स्त्री रचनाधर्मिता की दो पीढियां .

( दो –दो कवितायें दो पीढियों की कवयित्रियों की.
पूनम सिंह और पूजा प्रजापति की कवितायें. फर्क सामाजिक स्थितियों का  भी है
. )
स्त्री
( दो कवितायें)

पूनम सिंह
                                    

पूनम सिंह
       1.
वह आई थी
 शाम के धुंधलके
में
हताश और बदहवास
उसकी आंखों में
रेत के ढूह भरे थे
उसकी चुप्पी अभेद्य थी
अपने कुंए मे कहीं
गहरी डूबी वह
पानी की देह
जिसके असहनीय भार से
बंह्गी की तरह
झूकी जा रही है वह
यह झूकना
स्त्री होने की बुनियादी शर्त है क्या ?
       2. 
यह अप्रत्याशित था
लेकिन ऐसा हुआ
रेत के ढूह में
आकंठ डूबी वह
पानी की देह
अचानक एक दिन
डाल्फिन की तरह
हवा की लहरों में
डुबकियां लगाती
कलाबाजियां दिखाती दूर निकल गई
समय भौंचक होकर देखता रह गया
स्त्री डाल्फिन कब से हो गई ?
पूजा प्रजापति की कवितायें
 
1.तुम्हारी जिम्मेदारियाँ
पूजा प्रजापति
 
जिन
जिम्मेदारियों
को तुम
बोझ
समझकर
लाद देती हो
किसी
दूसरी स्त्री
पर
चंद रुपये देकर
हमारी
भी
गलती-दुखती
हड्डियाँ
चाहती है
मुक्त होना
तुम्हारे
इस बोझ से
लेकिन
हम चाहकर भी
छोड़ नहीं पातीं
तुम्हारी
जिम्मेदारियाँ
क्योंकि
हम स्त्री नहीं
तुम्हारे
घर की
सिर्फ आया है।
2.घिरते घुमड़ते बादल
आज
मैंने भी देखे
घिरते
घुमड़ते बादल
कालिदास
के मेघदूत
और
नागार्जुन के घिरते
बादलों
की ही भांति।
उन्हीं
बादलों के नीचे
देखी
श्रमजीवियों की वो बस्ती
जिसकी
एक-एक झुग्गी में
7-8
लोग गुज़ारा करते हैं
बारिश
के टपकते पानी में
धूप
की जलाती हुई तपिश में
पसीने
से भरी तीक्ष्ण बदबू में।
वहाँ
बादलों का घिरना
आनंददायी
नहीं हैं
बल्कि
उनके लिए चिंतनीय है
कि
टपकते पानी की बौछारों से
माँ
को, या बाप को, या सोते बच्चे को
किसे
बचाये?
उनके
लिए भीगी मिट्टी की सौंधी सुगंध
लुभावनी
नहीं है, बल्कि वह एक
डर
पैदा कर देती है, मिट्टी के भीतर
छिपे
जीव-जंतुओं के प्रति
जो
घुस सकते है बड़ी आसानी से
उनकी
झुग्गी में
और
कर सकते हैं, किसी को भी घायल।
धूप
उनके लिए सेहतकारी नहीं
क्योंकि
वह बिना रोकटोक के
कर
जाती है प्रवेश उनकी झुग्गी में
और
दे जाती है
उनके
शरीर को घाम और काला रंग।
 आज मैंने भी देखे
घिरते
घुमड़ते बादल
कालिदास
के मेघदूत
और
नागार्जुन के घिरते
बादलों
की ही भांति।

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