उन्होंने उपन्यास भी लिखे हैं और स्त्रीवादी आलोचना की पुस्तकें भी. वे
नियमित तौर पर समसामयिक लेखन भी करती हैं. अनामिका स्त्रीवाद की मुखर
पैरोकार हैं. स्त्रीवाद को वे किसी भी ‘अतिवाद’ से अलग करती हैं और
स्त्री-पुरुष साहचर्य, सहज संबंध की वकालत करती हैं. उनका कहना है कि पुरुष
को ‘महबूब पुरुष’ बनाने का काम स्त्रियों का है. स्त्रीवाद का है. अनामिका
की किताब ‘स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष’ भारतीय परिवेश में स्त्रीवादी
सैद्धांतिकी की किताब है. इसमें वे स्त्री-पुरुष के सहज संबंध का लक्ष्य
स्त्रीवाद के सामने रखती हैं और साथ ही स्त्रियों के बीच ‘वैश्विक सखियापे’
का आदर्श भी. स्वतंत्र मिश्र से उनकी बातचीत. [साभार: तहलका ]
आपकी किताब ‘स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष’ भारतीय परिवेश में
स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी को समझने-समझाने की एक पहल है. लेकिन क्या
आपको नहीं लगता कि यहां स्त्रीवाद अंतिम औरत से कट गया है और यह घोर
अकादमिकता का शिकार हो गया है?
मध्य वर्ग को मैं एक हाइफन की तरह देखती हूं. वह एक पुल की तरह है. मध्य
वर्ग को निम्न वर्ग की दिक्कतें मालूम हैं और उच्च वर्ग का विलसित बिखराव
भी. यह सही है कि मध्य वर्ग के पास शिक्षा पहले आई. यह भी सही है कि उसे यह
समझने में बहुत समय लग गया कि उसकी तात्विक परेशानियां क्या हैं. अपने ही
वर्ग चरित्र से बाहर आने में उसे बहुत समय लग गया. किसी भी सोए हुए को जगने
के बाद उठकर बैठने में और फिर दूसरों को जगाने में थोड़ा समय तो लगता ही
है. गहरी नींद में सोए व्यक्ति को यह लगता है कि पहले मैं जग जाऊं फिर
दूसरे को जगाऊं. यह प्रक्रिया स्वाधीनता आंदोलन के समय से ही शुरू हो गई
थी.1920-30 के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में स्त्रियों को चौकस
करने वाली बातें लिखी गई हैं. महादेवी वर्मा ने चांद पत्रिका के अपने
संपादकीय में यही सब तो लिखा है. मेरा मानना है कि गरीबी का चेहरा स्त्री
का चेहरा है. इसे रूपक की तरह देखना चाहिए कि जो भी वंचित है वह स्त्री है.
इसलिए गरीबी से स्त्री कभी कटी नहीं है. पूरी दुनिया में सिर्फ 2.2 फीसदी
संपत्ति स्त्रियों के नाम पर है. जो स्त्रियां कमाती हैं, उसे भी वे अपने
तरीके से खर्च नहीं कर सकतीं. औरतें साइनिंग अथॉरिटी बनकर रह जाती हैं.
इसलिए यह कहना ठीक नहीं होगा कि वे अपनी वंचित सखियों के सुख-दुख से अलग
हैं. अकादमिक स्त्रियों के लेखन में यह अलगाव कहीं नहीं दिखेगा. गांधी जी
के समकालीन लेखकों और लेखिकाओं का लेखन वंचितों को ही समर्पित है. महादेवी
वर्मा का पूरा गद्य वंचितों को ही समर्पित है. आज की महिला साहित्यकारों के
लेखन में भी वंचित तबके की औरतों का दर्द दिखाई पड़ता है.
स्त्रियों
में आपस में खुलकर बतियाने की एक प्रवृत्ति होती है, इसलिए वे किसी से कटकर
रह ही नहीं सकतीं. किसान, दलित, आदिवासी स्त्रियों की कथाएं रिकॉर्ड की जा
रही हैं. उनकी कहानियों को आर्काइव का हिस्सा बनाया जा रहा है. डॉ. मीता
तिवारी जस्सल की पुस्तक अभी-अभी आई है जिसमें लोक गीतों के स्त्रीवादी रंग
का अद्भुत विश्लेषण और अंग्रेजी अनुवाद हुआ है. इसलिए स्त्रीवाद के अंतिम
औरत से कटने की जो बात फैलाई जा रही है वह ठीक नहीं है.
कई लेखिकाएं खुद को स्त्रीवादी न कहलवाने का आग्रह करती हैं. क्या यह स्त्रीवाद को अलगाववाद के फ्रेम में देखने का आग्रह तो नहीं है?
शेक्सपियर के किंग लीयर में बूढ़ा पिता अपनी तीनों बेटियों से पूछता है
कि तुम लोग मुझे कितना प्यार करती हो. बड़ी दो बेटियां बारी-बारी से खूब
ठकुरसुहाती बतियाती हैं. बूढ़े पिता अपनी बेटियों की बात से खुश हो जाते
हैं. इन खोखली बातों की असलियत समझ कर छोटी बेटी बड़े-बड़े बोल नहीं बोलती
और सपाट ढंग से कहती है, ‘पिता जी मैं आपसे उतना ही प्यार करती हूं जितना
मुझे आपसे करना चाहिए. न कम, न ज्यादा.’ कार्डेलीया के इस कथन की त्वरा
(टोन) में ही कुछ लेखिकाओं ने ऐसा कहा है कि मैं अब स्त्रीवादी नहीं रही.
कृष्णा सोबती, मधु किश्वर और मृदुला गर्ग आदि ने ऐसा कहा है. लेकिन ऐसा
नहीं है कि उन्हें स्त्रीवादी दृष्टिकोण से अलग रखकर देखा जा सकता है. वे
पुरुषों के बारे में भी लिखेंगी तो उसमें स्त्री दृष्टि परिलक्षित होगी.
जैसे अपनी चमड़ी से छुटकारा नहीं मिल सकता है वैसे ही लेखिकाओं को
स्त्रीवादी दृष्टिकोण से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. स्त्रीवाद को
संकीर्णता के साथ देखा जा रहा है, जबकि यह तो मानव मुक्ति का आंदोलन है. जो
स्त्रियां अपने को स्त्रीवादी नहीं कहलवाना चाहती हैं, उन सबकी भाषा भी
स्त्रियों की ही भाषा है. स्त्रीवाद को छोटे फ्रेम में नहीं बल्कि बड़े
फ्रेम में देखा जाना चाहिए.
आपने अपनी यह किताब युवा पीढ़ी को समर्पित की है.
जी. मेरी सारी उम्मीद ही युवा पीढ़ी से है क्योंकि पके घड़े पर मिट्टी
नहीं चढ़ती. मेरा सारा समय छात्र-छात्राओं, अपने और मोहल्ले के युवा बच्चों
के साथ ही गुजरता है. मैंने बीजों की पोटली उन्हीं के लिए ली है. मैं
युवाओं की ओर देखती हूं कि उनकी दृष्टि में परिष्कार आया है या नहीं.
हमदर्द का भाव पैदा हुआ है या नहीं. मैं हमेशा कहती हूं कि पूर्वाग्रह एक
किस्म का मोतियाबिंद है. मोतियाबिंद में जैसे साफ-साफ नहीं दिखाई देता है
वैसे ही पूर्वाग्रह से ग्रस्त नजरें चीजों को ठीक से नहीं देख सकती हैं. जो
व्यक्ति अभी देखने को उत्सुक हैं और जो नई भाषा बोलने को उत्सुक हैं, हम
तो उनसे ही संवाद करना चाहेंगे. साहित्य पूर्वाग्रहों के मोतियाबिंद की
सर्जरी तो करता है फिर भी आंखें होते-होते ही ठीक होती हैं.
जिस
’सखियापे’ की चर्चा आप इस किताब में और अपने तमाम लेखन में करती हैं, क्या
वह विभिन्न जाति, वर्ग और नस्ल की स्त्रियों के शोषण, समस्याओं,
चुनौतियों, संघर्षों के एकरूपीकरण का प्रयास नहीं है?
मैं स्त्रीवाद को
मोनोलिथ कतई नहीं मानती हूं. अलग-अलग समस्याएं हैं और उन्हें एक ही लाठी
से हांका नहीं जा सकता. वर्ग सापेक्ष समस्याएं हैं. जाति सापेक्ष समस्याएं
हैं. लेकिन स्त्री शरीर स्त्री शोषण की आधारभूमि है– मारपीट, अनचाहा गर्भ,
अनिच्छा संभोग, गाली-गलौच, ट्रैफिकिंग, पोर्नोग्राफी, डायन दहन, सती दहन,
बलात्कार, भ्रूण हत्या आदि-आदि. स्त्री का पूरा शरीर एक टपकता हुआ घाव हो
जाता है जिसे बहुत मान और ध्यान से छूना चाहिए. शारीरिक हिंसा के इन
संदर्भों में दलित, गैरदलित स्त्रियों में भेद नहीं है. उनके दुखों की
आधारभूमि एक ही है.
आपने इस किताब में लोक चरित्रों, कहावतों और कथाओं से स्त्रीवाद
समझाया है. लेकिन उस लोक से स्त्रीवादी आंदोलन व्यापक स्तर पर कट रहा है.
दोनों का एक-दूसरे के प्रति लगाव नहीं रहा. यह शहरों तक ही सीमित रह गया
है.
यह अभियोग भी गलत है. कैनॉनिकल (शिष्ट साहित्य) और कोलोनियल (औपनिवेशिक
साहित्य) दोनों पर पहला प्रहार स्त्री-विमर्श ने ही किया. मौखिक साहित्य
को सबसे पहले महिलाओं ने तवज्जो दी. लोक गीत, चिट्ठियां, घरेलू बातचीत के
सहज मुहावरे सचेतन रूप में स्त्री साहित्य ने दर्ज किए. भाषा का वितान बड़ा
किया. अगर स्त्रीवाद इतना संभ्रांतवादी होता तब फिर वह इतने सारे स्रोतों
से शब्द नहीं ले पाता. मौखिक साहित्य की तो पूरी बुनियाद ही औरतें हैं.
ऋतु
मेनन और उर्वशी बुटालिया ने विभाजन का इतिहास लिखा. बंटवारे के बाद
स्त्रियों के दर्द का इतिहास तो पूरा का पूरा मौखिक साहित्य ही है.
साक्षात्कार लेना, दादी, नानी की चिट्ठियां उजागर करना, मोहल्ले की
स्त्रियों तक जाना- ये पूरी शोध प्रवृत्ति ही विकेंद्रित करने वाली है. ये
वर्ग चरित्र से बाहर जाने वाली शोध प्रवृत्ति है.