय में तीन शिक्षिकायें मिलकर कार्य करने लगीं. देवी जी ने विद्यालय में सिर्फ कन्याओं को ही प्रवेश की अनुमति दे रखी थी. एक बच्ची थी- जिसका नाम सरस्वती था. वे जाति की धोबी थी. अपनी मां की सबसे बड़ी पुत्री थी. उनकी मां अपनी पुत्री सरस्वती को प्रतिदिन स्वयं देवी जी के पास विद्याध्ययन के लिए पहुंचा देतीं, तथा अवकाश के समय स्वयं आकर घर ले जातीं. कुछ दिन यूं ही चलता रहा, अन्त में सरस्वती देवी की मां ने देवी जी से कहा- ‘मेरी बेटी (पुत्री) अब आपकी बेटी है.’ इसे अपने पास रखिये, सिखाइये, आपकी सेवा में रहेगी. देवी जी को उस बच्ची पर ममता हुई, और उसे साथ रखकर शिक्षा देने लगीं.

इस प्रकार समय चक्र चलता रहा. इसके बाद देवी जी के जीवन में चेचरी ननद (जो उनकी पुत्री समान है) जानकी आईं, वह उर्मिला की सगी छोटी बहन है, उस समय वह मात्र 4 वर्ष की रही होगी. देवी जी (अपनी भाभी जी से) शिक्षा ग्रहण करने आ गयीं. इसके बाद देवी जी की दूसरी अर्थात् मंझली ननद की पुत्री (बड़ी) बिन्देश्वरी जी मेरी मां-कुन्ती देवी की शरण में उनसे कुछ सीखने एवं उनकी सेवा करने आ गयीं. बाद में बिन्देश्वरी जी की सगी मंझली बहन बृंदा (बिन्दा) जी आयीं. इन दोनों बहनों की शादी इनके अभिभावकों ने बहुत छुटपन में ही कर दी थी. बिन्देश्वरी के पति शिक्षक थे. बिंदेश्वरी पढ़-लिखकर कुशल गृहिणी के साथ ही एक सफल शिक्षिका बनीं. परन्तु छोटी बहन बृंदा (बिंदा) कुछ माह तक इसलामपुर तथा बेले ग्राम में रहकर लौट गई- बराम सराय अर्थात् अपना मायके. कुछ समय बाद (माह) जब इनकी सगी मौसेरी बहन कुसुम कुमारी के विवाह में (1955 ई. में) सम्मिलित होने पुनः ननिहाल गांव-बेले आईं क्योंकि कुन्ती देवी जी की सगी भगिनी कुसुम का विवाह अपनी ससुराल बेले से ही सम्पन्न हुआ. हां तो, कुसुम कुमारी के विवाह में सम्मिलित होने के बाद से बिंदा अर्थात् 1955 ई. से अपने ननिहाल ग्राम बेले में रह गईं, तथा वहां घरेलू एवं कृषि कार्य में हाथ बंटाने लगीं. इन्हें बचपन से ही खांसी थी, जिसने बड़ी होने पर अर्थात् समय के साथ दमा रोग का रूप ले लिया.

इसलामपुर के इस नये मकान में आने पर उन्होंने आयुर्वेद की औषधियां निर्माण हेतु, हर प्रकार की जड़ी-बूटियों को इकट्ठा करना प्रारम्भ किया. उनको कूटने, पीसने एवं पकाने के लिए खल-मूसल एवं बड़े-बड़े लोहे के बर्तन आदि का प्रबन्ध किया, तथा इतने सब कार्यों को सम्पन्न करने के लिए कुछ सहयोगियों की आवश्यकता का अनुभव किया. अतः इन कार्यों को पूरा करने हेतु कई बच्चे एवं बच्चियों को अपने पास बुलाया, जिनमें कुछ बच्चे परिवार के थे, तथा कुछ बच्चे-बच्चियां दूसरी जाति एवं धर्म के भी थे. मेहता दम्पत्ति के स्वभाव, विचार को देखते हुए अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बनाने के लिए एवं मेहता दम्पत्ति की सेवा-सहायता हेतु कुछ बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों ने स्वयं ही अपने बच्चों को इनके पास पहुंचा दिया. लड़के सब विद्या-अध्ययन करते तथा औषधियों के निर्माण में मेहता जी की सहायता करते एवं बच्चियां घरेलू कार्यों में देवी जी के साथ हाथ बंटाने के साथ विद्यालय जाकर अपना अध्यापन कार्य जारी रख देवी जी से अन्य ‘स्त्री शिक्षा’ प्राप्त करते हुए अपना जीवन उज्जवल बनाने में जुटी रहतीं.

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इस प्रकार मेरी मां (देवी जी) प्रतिपल बच्चियों की कठिनाइयों का ध्यान रखतीं एवं हर समस्या का समाधान बतातीं. इन सभी बच्चे-बच्चियों के कार्यों की कठिनाइयों, समस्याओं को दूर करने में देवी जी को काफी आनन्द मिलता. उदाहरण के तौर पर, वे अपने सभी बच्चों एवं सभी छात्राओं को हमेशा कहतीं कि हर छोटी-बड़ी वस्तुओं को यथास्थान रखनी चाहिए, अर्थात् किसी भी वस्तु या सामान को उसकी आवश्यकता के अनुसार वैसे स्थान पर रखो, जहां से आसानी से मिल सके (दीख सके). फिर उसको काम में लाने पर (उपयोग करने पर) पुनः उसी स्थान पर रखो, जहां से उठाया था, ताकि वह वस्तु हर किसी नये आगंतुक को भी दिशा बता देने पर (ढूढ़ने से) आसानी से मिल सके, और देवी जी स्वयं भी ऐसा ही करती थी, जिससे कम समय में आसानी से कोई भी वस्तु ढूंढी जा सके.

पुरुष शिक्षक का योगदान
कुंती देवी के ‘आर्य कन्या मध्य विद्यालय’में एक पुरुष शिक्षक का योगदान हुआ. वे बी.एससी. प्रशिक्षित विज्ञान शिक्षक के रूप में आये थे. वे गणित के अलावा विज्ञान विषय के भी अच्छे ज्ञाता थे. उनकी वाणी तथा व्यवहार (सबों के साथ) भी बड़ा मधुर था. वे किराये का कमरा लेकर इसलामपुर में रहने लगे. परन्तु विद्यालय चूंकि आरम्भ से ही सिर्फ कन्याओं का था, अध्यापन कार्य करने वाली भी सभी महिला ही थीं, और वे सभी गांवों की रहनेवाली थीं. अतः देवी जी की प्रबल इच्छा थी कि बी.एससी. के पद पर विज्ञान शिक्षिका अर्थात् महिला शिक्षिका का ही योगदान हो. परन्तु ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि उस समय कार्यालय की सूची में बी.एससी. शिक्षिका पद के लिए किसी महिला शिक्षिका का नाम नहीं था. अतः पदाधिकारी को पुरुष शिक्षक को ही आर्य कन्या मध्य विद्यालय इसलामपुर में भेजना पड़ा. वैसे तो अरुण कुमार विद्यार्थी जी बी.एससी. प्रशिक्षित योग्य विज्ञान शिक्षक थे, इसलिए उन्हें छात्राओं को विज्ञान एवं गणित 7वां एवं 8वां वर्ग में अध्यापन कार्य हेतु कार्य-भार सौंपा गया. इसके साथ ही विद्यालय के कार्यालय संबंधी बाहरी कार्य भी बहुधा उनको ही करने के लिए कहा जाता. विद्यार्थी जी सभी कार्य पूर्णतः बखूबी निपटाते भी, फिर भी देवी जी उनके योगदान से भीतरी (हार्दिक रूप से) मन से प्रसन्न नहीं रहतीं. छात्राएं भी विद्यालय में अचानक पुरुष शिक्षक के आगमन से संकोच में रहतीं. उनके आगमन से पूर्व सभी वर्ग की छात्रायें, विशेषकर 7 व 8 वां वर्ग की छात्राएं निश्चिन्त होकर जलपान अवकाश में उछलकूद करतीं; विद्यालय प्रांगण में फुदकती-चहकती रहतीं. पर अब पुरुष शिक्षक पर दृष्टि पड़ते वे शरमा जातीं. वातावरण सामान्य होने में समय लगा. इसी तरह समय बीतता गया. इसके बाद एक और विज्ञान शिक्षक विनोद कुमार जी का योगदान हुआ. वे आई.एस.सी. प्रशिक्षित थे और हां, यहां पर एक बात ज्ञात करना आवश्यक है कि उस समय शिक्षक विभाग में नियम बनाया गया था कि हर कन्या विद्यालयों में एक या दो पुरुष शिक्षक का योगदान होना आवश्यक है, जो कि विद्यालय के बाहरी कार्यों को सुगमतापूर्वक निपटा सके, इन कारणों से भी आर्य कन्या मध्य विद्यालय की प्रधान अध्यापिका जी अर्थात् देवीजी को दो पुरुष शिक्षकों का योगदान स्वीकार करना पड़ा.

नवल कुमार फॉरवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक हैं.


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